Shriman Narayaneeyam

दशक 96 | प्रारंभ | दशक 98

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दशक ९७

त्रैगुण्याद्भिन्नरूपं भवति हि भुवने हीनमध्योत्तमं यत्
ज्ञानं श्रद्धा च कर्ता वसतिरपि सुखं कर्म चाहारभेदा: ।
त्वत्क्षेत्रत्वन्निषेवादि तु यदिह पुनस्त्वत्परं तत्तु सर्वं
प्राहुर्नैगुण्यनिष्ठं तदनुभजनतो मङ्क्षु सिद्धो भवेयम् ॥१॥

त्रैगुण्यात्-भिन्न-रूपं तीनों गुणों के (प्रभाव से) विभिन्नता
भवति हि भुवने होती ही है संसार में
हीन-मध्य-उत्तमं यत् नीच मध्यम और उत्तम वह
ज्ञानं श्रद्धा च कर्ता ज्ञान श्रद्धा और कर्ता
वसति:-अपि सुखं निवास स्थान भी और सुख
कर्म च-आहार-भेदा: कर्म और विभिन्न भोज्य वस्तुएं
त्वत्-क्षेत्र-त्वत्-निषेवा- (किन्तु) आपके तीर्थ और आपकी सेवा
आदि तु यत्-इह आदि तो जो भी यहां है
पुन:-त्वत्-परं फिर केवल भवत्परक (हैं)
तत्-तु सर्वं वह सभी
प्राहु:-नैगुण्य-निष्ठं कहा गया है निर्गुण (गुणों से निर्लिप्त)
तत्-अनुभजनत: वही सब का सम्यक पालन कर के
मङ्क्षु सिद्ध:-भवेयम् शीघ्र ही सिद्ध हो जाऊंगा

इस संसार में तीनों गुणों के प्रभाव से, ज्ञान, श्रद्धा, कर्ता, निवास स्थान, सुख, कर्म और विभिन्न खाद्य पदार्थ आदि सभी नीच मध्यम और उत्तम वर्ग को प्राप्त करते है। किन्तु आपके तीर्थ और आपकी सेवा भवत्परक होने से तीनों गुणों के प्रभाव से रहित अर्थात निर्गुण हैं। उन्ही सब का सम्यक भाव से निरन्तर सेवन करते हुए मैं शीघ्र ही सिद्ध हो जाऊंगा।

त्वय्येव न्यस्तचित्त: सुखमयि विचरन् सर्वचेष्टास्त्वदर्थं
त्वद्भक्तै: सेव्यमानानपि चरितचरानाश्रयन् पुण्यदेशान् ।
दस्यौ विप्रे मृगादिष्वपि च सममतिर्मुच्यमानावमान-
स्पर्धासूयादिदोष: सततमखिलभूतेषु संपूजये त्वाम् ॥२॥

त्वयि-एव न्यस्त-चित्त: आप ही में दत्तचित्त हुआ (मैं)
सुखम्-अयि विचरन् अयि! सुख से विचरन करता हुआ
सर्व-चेष्टा:-त्वत्-अर्थं सभी चेष्टाओं को आपके निमित्त (करता हुआ)
त्वत्-भक्तै: सेव्यमानान्-अपि आपके भक्तों के द्वारा उपभुक्त भी
चरित-चरान्-आश्रयन् (अथवा) रहे थे जिन स्थानों में, रह्ते हुए
पुण्य-देशान् (उन) पवित्र स्थलों में
दस्यौ विप्रे चोर और ब्राह्मण में (भेद न करके)
मृगादिषु-अपि च सम मति:- पशुओं में भी समान बुद्धि रख कर
मुच्यमान-अवमान- त्याग कर मान (अपमान) को
स्पर्धा-असूया-आदि-दोष: स्पर्धा, असूया आदि दोषों (को न देखते हुए)
सततम्-अखिल-भूतेषु सर्वदा समस्त लोकजन में
संपूजये त्वाम् पूजन करूं आपका ही

ऐ भगवन! आपमें ही दत्तचित्त रह कर मैं, सुख से विचरण करूं। मेरी सभी चेष्टाएं आप ही के निमित्त हों। आपके भक्तों ने जिन स्थानों का उपभोग किया हो अथवा जहां वे रहे हों उन्ही पवित्र स्थलों में रहूं। चोर और ब्राह्मण में भेद न करूं। पशुओं में भी मेरी बुद्धि सम हो। मान और अपमान को त्याग कर स्पर्धा, असूया आदि दोषों को न देखते हुए सर्वदा समस्त लोकजनों में मैं आपको ही पूजूं।

त्वद्भावो यावदेषु स्फुरति न विशदं तावदेवं ह्युपास्तिं
कुर्वन्नैकात्म्यबोधे झटिति विकसति त्वन्मयोऽहं चरेयम् ।
त्वद्धर्मस्यास्य तावत् किमपि न भगवन् प्रस्तुतस्य प्रणाश-
स्तस्मात्सर्वात्मनैव प्रदिश मम विभो भक्तिमार्गं मनोज्ञम् ॥३॥

त्वत्-भाव: यावत्- आपके स्वरूपमयता के भाव को जब तक
एषु स्फुरति न विशदं इन सभी जीवों में भासित नहीं होता स्पष्टता से
तावत्-एवं हि-उपास्तिं तब तक ऐसे ही उपासना
कुर्वन्-ऐकात्म्य-बोधे करते हुए एकात्मस्वरूप के अनुभव में
झटिति विकसति अकस्मात प्रस्फुटित होने से
त्वत्-मय:-अहं चरेयम् त्वन्मय (भगवत्स्वरूप) मैं विचरूंगा
त्वत्-धर्मस्य-अस्य आपके (भगवत्धर्म) इसकी
तावत्-किम्-अपि न तब कुछ भी नहीं
भगवन् हे भगवन!
प्रस्तुतस्य प्रणाश:- आरम्भ होने पर क्षति होती है
तस्मात्-सर्व-आत्मना-एव इसलिए अन्तत: ही
प्रदिश मम विभो प्रदान करें मुझको हे विभो!
भक्ति-मार्गं मनोज्ञम् भक्ति मार्ग ही मनोहारी

जब तक इन सभी जीवों में आपकी स्वरूपमयता का स्पष्टतया आभास नहीं होता, मैं इसी प्रकार उपासना में संलग्न रहूंगा, ताकि, अकस्मात आपसे एकात्मस्वरूप के प्रस्फुटित होने पर, मैं त्वन्मय हो कर विचरूं। हे विभो! आपके इस भगवत्धर्म के आरम्भ होने पर, इसकी कुछ भी क्षति नहीं होती, इसलिए, अन्ततोगत्वा, मुझे मनोहारी भक्ति ही प्रदान कीजिए।

तं चैनं भक्तियोगं द्रढयितुमयि मे साध्यमारोग्यमायु-
र्दिष्ट्या तत्रापि सेव्यं तव चरणमहो भेषजायेव दुग्धम् ।
मार्कण्डेयो हि पूर्वं गणकनिगदितद्वादशाब्दायुरुच्चै:
सेवित्वा वत्सरं त्वां तव भटनिवहैर्द्रावयामास मृत्युम् ॥४॥

तं च-एनं भक्ति-योगं और उस इस भक्ति योग को
द्रढयितुम्-अयि दृढ करने के लिए, अयि भगवन!
मे साध्यम्- मेरे द्वारा साधनीय है
आरोग्यम्-आयु:- सुस्वास्थ और आयु
दिष्ट्या तत्र-अपि सौभाग्य से उसमें भी
सेव्यं तव चरणम्- सेवा (करनी) है आपके चरणो की
अहो भेषजाय-एव दुग्धम् अहो! पथ्य स्वरूप दूध ही है
मार्कण्डेय: हि पूर्वं मार्कण्डेय ने पहले
गणक-निगदित- ज्योतिषियों के द्वारा कहे गए
द्वादश-आब्द-आयु:- बारह वर्ष की आयु को
उच्चै: सेवित्वा वत्सरं तीव्र उपासना से वर्ष भर
त्वां तव भट-निवहै:- आपकी, आपके पार्षदों द्वारा
द्रावयामास मृत्युम् प्रताडित की गई थी मृत्यु

ऐसे भक्ति योग को सुस्थिर करने के लिए मुझे सुस्वास्थ-पूर्ण आयु के लिए भी साधना करनी होगी। सौभाग्य से इसके लिए भी आपकी ही उपासना अनिवार्य है। अहो! पथ्य स्वरूप दूध ही है। पहले ज्योतिषियों ने मार्कण्डेय की आयु बारह वर्ष की ही बताई थी। उन्होंने एक वर्ष तक आपकी गहन उपासना की, जिससे आपके पार्षदों ने मृत्यु को भी प्रताडित कर दिया।

मार्कण्डेयश्चिरायु: स खलु पुनरपि त्वत्पर: पुष्पभद्रा-
तीरे निन्ये तपस्यन्नतुलसुखरति: षट् तु मन्वन्तराणि ।
देवेन्द्र: सप्तमस्तं सुरयुवतिमरुन्मन्मथैर्मोहयिष्यन्
योगोष्मप्लुष्यमाणैर्न तु पुनरशकत्त्वज्जनं निर्जयेत् क: ॥५॥

मार्कण्डेय:-चिर-आयु: मार्कण्डेय चिरायु हैं
स खलु पुन:-अपि त्वत्-पर: वह निस्सन्देह फिर भी आपसे उन्मुख
पुष्पभद्रा-तीरे तपस्यन्- पुष्पभद्रा के किनारे तपस्या करते हुए
अतुल-सुख-रति: अतुलनीय सुख से ओतप्रोत
षट् तु मन्वन्तराणि छ मन्वन्तर तक तो (थे)
देवेन्द्र: सप्तम:-तं (फिर) इन्द्र ने सातवें उनके (मन्वन्तर में)
सुरयुवति-मरुत्-मन्मथै:- देवाङ्गनाओं वायु और कामदेव (के द्वारा)
मोहयिष्यन् मोहित करने के लिए (उद्यत) को
योग-उष्म-प्लुष्यमाणै: योग की उष्णता से दग्ध
न तु पुन:-अशकत्- न ही फिर समर्थ हुए
त्वत्-जनं निर्जयेत् क: आपके जनों को जीत सकता है कौन

मार्कण्डेय दीर्घायु हैं, फिर भी वे भवत्परक हैं। छ मन्वन्तरों तक पुष्पभद्रा नदी के तट पर तपस्या करते हुए अतुलनीय सुख में वे रहे। सातवें मन्वन्तर के इन्द्र ने देवाङ्गनाओं शीतल मधुर वायु और कामदेव के द्वारा उनको सम्मोहित करने की चेष्टा की, किन्तु योग की ऊष्णता से दग्ध हो कर वे सफल नहीं हुए। आपके भक्तों को कौन जीत सकता है!!

प्रीत्या नारायणाख्यस्त्वमथ नरसख: प्राप्तवानस्य पार्श्वं
तुष्ट्या तोष्टूयमान: स तु विविधवरैर्लोभितो नानुमेने ।
द्रष्टुं माय़ां त्वदीयां किल पुनरवृणोद्भक्तितृप्तान्तरात्मा
मायादु:खानभिज्ञस्तदपि मृगयते नूनमाश्चर्यहेतो: ॥६॥

प्रीत्या नारायण-आख्य:- प्रसन्न हो कर नारायण नाम धारी
त्वम्-अथ नरसख: आप फिर नर के सखा
प्राप्तवान्-अस्य पार्श्वं पहुंचे उनके (मार्कण्डेय) के पास
तुष्ट्या तोष्टूयमान: सन्तुष्ट हो कर स्तुति की उन्होंने
स तु विविधवरै:- किन्तु वे अनेक वरदानों से
लोभित: न अनुमेने लुब्ध किए जाने पर भी अवहेलना कर दी
द्रष्टुं मायां त्वदीयं किल देखने के लिए माया को आपकी निश्चय ही
पुन:-अवृणोत्- फिर प्रार्थना की
भक्ति-तृप्त-अन्तरात्मा भक्ति से तृप्त अन्तरात्मा वाले वे
माया-दु:ख-अनभिज्ञ:- माया जनित दु;खों से अनजान
तदपि मृगयते फिर भी चाहते हैं (माया के प्रभाव को देखना)
नूनम्-आश्चर्य-हेतो: केवलमात्र जिज्ञासा के कारण

तत्पश्चात नर के सखा नारायण नामधारी आप मार्कण्डेय के पास पहुंचे। अत्यन्त सन्तोष और प्रसन्नता से वे आपकी स्तुति करने लगे। आपने उनको अनेक प्रकार के वरदानों का प्रलोभन दिया किन्तु उन्होंने उन सब की अवहेलना कर दी। फिर उन्होंने आपकी माया देखने की प्रार्थना की। आपकी भक्ति से सुतृप्त होने पर भी मायाजनित दुखों से अनजान होने के कारण केवल जिज्ञासा वश ही वे माया का प्रभाव देखना चाहते थे।

याते त्वय्याशु वाताकुलजलदगलत्तोयपूर्णातिघूर्णत्-
सप्तार्णोराशिमग्ने जगति स तु जले सम्भ्रमन् वर्षकोटी: ।
दीन: प्रैक्षिष्ट दूरे वटदलशयनं कञ्चिदाश्चर्यबालं
त्वामेव श्यामलाङ्गं वदनसरसिजन्यस्तपादाङ्गुलीकम् ॥७॥

याते त्वयि-आशु जाने पर आपके शीघ्र ही
वात-आकुल- (तीव्र) वायु से व्याकुल हुए
जलद-गलत्- बिखरे बादल बरसने लगे
तोय-पूर्ण-अति-घूर्णत्- जल से परिपूर्ण भंवर से पूर्ण
सप्त-अर्णो-राशि-मग्ने सातों समुद्रों की जल राशि में डूब जाने से
जगति स तु जले जगत के, वे भी जल में
सम्भ्रमन् वर्ष-कोटी: भटकते हुए करोडों वर्षों तक
दीन: प्रैक्षिष्ट दूरे क्लान्त (उन्होंने) देखा दूर में
वट-दल-शयनं वट पत्र पर सोते हुए
कञ्चित्-आश्चर्य-बालं किसी आश्चर्यजनक बालक को
त्वाम्-एव श्यामल-अङ्गं आप को ही श्यामल अङ्ग वाले
वदन-सरसिज-न्यस्त- मुखकमल में डाले हुए
पाद्-अङ्गुलीकम् पग की अङ्गुलियों को

आपके चले जाने के बाद शीघ्र ही तीव्र वायु से व्याकुल हो कर बादल बिखर कर बरसने लगे और जल से परिपूर्ण सातों समुद्रों के जलों में उठते भंवर में सम्पूर्ण जगत डूब गया मार्कण्डेय भी उसमें करोडों वर्षों तक भटकते रहे। क्लान्ति ग्रस्त हुए उन्होनें दूरस्थ वट पत्र पर सोए हुए एक अद्भुत बालक को देखा। श्यामल अङ्ग वाले मुखकमल में अपने पग की अङ्गुली डाले हुए वह बालक आप ही थे।

दृष्ट्वा त्वां हृष्टरोमा त्वरितमुपगत: स्प्रष्टुकामो मुनीन्द्र:
श्वासेनान्तर्निविष्ट: पुनरिह सकलं दृष्टवान् विष्टपौघम् ।
भूयोऽपि श्वासवातैर्बहिरनुपतितो वीक्षितस्त्वत्कटाक्षै-
र्मोदादाश्लेष्टुकामस्त्वयि पिहिततनौ स्वाश्रमे प्राग्वदासीत् ॥८॥

दृष्ट्वा त्वाम् देख कर आपको
हृष्ट-रोमा रोमाञ्चित रोम वाले
त्वरितम्-उपगत: सहसा पहुंच कर
स्प्रष्टु-काम: मुनीन्द्र: स्पर्श करने के इच्छुक मुनि
श्वासेन-अन्त:-निविष्ट: (आपके) श्वास से भीतर प्रविष्ट (हो कर)
पुन:-इह फिर से यहां
सकलं दृष्टवान विष्टप-औघं समस्त देखा ब्रह्माण्ड और भुवनों को
भूय:-अपि श्वास-वातै:- फिर से श्वास की वायु से
बहि:-अनुपतित: बाहर आ गिरने पर
वीक्षित:-त्वत्-कटाक्षै:- देखे गए आपके कटाक्षों से
मोदात्-आश्लेष्टुकाम:- हर्ष आवेष से आलिङ्गन करने के इच्छुक
त्वयि पिहित-तनौ आपके अन्तर्धान होने पर स्वरूप के
स्व-आश्रमे प्राक्-वत्-आसीत् अपने आश्रम में पहले के समान स्थित थे

मार्कण्डेय मुनि ने जब आपको देखा, हर्षातिरेक से उनका शरीर रोमाञ्च पुलकित हो उठा। आपके स्पर्श के इच्छुक मुनि सहसा आपके निकट पहुंचे, किन्तु आपके श्वास के साथ आपके भीतर प्रविष्ट कर गए। वहां उन्होने समस्त भुवनों के सहित ब्रह्माण्ड का विस्तार देखा। तत्पश्चात वे आपकी श्वास वायु से बाहर आ गिरे। आपने उनकी ओर कटाक्ष दृष्टि से देखा और हर्षातिरेक से वे फिर आपका आलिङ्गन करने को उद्यत हुए। किन्तु आपका स्वरूप अन्तर्धान हो गया और मुनि ने स्वयं को अपने आश्रम में पूर्ववत स्थित पाया।

गौर्या सार्धं तदग्रे पुरभिदथ गतस्त्वत्प्रियप्रेक्षणार्थी
सिद्धानेवास्य दत्वा स्वयमयमजरामृत्युतादीन् गतोऽभूत् ।
एवं त्वत्सेवयैव स्मररिपुरपि स प्रीयते येन तस्मा-
न्मूर्तित्रय्यात्मकस्त्वं ननु सकलनियन्तेति सुव्यक्तमासीत् ॥९॥

गौर्या सार्धं पार्वती के साथ
तत्-अग्रे पुरभित्-अथ उनके सामने शिव तब
गत:-त्वत्-प्रिय-प्रेक्षण-अर्थी गए, आपके भक्त को देखने की इच्छा से
सिद्धान्-एव-अस्य प्राप्त किए गए ही उनके
दत्वा स्वयम्-अयम्- दे कर, स्वेच्छा से उन्होंने (शिव ने)
अजरा-मृत्युता-आदीन् अजरता अमरता आदि
गत:-अभूत् चले गए
एवं त्वत्-सेवया-एव इस प्रकार आपकी सेवा से ही
स्मररिपु:-अपि शिव भी
स प्रीयते वे प्रसन्न हो जाते हैं
येन तस्मात्- जिससे, उससे
मूर्ति-त्रयि-आत्मक:- त्रिमूर्ति के आत्म स्वरूप
त्वं ननु सकल-नियन्ता- आप ही हैं और सभी के नियन्त्रक (हैं)
इति सुव्यक्तम्-आसीत् यह सुस्पष्ट हो गया

आपके भक्त को देखने की इच्छा से शिव, पार्वती के साथ मार्कण्डेय के समक्ष गए। पहले से ही प्राप्त किए हुए अजरता एवं अमरता आदि वर शिव ने स्वेच्छा से उन्हें दिए और चले गए। इससे यही प्रतीत होता है कि शिव भी आपकी सेवा करने वालों से प्रसन्न होते हैं। और, यह भी सुस्पष्ट हो जाता है कि त्रिमूर्ति के आत्म स्वरूप आप ही हैं और आप ही सभी के नियन्त्रक भी हैं।

त्र्यंशेस्मिन् सत्यलोके विधिहरिपुरभिन्मन्दिराण्यूर्ध्वमूर्ध्वं
तेभोऽप्यूर्ध्वं तु मायाविकृतिविरहितो भाति वैकुण्ठलोक: ।
तत्र त्वं कारणाम्भस्यपि पशुपकुले शुद्धसत्त्वैकरूपी
सच्चित्ब्रह्माद्वयात्मा पवनपुरपते पाहि मां सर्वरोगात् ॥१०॥

त्र्यंशे-अस्मिन् सत्यलोके तीन अंशों में इस सत्यलोक में
विधि-हर-पुरभित्- ब्रह्मा विष्णु और शिव के
मन्दिराणि-ऊर्ध्वम्-ऊर्ध्वं मन्दिर हैं एक के ऊपर एक
तेभ्य:-अपि-ऊर्ध्वं तु उनके भी ऊपर तो
माया-विकृति-विरहित: माया के विकारों से रहित
भाति वैकुण्ठलोक: सुशोभित है वैकुण्ठ लोक
तत्र त्वं कारण-अम्भसि- वहां आप कारणोदक में
अपि पशुपकुले (और) गोप कुल में भी (निवास करने वाले)
शुद्ध-सत्त्वैक-रूपी शुद्ध सत्त्व केवल रूप में
सत्-चित्-ब्रह्म- सत चित ब्रह्म
अद्वय-आत्मा अद्वैत आत्मा स्वरूप में (स्थित हैं)
पवनपुरपते हे पवनपुरपते!
पाहि मां सर्व-रोगात् रक्षा करें मेरी सभी रोगों से

इस सत्यलोक में तीन अंशों में ब्रह्मा विष्णु और शिव के मन्दिर हैं जो क्रमश: एक के ऊपर एक हैं। उनके भी ऊपर माया के विकारों से रहित वैकुण्ठ लोक सुशोभित हैं। वहां कारणोदक में और गोपकुल में भी आप निवास करते हैं। केवल शुद्ध सात्विक रूप में अद्वैत आत्मा आप, सत चित ब्रह्म स्वरूप में वहां स्थित हैं। हे पवनपुरपते! सभी रोगों से मेरी रक्षा करें।

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