Shriman Narayaneeyam

दशक 97 | प्रारंभ | दशक 99

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दशक ९८

यस्मिन्नेतद्विभातं यत इदमभवद्येन चेदं य एत-
द्योऽस्मादुत्तीर्णरूप: खलु सकलमिदं भासितं यस्य भासा ।
यो वाचां दूरदूरे पुनरपि मनसां यस्य देवा मुनीन्द्रा:
नो विद्युस्तत्त्वरूपं किमु पुनरपरे कृष्ण तस्मै नमस्ते ॥१॥

यस्मिन्-एतत्-विभातं जिसमें (आधार में) यह (जगत) प्रकाशित है,
यत:-इदम्-अभवत्- जिससे यह (जगत) प्रतिष्ठित है
येन च-इदं य एतत्- और जिसके द्वारा, और जो यह (जगत) है
य:-अस्मात्-उत्तीर्ण-रूप: जो इस (जगत) से अतिक्रम कर के है
खलु सकलम्-इदं भासितं निश्चय ही सब कुछ यह कान्ति मय
यस्य भासा जिसकी कान्ति है
य: वाचां दूर-दूरे जो वाणी से परे है
पुन:-अपि मनसां फिर मन से भी परे है
यस्य देवा मुनीन्द्रा: जिसकी (महिमा) देवगण और मुनिजन
नो विद्यु:-तत्त्वरूपं न जान सके तत्त्व रूप
किमु पुन:-अपरे कैसे फिर अन्य कोई
कृष्ण तस्मै नमस्ते हे कृष्ण उन आपको नमस्कार है

जिसका आधार पा कर यह जगत प्रकाशित है, जिससे यह जगत प्रतिष्ठित है, जिसके द्वारा निर्मित है, जो स्वयं यह जगत है, जो इस जगत का अतिक्रम कर के भी स्थित है, जो भी सब कान्तिमय है, वह जिसकी कान्ति है, जो वाणी और मन से परे है, जिसकी महिमा के तत्त्व को देवगण और मुनिजन न जान सके, उसे और कोई कैसे जान सकेगा। हे कृष्ण! आपको नमस्कार है।

जन्माथो कर्म नाम स्फुटमिह गुणदोषादिकं वा न यस्मिन्
लोकानामूतये य: स्वयमनुभजते तानि मायानुसारी ।
विभ्रच्छक्तीररूपोऽपि च बहुतररूपोऽवभात्यद्भुतात्मा
तस्मै कैवल्यधाम्ने पररसपरिपूर्णाय विष्णो नमस्ते ॥२॥

जन्म-अथ: कर्म नाम जन्म और कर्म निश्चय ही
स्फुटम्-इह स्पष्टतया यहां
गुण-दोष-आदिकं त्रिगुणों और दोषों आदि
वा न यस्मिन् अथवा नहीं हैं जिसमें
लोकानाम्-ऊतये लोकजन के कल्याण के लिए
य: स्वयम्-अनुभजते जो स्वयं अङ्गीकार करते हैं
तानि माया-अनुसारी उनको माया के अनुसार
विभ्रत्-शक्ती:-अरूप:-अपि धारण करते हुए शक्ति को और रूप रहित भी
च बहुतर-रूप:-अवभाति- और अनेक रूपों मे प्रतीत होते हैं
अद्भुत्-आत्मा अद्भुत आत्मा वाले
तस्मै कैवल्य-धाम्ने उन मुक्ति के एकमात्र धाम को
पर-रस-परिपूर्णाय परम आनन्दरस से परिपूर्ण को
विष्णो नमस्ते हे विष्णो! (आपको) नमस्कार है

जिनमें जन्म कर्म गुण और दोष स्पष्टतया विद्यमान नहीं हैं, किन्तु जो लोकजन के कल्याण के लिए माया के अनुसार इन सब को अङ्गीकार करते हैं, शक्तियों का संचार करते हैं और रूप रहित हो कर भी अनेक रूपों में प्रतीत होते हैं, मुक्ति के एकमात्र धाम, परम आनन्दरस परिपूर्ण अद्भुत आत्मा, हे विष्णो! आपको नमस्कार है।

नो तिर्यञ्च न मर्त्यं न च सुरमसुरं न स्त्रियं नो पुमांसं
न द्रव्यं कर्म जातिं गुणमपि सदसद्वापि ते रूपमाहु: ।
शिष्टं यत् स्यान्निषेधे सति निगमशतैर्लक्षणावृत्तितस्तत्
कृच्छ्रेणावेद्यमानं परमसुखमयं भाति तस्मै नमस्ते ॥३॥

नो तिर्यञ्चम्-न मर्त्यं न पक्षी अथवा पशु, न ही मानव
न च सुरम्-असुरम् और न सुर असुर
न स्त्रियं नो पुंमांसं न ही स्त्री और न पुरुष
न द्रव्यं कर्म जातिं न द्रव्य कर्म जाति
गुणम्-अपि गुण भी
सत्-असत्-वा-अपि सत अथवा असत भी
ते रूपम्-आहु: आपके स्वरूप को कहा है
शिष्टं यत् स्यात्- शेष जो होता है
निषेधे सति निगम-शतै:- निषेध से (नेति नेति) होने पर शास्त्रों द्वारा
लक्षण-आवृत्तित:-तत् लक्षणों के आधार से जो
कृच्छ्रेण-आवेद्यमानं यत्किञ्चित समझा जा सकता है
परम-सुखमयं भाति (वह) परम सुख आनन्द स्वरूप से प्रकाशित है
तस्मै नमस्ते उन (आपको) नमस्कार है

आपका स्वरूप, न तिर्यक (पशु-पक्षी),न मानव न सुर और न ही असुर, न स्त्री न पुरुष, न द्रव्य कर्म जाति गुण, न सत अथवा असत रूपमय कहा जा सकता है। जो शेष रह जाता है, उसे निषेध पद्धति, अथवा 'नेति नेति' के लक्षणों के आधार पर शास्त्रों के द्वारा यत्किञ्चित समझाया जा सकता है। उस परम सुख आनन्द से प्रकाशित आपके स्वरूप को नमस्कार है।

मायायां बिम्बितस्त्वं सृजसि महदहङ्कारतन्मात्रभेदै-
र्भूतग्रामेन्द्रियाद्यैरपि सकलजगत्स्वप्नसङ्कल्पकल्पम् ।
भूय: संहृत्य सर्वं कमठ इव पदान्यात्मना कालशक्त्या
गम्भीरे जायमाने तमसि वितिमिरो भासि तस्मै नमस्ते ॥४॥

मायायां बिम्बित:-त्वं माया में प्रतिबिम्बित आप
सृजसि महत्-अहङ्कार- सृष्टि करते है महत, अहङ्कार,
तन्मात्र-भेदै:- तन्मात्रा के (पांच) भेद
भूत-ग्राम-इन्द्रिय-आद्यै:-अपि (पञ्च) भूतों के समूह, ग्यारह इन्द्रियों आदि से भी
सकल-जगत्- समस्त संसार को
स्वप्न-सङ्कल्प-कल्पम् (जो) स्वप्न में कल्पित के समान (है)
भूय: संहृत्य सर्वं (और) फिर समेट कर सब कुछ
कमठ इव पदानि- कछुवे के समान पैरों को
आत्मना कालशक्त्या अपनी ही काल शक्ति के द्वारा
गम्भीरे जायमाने तमसि अत्यन्त गम्भीर हो जाने पर अन्धकार के
वितिमिर: भासि अन्धकार रहित (आप) प्रकाशित होते हैं
तस्मै नमस्ते उन आपको नमस्कार है

स्वयं अपनी माया में प्रतिबिम्बित आप ही सृष्टि करते हैं महत, अहङ्कार, तन्मात्रा के पांच भेद, पञ्च भूतों के समूह, ग्यारह इन्द्रियों आदि की, और स्वप्न में कल्पित के समान समस्त संसार की। फिर अपनी ही काल शक्ति के द्वारा, कछुवे के पैरों के समान आप सब कुछ अपने भीतर समेट लेते हैं। उस समय अन्धकार के अत्यन्त गम्भीर हो जाने पर भी आप सर्वथा अन्धकार से सर्वथा रहित सदा प्रकाशमान रहते हैं। उन आपको नमस्कार है।

शब्दब्रह्मेति कर्मेत्यणुरिति भगवन् काल इत्यालपन्ति
त्वामेकं विश्वहेतुं सकलमयतया सर्वथा कल्प्यमानम् ।
वेदान्तैर्यत्तु गीतं पुरुषपरचिदात्माभिधं तत्तु तत्त्वं
प्रेक्षामात्रेण मूलप्रकृतिविकृतिकृत् कृष्ण तस्मै नमस्ते ॥५॥

शब्द-ब्रह्म-इति शब्द ब्रह्म इस प्रकार
कर्म-इति-अणु-इति कर्म, अणु इस प्रकार
भगवन् हे भगवन!
काल इति-आलपन्ति समय इस प्रकार कहते हैं (लोग)
त्वाम्-एकं विश्व-हेतुं आपको ही एकमात्र कारण विश्व का
सकलमयतया (क्योंकि) (आप) सभी कुछ में व्याप्त हैं
सर्वथा कल्प्यमानम् (और) इन सब प्रकार से आपकी कल्पना उचित ही है
वेदान्तै:-यत्तु गीतं वेदान्तों में जिस प्रकार कहा गया है
पुरुष-पर-चित्-आत्मा- पुरुष, पर, चित और आत्मन
अभिधं तत्तु तत्त्वं प्रतिपादित जो तत्त्व है (वह ब्रह्म)
प्रेक्षा-मात्रेण (उसकी) दृष्टि मात्र से
मूल-प्रकृति-विकृति-कृत् मूल प्रकृति में विकार उत्पन्न करती है
कृष्ण तस्मै नमस्ते उन कृष्ण को नमस्कार है

हे भगवन! लोग आपको शब्द ब्रह्म, कर्म, अणु और समय आदि रूप में वर्णित करने की चेष्टा करते हैं, क्योंकि आप ही सर्व व्याप्त हैं और विश्व के एकमात्र कारण हैं। इसी लिए आपके लिए यह कल्पना उचित ही है। वेदान्तों में जिसे पुरुष, पर, चित्त कहा है और आत्मन में जिस तत्त्व (ब्रह्म) का प्रतिपादन है वे आप ही हैं। उन्हीं, हे कृष्ण आपको नमस्कार है।

सत्त्वेनासत्तया वा न च खलु सदसत्त्वेन निर्वाच्यरूपा
धत्ते यासावविद्या गुणफणिमतिवद्विश्वदृश्यावभासम् ।
विद्यात्वं सैव याता श्रुतिवचनलवैर्यत्कृपास्यन्दलाभे
संसारारण्यसद्यस्त्रुटनपरशुतामेति तस्मै नमस्ते ॥६॥

सत्त्वेन-असत्तया वा सत अथवा असत
न च खलु सदसत्त्वेन और न ही सत और असत (दोनों) से
निर्वाच्यरूपा धत्ते अवर्णनीय सत्ता (धारण करती है)
या-असौ-अविद्या जो यह अविद्या
गुण-फणि-मति-वत्- रज्जु और सर्प के समान
विश्व-दृश्य-अवभासम् दृष्यमान जगत का आभास (वैसा ही है)
विद्यात्वं सा-एव याता विद्या स्वरूप को धारण कर लेने पर
श्रुति-वचन-लवै:- (और) कुछ श्रुतियों के वचनों से
यत्-कृपा-स्यन्द-लाभे जो कृपा के प्रवाह के प्राप्त होने पर
संसार-अरण्य-सद्य:- संसार रूपी वन का शीघ्र ही
त्रुटन-परशुताम्-एति काटने के लिए परशु रूप धारण कर लेती है
तस्मै नमस्ते ऐसे आपको नमस्कार है

अविद्या जो न सत है, न असत है, और न ही सत असत है, वह अवर्णनीय सत्ता धारण करती है, और रज्जु और सर्प की सत्ता के समान ही, दृष्यमान जगत का आभास कराती है। वही अविद्या जब विद्या रूपी हो जाती है, तब कुछ श्रुतियों के वचनों से और कुछ कृपा का प्रवाह प्राप्त होने से शीघ्र ही संसार रूपी वन को छेदने के लिए परशु रूप हो जाती है। ऐसे विद्या रूप आपको नमस्कार है।

भूषासु स्वर्णवद्वा जगति घटशरावादिके मृत्तिकाव-
त्तत्त्वे सञ्चिन्त्यमाने स्फुरति तदधुनाप्यद्वितीयं वपुस्ते ।
स्वप्नद्रष्टु: प्रबोधे तिमिरलयविधौ जीर्णरज्जोश्च यद्व-
द्विद्यालाभे तथैव स्फुटमपि विकसेत् कृष्ण तस्मै नमस्ते ॥७॥

भूषासु स्वर्ण-वत्-वा आभूषणों में स्वर्ण के समान अथवा
जगति घट-शराव-आदिके संसार में, घडे सिकोरे आदि में
मृत्तिकावत्- मट्टी के समान
तत्त्वे सञ्चिन्त्यमाने (आपके) तत्त्व के स्वरूप का विचार करने पर
स्फुरति तत्-अधुना-अपि- प्रकाशित होता है वह अब भी
अद्वितीयं वपु:-ते अद्वितीय स्वरूप आपका
स्वप्न-द्रष्टु: प्रबोधे स्वप्न देखने वाले के जाग जाने पर
तिमिर-लय-विधौ अन्धकार के लुप्त हो जाने की जो अवस्था है
जीर्ण-रज्जो:-च यत्-वत्- और पुरानी रस्सी को जो (भ्रम है) उसी प्रकार
विद्यालाभे तथा-एव विद्या के लाभ हो जाने पर वैसे ही
स्फुटम्-अपि विकसेत् तत्त्व भी प्रकट हो
कृष्ण तस्मै नमस्ते हे कृष्ण! आपको नमस्कार है

इस संसार में, जैसे आभूषणों में स्वर्ण अथवा घडे और सिकोरों में मिट्टी का तत्त्व रूप में होना भासित होता है, अथवा स्वप्न देखने वाले के जाग जाने पर जिस प्रकाश का अनुभव होता है, वैसा ही अनुभव आपके तत्त्व स्वरूप के विषय में विचार करने पर होता है। जिस प्रकार ज्ञान के उदय होने से पुरानी रस्सी में सर्प का भ्रम मिट जाता है उसी प्रकार मुझे आपके स्वरूप का तत्त्वत: ज्ञान प्राप्त हो। हे कृष्ण! आपको नमस्कार है।

यद्भीत्योदेति सूर्यो दहति च दहनो वाति वायुस्तथान्ये
यद्भीता: पद्मजाद्या: पुनरुचितबलीनाहरन्तेऽनुकालम् ।
येनैवारोपिता: प्राङनिजपदमपि ते च्यावितारश्च पश्चात्
तस्मै विश्वं नियन्त्रे वयमपि भवते कृष्ण कुर्म: प्रणामम् ॥८॥

यत्-भीत्या-उदेति सूर्य: जिनके भय से उदित होता है सूर्य
दहति च दहन: जलाती है अग्नि
वाति वायु:-तथा-अन्ये बहती है वायु और अन्य भी
यत्-भीता: पद्मज-आद्या: जिनसे भयभीत हो कर, ब्रह्मा आदि
पुन:-उचित-बलीन्- फिर यथोचित (समय पर) बलि आदि
आहरन्ते-अनुकालं लाते हैं समय समय पर
येन-एव-आरोपिता: जिनके द्वारा ही नियुक्त हैं
प्राक्-निज-पदम्-अपि पहले अपने स्थान पर, भी
ते च्यावितार:-च पश्चात् वे और पदच्युत होने पर बाद में
तस्मै विश्वं नियन्त्रे उन विश्व के नियन्ता को
वयम्-अपि भवते कृष्ण हम भी आपको हे कृष्ण!
कुर्म: प्रणामम् करते हैं प्रणाम

जिनके भय से सूर्य उदित होता है, अग्नि जलाती है और वायु बहती है, तथा अन्य सभी ब्रह्मा आदि जिनसे भयभीत हो कर समय समय पर बलि प्रदान करते हैं, एवं जिनके द्वारा सभी अपने पदों पर नियुक्त होते हैं और बाद में पद च्युत हो जाते हैं, उन विश्व के नियन्ता, हे श्री कृष्ण! हम भी आपको प्रणाम करते हैं।

त्रैलोक्यं भावयन्तं त्रिगुणमयमिदं त्र्यक्षरस्यैकवाच्यं
त्रीशानामैक्यरूपं त्रिभिरपि निगमैर्गीयमानस्वरूपम् ।
तिस्रोवस्था विदन्तं त्रियुगजनिजुषं त्रिक्रमाक्रान्तविश्वं
त्रैकाल्ये भेदहीनं त्रिभिरहमनिशं योगभेदैर्भजे त्वाम् ॥९॥

त्रैलोक्यं भावयन्तं त्रिलोक की रचना करने वाले उनको
त्रिगुणमयम्-इदं त्रिगुणात्मक इसको
त्र्यक्षरस्य-ऐकवाच्यं त्रि अक्षर (प्रणव) के एकमात्र वाच्य को
त्रि-ईशानाम्-ऐक्यरूपम् त्रिमूर्ति के एकमेव स्वरूप को
त्रिभि:अपि निगमै:- तीनो वेदों के द्वारा भी
गीयमान-स्वरूपम् वन्दित स्वरूप वालों को
तिस्र:-अवस्था विदन्तं तीनों अवस्थाओं के ज्ञाता को
त्रियुग-जनि-जुषं तीनों युगों में अवतार धारण करने वाले हैं
त्रि-क्रम-आक्रान्त-विश्वं तीन पगों में आक्रान्त करने वाले हैं विश्व को
त्रैकाल्ये भेदहीनं तीनों कालों में समान हैं
त्रिभि:-अहम्-अनिशं तीन के द्वारा मैं सदा
योगभेदै:-भजे त्वाम् भिन्न योगों से भजूंगा आपको

इस प्रपञ्चमय जगत की त्रिगुणों (सत्व, रज, तम) से रचना करने वाले, त्रि अक्षर (प्रणव) के एकमात्र वाच्य, त्रिमूर्ति (ब्रह्मा, विष्णु, महेश) के एकमेव स्वरूप, तीनों वेदों (साम, अथर्व, यजुर) के द्वारा वन्दित स्वरूप वाले, तीनों अवस्थाओं (जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति) के ज्ञाता, तीनों युगों (सत, त्रेता, द्वापर) में अवतार धारण करने वाले, तीन पगों में विश्व को आक्रान्त करने वाले, तीनों कालों ( भूत, वर्तमान, भविष्यत) मे निर्भेद्य, आपको मैं तीनों योगों (ज्ञान, कर्म, भक्ति) से निरन्तर भजूंगा।

सत्यं शुद्धं विबुद्धं जयति तव वपुर्नित्यमुक्तं निरीहं
निर्द्वन्द्वं निर्विकारं निखिलगुणगणव्यञ्जनाधारभूतम् ।
निर्मूलं निर्मलं तन्निरवधिमहिमोल्लासि निर्लीनमन्त-
र्निस्सङ्गानां मुनीनां निरुपमपरमानन्दसान्द्रप्रकाशम् ॥१०॥

सत्यं शुद्धं विबुद्धं सत्य, शुद्ध, प्रबुद्ध
जयति तव वपु:- प्रकाशित होता है आपका स्वरूप
नित्य-मुक्तं निरीहं (जो) सदा विमुक्त है, नि:स्पृह है,
निर्द्वन्द्वं निर्विकारं द्वन्द्व रहित है, विकार से परे है
निखिल गुण-गण- समस्त गुणों के समूहों के
व्यञ्जन-आधार-भूतम् पदार्थों के आधार भूत हैं
निर्मूलं निर्मलं तत्- कारण रहित, पवित्र, वह
निरवधि-महिम-उल्लासि असीम वैभव से परिपूर्ण
निर्लीनम्-अन्त:- लीन अन्त;करण में
निस्सङ्गानाम् मुनीनां निर्लिप्त मुनियों के
निरुपम-परम-आनन्द- उपमा रहित, परम आनन्द के
सान्द्र-प्रकाशम् घनीभूत प्रकाश युक्त

हे भगवन! आपका स्वरूप, सत्य है, शुद्ध है, प्रबुद्ध है, सदा विमुक्त है, नि:स्पृह है, द्वन्द्व रहित है, विकारों से परे है, समस्त गुणों के समूहों के पदार्थों का आधार भूत है, कारण रहित है, पवित्र और असीम वैभव से परिपूर्ण है, निर्लिप्त मुनियों के अन्त:करण में लीन रहने वाला है, उपमा रहित है, तथा परम आनन्द के धनीभूत प्रकाश से युक्त उत्कृष्ट रूप से प्रकाशित है।

दुर्वारं द्वादशारं त्रिशतपरिमिलत्षष्टिपर्वाभिवीतं
सम्भ्राम्यत् क्रूरवेगं क्षणमनु जगदाच्छिद्य सन्धावमानम् ।
चक्रं ते कालरूपं व्यथयतु न तु मां त्वत्पदैकावलम्बं
विष्णो कारुण्यसिन्धो पवनपुरपते पाहि सर्वामयौघात् ॥११॥

दुर्वारं द्वादश-आरं अपरिवर्तनीय द्वादश आरी वाले (१२ महीने)
त्रिशत-परिमिलत्-षष्टि- तीन सौ मिलित साठ
पर्व-अभिवीतं (३६० दिनों) पर्वों से युक्त
सम्भ्राम्यत् क्रूर-वेगं चक्कर काटता हुआ क्रूर तीव्रता से
क्षणमनु जगत्-आच्छिद्य प्रति क्षण जगत को काटता हुआ
सन्धावमानं दौडता हुआ
चक्रं ते कालरूपं चक्र आपका काल रूपी
व्यथयतु न तु मां पीडित न ही करे मुझको
त्वत्-पदैक-अवलम्बं एकमात्र आपके चरणों के ही शरणागत को
विष्णो कारुण्यसिन्धो हे विष्णु! करुणासिन्धु!
पवनपुरपते हे पवनपुरपते!
पाहि-सर्व-आमय-औघात् रक्षा करें सभी रोगों के समूहों से

हे विष्णु! अपरिवर्तनीय द्वादश आरी (१२ महीनों) वाला, तीन सौ मिलित साठ (३६० दिनों) पर्वों वाला, क्रूर तीव्रता से चक्कर काटते हुए, प्रति क्षण जगत के पीछे दौडते और उसका विनाश करते हुए, आपका काल रूपी चक्र मुझे, जो एकमात्र आपके चरणों का शरणागत है, पीडित न ही करे। हे करुणासिन्धु! हे पवनपुरपते! सभी रोगों के समूहों से मेरी रक्षा करें।

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