Shriman Narayaneeyam

दशक 95 | प्रारंभ | दशक 97

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दशक ९६

त्वं हि ब्रह्मैव साक्षात् परमुरुमहिमन्नक्षराणामकार-
स्तारो मन्त्रेषु राज्ञां मनुरसि मुनिषु त्वं भृगुर्नारदोऽपि ।
प्रह्लादो दानवानां पशुषु च सुरभि: पक्षिणां वैनतेयो
नागानामस्यनन्तस्सुरसरिदपि च स्रोतसां विश्वमूर्ते ॥१॥

त्वं हि ब्रह्म- आप ही हैं ब्रह्म
एव साक्षात् परम्- निस्सन्देह साक्षात परम
उरु-महिमन् महान महिमाशाली!
अक्षराणाम्-अकार: अक्षरों में 'अ' कार
तार: मन्त्रेषु ऊं' कार मन्त्रों में
राज्ञां मनु:-असि राजाओं में मनु हैं
मुनिषु त्वं भृगु:- मुनियों में आप भृगु (हैं)
नारद:-अपि नारद भी
प्रह्लाद: दानावानां प्रह्लाद असुरों में
पशुषु च सुरभि: और पशुओं में सुरभि (गाय)
पक्षिणां वैनतेय: पक्षियों में गरुड
नागानाम्-असि-अनन्त:- नागों में हैं अनन्त
सुरसरित्-अपि च स्रोतसां और गङ्गा भी नदियों में
विश्वमूर्ते हे विश्वमूर्ते! (आप ही हैं)

हे महान महिमाशाली! निस्सन्देह आप ही साक्षात परम ब्रह्म हैं। अक्षरों में आप ही 'अ' कार हैं, मन्त्रों में 'ऊं' कार, राजाओं में मनु, ब्रह्मर्षियों में भृगु और देवर्षियों में नारद हैं। हे विश्वमूर्ते! असुरों में आप ही प्रह्लाद हैं, पशुओं में सुरभि गाय, पक्षियों में गरुड, नागों में अनन्त, और नदियों में गङ्गा हैं।

ब्रह्मण्यानां बलिस्त्वं क्रतुषु च जपयज्ञोऽसि वीरेषु पार्थो
भक्तानामुद्धवस्त्वं बलमसि बलिनां धाम तेजस्विनां त्वम् ।
नास्त्यन्तस्त्वद्विभूतेर्विकसदतिशयं वस्तु सर्वं त्वमेव
त्वं जीवस्त्वं प्रधानं यदिह भवदृते तन्न किञ्चित् प्रपञ्चे ॥२॥

ब्रह्मण्यानां बलि:-त्वं भक्त ब्राह्मणों में आप बलि (हैं)
क्रतुषु च जप-यज्ञ:-असि और यज्ञों में जप यज्ञ हैं
वीरेषु पार्थ: वीरों में अर्जुन
भक्तानाम्-उद्धव:त्वं भक्तों में उद्ध्व आप हैं
बलम्-असि बलिनां बल हैं बलवानों में
धाम तेजस्विनां त्वम् तेज तेजस्वियों के आप (हैं)
न-अस्ति-अन्त:- नहीं है अन्त
त्वत्-विभूते:- आपकी विभूतियों का
विकसत्-अतिशयं अद्वितीय और असीम
वस्तु सर्वं त्वम्-एव वस्तुएं सभी आप ही हैं
त्वं जीव:-त्वं प्रधानं आप ही जीव, आप ही प्रकृति हैं
यत्-इह भवत्-ऋते जो यहां आपके बिना (हो)
तत्-न किञ्चित् प्रपञ्चे वह नहीं (है) कुछ भी (इस) प्रपञ्च में

ब्राह्मण भक्तों में आप बलि हैं, और यज्ञों में जप यज्ञ हैं। वीरों में अर्जुन और भक्तों में उद्धव आप हैं। बलवानों के बल आप हैं, और तेजस्वियों के तेज भी आप ही हैं। आपकी विभूतियों का अन्त नहीं है। सभी अद्वितीय और असीम वस्तुएं आप ही हैं। आप ही जीव हैं और आप ही प्रकृति भी। यहां, इस प्रपञ्च में आपसे रहित कुछ भी नहीं है।

धर्मं वर्णाश्रमाणां श्रुतिपथविहितं त्वत्परत्वेन भक्त्या
कुर्वन्तोऽन्तर्विरागे विकसति शनकै: सन्त्यजन्तो लभन्ते ।
सत्तास्फूर्तिप्रियत्वात्मकमखिलपदार्थेषु भिन्नेष्वभिन्नं
निर्मूलं विश्वमूलं परममहमिति त्वद्विबोधं विशुद्धम् ॥३॥

धर्मं-वर्ण-आश्रमाणां कर्तव्य (धर्म) (४) वर्णों और (४) आश्रमों का
श्रुति-पथ-विहितं शास्त्रों में निष्पादित मार्गों से
त्वत्-परत्वेन भक्त्या आपके अभिमुख भक्ति से
कुर्वन्त:-अन्त:-विरागे सम्पादन करते हुए, अन्त: विराग होने पर
विकसति शनकै: बढती है धीरे धीरे
सन्त्यजन्त: लभन्ते (इनको) भी त्याग कर, पा जाते हैं (साधक)
सत्ता-स्फूर्ति-प्रियत्व- सत्ता, स्फूर्ति और प्रियत्व
आत्मकम्-अखिल- युक्त अनन्त
पदार्थेषु भिन्नेषु- वस्तुओं में पृथकता (होने पर भी)
अभिन्नं निर्मूलं विश्वमूलं पृथकता रहित, निष्कारण और विश्व के मूल कारण
परमम्-अहम्-इति (वह) परम मैं (हूं) इस प्रकार
त्वत्-विबोधं-विशुद्धं (लभन्ते) आपका ज्ञान परम शुद्ध (पा जाते हैं साधक)

शास्त्रों में निष्पादित, चारों वर्णों और चारों आश्रमॊं के कर्तव्य धर्मों का पालन करते हुए, भक्ति से आपके अभिमुख होने पर अन्त: विराग उत्पन्न होता है जो धीरे धीरे बढता है। तत्पश्चात इसपूर्ण विराग भाव को भी त्याग करका भी त्याग करके साधक जन आपकी सत्ता, स्फूर्ति और प्रियत्व युक्त अनन्त का, परम शुद्ध ज्ञान पा जाते हैं। वस्तुओं में भिन्नता रहने पर भी, आप भिन्नता रहित हैं, आप सब के कारण हैं परन्तु स्वयं कारण रहित हैं। विश्व का मूल, परम ब्रह्म इस प्रकार मैं ही हूं।

ज्ञानं कर्मापि भक्तिस्त्रितयमिह भवत्प्रापकं तत्र ताव-
न्निर्विण्णानामशेषे विषय इह भवेत् ज्ञानयोगेऽधिकार: ।
सक्तानां कर्मयोगस्त्वयि हि विनिहितो ये तु नात्यन्तसक्ता:
नाप्यत्यन्तं विरक्तास्त्वयि च धृतरसा भक्तियोगो ह्यमीषाम् ॥४॥

ज्ञानं कर्म-अपि भक्ति:- ज्ञान, कर्म और भक्ति (योग) भी
त्रितयम्-इह ये तीनों ही यहां
भवत्-प्रापकं आपको प्राप्त करवाने वाले हैं
तत्र-तावत्- वहां तब
निर्विण्णानाम्-अशेषे निर्लिप्त (लोगों) को समस्त
विषय इह भवेत् विषयों में यहां होगा
ज्ञान-योगे-अधिकार: ज्ञान योग में अधिकार
सक्तानां कर्म-योग:- आसक्त (लोगों) के लिए कर्म योग
त्वयि हि विनिहित: आपमें ही समर्पित
ये तु न-अत्यन्त-सक्ता: जो (जन) न तो अति आसक्त हैं
न-अपि-अत्यन्तं विरक्ता:- (और) न ही अति विरक्त हैं
त्वयि च धृतरसा: और आप में (भक्ति) रस रखते हैं
भक्तियोग: हि-अमीषाम् भक्ति योग ही ऐसे (लोगों) के लिए है

इस संसार में ज्ञान योग, कर्म योग और भक्ति योग ये तीनों ही आपको प्राप्त कराने में सक्षम हैं। इन तीनों में भी, जिन लोगों की समस्त विषयों में निर्लिप्तता हो गई है, वे ज्ञान योग के अधिकारी हैं। जो लोग विषयों में आसक्त हैं, किन्तु आपको समर्पित करके कर्म करते हैं, वे कर्म योग के अधिकारी हैं। और, जो जन न तो अति आसक्त हैं और न ही अति विरक्त हैं, किन्तु आपके प्रति भक्ति भाव रखते हैं, उनके लिए भक्ति योग है।

ज्ञानं त्वद्भक्ततां वा लघु सुकृतवशान्मर्त्यलोके लभन्ते
तस्मात्तत्रैव जन्म स्पृहयति भगवन् नाकगो नारको वा ।
आविष्टं मां तु दैवाद्भवजलनिधिपोतायिते मर्त्यदेहे
त्वं कृत्वा कर्णधारं गुरुमनुगुणवातायितस्तारयेथा: ॥५॥

ज्ञानं त्वत्-भक्ततां वा ज्ञान, आपकी भक्ति अथवा
लघु सुकृत-वशात् सुगमता से पुण्यों के कारण
मर्त्य-लोके लभन्ते (इस) मृत्युलोक में पा जाते हैं
तस्मात्-तत्र-एव इसलिए वहीं (मृत्युलोक में) ही
जन्म स्पृहयति जन्म लेने की इच्छा करते हैं
भगवन् हे भगवन!
नाकगो नारको वा स्वर्गवासी नरकवासी अथवा
आविष्टं मां तु प्रवेश किया है (मैने) मुझको तो
दैवात्- सौभाग्य से
भव-जल-निधि-पोतायिते संसार सागर से नौका स्वरूप
मर्त्य-देहे मर्त्यदेह में
त्वं कृत्वा कर्णधारं गुरुम्- आप करके कर्णधार (मेरे) गुरू को
अनुगुण-वातायित:- अनुकूल वायु का सा (आप करके) (व्यवहार)
तारयेथा: (भव सागर से) तार दीजिए

हे भगवन! इस मृत्युलोक में, मनुष्य पुण्यों के फलस्वरूप ज्ञान अथवा भक्ति योग को सुगमता से प्राप्त कर लेते हैं। इसलिए स्वर्गवासी हों अथवा नरकवासी, इसी मृत्युलोक में जन्म लेने की कामना करते हैं। संसार सागर से पार कराने वाली नौका स्वरूप मर्त्य देह में मैने सौभाग्य से प्रवेश किया है। आप कृपा करके मेरे गुरु को मेरी नैया का कर्णधार करें और आप स्वयं अनुकूल वायु का सा व्यवहार करके मुझे भवसागर से पार कर दीजिए।

अव्यक्तं मार्गयन्त: श्रुतिभिरपि नयै: केवलज्ञानलुब्धा:
क्लिश्यन्तेऽतीव सिद्धिं बहुतरजनुषामन्त एवाप्नुवन्ति ।
दूरस्थ: कर्मयोगोऽपि च परमफले नन्वयं भक्तियोग-
स्त्वामूलादेव हृद्यस्त्वरितमयि भवत्प्रापको वर्धतां मे ॥६॥

अव्यक्तं मार्गयन्त: अव्यक्त (ब्रह्म) को खोजते हुए
श्रुतिभि:-अपि नयै: शास्त्रों के द्वारा, न्यायों के द्वारा भी
केवल-ज्ञान-लुब्धा: केवल ज्ञान के लोभी
क्लिश्यन्ते-अतीव परिश्रम करते हैं अत्यन्त
सिद्धिं बहुतर-जनुषाम्- सिद्धि अनेक जन्मों के
अन्ते-एव-आप्नुवन्ति अन्त में ही प्राप्त करते हैं
दूरस्थ: कर्म-योग:- सुदूर है कर्म योग
अपि च परमफले भी और परमफल (मुक्ति) (प्रदान करने में)
ननु-अयं भक्ति-योग:- निश्चय ही यह भक्ति योग
तु-आमूलात्-एव हृद्य:- तो प्रारम्भ से ही लुभावनी है
त्वरितमयि भवत्-प्रापक:- शीघ्रता से आपको प्राप्त कराने वाली है
वर्धतां मे (वही) समुन्नत हो मुझमें

केवल ज्ञान के लोभी शास्त्रों और न्यायों के द्वारा अव्यक्त ब्रह्म को खोजते हुए अत्यधिक परिश्रम करते हैं और अनेक जन्मों के अन्त में ही सिद्धि प्राप्त कर पाते हैं। कर्म योग के द्वारा भी मुक्ति रूपी परम फल पाना सुदूरवर्ती है। निश्चित रूप से भक्ति योग ही प्रारम्भ से ही लुभावना है और शीघ्रता से आपको उपलब्ध करवाने वाला है। वही भक्ति योग मुझमें समुन्नत हो।

ज्ञानायैवातियत्नं मुनिरपवदते ब्रह्मतत्त्वं तु शृण्वन्
गाढं त्वत्पादभक्तिं शरणमयति यस्तस्य मुक्ति: कराग्रे ।
त्वद्ध्यानेऽपीह तुल्या पुनरसुकरता चित्तचाञ्चल्यहेतो-
रभ्यासादाशु शक्यं तदपि वशयितुं त्वत्कृपाचारुताभ्याम् ॥७॥

ज्ञानाय-एव-अति-यत्नं ज्ञान के लिए ही अत्यन्त यत्न (करने का)
मुनि:-अपवदते मुनि (व्यास) प्रतिरोध करते हैं
ब्रह्मतत्त्वं तु शृण्वन् ब्रह्मतत्त्व को सुनते हुए
गाढं त्वत्-पाद-भक्तिं गहरी आपके चरणों में भक्ति (के साथ)
शरणम्-अयति य:- शरण मे दृढता से आ जाता है जो
तस्य मुक्ति: कराग्रे उसकी मुक्ति हाथों में ही है
त्वत्-ध्याने-अपि-इह (किन्तु) आपके ध्यान में भी यहां
तुल्या पुन:-असुकरता (भक्ति की) तुलना में भी फिर कठिन है
चित्त-चाञ्चल्य-हेतो: चित्त के चञ्चलता के कारण
अभ्यासात्-आशु अभ्यास से शीघ्र ही
शक्यं तत्-अपि सुलभ है वह भी
वशयितुं वश में करना
त्वत्-कृपा-चारुताभ्याम् आपकी कृपा और सौन्दर्य से

व्यास मुनि भी ज्ञान प्रप्ति के लिए कठिन प्रयत्न करने का निषेध करते हैं। ब्रह्मतत्त्व को सुनते हुए आपके चरणों में गहरी भक्ति के साथ आपकी शरण में जो जन दृढता से आ जाता है उसकी मुक्ति तो उसके हाथों में ही है। किन्तु यहां चित्त की चञ्चलता के कारण भक्ति की तुलना में आपका ध्यान करना भी कठिन ही है। परन्तु इसे भी आपकी कृपा, सुन्दरता और अभ्यास से शीघ्र वश में किया जा सकता है।

निर्विण्ण: कर्ममार्गे खलु विषमतमे त्वत्कथादौ च गाढं
जातश्रद्धोऽपि कामानयि भुवनपते नैव शक्नोमि हातुम् ।
तद्भूयो निश्चयेन त्वयि निहितमना दोषबुद्ध्या भजंस्तान्
पुष्णीयां भक्तिमेव त्वयि हृदयगते मङ्क्षु नङ्क्ष्यन्ति सङ्गा: ॥८॥

निर्विण्ण: कर्ममार्गे अरुचि होने से कर्म काण्ड मार्ग में
खलु विषमतमे अवश्य ही अति कठिन
त्वत्-कथा-आदौ च आपकी कथा आदि में और
गाढं जात-श्रद्ध:-अपि गहरी हो जाने से श्रद्धा भी
कामान्-अयि भुवनपते कामनाओं को हे भुवनपते!
न-एव शक्नोमि हातुं न ही समर्थ हूं त्यागने में
तत्-भूय: निश्चयेन इसलिए फिर से निश्चयपूर्वक
त्वयि निहितमना आपही में दत्त चित्त हो कर
दोष-बुद्ध्या भजन्-तान् (जानते हुए कि) दोषपूर्ण हैं, सेवन करते हुए
पुष्णीयां भक्तिम्-एव पुष्ट करूंगा भक्ति को ही
त्वयि हृदयगते आपके हृदय में आ जाने पर
मङ्क्षु नङ्क्ष्यन्ति सङ्गा: तुरन्त नष्ट हो जाती हैं वासनाएं

हे भुवनपते! कर्म काण्ड मार्ग के कठिन होने और उसमें अरुचि होने के कारण, मैं आपकी कथाओं में ही सुदृढ श्रद्धा रखूंगा। कामनाओं को सर्वथा त्यागने में असमर्थ होने के कारण, मैं निश्चयपूर्वक ही फिर से आप ही में दत्त चित्त हो कर, कामनाओं को दोषयुक्त जानते हुए भी उनका सेवन करते हुए आपकी भक्ति को ही पुष्ट करूंगा। भक्ति से खिंच कर मेरे हृदय में आपके आ जाने पर, विषय वासनाएं स्वत: ही नष्ट हो जाएंगी।

कश्चित् क्लेशार्जितार्थक्षयविमलमतिर्नुद्यमानो जनौघै:
प्रागेवं प्राह विप्रो न खलु मम जन: कालकर्मग्रहा वा।
चेतो मे दु:खहेतुस्तदिह गुणगणं भावयत्सर्वकारी-
त्युक्त्वा शान्तो गतस्त्वां मम च कुरु विभो तादृशीं चित्तशान्तिम् ॥९॥

कश्चित् क्लेश-अर्जित- कोई (एक) कष्ट से उपार्जित
अर्थ-क्षय-विमल-मति:- धन के नष्ट हो जाने से निर्मल मन वाला
नुद्यमान: जनौघै: पीडित किए जाने पर लोगों के द्वारा
प्राक्-एवं प्राह विप्र: एक समय इस प्रकार बोले ब्राह्मण
न खलु मम जन: न ही निस्सन्देह मेरे लोग
काल-कर्म-ग्रहा वा काल कर्म अथवा ग्रह (दु;ख के कारण)
चेत: मे दु:ख-हेतु:- मन ही मेरा दु;ख का कारण है
तत्-इह गुणगणं वह यहा गुण्गण ही
भावयत्-सर्वकारी- आरोप कर के सब कुछ करवाता है
इति-उक्त्वा ऐसा कह कर
शान्त: गत:-त्वां शान्ति से आपको प्राप्त कर गए
मम च कुरु विभो और मेरी भी कीजिए हे विभो!
तादृशीं चित्तशान्तिम् उसी प्रकार की चित्त शान्ति

एक समय किसी एक ब्राह्मण का कष्ट से उपार्जित धन नष्ट हो गया। वे निरासक्त हो गए और लोग उन्हे पीडित करने लगे। उस समय वे बोले कि न तो जनगण, न ही काल, कर्म अथवा ग्रह ही उनके दुख के कारण हैं। वास्तव में उनका मन ही उनके दु:ख का कारण है। त्रिगुणगण ही अपने आरोप से सब कुछ करवाते हैं। इस प्रकार परम शान्ति से उन्होंने आपको प्राप्त कर लिया। हे विभो! मेरी भी वैसी ही चित्त शान्ति हो।

ऐल: प्रागुर्वशीं प्रत्यतिविवशमना: सेवमानश्चिरं तां
गाढं निर्विद्य भूयो युवतिसुखमिदं क्षुद्रमेवेति गायन् ।
त्वद्भक्तिं प्राप्य पूर्ण: सुखतरमचरत्तद्वदुद्धूतसङ्गं
भक्तोत्तंसं क्रिया मां पवनपुरपते हन्त मे रुन्धि रोगान् ॥१०॥

ऐल: प्राक्-उर्वशीं इला पुत्र पुरुरवा पहले उर्वशी के
प्रति-अति-विवशमना: प्रति अत्यन्त आसक्त मन वाले
सेवमान:-चिरं तां विहार करते हुए बहुत समय तक उसके साथ
गाढं निर्विद्य भूय: प्रगाढ विरक्त हो कर फिर
युवति-सुखम्-इदं स्त्री सुख यह
क्षुद्रम्-एव-इति गायन् अकिञ्चन है, इस प्रकार कहते हुए
त्वत्-भक्तिं प्राप्य आपकी भक्ति को पा कर
पूर्ण: सुखतरम्-अचरत्- परम सुख से विचरण करने लगे
तत्-वत्-उद्धूत-सङ्गं उसके समान निस्सङ्ग
भक्तोत्तंसं क्रिया मां भक्तों में श्रेष्ठ करें मुझको
पवनपुरपते हे पवनपुरपते!
हन्त मे रुन्धि रोगान् हाय! मेरे नष्ट कीजिए रोगों को

बहुत पहले इला पुत्र पुरुरवा उर्वशी के प्रति अत्यधिक आसक्त हो कर उसके साथ बहुत समय तक रमण करते रहे। कालान्तर में प्रगाढ विरक्ति हो जाने से वे कहने लगे कि स्त्री सुख अकिञ्चन है। इस प्रकार विरक्त हो कर आपकी भक्ति पा कर वे परम सुख से विचरण करने लगे। हे पवनपुरपते! मुझे भी उनके समान निस्सङ्ग और भक्तों में श्रेष्ठ बनाइए, और मेरे रोगों को नष्ट कीजिए।

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