दशक ८०
सत्राजितस्त्वमथ लुब्धवदर्कलब्धं
दिव्यं स्यमन्तकमणिं भगवन्नयाची: ।
तत्कारणं बहुविधं मम भाति नूनं
तस्यात्मजां त्वयि रतां छलतो विवोढुम् ॥१॥
सत्राजित:- |
सत्राजित से |
त्वम्-अथ |
आपने फिर |
लुब्ध-वत्- |
लोभी के समान |
अर्क-लब्धं |
सूर्य से प्राप्त |
दिव्यं स्यमन्तक-मणिं |
दिव्य स्यमन्तक मणि को |
भगवन्-अयाची: |
हे भगवन! मांगा |
तत्-कारणं |
उसके कारण |
बहु-विधं |
अनेक प्रकार के थे |
मम भाति नूनं |
मुझे प्रतीत होता है निश्चय ही |
तस्य-आत्मजां |
उसकी पुत्री को |
त्वयि रतां |
(जो) आपमें अनुरक्त थी |
छलत: विवोढुम् |
व्याज से (उससे) विवाह करने के लिए |
हे भगवन! फिर आपने लोभी की भांति सत्राजित से वह दिव्य स्यमन्तक मणि मांगी जो उसे सूर्य से प्राप्त हुई थी। इसके कारण अनेक थे। किन्तु मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि निश्चय ही आप उसकी पुत्री से, जो आपमें अनुरक्त थी, व्याज से विवाह करना चाहते थे।
अदत्तं तं तुभ्यं मणिवरमनेनाल्पमनसा
प्रसेनस्तद्भ्राता गलभुवि वहन् प्राप मृगयाम् ।
अहन्नेनं सिंहो मणिमहसि मांसभ्रमवशात्
कपीन्द्रस्तं हत्वा मणिमपि च बालाय ददिवान् ॥२॥
अदत्तं तं |
नहीं दी वह |
तुभ्यं मणिवरम्- |
आपको मणि श्रेष्ठ |
अनेन-अल्प-मनसा |
इसने छोटे मन वाले ने |
प्रसेन:-तत्-भ्राता |
प्रसेन, उसके भाई ने |
गल-भुवि वहन् |
गले में धारण करके |
प्राप मृगयाम् |
गया शिकार करने के लिए |
अहन्-एनम् सिंह: |
मार दिया इसको सिंह ने |
मणि-महसि |
मणि की चमक में |
मांस-भ्रम-वशात् |
मांस के भ्रम के कारण |
कपीन्द्र:-तं हत्वा |
कपीन्द्र (जाम्बवान) ने उसको मार कर |
मणिम्-अपि च |
और मणि को भी |
बालाय ददिवान् |
बालक को दे दिया |
संकीर्ण मन वाले सत्राजित ने वह बहुमूल्य मणि आपको नहीं दी। उसके भाई प्रसेन ने वह मणि गले में धारण कर ली और शिकार करने चला गया। मणि की चमक में मांस के भ्रम से एक सिंह ने उसे मार दिया। तत्पश्चात कपीन्द्र जाम्बवान ने उस सिंह को मार कर वह मणि अपने पुत्र को दे दी।
शशंसु: सत्राजिद्गिरमनु जनास्त्वां मणिहरं
जनानां पीयूषं भवति गुणिनां दोषकणिका ।
तत: सर्वज्ञोऽपि स्वजनसहितो मार्गणपर:
प्रसेनं तं दृष्ट्वा हरिमपि गतोऽभू: कपिगुहाम् ॥३॥
शशंसु: |
कहने लगे |
सत्राजित्-गिरम्-अनु |
सत्राजित की बात का अनुकरण कर के |
जना:-त्वां मणि-हरं |
लोग आपको मणि का चोर |
जनानां पीयूषं |
लोगों के लिए अमृत के समान |
भवति गुणिनां |
होता है गुण्वानों का |
दोष-कणिका |
दोष लेशमात्र भी |
तत: सर्वज्ञ:-अपि |
इसलिए सब जानते हुए भी (आप) |
स्व-जन-सहित: |
स्वजनों के साथ |
मार्गण-पर: |
खोजने के लिए तत्पर |
प्रसेनं तं |
प्रसेन को उस |
दृष्ट्वा हरिम्-अपि |
देख कर, सिंह को भी |
गत:-अभू: |
चले गए |
कपि-गुहाम् |
कपीन्द्र की गुफा में |
सत्राजित के कहने के अनुसार लोग भी आपको मणि हर्ता कहने लगे। गुणवानों का लेशमात्र दोष भी लोगो के लिए अंमृत के समान होता है। इसलिए सब कुछ जानते हुए भी आप स्वजनों के साथ मणि को खोजने के लिए निकल पडे। मरे हुए प्रसेन और सिंह को देख कर आप कपीन्द्र जाम्बवान की गुफा में चले गए।
भवन्तमवितर्कयन्नतिवया: स्वयं जाम्बवान्
मुकुन्दशरणं हि मां क इह रोद्धुमित्यालपन् ।
विभो रघुपते हरे जय जयेत्यलं मुष्टिभि-
श्चिरं तव समर्चनं व्यधित भक्तचूडामणि: ॥४॥
भवन्तम्-अवितर्कयन्- |
आपको न पहचान कर |
अति-वया: |
अत्यन्त वृद्ध होने से |
स्वयं जाम्बवान् |
स्वयं जाम्बवान ने |
मुकुन्द-शरणं |
'मुकुन्द की शरण |
हि माम् क:-इह |
ही मुझको कौन यहां है |
रोद्धुम्-इति-आलपन् |
अवरुद्ध करने के लिए? |
विभो रघुपते |
हे विभो रघुपते! |
हरे जय जय-इति-अलं |
हे हरे जय जय!' इस प्रकार बारम्बार कह्ते हुए |
मुष्टिभि:-चिरं |
मुष्टिकाओं से देर तक |
तव समर्चनम् व्यधित |
आपकी समर्चना सम्पन्न की |
भक्तचूडामणि: |
भक्तशिरोमणि (ने) |
अत्यधिक वृद्ध हो जाने के कारण जाम्बवान स्वयं आपको पहचान नहीं सके। 'मैं सर्वथा मुकुन्द की शरण में हूं। मुझे यहां कौन अवरुद्ध कर सकता है? हे विभो रघुपते! हे हरे जय जय।' इस प्रकार कहते हुए उस भक्त शिरोमणि ने देर तक मुष्टिकाओं के प्रहार से आपकी पूजा सम्पन्न की।
बुद्ध्वाऽथ तेन दत्तां नवरमणीं वरमणिं च परिगृह्णन् ।
अनुगृह्णन्नमुमागा: सपदि च सत्राजिते मणिं प्रादा: ॥५॥
बुध्वा-अथ |
पहचान कर तब |
तेन दत्तां |
उसके द्वारा दी हुई |
नव-रमणीं |
कोमल कुमारी (अपनी कन्या) को |
वर-मणिं च |
और श्रेष्ठ मणि को |
परिगृह्णन् |
स्वीकार करते हुए |
अनुगृह्णन्-अमुम्- |
कृपा करके उस पर |
आगा: सपदि |
लौट आए तुरन्त |
च सत्राजिते |
और सत्राजित को |
मणिं प्रादा: |
मणि दे दी |
जाम्बवान ने आपको पहचान लेने पर अपनी कोमल कन्या और वह श्रेष्ठ मणि आपको दे दी। उसे स्वीकार करके और उस पर अनुग्रह कर के आप तुरन्त लौट आए और मणि सत्राजित को दे दी।
तदनु स खलु ब्रीलालोलो विलोलविलोचनां
दुहितरमहो धीमान् भामां गिरैव परार्पिताम् ।
अदित मणिना तुभ्यं लभ्यं समेत्य भवानपि
प्रमुदितमनास्तस्यैवादान्मणिं गहनाशय: ॥६॥
तदनु स खलु |
उसके बाद वह निस्सन्देह |
ब्रीलालोल: |
लज्जा से आकुल |
विलोल-लोचनां |
चञ्चल नयनों वाली |
दुहितरम्-अहो |
पुत्री को अहो |
धीमान् |
बुद्धिमान ने |
भामान् |
सत्यभामा को (जो) |
गिरा-एव |
वचन से ही |
पर-अर्पिताम् |
अन्य (जन) को समर्पित थी |
अदित मणिना |
दे दिया मणि के साथ |
तुभ्यम् लभ्यम् |
आपके लिये (जो) पाने के योग्य हैं |
समेत्य भवान्-अपि |
पा कर आपने भी |
प्रमुदित-मना:- |
प्रसन्न मन से |
तस्य-एव-आदात्- |
उसको ही दे दी |
मणिम् |
मणि |
गहन-आशय: |
गम्भीर अभिप्राय (आपने) |
लज्जित सत्राजित ने तब बुद्धीमान से अपनी लज्जा से आकुल चञ्चल नयनों वाली पुत्री सत्यभामा को, जो अन्य किसी की वाग्दत्ता थी, मणि के साथ ही, आपके योग्य हाथों में सौंप दी। उसे पा कर गम्भीर अभिप्राय वाले आपने प्रसन्नता से वह मणि सत्राजित को ही लौटा दी।
व्रीलाकुलां रमयति त्वयि सत्यभामां
कौन्तेयदाहकथयाथ कुरून् प्रयाते ।
ही गान्दिनेयकृतवर्मगिरा निपात्य
सत्राजितं शतधनुर्मणिमाजहार ॥७॥
व्रीला-आकुलां |
लज्जावती के साथ |
रमयति त्वयि |
रमण करते हुए आपके |
सत्यभामाम् |
सत्यभामा (के साथ) |
कौन्तेय-दाह- |
कुन्ती पुत्रों के दाह की |
कथया-अथ |
कथा से तब |
कुरून् प्रयाते |
हस्तिनापुर चले जाने पर |
ही |
खेद है |
गान्दिनेय-कृतवर्म-गिरा |
अक्रूर और कृतवर्मा के कहने से |
निपात्य सत्राजितं |
हत्या करके सत्राजित की |
शतधनु:-मणिम्-आजहार |
शतधनु ने मणि छीन ली |
लज्जावती सत्यभामा के साथ रमण करते हुए आपने कुन्ती पुत्रों के दाह की वार्ता सुनी और आप हस्तिनापुर चले गए। खेद है कि अक्रूर और कृतवर्मा के कहने से शतधनु ने सत्राजित की हत्या कर के मणि छीन ली।
शोकात् कुरूनुपगतामवलोक्य कान्तां
हत्वा द्रुतं शतधनुं समहर्षयस्ताम् ।
रत्ने सशङ्क इव मैथिलगेहमेत्य
रामो गदां समशिशिक्षत धार्तराष्ट्रम् ॥८॥
शोकात् |
शोक मग्न |
कुरून्-उपगताम्- |
हस्तिनापुर आई हुई |
अवलोक्य कान्तां |
देख कर पत्नी को |
हत्वा द्रुतं शतधनुं |
वध कर के शीघ्र शतधनु का |
समहर्षय:-ताम् |
आनन्दित कर के उसको (सत्यभामा को) |
रत्ने सशङ्क इव |
मणि (के विषय) मे सशङ्कित के समान |
मैथिल-गेहम्-एत्य |
मिथिलेश के घर को आ कर |
रामो गदां |
बलराम ने गदा की |
समशिशिक्षत |
शिक्षा दी |
धार्तराष्ट्रम् |
दुर्योधन को |
शोक मग्न सत्यभामा को हस्तिनापुर आई देख कर आपने शीघ्र ही शतधनु का वध कर दिया और पत्नीके हर्ष को बढाया। किन्तु मणि के विषय मे किञ्चित सशङ्कित बलराम मिथिला नरेश के घर चले गए और वहां दुर्योधन को गदा युद्ध में प्रशिक्षित किया।
अक्रूर एष भगवन् भवदिच्छयैव
सत्राजित: कुचरितस्य युयोज हिंसाम् ।
अक्रूरतो मणिमनाहृतवान् पुनस्त्वं
तस्यैव भूतिमुपधातुमिति ब्रुवन्ति ॥९॥
अक्रूर एष |
अक्रूर यह |
भगवन् |
हे भगवन |
भवत्-इच्छया-एव |
आप की इच्छा ही से |
सत्राजित: कुचरितस्य |
सत्राजित दुराचारी का |
युयोज हिंसाम् |
नियुक्त किया हिंसा में |
अक्रूरत: मणिम्- |
अक्रूर से मणि को |
अनाहृतवान् पुन:-त्वं |
नहीं लिया फिर से आपने |
तस्य एव भूतिम्- |
उसके ही वैभव को |
उपधातुम्- |
उन्नत करने के लिए |
इति ब्रुवन्ति |
इस प्रकार कहा जाता है |
हे भगवन! अक्रूर आप ही की इच्छा से दुराचारी सत्राजित के प्रति हिंसा करने में प्रेरित हुआ था। आपने उससे मणि वापस नहीं ली। ऐसा कहा जाता है कि आपने अक्सूर के वैभव की उन्नति के लिए ही ऐसा किया था।
भक्तस्त्वयि स्थिरतर: स हि गान्दिनेय-
स्तस्यैव कापथमति: कथमीश जाता ।
विज्ञानवान् प्रशमवानहमित्युदीर्णं
गर्वं ध्रुवं शमयितुं भवता कृतैव ॥१०॥
भक्त:-त्वयि |
भक्त वह आप में |
स्थिरतर: |
दृढता से स्थित थे |
स हि गान्दिनेय: |
वह ही अक्रूर |
तस्य-एव |
उसकी भी |
कापथ-मति: |
विकृत बुद्धि |
कथम्-ईश जाता |
कैसे हे ईश्वर उत्पन्न हो गई |
विज्ञानवान् |
अनन्त ज्ञानी |
प्रशमवान्-अहम्- |
(और) अत्यन्त निग्रही हूं (मैं) |
इति-उदीर्णं गर्वं |
इस प्रकार संवर्धित गर्व को |
ध्रुवं शमयितुम् |
निश्चय ही शमन करने के लिए |
भवता कृता-एव |
आपके द्वारा ऐसा किया गया |
भक्त प्रवर अक्रूर आपमें दृढता से स्थित थे, हे ईश्वर! उसकी भी बुद्धि विकृत कैसे हो गई। 'मैं अनन्त ज्ञानी और अत्यन्त निग्रही हूं' अवश्यमेव, उसके ऐसे संवर्धित गर्व के शमन के लिए ही आपने ऐसा किया था।
यातं भयेन कृतवर्मयुतं पुनस्त-
माहूय तद्विनिहितं च मणिं प्रकाश्य ।
तत्रैव सुव्रतधरे विनिधाय तुष्यन्
भामाकुचान्तशयन: पवनेश पाया: ॥११॥
यातं भयेन |
पलायन किए हुए भय से |
कृतवर्मयुतं |
कृतवर्मा के साथ |
पुन:-तम्-आहूय |
फिर से उसको बुलवा कर |
तत्-विनिहितम् च |
उस छुपी हुई |
मणिम् प्रकाश्य |
मणि को प्रकाशित कर के |
तत्र-एव सुव्रत-धरे |
वहीं पर (उस) उत्तम चरित्रवान को |
विनिधाय तुष्यन् |
दे कर सन्तुष्ट किया |
भामा-कुचान्त-शयन: |
सत्यभामा के वक्षस्थल पर शयन करने वाले |
पवनेश पाया: |
हे पवनेश! रक्षा करें |
कृतवर्मा के साथ भय से पलायन किए हुए अक्रूर को आपने फिर से बुलवाया और उसके पास छुपी हुई मणि को प्रकाशित कर के, उत्तम चरित्रवान अक्रूर को वहीं पर, वह मणि दे कर उसे सन्तुष्ट किया। सत्यभामा के वक्षस्थल पर शयन करने वाले हे पवनेश! रक्षा करें।
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