दशक ७९
बलसमेतबलानुगतो भवान् पुरमगाहत भीष्मकमानित: ।
द्विजसुतं त्वदुपागमवादिनं धृतरसा तरसा प्रणनाम सा ।।१॥
बल-समेत- |
सेना के सहित |
बल-अनुगत: |
बलराम (जो) पीछे आए थे |
भवान् |
आप ने |
पुरम्-अगाहत |
नगर (कुण्डिन) में प्रवेश किया |
भीष्मक-मानित: |
भीष्मक के द्वारा सम्मानित हुए |
द्विज-सुतं |
ब्राह्मण कुमार को |
त्वत्-उपागम-वादिनं |
(जिसने) आपके आगमन की सूचना दी |
धृतरसा तरसा |
हर्षित (रुक्मिणी) ने वेग से |
प्रणनाम सा |
प्रणाम किया उसने |
सेना के साथ पीछे पीछे आते हुए बलराम के संग साथ आपने कुण्डिन नगर में प्रवेश किया। भीष्मक ने आपका सम्मानपूर्वक स्वागत किया। ब्राह्मण कुमार ने रुक्मिणी को आपके आगमन की सूचना दी, और हर्षित रुक्मिणी ने तुरन्त उसको प्रणाम किया।
भुवनकान्तमवेक्ष्य भवद्वपुर्नृपसुतस्य निशम्य च चेष्टितम् ।
विपुलखेदजुषां पुरवासिनां सरुदितैरुदितैरगमन्निशा ॥२॥
भुवन-कान्तम्-अवेक्ष्य |
त्रिभुवन सुन्दर (आपको) देख कर |
भवत्-वपु:- |
आपके स्वरूप को |
नृप-सुतस्य |
राजा के पुत्र (रुक्मी) की |
निशम्य च चेष्टितम् |
सुन कर चेष्टाओं को |
विपुल-खेद-जुषाम् |
अत्यन्त पीडा से अभिभूत |
पुर-वासिनां |
पुरवासियों की |
सरुदितै:-उदितै:- |
विलाप करते हुए वार्ता से |
अगमत्-निशा |
व्यतीत हुई रात्रि |
त्रिभुवन सुन्दर आपके स्वरूप को देख कर और राजा के पुत्र रुक्मी की दुष्चेष्टाओं के विषय में सुन कर पुरवासी जन पीडा से व्याकुल हो गए। इसी सन्दर्भ में विलाप-वार्ता करते हुए उन्होंने रात्रि व्यतीत की।
तदनु वन्दितुमिन्दुमुखी शिवां विहितमङ्गलभूषणभासुरा ।
निरगमत् भवदर्पितजीविता स्वपुरत: पुरत: सुभटावृता ॥३॥
तदनु वन्दितुम्- |
तदनन्तर पूजा करने के लिए |
इन्दुमुखी शिवां |
चन्द्रवदनी (रुक्मिणी) पार्वती की, |
विहित-मङ्गल- |
धारण करके माङ्गलिक |
भूषण-भासुरा |
आभूषण और सुसज्जित हो कर |
निरगमत् |
निकली |
भवत्-अर्पित-जीविता |
आपको समर्पित जीवन वाली |
स्वपुरत: पुरत: |
अपनी नगरी से |
सुभट-आवृता |
रक्षकों से घिरी हुई |
तत्पश्चात, आपको समर्पित जीवना, चन्द्रवदनी रुक्मिणी पार्वती की पूजा करने के लिए, अपने नगर से निकली। वह रक्षकों से घिरी हुई थी। उसने माङ्गलिक आभूषण धारण किये थे और भली भांति सुसज्जित थी।
कुलवधूभिरुपेत्य कुमारिका गिरिसुतां परिपूज्य च सादरम् ।
मुहुरयाचत तत्पदपङ्कजे निपतिता पतितां तव केवलम् ॥४॥
कुल-वधुभि:-उपेत्य |
कुलाङ्गनाओं के साथ पहुंच कर |
कुमारिका |
कुमारी ने |
गिरिसुतां परिपूज्य |
पार्वती का सम्पूजन करके |
च सादरम् |
और आदर सहित |
मुहु:-अयाचत |
बारम्बार याचना की |
तत्-पद-पङ्कजे |
उनके चरण कमलों में |
निपतिता |
शिर रख कर |
पतितां तव केवलं |
पतित्व आपका केवल |
कुलाङ्गनाओं के सहित गिरिजा मन्दिर पहुंच कर कुमारी रुक्मिणी ने पार्वती की आदरपूर्वक समर्चना की। उनके चरण कमलों में शिर रख कर बारम्बार आपको ही पति रूप में पाने की याचना की।
समवलोक्यकुतूहलसङ्कुले नृपकुले निभृतं त्वयि च स्थिते ।
नृपसुता निरगाद्गिरिजालयात् सुरुचिरं रुचिरञ्जितदिङ्मुखा ॥५॥
समवलोक्य- |
देख कर (रुक्मिणी) को |
कुतूहल-सङ्कुले |
कौतुहल से अभिभूत |
नृप-कुले |
राज समाज के हो जाने पर |
निभृतं त्वयि |
एकान्त मे आपके |
च स्थिते |
और खडे रहने पर |
नृप-सुता निरगात्- |
राजकुमारी निकली |
गिरिजा-आलयात् |
गिरिजा मन्दिर से |
सुरुचिरं |
मनोहरता से |
रुचिर-रञ्जित- |
अपनी कान्ति से देदीप्यमान करते हुए |
दिक्-मुखा |
दिशाओं को |
रुक्मिणी को देख कर राजसमाज कौतुहल से अभिभूत हो गया, किन्तु आप एकान्त में खडे रहे। उसी समय राजकुमारी अपनी कन्ति से दिशाओं को देदीप्यमान करती हुई मनोहर गति से, गिरिजा मन्दिर से बाहर निकली।
भुवनमोहनरूपरुचा तदा विवशिताखिलराजकदम्बया ।
त्वमपि देव कटाक्षविमोक्षणै: प्रमदया मदयाञ्चकृषे मनाक् ॥६॥
भुवन-मोहन- |
त्रिभुवन को मोहित करने वाले |
रूप-रुचा तदा |
सुन्दर रूप से तब |
विवशित-अखिल- |
असहाय हो गया समस्त |
राज-कदम्बया |
राज समाज |
त्वम्-अपि देव |
हे देव आप भी |
कटाक्ष-विमोक्षणै: |
कटाक्षों के सञ्चार से |
प्रमदया |
विमोहिनी के |
मदयान्-चकृषे |
मादकता को प्राप्त हुए |
मनाक् |
कुछ कुछ |
उसके त्रिभुवन को मुग्ध कर देने वाले सुन्दर रूप को देख कर समस्त राज समाज विवश से हो गया। हे देव! विमोहिनी के कटाक्षों के सञ्चार से आप भी कुछ-कुछ मदमस्त हो गए थे।
क्वनु गमिष्यसि चन्द्रमुखीति तां सरसमेत्य करेण हरन् क्षणात् ।
समधिरोप्य रथं त्वमपाहृथा भुवि ततो विततो निनदो द्विषाम् ॥७॥
क्वनु गमिष्यसि |
कहां जाओगी |
चन्द्रमुखी-इति |
चन्द्रमुखी इस प्रकार |
तां सरसम्-एत्य |
उसके मधुरता से पास आ कर |
करेण हरन् क्षणात् |
हाथ से हरण करके क्षण भर में |
समधिरोप्य रथं |
बैठा कर रथ में |
त्वम्-अपाहृथा |
आपने अपहरण कर लिया |
भुवि तत: वितत: |
विश्व में इससे विस्तृत हो गया |
निनद: द्विषाम् |
कोलाहल शत्रुओं का |
उसके पास जा कर मधुरता से 'कहां जाओगी, चन्द्रमुखी?' कह कर हाथ से हरण कर के क्षण भर में रथ में बैठा कर आपने उसका अपहरण कर लिया। इस घटना से शत्रु राजाओं में विश्व भर में कोलाहल फैल गया।
क्व नु गत: पशुपाल इति क्रुधा कृतरणा यदुभिश्च जिता नृपा: ।
न तु भवानुदचाल्यत तैरहो पिशुनकै: शुनकैरिव केसरी ॥८॥
क्व नु गत: |
कहां पर चला गया |
पशुपाल इति |
ग्वाला इस प्रकार |
क्रुधा कृतरणा |
कुपित हुए रण के लिए तत्पर |
यदुभि:-च |
यदुओं के द्वारा और |
जिता:-नृपा: |
जीत लिए गए राजा गण |
न तु भवान्- |
नहीं किन्तु आप |
उदचाल्यत |
विचलित हुए |
तै:-अहो |
उनके द्वारा अहो |
पिशुनकै: |
दुर्जनों के द्वारा |
शुनकै:-इव केसरी |
कुत्तों के द्वारा जैसे सिंह |
वह ग्वाला कहां चला गया' ऐसा कहते हुए कुपित राजा गण युद्ध के लिये तत्पर हो गये। अहो! और यदुऒं ने उन सभी को परास्त कर दिया। आप किन्तु उन दुर्जनों के द्वारा किञ्चित मात्र भी विचलित नही हुए जैसे कुत्तों से सिंह विचलित नहीं होता।
तदनु रुक्मिणमागतमाहवे वधमुपेक्ष्य निबध्य विरूपयन् ।
हृतमदं परिमुच्य बलोक्तिभि: पुरमया रमया सह कान्तया ॥९॥
तदनु रुक्मिणम्- |
तत्पश्चात रुक्मी को |
आगतम्-आहवे |
(जो) आया था युद्ध के लिए |
वधम्-उपेक्ष्य |
(उसके) वध की उपेक्षा कर के |
निबध्य विरूपयन् |
बान्ध दिया और उसे कुत्सित कर दिया |
हृत-मदम् |
हरण कर के उसके गर्व को |
परिमुच्य |
छोड दिया |
बल-उक्तिभि: |
बलराम के कहने से |
पुरम्-अया: |
(द्वारका) पुरी को आ गए |
रमया सह कान्तया |
रमा के साथ पत्नी के |
तत्पश्चात युद्ध के लिए प्रस्तुत हो कर आए रुक्मी का वध न कर के, आपने उसे बान्ध कर कुत्सित कर दिया और उसके गर्व को हर लिया। फिर बलराम के कहने पर उसे मुक्तकर दिया और अपनी पत्नी रमा के साथ द्वारका पुरी लौट आए।
नवसमागमलज्जितमानसां प्रणयकौतुकजृम्भितमन्मथाम् ।
अरमय: खलु नाथ यथासुखं रहसि तां हसितांशुलसन्मुखीम् ॥१०॥
नव-समागम |
नवीन मिलन से |
लज्जित-मानसाम् |
लज्जित मन वाली |
प्रणय-कौतुक- |
प्रेम और कौतुहल से |
जृम्भित-मन्मथाम् |
वर्धित कामेच्छा वाली |
अरमय: खलु |
(के साथ) रमण किया निश्चय ही |
नाथ |
हे नाथ |
यथा-सुखं |
यथेष्ट सुख पूर्वक |
रहसि तां |
एकान्त में उसको |
हसित-अंशुल-सन्मुखीम् |
हास मन्द रश्मि से सुन्दर मुख वाली को |
उसका मन नवीन मिलन से लज्जित था। प्रेम और कौतूहल से उसकी कामेच्छा वर्धित थी। हे नाथ! मन्द स्मित की किरणों से सुशोभित मुख वाली पत्नी के साथ आपने एकान्त में यथेष्ट सुख पूर्वक रमण किया।
विविधनर्मभिरेवमहर्निशं प्रमदमाकलयन् पुनरेकदा ।
ऋजुमते: किल वक्रगिरा भवान् वरतनोरतनोदतिलोलताम् ॥११॥
विविध-नर्मभि:- |
नाना प्रकार के परिहास से |
एवम्-अह:-निशम् |
इस प्रकार दिन रात |
प्रमदम्-आकलयन् |
आनन्द बढाते हुए (रुक्मिणी का) |
पुन:-एकदा |
फिर एक दिन |
ऋजु-मते: |
सरल बुद्धि वाली को |
किल वक्र-गिरा |
निश्चय ही टेढी वाणी से |
भवान् |
आपने |
वर-तनो:-अतनोत्- |
सुन्दर काया वाली के लिए उत्पन्न कर दी |
अति-लोलताम् |
अति विचलितता |
इस प्रकार विविध परिहास से आप दिन रात रुक्मिणी का आनन्द बढाते रहे। फिर एक दिन सरल बुद्धि और सुन्दर काया वाली रुक्मिणी के मन को आपने वक्रोक्ति से अत्यधिक विचलित कर दिया।
तदधिकैरथ लालनकौशलै: प्रणयिनीमधिकं सुखयन्निमाम् ।
अयि मुकुन्द भवच्चरितानि न: प्रगदतां गदतान्तिमपाकुरु ॥१२॥
तत्-अधिकै:-अथ |
उससे भी अधिक तब |
लालन-कौशलै: |
प्रेम प्रदर्शन कौशल से |
प्रणयिनीम्-अधिकं |
प्रियतमा को अत्यन्त |
सुखयन्-इमाम् |
सुखी करते हुए इसको |
अयि मुकुन्द |
अयि मुकुन्द! |
भवत्-चरितानि |
आपकी लीलाओं का |
न: प्रगदतां |
हम गुणगान करते हुओं का |
गद-तान्तिम्-अपाकुरु |
रोग जनित दु:ख दूर करें |
अधिकाधिक प्रेम प्रदर्शित करने में कुशल आप इस प्रकार प्रियतमा को और अधिक सुखी करते थे। हे मुकुन्द! आपकी लीलाओं का गुणगान करने वाले हम सब के रोग जनित दु:खों का निवारण करें।
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