दशक ८१
स्निग्धां मुग्धां सततमपि तां लालयन् सत्यभामां
यातो भूय: सह खलु तया याज्ञसेनीविवाहम् ।
पार्थप्रीत्यै पुनरपि मनागास्थितो हस्तिपुर्यां
शक्रप्रस्थं पुरमपि विभो संविधायागतोऽभू: ॥१॥
स्निग्धां मुग्धां |
सुन्दरी और मनमोहिनी (को) |
सततम्-अपि |
सदा ही |
तां लालयन् |
उसको प्रेम करते हुए |
सत्यभामां |
सत्यभामा को |
यात: भूय: |
गए फिर |
सह खलु तया |
संग में निश्चय ही उसके |
याज्ञसेनी-विवाहम् |
द्रौपदी के विवाह में |
पार्थ-प्रीत्यै |
अर्जुन के स्नेह के कारण |
पुन:-अपि |
फिर भी |
मनाक्-आस्थित: |
कुछ (दिनों के लिए) रुक गए |
हस्तिपुर्याम् |
हस्तिनापुर में |
शक्रप्रस्थम् पुरम्-अपि |
इन्द्रप्रस्थ पुरी को भी |
विभो संविधाय- |
हे विभो! बसा कर |
आगत:-अभू: |
लौट आए |
सुन्दरी और मनमोहिनी सत्यभामा का आप सदैव ही प्रेम से लालन करते रहे और उसी के साथ द्रौपदी के विवाह में हस्तिनापुर भी गए। अर्जुन के स्नेह के वशीभूत आप कुछ दिनों के लिए हस्तिनापुर में ही रुक गए। हे विभो! फिर इन्द्रप्रस्थ नगरी का निर्माण कर के और उसको बसा कर आप द्वारका लौट आए।
भद्रां भद्रां भवदवरजां कौरवेणार्थ्यमानां
त्वद्वाचा तामहृत कुहनामस्करी शक्रसूनु: ।
तत्र क्रुद्धं बलमनुनयन् प्रत्यगास्तेन सार्धं
शक्रप्रस्थं प्रियसखमुदे सत्यभामासहाय: ॥२॥
भद्रां भद्रां |
कल्याणी सुभद्रा को |
भवत्-अवरजां |
आपकी छोटी बहन को |
कौरवेण-अर्थ्यमानाम् |
कौरव (दुर्योधन) (जिसको) मांग रहा था |
त्वत्-वाचा |
आपके कहने से |
ताम्-अहृत |
उसका अपहरण कर लिया |
कुहना-मस्करी |
छ्द्म सन्यासी |
शक्रसूनु: |
इन्द्र के पुत्र (अर्जुन) ने |
तत्र क्रुद्धम् बलम्- |
वहां पर कुपित हुए बलराम को |
अनुनयन् प्रत्यगा:- |
मना कर (आप) चले गए |
तेन सार्धम् |
उसके साथ |
शक्रप्रस्थम् |
इन्द्रप्रस्थ को |
प्रिय-सख-मुदे |
प्रिय मित्र (अर्जुन) की प्रसन्नता के लिए |
सत्यभामा-सहाय: |
सत्यभामा के साथ |
आपकी छोटी बहन कल्याणी सुभद्रा को कौरव दुर्योधन मांग रहा था। आपके कहने से इन्द्र पुत्र अर्जुन ने सन्यासी के छद्म वेष में उसका हरण कर लिया। इस पर बलराम कुपित हो गए। आपने अनुनय से उन्हें मना लिया। फिर उनके और सत्यभामा के साथ अपने प्रिय मित्र अर्जुन की प्रसन्नता के लिए आप इन्द्रप्रस्थ चले गए।
तत्र क्रीडन्नपि च यमुनाकूलदृष्टां गृहीत्वा
तां कालिन्दीं नगरमगम: खाण्डवप्रीणिताग्नि: ।
भ्रातृत्रस्तां प्रणयविवशां देव पैतृष्वसेयीं
राज्ञां मध्ये सपदि जहृषे मित्रविन्दामवन्तीम् ॥३॥
तत्र क्रीडन्-अपि च |
वहां खेलती हुई भी और |
यमुना-कूल-दृष्टां |
यमुना के किनारे देखी गई |
गृहीत्वा तां कालिन्दीम् |
ले कर उस कालिन्दी को |
नगरम्-अगम: |
नगर को चले गए |
खाण्डव-प्रीणित-अग्नि: |
खाण्डव (वन के दाह) से सन्तुष्ट करके अग्नि को |
भ्रातृ-त्रस्ताम् |
भाइयों से संत्रस्त |
प्रणय-विवशाम् |
प्रेम से विवश |
देव पैतृष्वसेयीं |
हे देव! पिता की बहन की पुत्री को |
राज्ञां मध्ये |
राजाओं के बीच से |
सपदि जहृषे |
शीघ्र ही हरण कर लिया |
मित्रविन्दाम्-अवन्तीम् |
मित्रवृन्दा अवन्ती राजकुमारी को |
यमुना के किनारे खेलती हुई कालिन्दी को आपने देखा और उसे ले कर नगर चले गए। तत्पश्चात खाण्डव वन का दाह करके आपने अग्नि देव को सन्तुष्ट किया। हे देव! अपने पिता की भगिनी की पुत्री, अवन्ती की राजकुमारी, मित्रवृन्दा का, जो आपमें अनुरक्त थी और अपने भाईयों से संत्रस्त थी, अनेक राजाओं के मध्य से आपने हरण कर लिया।
सत्यां गत्वा पुनरुदवहो नग्नजिन्नन्दनां तां
बध्वा सप्तापि च वृषवरान् सप्तमूर्तिर्निमेषात् ।
भद्रां नाम प्रददुरथ ते देव सन्तर्दनाद्या-
स्तत्सोदर्या वरद भवत: साऽपि पैतृष्वसेयी ॥४॥
सत्यां गत्वा |
सत्या के पास जा कर |
पुन:-उदवह: |
फिर विवाह किया |
नग्नजित्-नन्दनां तां |
नग्नजित नन्दिनी उससे (सत्या से) |
बध्वा सप्त-अपि |
और भी नथ कर सात ही |
च वृष-वरान् |
श्रेष्ठ बैलों को |
सप्त-मूर्ति:-निमेषात् |
सात स्वरूप में पल भर में |
भद्रां नाम |
भद्रा नाम की |
प्रददु:-अथ |
दे दी तब फिर |
ते देव |
आपको हे देव! |
सन्तर्दन-आद्या:- |
सन्तर्दन आदि |
तत्-सोदर्या |
उसके भाइयों ने |
वरद भवत: |
हे वरद! आपके लिए |
सा-अपि पैतृष्वसेयी |
वह भी आपके पिताकी भगिनी की पुत्री थी |
हे देव! सत्या नगरी जा कर, सात स्वरूपों में, सात श्रेष्ठ बैलों को पल भर में नथ कर आपने नग्नजित नन्दिनी सत्या से विवाह किया। हे वरद! फिर आपके पिता की भगिनी की पुत्री भद्रा को, उसके भाई सन्तर्दन आदि ने आपको दे दिया।
पार्थाद्यैरप्यकृतलवनं तोयमात्राभिलक्ष्यं
लक्षं छित्वा शफरमवृथा लक्ष्मणां मद्रकन्याम् ।
अष्टावेवं तव समभवन् वल्लभास्तत्र मध्ये
शुश्रोथ त्वं सुरपतिगिरा भौमदुश्चेष्टितानि ॥५॥
पार्थ-आद्यै:-अपि |
अर्जुन आदि से भी |
अकृत-लवनं |
नहीं भेदी गई |
तोय-मात्र-अभिलक्ष्यं |
जल में ही दिखने वाली (प्रतिबिम्बित) |
लक्षं छित्वा |
लक्ष्य का छेदन कर के |
शफरम्-अवृथा |
मत्स्य का, विवाह किया |
लक्ष्मणां मन्द्रकन्याम् |
लक्ष्मणा मन्द्रकन्या से |
अष्टौ-एवम् |
आठ इस प्रकार |
तव समभवन् |
आपकी हो गईं |
वल्लभा:-तत्र |
पटरानियां वहां |
मध्ये शुश्रुथ |
इसी बीच सुना |
त्वं सुरपति-गिरा |
आपने इन्द्र के वचनों से |
भौम-दुष्टचेष्टितानि |
भौमासुर के क्रूर कर्मों के बारे में |
अर्जुन आदि भी जल में प्रतिबिम्बित मत्स्य का लक्ष्य भेद नहीं कर सके थे, उस लक्ष्य का छेदन करके आपने मन्द्र कन्या लक्ष्मणा से विवाह किया। इस प्रकार आपकी आठ पटरानियां हो गईं। इसी बीच इन्द्र के वचनों से आपको भौमासुर के क्रूर कर्मॊं की सूचना मिली।
स्मृतायातं पक्षिप्रवरमधिरूढस्त्वमगमो
वहन्नङ्के भामामुपवनमिवारातिभवनम् ।
विभिन्दन् दुर्गाणि त्रुटितपृतनाशोणितरसै:
पुरं तावत् प्राग्ज्योतिषमकुरुथा: शोणितपुरम् ॥६॥
स्मृत-आयातं |
याद करने पर ही आ जाने वाले |
पक्षिप्रवरम्- |
दिव्य पक्षी (गरुड) पर |
अधिरूढ:-त्वम्-अगम: |
चढ कर आप गए |
वहन्-अङ्के |
उठा कर अङ्क में |
भामाम्-उपवनम्-इव- |
सत्यभामा को वाटिका के समान |
अराति-भवनम् |
शत्रु के महल में |
विभिन्दन् दुर्गाणि |
भेद कर दुर्गों को |
त्रुटित-पृतना- |
हनन करके सेना का |
शोणित-रसै: |
रक्त की धारा से |
पुरं तावत् |
नगरी को तब |
प्राग्ज्योतिषम्- |
प्राग्ज्योतिष को |
अकुरुथा: |
कर डाला |
शोणितपुरम् |
शोणितपुर |
स्मरण मात्र से ही उपस्थित हो जाने वाले दिव्य पक्षी पर आरूढ हो कर, सत्यभामा को अङ्क में लिए हुए शत्रु के महल में ऐसे चले गए जैसे किसी वाटिका में जा रहे हों। वहां उसके दुर्गों को भेद कर और सेनाओं का हनन कर के रक्त की धारा से प्राग्ज्योतिष पुर को शोणितपुर बना डाला।
मुरस्त्वां पञ्चास्यो जलधिवनमध्यादुदपतत्
स चक्रे चक्रेण प्रदलितशिरा मङ्क्षु भवता ।
चतुर्दन्तैर्दन्तावलपतिभिरिन्धानसमरं
रथाङ्गेन छित्वा नरकमकरोस्तीर्णनरकम् ॥७॥
मुर:-त्वां |
(असुर) मुर आपको |
पञ्च-आस्य: |
पांच मुख वाला |
जलधि-वन-मध्यात्- |
समुद्र वन के बीच से |
उदपतत् |
उछल कर |
स चक्रे चक्रेण |
उसने कर दिया (आक्रमण), चक्र से |
प्रदलित-शिरा |
कटे हुए शिर वाला |
मङ्क्षु भवता |
निमिष मात्र में (हो गया) आपके द्वारा |
चतु:-दन्तै:- |
चार दांतों वाले |
दन्तावलपतिभि:- |
हाथियों के द्वारा |
इन्धान-समरं |
उपस्थित होने पर युद्ध में |
रथाङ्गेन छित्वा |
चक्र से छिन्न कर के |
नरकम्-अकरो:- |
नरकासुर को कर दिया |
तीर्ण-नरकम् |
सन्तीर्ण नरक से |
पांच मुख वाले असुर मुर ने समुद्र के समान वन में से सहसा निकल कर आप पर आक्रमण कर दिया। निमिष मात्र में ही आपने उसका शिर काट डाला। तदनन्तर चार दांतों वाले हाथियों को लेकर नरकासुर युद्ध भूमि में उपस्थित हो गया और देर तक भीषण युद्ध करता रहा। उसका भी मस्तक आपने चक्र से छिन्न कर उसे नरक से संतीर्ण कर दिया।
स्तुतो भूम्या राज्यं सपदि भगदत्तेऽस्य तनये
गजञ्चैकं दत्वा प्रजिघयिथ नागान्निजपुरीम् ।
खलेनाबद्धानां स्वगतमनसां षोडश पुन:
सहस्राणि स्त्रीणामपि च धनराशिं च विपुलं ॥८॥
स्तुत: भूम्या |
स्तुति की भूमि ने (आपकी) |
राज्यं सपदि |
राज्य को तुरन्त |
भगदत्ते-अस्य तनये |
भगदत्त, इसके पुत्र को |
गजम्-च-एकं |
और एक हाथी |
दत्वा प्रजघयिथ |
दे कर भेज दिया |
नागान्-निज-पुरीम् |
(शेष) हाथियों को अपनी पुरी (द्वारका) को |
खलेन-आबद्धानाम् |
दुष्ट के द्वारा बन्दी बनाई हुई |
स्वगत-मनसां |
आपमें दत्त चित्त |
षोडश पुन: सहस्राणि |
सोलह फिर सहस्र (१६०००) |
स्त्रीणाम्-अपि च |
स्त्रियों को भी |
धन-राशिं च विपुलं |
और विपुल धन राशि (भेज दिया) |
भूमि देवी ने आपकी स्तुति की। नरकासुर के पुत्र भगदत्त को आपने एक हाथी और राज्य दे कर तुरन्त भेज दिया। शेष हाथियों को, और दुष्ट नरकासुर के द्वारा बन्दी बनाई हुई आपमें दत्त चित्त सोलह हजार स्त्रियों को, प्रचूर धन राशि के साथ आपने अपनी नगरी द्वारका भेज दिया।
भौमापाहृतकुण्डलं तददितेर्दातुं प्रयातो दिवं
शक्राद्यैर्महित: समं दयितया द्युस्त्रीषु दत्तह्रिया ।
हृत्वा कल्पतरुं रुषाभिपतितं जित्वेन्द्रमभ्यागम-
स्तत्तु श्रीमददोष ईदृश इति व्याख्यातुमेवाकृथा: ॥९॥
भौम-अपाहृत-कुण्डलं |
भौमासुर के द्वारा छीने गए कुण्डलों को |
तत्-अदिते:-दातुं |
उनको अदिति को देने के लिए |
प्रयात: दिवम् |
प्रस्थान किया स्वर्ग को |
शक्र-आद्यै:-महित: |
इन्द्र आदि (देवों) से समादृत |
समं दयितया |
संग में पत्नी (सत्यभामा) के |
द्यु-स्त्रीषु |
स्वर्ग की स्त्रियों में |
द्त्त-ह्रिया |
देने वाली लज्जा |
हृत्वा कल्पतरुम् |
ले कर कल्पतरु को |
रुषा-अभिपतितं |
क्रोध से आक्रमण करते हुए |
जित्वा-इन्द्रम्- |
जीत कर इन्द्र को |
अभ्यागम:- |
लौट आए |
तत्-तु श्री-मद-दोष |
वह तो वैभव के मद के दोष (के फल स्वरूप) |
ईदृश इति |
इस प्रकार होता है ऐसा |
व्याख्यातुम्-एव-अकृथा: |
घोषित करने के लिए ही किया |
भौमासुर द्वारा छीने गए कुण्डल अदिति को देने के लिए आपने स्वर्ग को प्रस्थान किया। वहां इन्द्र आदि देवताओं ने आपका और आपकी पत्नी सत्यभामा का, जो अपने सौन्दर्य से स्वर्ग की स्त्रियों को भी लज्जित करती थी, का आदर सम्मान किया। आपके द्वारा कल्पतरु ले आने पर इन्द्र ने क्रोध से आप पर आक्रमण कर दिया। उसे जीत कर आप लौट आए। आपका यह कृत्य यही घोषणा करने के लिए था कि सम्पन्नता के मद के दोष का फल ऐसा ही होता है।
कल्पद्रुं सत्यभामाभवनभुवि सृजन् द्व्यष्टसाहस्रयोषा:
स्वीकृत्य प्रत्यगारं विहितबहुवपुर्लालयन् केलिभेदै: ।
आश्चर्यान्नारदालोकितविविधगतिस्तत्र तत्रापि गेहे
भूय: सर्वासु कुर्वन् दश दश तनयान् पाहि वातालयेश ॥१०॥
कल्पद्रुं |
कल्प वृक्ष को |
सत्यभामा-भवन-भुवि |
सत्यभामा के भवन के उद्यान में |
सृजन् |
लगा कर |
द्व्य-अष्ट-साहस्र- |
द्वि-अष्ट-सहस्र (१६०००) |
योषा: स्वीकृत्य |
स्त्रियों को (पत्नी रूप में) स्वीकार कर के |
प्रति-आगारं |
प्रत्येक के घर में |
विहित-बहु-वपु:- |
धारण कर के अनेक शरीर |
लालयन् केलिभेदै: |
(उनका) पोषण करते हुए विविध क्रीडाओं से |
आश्चर्यात्-नारद- |
आश्चर्य से नारद ने |
आलोकित-विविध-गति:- |
देखी (आपकी) नाना गति विधियां |
तत्र तत्र-अपि गेहे |
उन उन भी घरों में |
भूय: सर्वासु कुर्वन् |
फिर सभी में करके |
द्श दश तनयान् |
दस दस पुत्रों को |
पाहि वातालयेश |
रक्षा करें हे वातालयेश! |
कल्प वृक्ष को सत्यभामा के भवन के उद्यान में लगा कर, आपने सोलह हजार स्त्रियों को पत्नी रूप में स्वीकार किया। अनेक शरीर धारण करके, प्रत्येक के घर में विविध क्रीडाओं से आप उनका पालन पोषण करने लगे। नारद ने आश्चर्य चकित हो कर उन सभी घरों में आपकी नाना प्रकार की गति विधियों को देखा। फिर आपने उन सभी पत्नियों से दस दस पुत्रों को जन्म दिया। रक्षा करें हे वातालयेश!
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