दशक ७०
इति त्वयि रसाकुलं रमितवल्लभे वल्लवा:
कदापि पुरमम्बिकाकमितुरम्बिकाकानने ।
समेत्य भवता समं निशि निषेव्य दिव्योत्सवं
सुखं सुषुपुरग्रसीद्व्रजपमुग्रनागस्तदा ॥१॥
इति त्वयि |
इसी भांति आपके |
रस-आकुलं |
रसास्वादन करवाने से व्याकुल |
रमित-वल्लभे |
रमण कर रही थीं गोपिकाएं |
वल्लवा: कदापि |
गोपजन किसी समय |
पुरम्-अम्बिका-कमितु:- |
पुरी को अम्बिका पति के |
अम्बिका-कानने |
अम्बिका वन में |
समेत्य भवता समं |
सम्मिलित हो कर आपके साथ |
निशि निषेव्य |
रात्रि में आयोजित कर के |
दिव्य-उत्सवं |
दिव्य उत्सव को |
सुखं सुषुपु:- |
सुख से सो गए |
अग्रसीत्-व्रजपम्- |
ग्रस लिया व्रजेश (नन्द) को |
उग्रनाग:-तदा |
भयंकर नाग ने तब |
इसी भांति गोपियों को आपने परमानन्द रस का आस्वादन करवाया, जिसकी मादकता में वे रमण कर रही थी। उसी समय गोपजन सम्मिलित हो कर आपके संग अम्बिका पति, शंकर, की आराधना के लिये अम्बिका वन में स्थित उनके मन्दिर में गए। दिव्य उत्सव के सम्पन्न हो जाने पर गोपजन सुख से सो गए। उसी समय एक भयंकर नाग ने व्रजेश नन्द को ग्रस लिया।
समुन्मुखमथोल्मुकैरभिहतेऽपि तस्मिन् बला-
दमुञ्चति भवत्पदे न्यपति पाहि पाहीति तै: ।
तदा खलु पदा भवान् समुपगम्य पस्पर्श तं
बभौ स च निजां तनुं समुपसाद्य वैद्यधरीम् ॥२॥
समुन्मुखम्- |
ऊपर उठे मुख वाले उसको |
अथ-उल्मुकै:- |
तब जलती हुई लकडियों से |
अभिहते-अपि-तस्मिन् |
मारने पर भी उसके |
बलात्-अमुञ्चति |
(अपनी) पकड से न छोडने पर (नन्द को) |
भवत्-पदे न्यपति |
आपके चरणों पर गिर पडे |
पाहि पाहि-इति तै: |
रक्षा करें रक्षा करें इस प्रकार उनके द्वारा |
तदा खलु |
तब फिर |
पदा भवान् |
पैर से आपने |
समुपगम्य |
पास जा कर |
पस्पर्श तं |
स्पर्श किया उसको |
बभौ स च |
हो गया वह और |
निजां तनुं |
स्वयं के शरीर |
समुपसाद्य |
मे आ कर |
वैद्यधरीम् |
वैद्यधरी (रूप में) |
गोपों ने उसके ऊपर उठे हुए मुख पर जलती हुई लकडियों से प्रहार किया फिर भी उसने अपनी पकड से नन्द को नहीं छोडा। तब वे 'रक्षा करें, रक्षा करें,' कहते हुए आपके चरणों पर गिर पडे। आपने उस अजगर के समीप जा कर अपने चरण से उसका स्पर्श किया और वह अपने निजी शरीर को प्राप्त करके वैद्यधरी रूप में आ गया।
सुदर्शनधर प्रभो ननु सुदर्शनाख्योऽस्म्यहं
मुनीन् क्वचिदपाहसं त इह मां व्यधुर्वाहसम् ।
भवत्पदसमर्पणादमलतां गतोऽस्मीत्यसौ
स्तुवन् निजपदं ययौ व्रजपदं च गोपा मुदा ॥३॥
सुदर्शनधर प्रभो |
सुदर्शनधारी हे प्रभो! |
ननु सुदर्शन-आख्य:- |
नि:सन्देह सुदर्शन नाम का |
अस्मि-अहं |
हूं मैं |
मुनीन् क्वचित्- |
मुनियों का एक समय |
अपाहसं |
उपहास किया था |
ते-इह मां |
उन्हों ने यहां मुझको |
व्यधु:-वाहसम् |
बना दिया अजगर |
भवत्-पद- |
आपके चरण |
समर्पणात्- |
स्पर्श से |
अमलतां गत:-अस्मि |
निर्मलता को प्राप्त हो गया हूं |
इति-असौ स्तुवन् |
इस प्रकार यह स्तुति करते हुए |
निजपदं ययौ |
अपने लोक को चला गया |
व्रजपदं च |
और व्रज भूमि को |
गोपा मुदा |
गोपजन आनन्दपूर्वक (चले गए) |
सुदर्शनधारी हे प्रभो! नि:सन्देह मेरा नाम सुदर्शन है। एक समय मैने मुनियों का उपहास किया था, जिसके कारण उन्होंने मुझे अजगर बना दिया। आपके चरणों के स्पर्श से मैं निर्मल हो गया हूं।' इस प्रकार स्तुति करते हुए वह विद्याधर अपने लोक को चला गया और गोप जन भी आनन्दपूर्वक व्रजधाम को लौट गए।
कदापि खलु सीरिणा विहरति त्वयि स्त्रीजनै-
र्जहार धनदानुग: स किल शङ्खचूडोऽबला: ।
अतिद्रुतमनुद्रुतस्तमथ मुक्तनारीजनं
रुरोजिथ शिरोमणिं हलभृते च तस्याददा: ॥४॥
कदापि खलु |
एक समय अवश्यमेव |
सीरिणा विहरति |
बलराम के साथ विहार करते हुए |
त्वयि स्त्रीजनै:- |
आपके, और स्त्री जनों के साथ |
जहार धनद-अनुग: |
हरण कर लिया कुबेर के अनुचर ने |
स किल |
उसने निश्चय ही |
शङ्खचूड:- |
शङ्खचूड (नाम का) ने |
अबला: |
अबलाओं को |
अतिद्रुतम्- |
वेगपूर्वक |
अनुद्रुत:-तम्-अथ |
अत्यन्त द्रुत गति से उसका तब अनुगमन करके |
मुक्त-नारी-जनम् |
मुक्त कर दिया नारियों को |
रुरोजिथ |
संहार कर दिया (आपने उसका) |
शिरोमणिम् |
(उसके) शिर की मणि को |
हलभृते च |
बलराम को और |
तस्य-अददा: |
उसके दे दिया |
अवश्य ही, एक समय आप बलराम और स्त्रीजनों के साथ विहार कर रहे थे। उस समय निश्चय ही कुबेर के अनुचर शङ्खचूड ने अबलाओं का अपहरण कर लिया। आपने अत्यन्त तीव्र गति से उनका अनुसरण किया जिससे उसने युवतियों को छोड दिया। आपने उसका संहार करके उसके मस्तक की मणि बलराम को दे दी।
दिनेषु च सुहृज्जनैस्सह वनेषु लीलापरं
मनोभवमनोहरं रसितवेणुनादामृतम् ।
भवन्तममरीदृशाममृतपारणादायिनं
विचिन्त्य किमु नालपन् विरहतापिता गोपिका: ॥५॥
दिनेषु च |
प्रति दिन और |
सुहृत्-जनै:-सह |
बन्धुओं के साथ |
वनेषु लीलापरं |
वनों में लीला में लगे हुए |
मनोभव-मनोहरं |
कामदेव के मन को भी हर लेने वाले |
रसित-वेणु- |
(आप) रसमय मुरली |
नाद-अमृतम् |
की तान अमृत के समान |
भवन्तम्- |
आपको |
अमरी-दृशाम्- |
देवाङ्गनाओं की दृष्टि के लिए |
अमृत-पारणा-दायिनं |
अमृतमय पेय देने वाले का |
विचिन्त्य |
चिन्तन करके |
किमु न-आलपन् |
क्या क्या नहीं चर्चा करती थीं |
विरह-तापिता |
विरह संतप्त |
गोपिका: |
गोपिकाएं |
दिन प्रति दिन आप अपने बन्धुओं के साथ विभिन्न वनों में जा कर नाना प्रकार की लीलाओं में संलग्न रहते। आपका रूप कामदेव के मन को भी हरने वाला था। मुरली की अमृत तुल्य रसमय तान की वर्षा करते समय का आपका स्वरूप देवाङ्गनाओं की दृष्टि को अमृत मय पेय प्रदान करता था। आपके उसी स्वरूप का चिन्तन करते हुए विरह संतप्त गोपाङ्गनाएं आपकी क्या क्या चर्चा नहीं करती थीं?
भोजराजभृतकस्त्वथ कश्चित् कष्टदुष्टपथदृष्टिररिष्ट: ।
निष्ठुराकृतिरपष्ठुनिनादस्तिष्ठते स्म भवते वृषरूपी ॥६॥
भोजराज-भृतक:- |
कंस का अनुचर |
तु-अथ कश्चित् |
तो तत्पश्चात कोई |
कष्ट-दुष्ट- |
कष्ट पूर्ण क्रूर |
पथ-दृष्टि:-अरिष्ट: |
मार्गों पर द्ष्टि रखने वाला, अरिष्ट (नाम का) |
निष्ठुर-आकृति:- |
कठोर अकृति वाला |
अपष्ठु-निनाद:- |
कर्कश गर्जन करने वाला |
तिष्ठते स्म भवते |
सामने खडा हो गया आपके |
वृषरूपी |
सांड के रूप मे |
तत्पश्चात कंस का अरिष्ट नाम का कोई अनुचर, जिसकी दृष्टि कठिन और क्रूर मार्गों पर ही रहती थी, एवं जिसकी आकृति कठोर और गर्जन अत्यन्त कर्कश था, सांड के रूप में आ कर आपके सामने उपस्थित हो गया।
शाक्वरोऽथ जगतीधृतिहारी मूर्तिमेष बृहतीं प्रदधान: ।
पङ्क्तिमाशु परिघूर्ण्य पशूनां छन्दसां निधिमवाप भवन्तम् ॥७॥
शाक्वर:-अथ |
सांड (यह) तब |
जगती-धृति-हारी |
(जो) जीव जन्तुओं के धैर्य का हरण करने वाला था |
मूर्तिम्-एष |
आकार उसने |
बृहतीं प्रदधान: |
विशाल धारण करके |
पङ्क्तिम्-आशु |
समूह को शीघ्र ही |
परिघूर्ण्य |
अस्त व्यस्त करके |
पशूनां |
पशुओं के |
छन्दसाम् निधिम्- |
वेदों के निधि (आपके) |
अवाप भवन्तम् |
निकट आ गया आपके |
हे वेदों के निधि! जगत के जीव जन्तुओं के धैर्य और शान्ति का हर्ता वह सांड, विशाल आकार धारण करके पशुओं के समूह को शीघ्र ही अस्त व्यस्त कर के आपके समीप आ गया।
तुङ्गशृङ्गमुखमाश्वभियन्तं संगृहय्य रभसादभियं तम् ।
भद्ररूपमपि दैत्यमभद्रं मर्दयन्नमदय: सुरलोकम् ॥८॥
तुङ्ग-शृङ्ग-मुखम्- |
उठाए हुए सींग और मुख वाले उसको |
आशु-अभियन्तं |
शीघ्रता से आक्रमण करते हुए उसको |
संगृहय्य रभसात्- |
पकड कर तुरन्त |
अभियं तम् |
निर्भय उसको |
भद्र-रूपम्-अपि |
साधु वेष वाले |
दैत्यम्-अभद्रम् |
(किन्तु) असाधु दैत्य को |
मर्दयन्-अमदय: |
मार कर प्रसन्न कर दिया |
सुरलोकम् |
देव जन को |
अपने सींग और मुख को उठाए हुए उसने शीघ्रता से आप पर आक्रमण किया। तुरन्त उस साधु वेष वाले असाधु दैत्य को पकड कर आपने निर्भयता से मार डाला और देवगण को प्रसन्न कर दिया।
चित्रमद्य भगवन् वृषघातात् सुस्थिराऽजनि वृषस्थितिरुर्व्याम् ।
वर्धते च वृषचेतसि भूयान् मोद इत्यभिनुतोऽसि सुरैस्त्वम् ॥९॥
चित्रम्-अद्य |
आश्चर्य है आज |
भगवन् |
हे भगवन! |
वृष-घातात् |
वृषभासुर को मारने से |
सुस्थिरा-अजनि |
सुदृढ हो गई है |
वृष-स्थिति:- |
धर्म की स्थिति |
उर्व्याम् |
पृथ्वी पर |
वर्धते च |
बढ रहा है |
वृष-चेतसि |
इन्द्र के चित्त में |
भूयान् मोद |
महान आनन्द |
इति-अभिनुत:-असि |
इस प्रकार स्तुति की |
सुरै:-त्वम् |
देवताओं ने आपकी |
हे भगवन! आश्चर्य है कि आज वृषभासुर के मारे जाने से पृथ्वी पर धर्म की स्थिति सुदृढ हो गई है और इन्द्र के चित्त में महान आनन्द बढ रहा है' देवगण ने इस प्रकार आपकी स्तुति की।
औक्षकाणि परिधावत दूरं वीक्ष्यतामयमिहोक्षविभेदी ।
इत्थमात्तहसितै: सह गोपैर्गेहगस्त्वमव वातपुरेश ॥१०॥
औक्षकाणि |
अहो सांडों |
परिधावत दूरं |
भाग जाओ दूर |
वीक्ष्यताम्- |
देखो |
अयम्-इह- |
यह यहां |
उक्षविभेदी |
सांडों को मारने वाला आ गया' |
इत्थम्-आत्त-हसितै: |
इस प्रकार परिहास करते हुए |
सह गोपै:- |
साथ में गोपों के |
गेहग:-त्वम्- |
घर को गए आप |
अव वातपुरेश |
रक्षा करें हे वातपुरेश! |
अहो सांडों! दूर भाग जाओ। देखो सांडों का भेदन करने वाला यह आ गया है।' इस प्रकार परिहास करते हुए आप गोपों के साथ घर आ गए। हे वातपुरेश! मेरी रक्षा करें।
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