दशक ७१
यत्नेषु सर्वेष्वपि नावकेशी केशी स भोजेशितुरिष्टबन्धु: ।
त्वां सिन्धुजावाप्य इतीव मत्वा सम्प्राप्तवान् सिन्धुजवाजिरूप: ॥१॥
यत्नेषु |
प्रयत्नों में |
सर्वेषु-अपि |
सभी में भी |
न-अवकेशी |
नही असफल |
केशी स |
केशी (नामक) वह |
भोज-ईशितु:- |
भोजराज (कंस) का |
इष्ट-बन्धु: |
प्रिय बन्धु |
त्वाम् |
आपको |
सिन्धुजा-अवाप्य |
लक्ष्मी के द्वारा प्राप्य |
इति-इव मत्वा |
ऐसा ही मान कर |
सम्प्राप्तवान् |
समीप आया |
सिन्धुज- |
सिन्धु (प्रदेश) में उत्पन |
वाजि-रूप: |
घोडे के रूप में |
भोजराज कंस का प्रिय ब्न्धु केशी जो अपने सभी प्रयासों में कभी भी असफल नहीं हुआ था (सिन्धुजा) लक्ष्मी के द्वारा आपको प्राप्य, मान कर, (सिन्धुज) सिन्धु प्रदेश में उत्पन घोडे के रूप में आपके समीप आया।
गन्धर्वतामेष गतोऽपि रूक्षैर्नादै: समुद्वेजितसर्वलोक: ।
भवद्विलोकावधि गोपवाटीं प्रमर्द्य पाप: पुनरापतत्त्वाम् ॥२॥
गन्धर्वताम्- |
गन्धर्वता को |
एष गत:-अपि |
यह प्राप्त हुआ भी |
रूक्षै:-नादै: |
कर्कश चीत्कारों से |
समुद्वेजित-सर्व-लोक: |
भयभीत कर देता था पूरे विश्व को |
भवत्-विलोक-अवधि |
आपके देखने तक |
गोपवाटीं प्रमर्द्य |
गोपवाटिकाओं को रोंद कर |
पाप: |
पापी ने |
पुन:-आपतत्-त्वाम् |
फिर आक्रमण किया आप पर |
गन्धर्व होते हुए भी वह अपनी कर्कश चीत्कारों से समस्त विश्व को भयभीत कर देता था। जब तक आपने उसे देखा, तब तक में ही उसने गोपों की वाटिकाओं को रोंद डाला और फिर आप पर आक्रमण कर दिया।
तार्क्ष्यार्पिताङ्घ्रेस्तव तार्क्ष्य एष चिक्षेप वक्षोभुवि नाम पादम् ।
भृगो: पदाघातकथां निशम्य स्वेनापि शक्यं तदितीव मोहात् ॥३॥
तार्क्ष्य-अर्पित- |
गरुड के ऊपर रखे हुए |
अङ्घ्रे:-तव |
चरण आपके |
तार्क्ष्य एष चिक्षेप |
घोडे ने इसने प्रहार किया |
वक्षोभुवि |
वक्ष स्थल पर |
नाम पादम् |
निश्चय ही पैर को |
भृगो: पद-आघात- |
भृगु (मुनि) के पग के आघात की |
कथां निशम्य |
कथा को सुन कर |
स्वेन-अपि |
स्वयं के द्वारा भी |
शक्यं तत्- |
किया जा सकता है वह |
इति-इव मोहात् |
इस प्रकार ही मोह से |
गरुड के ऊपर आपके चरण रखे हुए हैं। घोडे ने निश्चय ही आपके वक्षस्थल पर अपने पैर से आघात किया। भृगु के द्वारा किये गए पग के आघात की कथा सुन कर मानो मोहवश ही उसने समझा कि वह भी ऐसा करने में सक्षम है।
प्रवञ्चयन्नस्य खुराञ्चलं द्रागमुञ्च चिक्षेपिथ दूरदूरम्
सम्मूर्च्छितोऽपि ह्यतिमूर्च्छितेन क्रोधोष्मणा खादितुमाद्रुतस्त्वाम् ॥४॥
प्रवञ्चयन्-अस्य |
बचते हुए उसके |
खुराञ्चलं |
खुरों की झपेट से |
द्राक्-अमुं-च |
तुरन्त उसको और |
चिक्षेपिथ |
फेंक दिया |
दूर-दूरम् |
दूर बहुत दूर |
सम्मूर्च्छित:-अपि |
मूर्छित हो जाने पर भी |
हि-अतिमूर्च्छितेन |
अतिमूर्छ्चना से |
क्रोध-उष्मणा |
क्रोध की ज्वाला से |
खादितुम्-अद्रुत:- |
खाने के लिए उद्यत हुआ |
त्वाम् |
आपको |
उसके खुरों की झपेट से बचते हुए आपने उसको बहुत दूर पर फेंक दिया। वह मूर्छित हो गया लेकिन अतिमूर्छना से उपजे क्रोध से जलते हुए आपको खाने के लिए उद्यत हुआ।
त्वं वाहदण्डे कृतधीश्च वाहादण्डं न्यधास्तस्य मुखे तदानीम् ।
तद् वृद्धिरुद्धश्वसनो गतासु: सप्तीभवन्नप्ययमैक्यमागात् ॥५॥
त्वं |
आप |
वाह-दण्डे |
घोडे को दण्ड देने में |
कृतधी:-च |
और निश्चित मन से |
वाहा-दण्डं |
अपने भुजा दण्ड को |
न्यधा:-तस्य |
रख दिया उसके |
मुखे तदानीम् |
मुख में उस समय |
तद्-वृद्धि- |
उसके बढने से |
रुद्ध-श्वसन: |
रुक जाने पर श्वास |
गतासु: |
चले जाने पर प्राण |
सप्तीभवन्-अपि- |
घोडे के रूप में होने पर भी |
अयम्- |
यह (आपसे) |
ऐक्यम्-आगात् |
एकात्मकता पा गया |
आप घोडे को दण्ड देने में कृत संकल्प थे। आपने अपना भुजा दन्ड उसके मुख में डाल दिया और उसका विस्तार होने लगा। इससे उसके श्वास की गति रुक गई और उसके प्राण निकल गए। घोडे के रूप में होने पर भी वह आप में एकात्मकता पा गया।
आलम्भमात्रेण पशो: सुराणां प्रसादके नूत्न इवाश्वमेधे ।
कृते त्वया हर्षवशात् सुरेन्द्रास्त्वां तुष्टुवु: केशवनामधेयम् ॥६॥
आलम्भ- |
संहार |
मात्रेण पशो: |
मात्र से पशु (अश्व) का |
सुराणाम् प्रसादके |
देवों के आनन्द में |
नूत्न इव- |
नूतन मानो |
अश्वमेधे |
अश्वमेध यज्ञ में |
कृते त्वया |
करने पर आपके |
हर्षवशात् |
हर्षातिरेक से |
सुरेन्द्रा:-त्वां |
देवगण आपकी |
तुष्टुवु: |
वन्दना करने लगे |
केशव-नाम-धेयम् |
केशव नाम दे कर |
उस पशु के संहार मात्र से, देवों का आनन्द नूतन हो गया मानो आपने अश्वमेध यज्ञ किया हो। हर्षातिरेक से देवगण आपको केशव नाम देकर आपकी स्तुति और वन्दना करने लगे ।
कंसाय ते शौरिसुतत्वमुक्त्वा तं तद्वधोत्कं प्रतिरुध्य वाचा।
प्राप्तेन केशिक्षपणावसाने श्रीनारदेन त्वमभिष्टुतोऽभू: ॥७॥
कंसाय ते |
कंस को आपका |
शौरि-सुतत्वम्-उक्त्वा |
शौरी का पुत्र होना बता कर |
तं तत्- |
उसको उसके (वसुदेव के) |
वध-उत्कं |
वध के लिए उत्सुक को |
प्रतिरुध्य वाचा |
रोक कर वचनों से |
प्राप्तेन |
(जो) आए थे ऊन्होंने |
केशि-क्षपण-अवसाने |
केशी के संहार के बाद |
श्री-नारदेन त्वम्- |
श्री नारद ने आपका |
अभिष्टुत:-अभू: |
अभिस्तवन किया |
श्री नारद ने कंस को आपका शौरी का पुत्र होना बताया। फिर वसुदेव को मारने के लिए उद्यत हुए कंस को से उन्होंने वचनों से रोका। केशी के संहार के बाद श्री नारद आपके पास आए और आपका अभिस्तवन किया।
कदापि गोपै: सह काननान्ते निलायनक्रीडनलोलुपं त्वाम् ।
मयात्मज: प्राप दुरन्तमायो व्योमाभिधो व्योमचरोपरोधी ॥८॥
कदापि |
एक बार |
गोपै: सह |
गोपालों के संग |
काननान्ते |
वन के अन्त में |
निलायन-क्रीडन-लोलुपं |
लुका-छिपी खेलने में व्यस्त |
त्वाम् |
आपके |
मय-आत्मज: |
मय का पुत्र |
प्राप |
पास आया |
दुरन्त-माय: |
अत्यन्त मायावी |
व्योम-अभिध: |
व्योम नाम का |
व्योम-चर-उपरोधी |
आकाश गामी जीवों का अवरोधक |
एक समय आप गोपालों के साथ वन के अन्त में लुका छिपी का खेल खेलने में व्यस्त थे। उस समय, मय का पुत्र व्योम, जिसकी माया दुर्दमनीय थी, और जो आकाश गामी जीवों का अवरोधक था, आपके पास आया।
स चोरपालायितवल्लवेषु चोरायितो गोपशिशून् पशूंश्च
गुहासु कृत्वा पिदधे शिलाभिस्त्वया च बुद्ध्वा परिमर्दितोऽभूत् ॥९॥
स |
वह (व्योम) |
चोर-पालायित-वल्लवेषु |
चोर, रक्षक और भेडों में |
चोरायित: |
चोर बना हुआ |
गोप-शिशून् |
गोप बालकों को |
पशून्-च |
और पशुओं को |
गुहासु कृत्वा |
गुफाओं में (डाल) कर |
पिदधे शिलाभि:- |
बन्द कर दिया शिलाओं से |
त्वया च बुद्ध्वा |
आपके द्वारा (स्थिति को) समझे जाने पर |
परिमर्दित:-अभूत् |
मार दिया गया |
उस खेल में, ग्वाल बाल चोर रक्षक और भेड बन कर खेल रहे थे। वह चोर बन कर उनके मध्य घुस गया। ग्वाल बालकों और पशुओं को गुफा में डाल कर, वह गुफा को शिला से बन्द कर देता था। उसका यह कृत्य समझने पर आपने उसे मार डाला।
एवं विधैश्चाद्भुतकेलिभेदैरानन्दमूर्च्छामतुलां व्रजस्य ।
पदे पदे नूतनयन्नसीमां परात्मरूपिन् पवनेश पाया: ॥१०॥
एवं विधै:-च- |
और इसी प्रकार के |
अद्भुत- |
अद्भुत |
केलि-भेदै:- |
विभिन्न क्रीडाओं से |
आनन्द-मूर्च्छाम्- |
आनन्द से परिभूत |
अतुलां व्रजस्य |
अवर्णनीय व्रज की |
पदे पदे |
समय समय पर |
नूतयन्- |
नवीन बनाते हुए |
असीमां |
असीमित |
परमात्मरूपिन् |
परमात्मरूपी |
पवनेश |
हे पवनेश! |
पाया: |
रक्षा करें |
यह और इसी प्रकार की नित नूतन और असीमित विभिन्न क्रीडाओं से आप व्रज को समय समय पर अवर्णनीय आनन्द से परिभूत करते रहते थे। परमात्मरूपी हे पवनेश! रक्षा करें।
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