|
दशक ६९
केशपाशधृतपिञ्छिकाविततिसञ्चलन्मकरकुण्डलं
हारजालवनमालिकाललितमङ्गरागघनसौरभम् ।
पीतचेलधृतकाञ्चिकाञ्चितमुदञ्चदंशुमणिनूपुरं
रासकेलिपरिभूषितं तव हि रूपमीश कलयामहे ॥१॥
| केश-पाश-धृत- |
केशों के पाश को पकडा हुआ है |
| पिञ्छिका-वितति- |
मोर पंख के गुच्छों से |
| सञ्चलन्- |
झूम रहे हैं |
| मकर-कुण्डलम् |
मकर के आकार के कुण्डल |
| हार-जाल- |
हारों के जाल |
| वन-मालिका-ललितम्- |
वन मालिकाओं से सुसज्जित |
| अङ्ग-राग-घन-सौरभम् |
अङ्ग राग घनी सुगन्ध वाला (अङ्गों पर लगाया हुआ) |
| पीत-चेल |
पीत वर्ण के वस्त्र |
| धृत-काञ्चिका-अञ्चितम्- |
धारण किए हुए स्वर्ण करघनी से सुशोभित |
| उदञ्चत्-अंशु- |
उद्भासित करती किरणों को |
| मणि-नूपुरम् |
मणि युक्त नूपुर |
| रास-केलि- |
रास क्रीडा (के लिए) |
| परिभूषितम् |
विभूषित |
| तव हि |
आप ही के |
| रूपम्-ईश |
रूप का हे ईश! |
| कलयामहे |
(हम) ध्यान करते हैं |
मयूर पंखों के गुच्छों से बन्धी हुई केश राशि, मकराकृति के झूमते हुए कुण्डल गालों पर, मुक्ताहारों के साथ वन मालाओं के जालों से सुसज्जित कण्ठ, घनी सुगन्ध युक्त अङ्गराग से परिलिप्त अङ्ग, पीत वर्ण के वस्त्र पर धारण की हुई स्वर्ण करघनी, किरणों को उद्भासित करते हुए नूपुर, हे ईश! रास क्रीडा के लिये आपके इस प्रकार विभूषित रूप का ही हम ध्यान करते हैं।
तावदेव कृतमण्डने कलितकञ्चुलीककुचमण्डले
गण्डलोलमणिकुण्डले युवतिमण्डलेऽथ परिमण्डले ।
अन्तरा सकलसुन्दरीयुगलमिन्दिरारमण सञ्चरन्
मञ्जुलां तदनु रासकेलिमयि कञ्जनाभ समुपादधा: ॥२॥
| तावत्-एव |
तभी |
| कृत-मण्डने |
करके शृङ्गार |
| कलित-कञ्चुलीक- |
पहन कर कञ्चुलीक |
| कुच-मण्डले |
स्तन मण्डल पर |
| गण्ड-लोल |
गालों पर झूमते हुए |
| मणि-कुण्डले |
मणिमय कुण्डल वाली |
| युवति-मण्डले- |
युवतियों के मण्डल ने |
| अथ परिमण्डले |
जब मण्डलाकार बना लिया |
| अन्तरा |
(तब) बीच में |
| सकल-सुन्दरी- |
सब सुन्दरियों के |
| युगलम्- |
युगलों के |
| इन्दिरा-रमण |
हे इन्दिरा रमण! |
| सञ्चरन् |
संचरण करते हुए |
| मञ्जुलां तदनु |
सुन्दर तब फिर |
| रासकेलिम्-अयि |
रास क्रीडा का अयि |
| कञ्जनाभ |
कमलनाभ! (आपने) |
| समुपादधा: |
प्रारम्भ किया |
तत्पश्चात शृङ्गार करके, वक्षस्थल पर कञ्चुकी पहन कर, कानों में मणिमय कुण्डल झलकाते हुए, युवतियों के मण्डल ने आपके चारों ओर मण्डलाकार घेरा बना लिया। हे इन्दिरा रमण! सब सुन्दरियों के युगलों के बीच बीच में संचरण करते हुए, हे कमलनाभ! आपने सुन्दर रास क्रीडा प्रारम्भ की।
वासुदेव तव भासमानमिह रासकेलिरससौरभं
दूरतोऽपि खलु नारदागदितमाकलय्य कुतुकाकुला ।
वेषभूषणविलासपेशलविलासिनीशतसमावृता
नाकतो युगपदागता वियति वेगतोऽथ सुरमण्डली ॥३॥
| वासुदेव तव |
हे वासुदेव! आपकी |
| भासमानम्-इह |
कान्तिमय यहां |
| रास-केलि-रससौरभम् |
रास लीला का रस और सौरभ |
| दूरत:-अपि खलु |
दूर तक भी निश्चय ही |
| नारद-आगदितम्- |
नारद के कहने से |
| आकलय्य |
सुन कर |
| कुतुक-आकुला |
उत्सुकता से व्याकुल |
| वेष-भूषण-विलास-पेशल- |
(जो) वेष भूषा की साज सज्ज में पटु वे |
| विलासिनी-शत-समावृता |
विलासी सुन्दरियां सैंकडों में सम्मिलित हो कर |
| नाकत: |
स्वर्ग से |
| युगपत्-आगता |
एक संग आ गई |
| वियति वेगत:- |
आकाश में शीघ्रता से |
| अथ सुर-मण्डली |
और फिर देव मण्डली |
हे वासुदेव! नारद से आपकी रसमयी और सौरभमयी रासलीला की वार्ता सुन कर, सैंकडों विलासिनी सुन्दरियां जो स्वयं वेष भूषा की साज सज्जा में पटु हैं, उत्सुकता से व्याकुल हो कर स्वर्ग से आ कर आकाश में एकत्रित हो गईं। इसी प्रकार देव मण्डली भी शीघ्रता से आकाश में एकत्रित हो गई।
वेणुनादकृततानदानकलगानरागगतियोजना-
लोभनीयमृदुपादपातकृततालमेलनमनोहरम् ।
पाणिसंक्वणितकङ्कणं च मुहुरंसलम्बितकराम्बुजं
श्रोणिबिम्बचलदम्बरं भजत रासकेलिरसडम्बरम् ॥४॥
| वेणु-नाद- |
मुरली के नाद से |
| कृत-तान- |
सम्मिलित किया हुआ तान |
| दान-कल- |
देते हुए मधुर |
| गान-राग- |
गान को राग |
| गति-योजना- |
(और) गति और योजना |
| लोभनीय- |
लोभनीय |
| मृदु-पाद-पात-कृत- |
मधुर पैर की पटक से किया |
| ताल-मेलन- |
ताल का मिलाना |
| मनोहरम् |
मनोहारी |
| पाणि-संक्वणित- |
हाथों की ताली से |
| कङ्कणम् च |
कङ्गनो की खनखन से मिश्रित |
| मुहु:-अंस-लम्बित- |
बार बार कन्धों पर (गोपिकाओं के) रखे हुए |
| कर-अम्बुजं |
करकमल |
| श्रोणि-बिम्ब- |
कमर पर |
| चलत्-अम्बरम् |
लहराते हुए वस्त्र |
| भजत रासकेलि- |
ध्यान करें रास लीला का |
| रस-डम्बरम् |
(जो) रसों का भण्डार है |
मुरली के नाद ने लय प्रदान करते हुए मधुर गीतों को राग और गतिमय छन्द दिया। नर्तन के समय पैरों के कोमल पात ने सुन्दर संगीत को ताल बद्ध किया। हाथों की ताली कङ्गनों की खनखन से युक्त हो कर और भी मधुर हो गई। आप बार बार अपने कर कमल गोपिकाओं के कन्धों पर रख देते थे। नर्तन करते समय कटि पर के वस्त्र लहरा जाते थे। रसों के भण्डार ऐसी रास लीला का हम ध्यान करें।
स्पर्धया विरचितानुगानकृततारतारमधुरस्वरे
नर्तनेऽथ ललिताङ्गहारलुलिताङ्गहारमणिभूषणे ।
सम्मदेन कृतपुष्पवर्षमलमुन्मिषद्दिविषदां कुलं
चिन्मये त्वयि निलीयमानमिव सम्मुमोह सवधूकुलम् ॥५॥
| स्पर्धया विरचित- |
(मानो) प्रतियोगिता से रचना की हो |
| अनुगान-कृत- |
एक के बाद एक गान करते हुए |
| तार-तार- |
तार और मन्द |
| मधुर-स्वरे |
मधुर स्वरों का |
| नर्तने-अथ |
और फिर नाचते हुए |
| ललित-अङ्ग-हार- |
मनोहर अङ्गो के प्रचालन से |
| लुलित-अङ्ग-हार- |
सञ्चालित हो जाते हैं अङ्गों के हार |
| मणि-भूषणे |
(और) मणिमय आभूषण |
| सम्मदेन |
हर्षातिरेक से |
| कृत-पुष्प-वर्षम्- |
की पुष्पों की वर्षा |
| अलम्-उन्मिषत्- |
अपलक |
| दिविषदां कुलं |
दिव्य देव कुलों ने |
| चिन्मये त्वयि |
चिन्मय स्वरूप आपमें |
| निलीयमानम्-इव |
विलीन भूत होते हुए से |
| सम्मुमोह |
स्म्मोहित होगए |
| सवधूकुलम् |
अपनी वधुओं के साथ |
मानो प्रतियोगिता चल रही हो, एक के बाद एक तार और मन्द स्वरों में गान की रचना हो रही थी। नृत्य करते हुए अङ्गों के मनोहर प्रचालन से अङ्गों के मणिमय आभूषण सञ्चालित हो रहे थे। हर्षातिरेक से दिव्य देव गण वधुओं के साथ दिव्य पुष्प वृष्टि कर रहे थे। सम्मोहित हो कर अपलक रास को देखते हुए मोहमुग्ध अवस्था में वे आप ही के चिन्मय स्वरूप में विलीयमान हो गए।
स्विन्नसन्नतनुवल्लरी तदनु कापि नाम पशुपाङ्गना
कान्तमंसमवलम्बते स्म तव तान्तिभारमुकुलेक्षणा ॥
काचिदाचलितकुन्तला नवपटीरसारघनसौरभं
वञ्चनेन तव सञ्चुचुम्ब भुजमञ्चितोरुपुलकाङ्कुरा ॥६॥
| स्विन्न-सन्न- |
स्वेद शिथिल |
| तनु-वल्लरी |
देह लता (के समान) |
| तदनु कापि नाम |
उसके बाद किसी एक |
| पशुपाङ्गना |
गोपिका ने |
| कान्तम्-अंसम्- |
कान्तिमय स्कन्ध पर |
| अवलम्बते स्म |
सहारा ले लिया |
| तव तान्ति-भार- |
आपके, थकावट के कारण |
| मुकुल-ईक्षणा |
अधखुली आंखों वाली |
| काचित्- |
कोई |
| आचलित-कुन्तला |
लहराते हुए बालों वाली |
| नव-पटीर-सार-घन-सौरभम् |
नए चन्दन सार की घनी सौरभ से युक्त |
| वञ्चनेन तव |
छल से आपके |
| सञ्चुचुम्ब भुजम्- |
चूम लिया भुजा को |
| अञ्चित-उरु- |
अङ्कुरित हुए बडे |
| पुलक-अङ्कुरा |
पुलक बिन्दु |
तदनन्तर लता के समान कोमल देह वाली किसी एक गोपिका ने, जो थकावट से स्वेद सिक्त हो कर शिथिल हो गई थी, आपके कमनीय स्कन्ध का सहारा ले लिया। अन्य एक गोपिका ने, जिसके केश लहरा रहे थे और आंखें अधखुली थीं, आपके नव चन्दन सार की घनी सौरभ से युक्त भुजा को छल से चूम लिया जिसके फलस्वरूप उसके अङ्गों पर बडे बडे पुलक बिन्दु उभर आए।
कापि गण्डभुवि सन्निधाय निजगण्डमाकुलितकुण्डलं
पुण्यपूरनिधिरन्ववाप तव पूगचर्वितरसामृतम् ।
इन्दिराविहृतिमन्दिरं भुवनसुन्दरं हि नटनान्तरे
त्वामवाप्य दधुरङ्गना: किमु न सम्मदोन्मददशान्तरम् ॥७॥
| कापि गण्डभुवि |
किसी ने गण्ड स्थल पर (आपके) |
| सन्निधाय निज गण्डम्- |
रख कर अपने कपोल को |
| आकुलित-कुण्डलम्- |
(जहां) सञ्चालित हो रहे थे कुण्डल |
| पुण्य-पूर निधि:- |
पुण्यों से भरपूर निधि वाली उसने |
| अन्ववाप |
ले लिया |
| तव-पूग-चर्वित- |
आपका पान चबाया हुआ |
| रस-अमृतम् |
अमृत रस मय |
| इन्दिरा-विहृति-मन्दिरम् |
लक्ष्मी के विलास मन्दिर (आप) को |
| भुवन-सुन्दरम् |
त्रिभुवन सुन्दर (आप) को |
| हि नटन-अन्तरे |
ही नृत्य के समय |
| त्वाम्-अवाप्य |
आपको पा कर |
| दधु:-अङ्गना: |
प्राप्त कर गईं गोपिकाएं |
| किमु न सम्मद- |
किन किन नही मद के |
| उन्मद-दशान्तरम् |
उन्माद की दशाओं को |
पुण्यों की भरपूर निधि वाली किसी एक गोपिका ने आपके गण्डस्थल पर सञ्चालित कुण्डलों वाला अपना कपोल रख दिया और आपके चबाए हुए पान के रसामृत का पान कर लिया। लक्ष्मी के विलास मन्दिर आपको, त्रिभुवन सुन्दर आपको, नृत्य के समय पा कर, गोपिकाओं ने किन किन आनन्द उन्माद की दशाओं का रसास्वादन नहीं किया?
गानमीश विरतं क्रमेण किल वाद्यमेलनमुपारतं
ब्रह्मसम्मदरसाकुला: सदसि केवलं ननृतुरङ्गना: ।
नाविदन्नपि च नीविकां किमपि कुन्तलीमपि च कञ्चुलीं
ज्योतिषामपि कदम्बकं दिवि विलम्बितं किमपरं ब्रुवे ॥८॥
| गानम्-ईश |
गीत हे ईश्वर |
| विरतं क्रमेण |
रुक जाने पर क्रमश: |
| किल वाद्य-मेलनम्- |
फहिर वाद्य यन्त्रों के मेल के भी |
| उपारतं |
थम जाने पर |
| ब्रह्म-सम्मद- |
ब्रह्मानन्द के |
| रस-आकुला: |
रस में निमग्न |
| सदसि केवलं |
समूह में केवल |
| ननृतु:-अङ्गना: |
नाचती रहीं गोपाङ्गनाएं |
| न-अविदन्-अपि च |
नहीं जान पाईं और |
| नीविकां किमपि |
नीविका के (खिसकने के) विषय मे कुछ भी |
| कुन्तलीम्-अपि |
केशों के अस्त व्यस्त हो जाने के विषय में |
| च कञ्चुलीम् |
और कञ्चुली के विषय में भी |
| ज्योतिषाम्-अपि |
(आकाश में) तारक गण भी |
| कदम्बकं |
अपनी परिधि में |
| दिवि विलम्बितं |
आकाश में लटके हुए से (रह गए) |
| किम्-अपरं ब्रुवे |
क्या अधिक कहा जाए |
हे ईश्वर! गीत के साथ साथ क्रमश: वाद्य यन्त्रों की संगत भी थम गई। किन्तु ब्रह्मानन्द में निमग्न गोपाङ्गनाएं समूह में नृत्य करती रहीं। सम्मोहित अवस्था में वे अपनी नीविका के खिसकने को नहीं जान पाईं, न ही अपने केशों के अस्त व्यस्त होने अथवा कञ्चुली के स्थान भ्रष्ट होने को समझ पाईं। और क्या कहा जाए, आकाश में तारक गण भी अपनी परिधि में स्तम्भित खडे रह गए।
मोदसीम्नि भुवनं विलाप्य विहृतिं समाप्य च ततो विभो
केलिसम्मृदितनिर्मलाङ्गनवघर्मलेशसुभगात्मनाम् ।
मन्मथासहनचेतसां पशुपयोषितां सुकृतचोदित-
स्तावदाकलितमूर्तिरादधिथ मारवीरपरमोत्सवान् ॥९॥
| मोदसीम्नि |
आनन्द की पराकाष्ठा में |
| भुवनं विलाप्य |
त्रिभुवन को निमग्न करके |
| विहृतिं समाप्य च |
क्रीडा को समाप्त कर के और |
| तत: विभो |
तब हे विभो! |
| केलि-सम्मृदित- |
क्रीडा से विक्षिप्त |
| निर्मल-अङ्ग- |
निर्मल (कोमल) अङ्ग वाली |
| नव-घर्म-लेश- |
स्वेद बिन्दुओं से |
| सुभग-आत्मनाम् |
सुन्दर देह वाली |
| मन्मथ-असहन- |
मन्मथ पीडा को न सहन करने वाले |
| चेतसां |
मानस वाली |
| पषुप-योषितां |
गोपाङ्गनाओं के |
| सुकृत-चोदित:- |
पुण्यों से प्रेरित हो कर |
| तावत्-आकलित-मूर्ति:- |
तब धारण कर के रूपों को |
| अदधिथ |
आयोजन किया |
| मारवीर-परम- |
उत्कृष्ट मदन |
| उत्सवान् |
उत्सव का |
रास क्रीडा के समाप्त होने पर त्रिभुवन आनन्द की पराकाष्ठा में निमज्जित हो गया। तब हे विभो! क्रीडाविक्षिप्त गोपाङ्गनाओं के कोमल अङ्गों पर नव स्वेद बिन्दु उभर आए, जिनसे वे बहुत ही सुन्दर लगने लगीं। मन्मथ पीडा को सहन न कर पाने से शिथिल हुए मानस वाली उन गोपाङ्गनाओं के पुण्यों से प्रेरित हो कर आपने अनेक रूप धारण किये और एक उत्कृष्ट मदनोत्सव का आयोजन किया।
केलिभेदपरिलोलिताभिरतिलालिताभिरबलालिभि:
स्वैरमीश ननु सूरजापयसि चारुनाम विहृतिं व्यधा: ।
काननेऽपि च विसारिशीतलकिशोरमारुतमनोहरे
सूनसौरभमये विलेसिथ विलासिनीशतविमोहनम् ॥१०॥
| केलि-भेद- |
नाना प्रकार की क्रीडाओं से |
| परिलोलिताभि:- |
श्रमित हुई |
| अति-लालिताभि:- |
और अत्यन्त दुलारी गईं |
| अबलालिभि: |
अबलाओं के साथ |
| स्वैरम्-ईश |
स्वेच्छा से हे ईश्वर! |
| ननु सूरजा-पयसि |
नि:सन्देह यमुना के जलों में |
| चारु-नाम् |
अत्यन्त सुन्दर |
| विहृतिं व्यधा: |
क्रीडा सम्पन्न कर के |
| कानने-अपि च |
वन में भी और |
| विसारि-शीतल- |
सम्प्रसारित शीतल |
| किशोर-मारुत- |
मन्द वायु |
| मनोहरे |
मनमोहक में |
| सून-सौरभमये |
पुष्पों की सुगन्ध से परिपूर्ण |
| विलेसिथ |
विचरण किया (आपने) |
| विलासिनी-शत- |
विलासिनी सैंकडों को |
| विमोहनम् |
विमोहित करने वाला |
हे ईश्वर! विभिन्न क्रीडाओं से श्रमित हुई और अत्यन्त दुलारी गई अबलाओं के साथ आपने नि:सन्देह यमुना के जल में स्वेछापूर्वक अत्यधिक सुन्दर विहार सम्पन्न किया। तत्पश्चात पुष्पों की सुगन्ध से युक्त मोहक और मन्द वायु से सम्प्रसारित वनों में भी विचरण किया जो सैंकडों विलासिनियों को विमोहित कर देने वाला था।
कामिनीरिति हि यामिनीषु खलु कामनीयकनिधे भवान्
पूर्णसम्मदरसार्णवं कमपि योगिगम्यमनुभावयन् ।
ब्रह्मशङ्करमुखानपीह पशुपाङ्गनासु बहुमानयन्
भक्तलोकगमनीयरूप कमनीय कृष्ण परिपाहि माम् ॥११॥
| कामिनी:-इति हि |
युवतियों को इसी प्रकार ही |
| यामिनीषु खलु |
रात्रियों में |
| कामनीयकनिधे |
हे कमनीय निधि! |
| भवान् |
आपने |
| पूर्ण-सम्मद- |
पूर्णानन्द के |
| रस-अर्णवं |
रस समुद्र का |
| कमपि |
किसी |
| योगि-गम्यम्- |
योगियों के अनुभव गम्य |
| अनुभावयन् |
अनुभव कराया |
| ब्रह्म-शङ्कर-मुखान्- |
ब्रह्मा शंकर आदि मुख्य |
| अपि-इह् |
भी यहां |
| पशुप-अङ्गनासु |
गोपिका जनों में |
| बहुमानयन् |
बहुत आदर करने लगे |
| भक्त-लोक- |
भक्त जनों के द्वारा |
| गमनीय-रूप |
प्राप्तव्य स्वरूप वाले |
| कमनीय कृष्ण |
हे कमनीय कृष्ण! |
| परिपाहि माम् |
रक्षा करें मेरी |
हे कमनीयता के निधि! इसी प्रकार आपने युवतियों को रात्रियों में उस आनन्दमय रसामृत से पूर्ण सागर का आस्वादन करवाया जो किसी योगी के लिए ही अनुभव गम्य है। यहां ब्रह्मा शंकर आदि प्रमुख देवता भी गोपिकाओं का बहुत आदर करने लगे। भक्त जनों के द्वारा प्राप्तव्य स्वरूप वाले, हे कमनीय कृष्ण! मेरी रक्षा करें।
|