दशक ९४
शुद्धा निष्कामधर्मै: प्रवरगुरुगिरा तत्स्वरूपं परं ते
शुद्धं देहेन्द्रियादिव्यपगतमखिलव्याप्तमावेदयन्ते ।
नानात्वस्थौल्यकार्श्यादि तु गुणजवपुस्सङ्गतोऽध्यासितं ते
वह्नेर्दारुप्रभेदेष्विव महदणुतादीप्तताशान्ततादि ॥१॥
शुद्धा: निष्काम-धर्मै: |
पवित्र निष्काम कर्म करने वाले |
प्रवर-गुरु-गिरा |
उत्कृष्ट गुरुओं की शिक्षा से |
तत्-स्वरूपं परं ते |
उस स्वरूप ब्रह्म आपके |
शुद्धं देह-इन्द्रिय-आदि- |
शुद्ध देह और इन्दियों आदि |
व्यपगतम्- |
से अतिक्रमण कर के |
अखिल-व्याप्तम्-आवेदयन्ते |
सर्व व्यापकत्व को जान कर |
नानात्व-स्थौल्य-कार्श्य-आदि |
विभिन्नता-मोटा पतला आदि |
तु गुणज-वपु:-सङ्गत:- |
तो गुण जन्य काया की सङ्गति से |
अध्यासितं ते |
अधिरोपित हैं आपके (ऊपर) |
वह्ने:-दारु-प्रभेदेषु-इव |
अग्नि में लकडी की विभिन्नता से जैसे |
महत्-अणुता-दीप्तता- |
बडी, छोटी, प्रचण्ड |
शान्तता-आदि |
शान्त आदि |
जिनके मन शुद्ध निष्काम कर्मों से पवित्र हो गए है, वे लोग, उत्कृष्ट गुरुओं की शिक्षा से आपके उस ब्रह्म स्वरूप का ज्ञान प्राप्त कर लेते हैं, जो शुद्ध है और देह इन्द्रियों से परे सर्व व्यापक है। उस स्वरूप की जो स्थूल अथवा कृश रूपी विभिन्नताएं लक्षित होती हैं, वे काया की त्रिगुणात्मक विभिन्नताओं की सङ्गति से आप पर अधिरोपित हैं, वैसे ही जैसे काष्ठ के बडे या छोटे होने से अग्नि बडी या छोटी प्रतीत होती है, अथवा प्रचण्ड और शान्त आदि जान पडती है।
आचार्याख्याधरस्थारणिसमनुमिलच्छिष्यरूपोत्तरार-
ण्यावेधोद्भासितेन स्फुटतरपरिबोधाग्निना दह्यमाने ।
कर्मालीवासनातत्कृततनुभुवनभ्रान्तिकान्तारपूरे
दाह्याभावेन विद्याशिखिनि च विरते त्वन्मयी खल्ववस्था ॥२॥
आचार्य-आख्य- |
गुरु उपदेश (है) |
अधरस्थ-अरणि- |
नीचे की मथनी काष्ठ |
समनुमिलत्-शिष्य-रूप- |
(ज्ञान के लिए) आया हुआ शिष्य रूप है |
उत्तर-अरणि- |
ऊपर की मथनी काष्ठ |
आवेध:-उद्भासितेन |
संघर्षण से उद्भासित (प्रज्ज्वलित) होने से |
स्फुटतर-परिबोध- |
परिष्कृत ज्ञान (उपजता है) |
अग्निना दह्यमाने |
अग्नि के द्वारा जला दिए जाने से |
कर्माली-वासना- |
कर्म जनित वासनाएं |
तत्-कृत-तनु- |
उससे उपजी |
भुवन-भ्रान्ति- |
जगत की भ्रान्ति |
कान्तार-पूरे |
(ऐसे) जङ्गल के जल जाने से |
दाह्य-अभावेन |
इन्धन के अभाव में |
विद्या-शिखिनि च विरते |
विद्या अग्नि के रुक जाने पर |
त्वत्-मयी खलु-अवस्था |
आपमे एकाकार की अवस्था ही रह जाती है |
गुरु उपदेश स्वरूप नीचे के मन्थन काष्ठ, और ज्ञानार्थ आये हुए शिष्य स्वरूप ऊपर के मन्थन काष्ठ में जब जब संघर्षण से अग्नि प्रज्ज्वलित होती हैं, तब-तब परिष्कृत ज्ञान उपजता है। जिस प्रकार इन्धन के अभाव में अग्नि शान्त हो जाती है, उसी प्रकार कर्म जनित वासना और उसके कारण उद्भूत जगत प्रपञ्च की भ्रान्ति का वन इन्धन उस ज्ञानाग्नि से जला दिए जाने पर वह, विद्याग्नि भी शान्त हो जाती है, और शेष रह जाती है आपमें एकाकार की अवस्था, अर्थात सच्चिदानन्दमय रूप तन्मयता।
एवं त्वत्प्राप्तितोऽन्यो नहि खलु निखिलक्लेशहानेरुपायो
नैकान्तात्यन्तिकास्ते कृषिवदगदषाड्गुण्यषट्कर्मयोगा: ।
दुर्वैकल्यैरकल्या अपि निगमपथास्तत्फलान्यप्यवाप्ता
मत्तास्त्वां विस्मरन्त: प्रसजति पतने यान्त्यनन्तान् विषादान्॥३॥
एवं त्वत्-प्राप्तित:-अन्य: |
इस प्रकार, आपकी प्राप्ति के अतिरिक्त |
न-हि खलु |
नहीं हैं निश्चय ही |
निखिल-क्लेश-हाने:-उपाय: |
समस्त क्लेशों को नष्ट करने के उपाय (साधन) |
न-एकान्त-अत्यन्तिका:-ते |
एकमात्र और अन्तत: गत्वा वे (उपाय) (कष्टों की पुनरावृति को रोकने में समर्थ हैं) |
कृषि-वत्- |
खेती के समान |
अगद-षाड्गुण्य- |
(अथवा) औषधियों के षट गुण (युक्त) |
षड्कर्म-योगा: |
षट कर्म युक्त योग |
दुर्वैकल्यै:-अकल्या: |
कठिनाई से किए जाते हैं, (और) असाध्य हैं |
अपि निगम-पथा:- |
यहां तक कि वैदिक पन्थ भी |
तत्-फलानि-अपि-अवाप्ता |
उनके (वेदों के) फल मिल जाने पर भी |
मत्ता:-त्वां विस्मरन्त: |
(लोग) मदमत्त हो कर आपको भूल जाते हैं |
प्रसजति पतने |
उन्मुख होते हैं पतन की ओर |
यान्ति-अनन्तान् विषादान् |
झेलते है अनन्त विषादों को |
समस्त क्लेशों को नष्ट करने के, निश्चय ही, आपकी प्राप्ति के अतिरिक्त, कोई भी उपाय नहीं हैं। षट गुण युक्त औषधियों की खेती, अथवा षट कर्म युक्त योग आदि कठिनाई से किए जाते हैं और असाध्य भी हैं। यहां तक कि वैदिक पन्थ भी अगम्य हैं। उनके फल यदि किसी को मिल भी जाते हैं तो, वे मद मस्त हो कर आपको भुला देते हैं और पतन की ओर उन्मुख हो कर अनन्त विषाद झेलते हैं।
त्वल्लोकादन्यलोक: क्वनु भयरहितो यत् परार्धद्वयान्ते
त्वद्भीतस्सत्यलोकेऽपि न सुखवसति: पद्मभू: पद्मनाभ ।
एवं भावे त्वधर्मार्जितबहुतमसां का कथा नारकाणां
तन्मे त्वं छिन्धि बन्धं वरद् कृपणबन्धो कृपापूरसिन्धो ॥४॥
त्वत्-लोकात्-अन्य-लोक: |
आपके लोक (वैकुण्ठ) से (अतिरिक्त) दूसरे लोक |
क्व-नु भय-रहित: |
कहां है निर्भयता |
यत् परार्ध-द्वय-अन्ते |
क्योंकि, परार्ध दो के अन्त में भी |
त्वत्-भीत:- |
आपसे डरे हुए |
सत्य-लोके-अपि |
सत्य लोक में भी |
न सुख-वसति: पद्मभू: |
नहीं सुख से रहते हैं ब्रह्मा |
पद्मनाभ |
हे पद्मनाभ! |
एवं भावे-तु- |
इस प्रकार से तो |
अधर्म-अर्जित-बहु-तमसां |
अधर्म से अर्जित अत्यन्त तामसिक |
का कथा नारकाणाम् |
क्या कहा जाय नारकी जनों के लिए |
तत्-मे त्वं |
इस लिए मेरे आप |
छिन्धि बन्धं |
काट दीजिये बन्धनों को |
वरद् कृपणबन्धो |
हे वरद! हे दीनानाथ! |
कृपापूरसिन्धो |
हे कृपा के परिपूर्ण सिन्धो! |
हे पद्मनाभ! आपके वैकुण्ठ लोक के अतिरिक्त निर्भयता और कहां है? दो परार्ध के अन्त में, आपसे भयभीत ब्रह्मा सत्यलोक में भी सुख से नहीं रह्ते हैं। हे दीनानाथ! जब ब्रह्मा की यह स्थिति है, तो अधर्म से अर्जित अत्यन्त तामसिक नारकी जनों की अवस्था के विषय में क्या कहा जाए? हे वरद! हे कृपापरिपूर्ण सिन्धो! इस लिए आप मेरे बन्धनों को काट दीजिए।
याथार्थ्यात्त्वन्मयस्यैव हि मम न विभो वस्तुतो बन्धमोक्षौ
मायाविद्यातनुभ्यां तव तु विरचितौ स्वप्नबोधोपमौ तौ ।
बद्धे जीवद्विमुक्तिं गतवति च भिदा तावती तावदेको
भुङ्क्ते देहद्रुमस्थो विषयफलरसान्नापरो निर्व्यथात्मा ॥५॥
याथार्थ्यात्- |
यथार्थत: |
त्वत्-मयस्य-एव |
आपके स्वरूपमय भी |
हि मम न विभो |
अवश्य मेरा नहीं (है) हे विभो! |
वस्तुत: बन्ध मोक्षौ |
वास्तव में बन्धन अथवा मोक्ष |
माया-विद्या-तनुभ्यां |
माया और विद्या रूप से |
तव तु विरचितौ |
आपका तो रचित है |
स्वप्न-बोध-उपमौ तौ |
स्वप्न और जाग्रत के समान दोनों |
बद्धे जीवत्-विमुक्तिं |
बन्धन, जीवित अवस्था में, और मुक्ति |
गतवति च भिदा |
प्राप्त होती है, और भिन्नता |
तावती तावत्-एको |
यह है कि, जबकी एक |
भुङ्क्ते देह-द्रुम-स्थ: |
भोग करता है शरीर रूपी वृक्ष में स्थित |
विषय-फल-रसात् |
विषय फलों के रस से |
न-अपर: निर्व्यथ-आत्मा |
नहीं अन्य (इसलिए) उसकी आत्मा व्यथा रहित है |
हे विभो! यथार्थत: मेरा बन्धन अथवा मोक्ष अवश्य आपका ही स्वरूपमय होने से, नहीं है। स्वप्न और जाग्रत अवस्था के ही समान, आपके द्वारा रचित माया और विद्या रूप से, जीवित अवस्था में बन्धन और मुक्ति प्राप्त होते हैं। भिन्नता यही है कि एक शरीर रूपी वृक्ष में स्थित हो कर विषय रूपी फलों के रसों का भोग करता है, दूसरा ऐसा नहीं करता और इसलिए उसकी आत्मा व्यथा रहित रहती है।
जीवन्मुक्तत्वमेवंविधमिति वचसा किं फलं दूरदूरे
तन्नामाशुद्धबुद्धेर्न च लघु मनसश्शोधनं भक्तितोऽन्यत् ।
तन्मे विष्णो कृषीष्ठास्त्वयि कृतसकलप्रार्पणं भक्तिभारं
येन स्यां मङ्क्षु किञ्चिद् गुरुवचनमिलत्त्वत्प्रबोधस्त्वदात्मा ॥६॥
जीवन्-मुक्तत्वम्- |
जीवन मुक्तत्व |
एवं-विधम्-इति वचसा |
इस प्रकार का होता है, इस कथन से |
किं फलं दूर दूरे |
क्या लाभ दूर दूर तक |
तत्-नाम-अशुद्ध-बुद्धे:- |
वह तो अपवित्र बुद्धि के लिए |
न च लघु मनस:-शोधनं |
और न ही नीच बुद्धि का संशोधन कर सकती है |
भक्तित:-अन्यत् |
भक्ति के अतिरिक्त (अन्य कुछ) |
तत्-मे विष्णो कृषीष्ठा:- |
इसलिए, मुझ पर हे विष्णो! करें (कृपा) |
त्वयि कृत-सकल-प्रार्पणं |
आपमें करके सब कुछ अर्पण |
भक्तिभारम् |
सुदृढ भक्ति (मिले) |
येन स्याम् मङ्क्षु |
जिससे हो जाऊं शीघ्र |
किञ्चित् गुरु-वचन-मिलत्- |
(और) कुछ गुरु के वचनों के मिल जाने से |
त्वत्-प्रबोध:-त्वत्-आत्मा |
आपका ज्ञान, आपका सारूप्य |
जीवन मुक्तत्व इस प्रकार का होता है, - जैसे कथनों से अपवित्र बुद्धि वालों को दूर दूर तक कोई लाभ नहीं होता। लेकिन भक्ति के अतिरिक्त और कुछ भी नीच बुद्धि का संशोधन नहीं कर सकती। हे विष्णो! इसलिए मुझ पर कृपा करें कि अपना सर्वस्व आपमें समर्पित कर के आपकी सुदृढ भक्ति प्राप्त कर सकूं। उस भक्ति से और गुरु के उपदेशों से मुझे आपका सम्यक ज्ञान और आपका सारूप्य शीघ्र ही प्राप्त हो।
शब्दब्रह्मण्यपीह प्रयतितमनसस्त्वां न जानन्ति केचित्
कष्टं वन्ध्यश्रमास्ते चिरतरमिह गां बिभ्रते निष्प्रसूतिम् ।
यस्यां विश्वाभिरामास्सकलमलहरा दिव्यलीलावतारा:
सच्चित्सान्द्रं च रूपं तव न निगदितं तां न वाचं भ्रियासम् ॥७॥
शब्द-ब्रह्मणि-अपि-इह |
सामवेदों आदि में भी यहां |
प्रयतित-मनस:- |
संलग्न मन वाले |
त्वां न जानन्ति केचित् |
आपको नहीं जानते हैं कुछ लोग |
कष्टं वन्ध्य-श्रमा:- ते |
खेद है कि निरर्थक परिश्रमी हैं वे |
चिरतरम्-इह गां |
बहुत समय के लिए जिस प्रकार यहां गाय का |
विभ्रते निष्प्रसूतिम् |
पोषण करते हैं प्रसवरहित का |
यस्यां विश्व-अभिरामा:- |
जिन (शास्त्रों) में लोकाभिराम |
सकल-मल-हरा: |
समस्त विकारों के हर्ता |
दिव्य-लीला-अवतारा: |
(आपके) दिव्य लीला अवतारों |
सत्-चित्-सान्द्रं |
(जो) सत चित से भरपूर |
च रूपं तव |
और रूप आपका |
न निगदितं |
न गायन करता हो |
तां न वाचं भ्रियासम् |
उनका नहीं शास्त्रों का अध्ययन करूंगा |
इस संसार में सामवेद आदि में संलग्न मन वाले अधिकांश लोग भी आपके सत्य स्वरूप को नहीं जानते। खेद है कि उनका परिश्रम वैसे ही निरर्थक है, जैसे बहुत समय तक बन्ध्या गाय का पोषण करना। जिन शास्त्रों में आपके समस्त विकारों के हर्ता दिव्य लीला अवतारों का, आपके सत चित से भरपूर लोकाभिराम रूप का गायन न होता हो, उनका अध्ययन मैं नहीं करूंगा।
यो यावान् यादृशो वा त्वमिति किमपि नैवावगच्छामि भूम-
न्नेवञ्चानन्यभावस्त्वदनुभजनमेवाद्रिये चैद्यवैरिन् ।
त्वल्लिङ्गानां त्वदङ्घ्रिप्रियजनसदसां दर्शनस्पर्शनादि-
र्भूयान्मे त्वत्प्रपूजानतिनुतिगुणकर्मानुकीर्त्यादरोऽपि ॥८॥
य: यावान् |
जो, जैसे |
यादृश: वा त्वम्- |
अथवा जिस प्रकार के आप (हैं) |
इति किम्-अपि न-एव- |
यह सब कुछ भी नहीं |
अवगच्छामि भूमन्- |
समझता हूं मैं हे भूमन! |
न-एवम्-च- |
और न ही |
अनन्य-भाव:- |
अन्य किसी भावना से रहित |
त्वत्-अनुभजनम्-एव- |
आपके निरन्तर भजन में ही |
आद्रिये चैद्यवैरिन् |
संलग्न रहूंगा हे चैद्यवैरिन! |
त्वत्-लिङ्गानाम् |
आपकी प्रतिमाओं का |
त्वत्-अङ्घ्रि- |
आपके चरणों के |
प्रिय-जन-सदसां |
प्रेमी जनों की सभाओं में |
दर्शन्-स्पर्शन-आदि:- |
(उनके) दर्शन और स्पर्श आदि |
भूयात्-मे |
प्राप्त हो मुझे |
त्वत्-प्रपूजा-नति-नुति |
आपकी पूजा अर्चना स्तुति |
गुण-कर्म-अनुकीर्ति:- |
आपके गुणों और लीलाओं की अनुकीर्ति में |
आदर:-अपि |
प्रेम भी (हो) |
हे भूमन! आप जो हैं, जैसे हैं, जिस प्रकार के हैं, यह सब कुछ भी मैं नहीं समझता। हे चैद्यवैरिन! मैं अनन्य भाव से, अन्य किसी भी भावना से रहित, निरन्तर आपके ही भजन में संलग्न रहूंगा। आपके चरणो के प्रेमीजनों की सभाओं में रुचि, उनके चरण स्पर्श, आपकी प्रतिमाओं के दर्शन आदि प्राप्त हो मुझे, और आपकी पूजा अर्चना स्तुति और आपके गुणों और लीलाओं के संकीर्तन में मेरी अभिरुचि हो।
यद्यल्लभ्येत तत्तत्तव समुपहृतं देव दासोऽस्मि तेऽहं
त्वद्गेहोन्मार्जनाद्यं भवतु मम मुहु: कर्म निर्मायमेव ।
सूर्याग्निब्राह्मणात्मादिषु लसितचतुर्बाहुमाराधये त्वां
त्वत्प्रेमार्द्रत्वरूपो मम सततमभिष्यन्दतां भक्तियोग: ॥९॥
यत्-यत्-लभ्येत |
जो कुछ भी मुझे मिले |
तत्-तत्-तव समुपहृतं |
वह सब आपको अर्पण कर दूं |
देव दास:-अस्मि ते-अहं |
हे देव! दास हूं आपका मैं |
त्वत्-गेह-उन्मार्जन-आद्यं |
आपके मन्दिर की सफाई आदि (करने का काम) |
भवतु मम मुहु: |
हो (प्राप्त) मुझे सदा |
कर्म निर्मायम्-एव |
कर्मों को निर्बाध ही (करता रहूं) |
सूर्य-अग्नि-ब्राह्मण- |
सूर्य अग्नि ब्राह्मण |
आत्मा-आदिषु |
(सभी) आत्माओं आदि में |
लसित-चतुर्बाहुम्- |
सुशोभित चतुर्भुज रूप में |
आराधये त्वां |
आराधन करूं आपका |
त्वत्-प्रेम-आर्द्रत्व-रूप: |
आपके प्रेम से द्रवीभूत स्वरूप |
मम सततम्-अभिष्यन्दतां |
मुझमें सर्वदा प्रवाहित हो |
भक्तियोग: |
भक्ति योग |
इस संसार में मुझे जो कुछ भी मिले, वह सब मैं आपको समर्पित कर दूं। हे देव! मैं आपका दास हूं। आपके मन्दिर आदि की सफाई रूपी सेवा कार्य मुझे निरन्तर प्राप्त हो, और सभी कर्मों को मैं निष्कपट भाव से करता रहूं। सूर्य, अग्नि, ब्राह्मण, और सभी आत्माओं में मैं आपके सुशोभित चतुर्भुज रूप की आराधना करूं। आपके प्रेम से द्रवीभूत भक्ति योग का स्वरूप मुझमें सर्वदा प्रवाहित हो।
ऐक्यं ते दानहोमव्रतनियमतपस्सांख्ययोगैर्दुरापं
त्वत्सङ्गेनैव गोप्य: किल सुकृतितमा प्रापुरानन्दसान्द्रम् ।
भक्तेष्वन्येषु भूयस्स्वपि बहुमनुषे भक्तिमेव त्वमासां
तन्मे त्वद्भक्तिमेव द्रढय हर गदान् कृष्ण वातालयेश ॥१०॥
ऐक्यं ते |
एक्य आपके साथ |
दान-होम-व्रत-नियम-तप:- |
दान, यज्ञ, व्रत, नियम, तपस्या आदि |
सांख्य-योगै:-दुरापं |
सांख्य योगों के द्वारा दुस्साध्य है |
त्वत्-सङ्गेन-एव |
(केवल) आपके संग से ही |
गोप्य: किल |
गोपिकाओं ने निश्चय ही |
सुकृतितमा:-प्रापु:- |
पुण्यशालिनी ने पा लिया |
आनन्द-सान्द्रम् |
आनन्द घनीभूत |
भक्तेषु-अन्येषु |
भक्तों में अन्यों में |
भूय:सु-अपि |
अनेक होने पर भी |
बहु-मनुषे भक्तिम्-एव |
अत्यधिक सम्मान (देते हैं) (उस) भक्ति को ही |
त्वम्-आसां |
आप इनकी (गोपिकाओं की) |
तत्-मे त्वत्-भक्तिम्-एव |
इसलिए मुझ में आपकी भक्ति ही |
द्रढय हर गदान् |
सुदृढ (कीजिए) हरण कीजिए क्लेशों का |
कृष्ण वातालयेश |
हे कृष्ण वातालयेश |
हे कृष्ण! सांख्य योग के दान, यज्ञ, व्रत, नियम, तपस्या आदि से आपके साथ एक्य भाव सुलभ नहीं है। पुण्यशालिनी गोपिकाओं ने केवल आपके संग से ही घनीभूत आनन्द पा लिया था। आपके और भी अन्य भक्त होते हुए भी, आप इन गोपिकाओं की भक्ति को ही अत्यधिक सम्मान देते हैं। हे वातालयेश! इसलिए, मुझ में भी आपकी भक्ति ही सुदृढ कीजिए और मेरे क्लेशों का हरण कीजिए।
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