Shriman Narayaneeyam

दशक 92 | प्रारंभ | दशक 94

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दशक ९३

बन्धुस्नेहं विजह्यां तव हि करुणया त्वय्युपावेशितात्मा
सर्वं त्यक्त्वा चरेयं सकलमपि जगद्वीक्ष्य मायाविलासम् ।
नानात्वाद्भ्रान्तिजन्यात् सति खलु गुणदोषावबोधे विधिर्वा
व्यासेधो वा कथं तौ त्वयि निहितमतेर्वीतवैषम्यबुद्धे: ॥१॥

बन्धु-स्नेहं विजह्यां बन्धुजनों के स्नेह को छोड दूंगा
तव हि करुणया आपकी ही करुणा से
त्वयि-उपावेशित-आत्मा आपमें ही सुस्थित करके (अपनी) आत्मा को
सर्वं त्यक्त्वा चरेयं सर्वस्व का त्याग करके विचरण करूंगा
सकलम्-अपि जगत्-वीक्ष्य समस्त संसार को देख कर
माया-विलासम् माया का ही प्रपञ्च
नानात्वात्-भ्रान्तिजन्यात् विविधता के कारण और मिथ्या धारणा से
सति खलु गुण-दोष- होता है गुण और दोष
अवबोधे विधि:-वा का ज्ञान, (उसमें) भी उचित
व्यासेध: वा कथं तौ या अनुचित कैसे दोनों
त्वयि निहित-मते:- आपमें स्थित बुद्धि वाले को
वीत-वैषम्य-बुद्धे: (जो) अतिक्रमण कर गया है वैषम्य बुद्धि को

आपकी ही करुण कृपा से मैं अपने स्वजनों का स्नेह त्याग दूंगा। अपनी आत्मा को आपमें ही सुस्थिर करके सर्वस्व त्याग कर विचरण करूंगा। माया के प्रपञ्च से ही विविधता और मिथ्या धारणा के कारण ही गुण और दोष का बोध होता है। किन्तु आपमें स्थित बुद्धिवाले की वैषम्य बुद्धि का अतिक्रमण हो जाता है। फिर उसके लिए विधि और निषेध (उचित और अनुचित) कैसे हो सकते हैं?

क्षुत्तृष्णालोपमात्रे सततकृतधियो जन्तव: सन्त्यनन्ता-
स्तेभ्यो विज्ञानवत्त्वात् पुरुष इह वरस्तज्जनिर्दुर्लभैव ।
तत्राप्यात्मात्मन: स्यात्सुहृदपि च रिपुर्यस्त्वयि न्यस्तचेता-
स्तापोच्छित्तेरुपायं स्मरति स हि सुहृत् स्वात्मवैरी ततोऽन्य: ॥२॥

क्षुत्-तृष्णा-लोप-मात्रे भूख और प्यास की शान्ति के लिए केवल
सतत-कृत-धिय: सदा प्रयत्नशील बुद्धि वाले
जन्तव: सन्ति-अनन्ता:- जन्तु होते हैं अनेक
तेभ्य: विज्ञानवत्त्वात् उनमें से विवेकशील होने के कारण
पुरुष इह वर:- मनुष्य यहां श्रेष्ठ है
तत्-जनि:-दुर्लभ-एव (इसलिए) वह (मनुष्य) जन्म दुर्लभ ही है
तत्र-अपि-आत्मा-आत्मन: उसमें भी स्वयं स्वयं का ही
स्यात्-सुहृत्-अपि च रिपु:- होता है मित्र भी और शत्रु (भी)
त्वयि न्यस्त-चेता:- आपमें स्थित चित्त वाले
ताप-उच्छित्ते:-उपायं तापों को नष्ट करने के एकमात्र साधन (आपका)
स्मरति स हि सुहृत् स्मरण करते हैं, वे ही मित्र हैं
स्व-आत्म-वैरी तत:-अन्य: स्वयं की आत्मा के वैरी इससे अन्य लोग हैं

इस पृथ्वी पर एकमात्र भूख और प्यास की शान्ति के लिए क्रियाशील बुद्धि वाले जन्तु, अनेक हैं। विवेकशील होने के कारण ही, उनमें, मनुष्य श्रेष्ठ हैं। इसलिए यह मनुष्य जन्म दुर्लभ है। यह जन्म पा कर भी मनुष्य स्वयं अपना मित्र और स्वयं ही अपना शत्रु भी हो सकता है। भव तापों को नष्ट करने वाले एकमात्र साधन आपमें चित्त लगा कर आपका स्मरण करने वाले ही स्वयं आपनी आत्मा के बन्धु होते हैं। इसके विपरीत, आपका स्मरण न करने वाले अपनी ही अत्मा के वैरी होते हैं।

त्वत्कारुण्ये प्रवृत्ते क इव नहि गुरुर्लोकवृत्तेऽपि भूमन्
सर्वाक्रान्तापि भूमिर्नहि चलति ततस्सत्क्षमां शिक्षयेयम् ।
गृह्णीयामीश तत्तद्विषयपरिचयेऽप्यप्रसक्तिं समीरात्
व्याप्तत्वञ्चात्मनो मे गगनगुरुवशाद्भातु निर्लेपता च ॥३

त्वत्-कारुण्ये प्रवृत्ते (जब) आपकी करुणा सञ्चालित होती है
क इव न हि गुरु:- कौन ऐसा है, जो नहीं (होता) गुरु
लोक-वृत्ते-अपि (इस) लोक व्यवहार में भी
भूमन् हे भूमन!
सर्वाक्रान्ता-अपि भूमि:- सबसे आक्रान्ता भूमि
न-हि चलति विचलित नहीं होती
तत:-सत्क्षमां शिक्षयेयम् वहां से (मैं) समुन्नत क्षमा सीखूं
गृह्णीयाम्-ईश ग्रहण करूं, हे ईश्वर!
तत्-तत्-विषय- उन उन वस्तुओं के
परिचये-अपि- सम्पर्क होने पर भी
अप्रसक्तिं समीरात्- अनासक्ति वायु से
व्याप्तत्वम्-च-आत्मन: मे और सर्वव्यापकता आत्मा की मेरी
गगन-गुरु-वशात्- गगन के गुरुरूप से
भातु निर्लेपता च और प्रकाशित हो निर्लिप्तता भी

हे भूमन! आपकी करुणा का सञ्चार होने पर, लौकिक व्यवहार में भी कौन ऐसा है जो गुरु नहीं होता। धरती सभी के द्वारा आक्रान्त होने पर भी विचलित नहीं होती। वहां से मैं समुन्नत क्षमा सीखूं। हे ईश्वर! विभिन्न वस्तुओं के सम्पर्क में आने पर भीजिस प्रकार वायु अनासक्त रहती है, मैं भी रहूं। गगन को गुरु रूप में पा कर, यह तथ्य मुझमें प्रकाशित हो कि मेरी आत्मा सर्वव्यापक है और निर्लिप्त है।

स्वच्छ: स्यां पावनोऽहं मधुर उदकवद्वह्निवन्मा स्म गृह्णां
सर्वान्नीनोऽपि दोषं तरुषु तमिव मां सर्वभूतेष्ववेयाम् ।
पुष्टिर्नष्टि: कलानां शशिन इव तनोर्नात्मनोऽस्तीति विद्यां
तोयादिव्यस्तमार्ताण्डवदपि च तनुष्वेकतां त्वत्प्रसादात् ॥४॥

स्वच्छ: स्यां निर्मल होऊं
पावन:-अहं पवित्र मैं
मधुर उदक-वत्- मधुर जल के समान
वह्नि-वत्-मा स्म गृह्णां अग्नि के समान नहीं ग्रहण करूं
सर्व-अन्नीन:-अपि दोषं सर्वभक्षी होने पर भी दोष (उन पदार्थों के)
तरुषु तम्-इव वृक्षों में जिस प्रकार अग्नि (निहित है)
मां सर्व-भूतेषु-अवेयाम् मुझको ही समस्त जीवों में (व्याप्त) जानूं
पुष्टि-नष्टि: कलानां बढना और घटना कलाओं का
शशिन:-इव-तनो:- चन्द्र के समान शरीर का (होता है)
न-आत्मन:- न कि आत्मा का
अस्ति-इति विद्यां होता है ऐसा ज्ञान
तोय-आदि-व्यस्त- जल आदि में बिम्बित
मार्ताण्ड-वत्-अपि च और सूर्य के समान भी
तनुषु-एकतां सभी शरीर धारियों में एकता (का आभास)
त्वत्-प्रसादात् आपके प्रसाद से

हे भगवन! आपके कृपा प्रसाद से मैं मधुर जल के समान निर्मल और पवित्र (स्वभाव वाला) हो जाऊं। जिस प्रकार अग्नि सर्वभक्षी होने पर भी उन पदार्थों के दोष ग्रहण नहीं करती,मैं भ किसी के दोषों को ग्रहण नहीं करूं। जिस प्रकार अग्नि सभी वृक्षों में नीहित है, मैं भी अपनी आत्मा को समस्त जीवों में व्याप्त जानूं। चन्द्रमां की कलाएं बढती और घटती हैं, चन्द्र नहीं, इसी प्रकार शरीर का नाश और विकास होता है, आत्मा का नहीं, ऐसा ज्ञान प्राप्त करूं। जिस प्रकार जल के विभिन्न पात्रों में एक ही सूर्य बिम्बित होता है उसी प्रकार सभी शरीर धारियों में मैं एकता का आभास पाऊं।

स्नेहाद् व्याधात्तपुत्रप्रणयमृतकपोतायितो मा स्म भूवं
प्राप्तं प्राश्नन् सहेयं क्षुधमपि शयुवत् सिन्धुवत्स्यामगाध: ।
मा पप्तं योषिदादौ शिखिनि शलभवत् भृङ्गवत्सारभागी
भूयासं किन्तु तद्वद्धनचयनवशान्माहमीश प्रणेशम् ॥५॥

स्नेहात्-व्याध- स्नेह वश व्याध ( के द्वारा)
आत्त-पुत्र-प्रणय- पड कर पुत्र प्रेम में
मृत-कपोत-आयित: मर गया था कबूतर उन (पुत्रों) के ही साथ
मा स्म भूवं (वैसा पुत्र स्नेही) न बनूं मैं
प्राप्तं प्राश्नन् सहेय यत्किञ्चित प्राप्त को खा कर सहन करूं
क्षुधम्-अपि शयु-वत् भूख को भी अजगर के समान
सिन्धु-वत्-स्याम्-अगाध: सागर के समान गम्भीर होऊं
मा पप्तं योषित्-आदौ न पतन को प्राप्त करूं युवतियों के (मोह में)
शिखिनि शलभ-वत् अग्नि पर पतन्गों के समान
भृङ्ग-वत्-सार-भागी भूयासं भौंरों के समान सार ग्राही सदा (बनूं)
किन्तु तत्-वत्-धन-चयन- किन्तु उसके समान धन के सञ्चय
वशात्-मा-अहम्- के कारण न मैं
ईश प्रणेशम् हे ईश्वर! प्रनष्ट हो जाऊं

हे ईश्वर! जिस प्रकार कबूतर अपनी सन्तान के प्रेमवश उन्हीं के साथ व्याध के द्वारा मार दिया गया, वैसा कुटुम्ब स्नेही मैं न बनूं। अजगर के समान यत्किञ्चित प्राप्त को खाकर रहूं और भूख को सहन करूं। सागर के समान गम्भीर बनूं। अग्नि पर मोहित हो कर जिस प्रकार पतंगे नष्ट हो जाते हैं, उस प्रकार युवतियों पर मोहित हो कर मैं पतनोन्मुख न हूऊं। भौंरों के समान सार ग्राही बनूं किन्तु उनकी तरह धन सञ्चय के लोभ में नष्ट न हो जाऊं।

मा बद्ध्यासं तरुण्या गज इव वशया नार्जयेयं धनौघं
हर्तान्यस्तं हि माध्वीहर इव मृगवन्मा मुहं ग्राम्यगीतै: ।
नात्यासज्जेय भोज्ये झष इव बलिशे पिङ्गलावन्निराश:
सुप्यां भर्तव्ययोगात् कुरर इव विभो सामिषोऽन्यैर्न हन्यै ॥६॥

मा बद्ध्यासं तरुण्या न पडूं बन्धन में युवतियों के
गज इव वशया हाथी जिस प्रकार वश में (हथिनी के)
न-आर्जयेयं धन-औघं न अर्जन करूं धन अधिक
हर्ता-अन्य:-तं हि (क्योंकि) हरण अन्य (लोग) करलेते हैं उसका ही
माध्वीहर:-इव मधु संग्रह करने वाले की तरह
मृग-वत्-मा मुहं हिरण के समान न मोहित होऊं
ग्राम्य-गीतै: ग्राम्य गीतों से
न-अति-आसज्जेय न ही अत्यधिक आसक्ति हो
भोज्ये झष इव बलिशे भोज्य (पदार्थों में) मछली के समानbait में
पिङ्गला-वत्-निराश: सुप्यां पिङ्गला के समान अपेक्षा रहित सोऊं
भर्तव्य-योगात् भर्तव्य योग से
कुरर इव विभो कुररी पक्षी के समान, हे विभो!
सामिष:-अन्यै:-न हन्यै आमिष वहन करते हुए अन्य कुरर से न मारा जाऊं

हे विभो! जिस प्रकार हाथी हथिनी के वश में आ कर बन्धन में पड जाता है, मैं युवतियों के बन्धन में न पडूं। अधिक धन का अर्जन न करूं जिसका अन्य लोग उसी प्रकार हरण कर लें, जिस प्रकार मधु संग्रह करने वाले का मधु अन्य लोग ले लेते हैं। जिस प्रकार हिरण शिकारी की बीन से मोहित हो जाता है, उसी प्रकार मैं ग्राम्य गीतों से मोहित न होऊं। मेरी आसक्ति भोज्य पदार्थों में उसी प्रकार न हो जिस प्रकार मछली की बांस में लगे चारे में होती है। पिङ्गला के समान भर्तव्य योग की अपेक्षा से रहित हो कर सोऊं। आमिष वहन करते हुए कुररी पक्षी, जैसे अन्य कुररी पक्षियों द्वारा मार दिया जाता है, वैसे मैं रक्षणीय धन के कारण औरों के द्वारा न मारा जाऊं।

वर्तेयं त्यक्तमान: सुखमतिशिशुवन्निस्सहायश्चरेयं
कन्याया एकशेषो वलय इव विभो वर्जितान्योन्यघोष: ।
त्वच्चित्तो नावबुध्यै परमिषुकृदिव क्ष्माभृदायानघोषं
गेहेष्वन्यप्रणीतेष्वहिरिव निवसान्युन्दुरोर्मन्दिरेषु ॥७॥

वर्तेय त्यक्तमान: व्यवहार करूं त्याग करके मान अपमान का
सुखम्-अति-शिशु-वत्- सुख से शिशु के समान
निस्सहाय:-चरेयं निस्सहाय (अकेला) विचरण करूं
कन्याया:-एक-शेष: कन्या की एकमात्र शेष
वलय इव विभो चूडी की तरह, हे विभो!
वर्जितानि-उन्य-घोष: अकेले बिना कोलाहल के
त्वत्-चित्त: आपमें दत्त चित्त
न-अवबुध्यै परम्- न जानूं अन्य कुछ
इषु-कृत्-इव बाण बनाने वाले के समान
क्ष्माभृत-आयान-घोषं राजा के रथ के आने की घोषणा (जो नहीं सुनता)
गेहेषु-अन्य-प्रणीतेषु- घरों मे दूसरों के द्वारा बनाए हुए
अहि:-इव निवसानि- सर्प की भांति, रहूं
उन्दुरो:-मन्दिरेषु चूहे के बिलों के समान

हे विभो! मान और अपमान का त्याग कर शिशु के समान सुख से रहूं। कन्या की अन्तिम एकमात्र चूडी के समान कोलाहल रहित हो कर अकेला निस्सहाय विचरण करूं। आपमें ही दत्तचित्त होकर अन्य कुछ भी वैसे ही जानूं जैसे बाण बनाने वाला शिल्पी राजा के आने की घोषणा भी नहीं सुन पाता है। दूसरों के बनाए हुए घरों में, चूहे के बनाए हुए बिलों में सर्प की भांति रहूं ताकि मुझे गृहासक्ति न हो।

त्वय्येव त्वत्कृतं त्वं क्षपयसि जगदित्यूर्णनाभात् प्रतीयां
त्वच्चिन्ता त्वत्स्वरूपं कुरुत इति दृढं शिक्षये पेशकारात् ।
विड्भस्मात्मा च देहो भवति गुरुवरो यो विवेकं विरक्तिं
धत्ते सञ्चिन्त्यमानो मम तु बहुरुजापीडितोऽयं विशेषात् ॥८॥

त्वयि-एव त्वत्-कृतं आपमें ही आपके द्वारा निर्मित
त्वं क्षपयसि जगत्- आप लीन कर लेते हैं जगत को
इति-ऊर्णनाभात् प्रतीयां यह (ज्ञान) मकडी से प्राप्त करूं
त्वत्-चिन्ता त्वत्-स्वरूपं आपका ध्यान आपके स्वरूप
कुरुत इति दृढं शिक्षये करता है, ऐसा दृढता से सीखूं
पेशकारात् भंवरे से
विड्-भस्म-आत्मा विष्ठा और भस्म की परिणति युक्त
च देह:-भवति गुरुवर: और शरीर होता है श्रेष्ठ गुरु
य: विवेकं विरक्तिं धत्ते जिससे विवेक और विरक्ति प्रदान करता है
सञ्चिन्त्यमान: विचार किए जाने पर
मम तु बहु-रुजा-पीडित:- मेरी (देह) तो अनेक रोगों से पीडित है
अयं विशेषात् यह विशेष कर

मकडी से मै यह ज्ञान प्राप्त करूं कि अपने द्वारा रचित यह जगत आप अपने में लीन कर लेते हैं। आपका ध्यान करने से आपका सारूप्य प्राप्त होता है, यह दृढ शिक्षा भंवरा सिखाता है। जिस शरीर की परिणति विष्ठा और भस्म है, वह महान गुरु है, क्योंकि सम्यक विचार करने से ज्ञात होता है कि वही विवेक और विरक्ति प्रदान करता है, विशेष कर मेरी यह देह जो अनेक रोगों से आक्रान्त है।

ही ही मे देहमोहं त्यज पवनपुराधीश यत्प्रेमहेतो-
र्गेहे वित्ते कलत्रादिषु च विवशितास्त्वत्पदं विस्मरन्ति ।
सोऽयं वह्नेश्शुनो वा परमिह परत: साम्प्रतञ्चाक्षिकर्ण-
त्वग्जिह्वाद्या विकर्षन्त्यवशमत इत: कोऽपि न त्वत्पदाब्जे ॥९॥

ही ही देह मोहं त्यज हाय! हाय! शरीर के मोह का त्याग कराइए
पवनपुराधीश हे पवनपुराधीश!
यत्-प्रेम-हेतो:- जिस (देह) प्रेम के कारण
गेहे वित्ते कलत्र-आदिषु घर में, धन में, स्त्री आदि में
च विवशिता:- और (तत्जनित) विवशता से
त्वत्-पदं विस्मरन्ति आपके चरणों को (हम) भूल जाते हैं
स:-अयं वह्ने:-शुन: वा वह यह (शरीर) अग्नि अथवा कुत्ते के (योग्य)
परम्-इह परत: मात्र (है) यहां (इस जगत में) अन्तत:
साम्प्रतम्-च- अभी भी और
अक्षि-कर्ण-त्वक्-जिह्वा-आद्या आंखें, कान, त्वचा, जिह्वा आदि
विकर्षन्ति-अवशम्-अत:-इत:- खींचती हैं, असहाय (की भांति) इधर उधर
क:-अपि न त्वत्-पदाब्जे कोई भी नहीं, आपके पद कमलों की(ओर) खींचती

हे पवनपुराधीश! कृपा करके देह के मोह का त्याग कराइये। इस देह प्रेम के कारण ही घर, धन, स्त्री आदि में आसक्ति होती है और तत्जनित विवशता से हम आपके चरणों को भूल जाते हैं। इस जगत में अन्तत: यह शरीर केवलमात्र अग्नि या कुत्ते के भोजन के योग्य है। और अभी भी, जीवित अवस्था में भी, आंखें, कान, त्वचा, जिह्वा आदि इसको असहाय की भांति इधर से उधर खींचती रहती हैं। किन्तु हाय! कोई भी आपके चरण कमलों की ओर प्रेरित नहीं करती।

दुर्वारो देहमोहो यदि पुनरधुना तर्हि निश्शेषरोगान्
हृत्वा भक्तिं द्रढिष्ठां कुरु तव पदपङ्केरुहे पङ्कजाक्ष ।
नूनं नानाभवान्ते समधिगतममुं मुक्तिदं विप्रदेहं
क्षुद्रे हा हन्त मा मा क्षिप विषयरसे पाहि मां मारुतेश ॥१०॥

दुर्वार: देह-मोह: दुष्कर (है) देह मोह (छोडना)
यदि पुन:-अधुना यदि फिर अभी (है)
तर्हि निश्शेष-रोगान् हृत्वा तब अनन्त रोगों का विनाश करके
भक्तिं द्रढिष्ठां कुरु (मेरी) भक्ति को सुदृढ कीजिए
तव पद-पङ्करुहे आपके चरण कमलों में
पङ्कजाक्ष हे पङ्कजाक्ष!
नूनं नाना-भवान्ते निस्सन्देह अनेक जन्मों के बाद
समधिगतम्-अमुं पाए हुए इस
मुक्तिदम् विप्रदेहं मुक्ति प्रदाता ब्राह्मण शरीर को
क्षुद्रे हा हन्त तुच्छ, हाय! हत भाग्य!
मा मा क्षिप विषय-रसे नहीं नहीं उच्छिष्ट करें विषय रसों में
पाहि मां मारुतेश रक्षा करें मेरी, हे मारुतेश!

फिर, यदि, अभी इस देह मोह का त्याग दुष्कर है, तो मेरे अनन्त रोगों का विनाश करके आपके चरण कमलों में भक्ति को सुदृढ कीजिए। हे पङ्कजाक्ष! निस्सन्देह अनेक जन्मों के अन्त में पाए हुए इस मुक्ति प्रदाता ब्राह्मण शरीर को, दया करके, तुच्छ विषय रसों की ओर मत ढकेलिए। हे मारुतेश! मेरी रक्षा कीजिए।

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