दशक ५
व्यक्ताव्यक्तमिदं न किञ्चिदभवत्प्राक्प्राकृतप्रक्षये
मायायाम् गुणसाम्यरुद्धविकृतौ त्वय्यागतायां लयम् ।
नो मृत्युश्च तदाऽमृतं च समभून्नाह्नो न रात्रे: स्थिति-
स्तत्रैकस्त्वमशिष्यथा: किल परानन्दप्रकाशात्मना ॥१॥
व्यक्त-अव्यक्तम्-इदं |
व्यक्त, अव्यक्त यह |
न किञ्चित्-अभवत्- |
नहीं कुछ भी था (वर्तमान) |
प्राक्-प्राकृत-प्रक्षये |
पहले प्रकृत प्रलय के |
मायायाम् |
माया में ही |
गुण-साम्य-रुद्ध-विकृतौ |
(तीनों) गुणों के सम हो जाने से रुक गई थी विकृतियां |
त्वयि आगतायां लयम् |
आपमें ही आकर् लीन हो गई थी |
नो मृत्यु: च |
न मृत्यु और |
तदा-अमृतं च |
और उस समय अमरता (मोक्ष) |
समभूत- |
नहीं थे |
न-अह्न: |
न दिअन |
न रात्रे: |
न रात्रि |
स्थिति: |
स्थित थे |
तत्र-एक: - त्वम्- |
वहां एकमात्र आप ही |
अशिष्यथा: किल |
शेष थे निश्चय ही |
परानन्द-प्रकाश-आत्मना |
परमानन्द के प्रकाश स्वरूप स्वयं |
यह व्यक्त अथवा अव्यक्त जगत्, उस समय प्राकृत प्रलय के पहले कुछ भी नहीं था। माया में तीनों गुणों के समान हो जाने से कार्य कारण की विकृतियां सब आप ही में विलीन हो गईं थीं। उस समय मृत्यु और मोक्ष तथा दिन और रात्रि की भी स्थिति नहीं थी। निश्चय ही केवल आप ही स्वयं परमानन्द के प्रकाश स्वरूप से स्थित थे।
काल: कर्म गुणाश्च जीवनिवहा विश्वं च कार्यं विभो
चिल्लीलारतिमेयुषि त्वयि तदा निर्लीनतामाययु: ।
तेषां नैव वदन्त्यसत्त्वमयि भो: शक्त्यात्मना तिष्ठतां
नो चेत् किं गगनप्रसूनसदृशां भूयो भवेत्संभव: ॥२॥
काल: |
काल (समय) |
कर्म |
कर्म |
गुणा: - च |
और गुण |
जीवनिवहा: |
जीवमात्र |
विश्वं च कार्यं |
और यह जगत् (माया के) कार्य |
विभो |
हे विभो |
चित्-लीलारतिम्-एयुषि त्वयि |
चित्त की लीला में इच्छा (के समय) लीन हो जाती है आप ही में |
तदा |
तब, (उस समय) |
निर्लीनताम्-आययु: |
पूर्णरूप से विलीन हो जाती हैं |
तेषां न-एव वदन्ति- |
उनके लिये भी नहीं बोलती हैं (श्रुतियां) |
असत्त्वम्- |
(कि) ये मिथ्या हैं |
अयि भो: |
हे भगवन् |
शक्त्यात्मना तिष्ठतां |
(वे) कारण स्वरूप से रहती हैं (आपमें) |
नो चेत् किं |
नहीं तो क्या |
गगन-प्रसून-सदृशां |
आकाश कुसुम के समान |
भूय: भवेत्-संभव: |
फिर से (इनका) उत्पन्न होना सम्भव है |
हे विभो! जिस समय आपकी स्व स्वरूपानुसंधान स्वरूपा लीला में इच्छा उत्पन्न होती है, उस समय काल, तीनों गुण, जीव समूह, अखिल विश्व - ये सब माया के कार्य आपके चित्त स्वरूप में विलीन हो जाते हैं। आपमें कारणरूप से स्थित हुए इनको - काल कर्मादि को, श्रुतियां मिथ्या नहीं बताती हैं। वर्ना, आकाश कुसुम के समान क्या इनका फिर से उत्पन्न होना सम्भव है?
एवं च द्विपरार्धकालविगतावीक्षां सिसृक्षात्मिकां
बिभ्राणे त्वयि चुक्षुभे त्रिभुवनीभावाय माया स्वयम् ।
मायात: खलु कालशक्तिरखिलादृष्टं स्वभावोऽपि च
प्रादुर्भूय गुणान्विकास्य विदधुस्तस्यास्सहायक्रियाम् ॥३॥
एवं च |
और इस प्रकार |
द्वि-परार्ध-काल-विगतौ- |
द्वि परार्ध काल के समाप्त हो जाने पर |
ईक्षां सिसृक्षात्मिकां |
दृष्टि सृजनस्वरूपा (इच्छा वाली) |
बिभ्राणे त्वयि |
विकसित करने पर आपके |
चुक्षुभे |
विकम्पित हुई |
त्रिभुवनी-भावाय |
त्रिभुवन की सृष्टि के लिये |
माया स्वयम् |
माया स्वयं |
मायात: खलु |
माया से ही निश्चय ही |
काल-शक्ति: - |
काल शक्ति |
अखिल-अदृष्टं |
समस्त अदृष्ट (जीवों के कर्म) |
स्वभाव: -अपि च |
स्वभाव भी और |
प्रादुर्भूय |
प्रकट हो कर |
गुणान्-विकास्य |
गुणों को विकसित करके |
विदधु: - |
प्रवर्तित होते हैं |
तस्या: -सहायक्रियाम् |
उस माया की सहायता की क्रिया में |
इस प्रकार द्विपरार्ध काल के समाप्त हो जाने पर आपकी सृष्टि सृजन इच्छा के जागृत होने पर, आपकी दृष्टि पाकर माया स्वयं त्रिलोक की सृष्टि करने के लिये विकम्पित होती है। माया से ही निश्चित रूप से काल शक्ति, समस्त कर्म और कर्म फल और स्वभाव भी प्रकट हो कर गुणों को विकसित करते हैं, और इस प्रकार माया की सहायता करने की क्रिया में प्रवृत होते हैं।
मायासन्निहितोऽप्रविष्टवपुषा साक्षीति गीतो भवान्
भेदैस्तां प्रतिबिंबतो विविशिवान् जीवोऽपि नैवापर: ।
कालादिप्रतिबोधिताऽथ भवता संचोदिता च स्वयं
माया सा खलु बुद्धितत्त्वमसृजद्योऽसौ महानुच्यते ॥४॥
माया-सन्निहित: - |
माया से सन्निहित |
अप्रविष्ट-वपुषा |
(फिर भी माया से) अनाच्छादित स्वरूप से |
साक्षी-इति गीत: भवान् |
(मात्र) साक्षी इस प्रकार बताया है (वेदान्त ने) आपको |
भेदै: -तां |
(विभिन्न) भेदों के द्वारा उसको (मायाको) |
प्रतिबिंबत: |
प्रतिबिम्बित रूपसे |
विविशिवान् जीव: -अपि |
(माया में) प्रविष्ट हुए हैं, जीव भी |
न-एव-अपर: |
नहीं ही है अन्य कुछ |
काल-आदि-प्रतिबोधिता- |
(तदन्तर) कालादि से संक्षुब्ध हुई |
अथ भवता संचोदिता च |
और फिर आपकी प्रेरणा से |
स्वयं माया सा खलु |
स्वयं उस माया ने ही निश्चित रूप से |
बुद्धि-तत्त्वम्-असृजत्- |
बुद्धि तत्व की रचना की |
य: -असौ |
जो यह |
महान्-उच्यते |
महत् तत्त्व कहा जाता है |
मायासे संन्निहित फिर भी असंन्निहित रहकर, केवल साक्षी रूप से आप नाना प्रकार के भेदों के द्वारा उसमें (माया में) प्रतिबिम्बित होते हैं। जीव भी अन्य कुछ नहीं है, आप ही हैं। तदन्तर, कालादि से संक्षुब्ध हो कर एवं आपसे प्रेरित हो कर निश्चय ही माया ने ही बुद्धि की रचना की, जो महत् तत्व के नाम से जानी जाती है।
तत्रासौ त्रिगुणात्मकोऽपि च महान् सत्त्वप्रधान: स्वयं
जीवेऽस्मिन् खलु निर्विकल्पमहमित्युद्बोधनिष्पाद्क: ।
चक्रेऽस्मिन् सविकल्पबोधकमहन्तत्त्वं महान् खल्वसौ
सम्पुष्टं त्रिगुणैस्तमोऽतिबहुलं विष्णो भवत्प्रेरणात् ॥५॥
तत्र- |
वहां (माया में) |
असौ त्रिगुणात्मक: - अपि च |
वह (महत्) त्रिगुणात्मक हो कर भी और |
महान् |
महत् |
सत्त्वप्रधान: स्वयं |
सत्त्वप्रधान है स्वयं |
जीवे-अस्मिन् खलु |
जीवों में यह निश्चय ही |
निर्विकल्पम्-अहम्-इति- |
मैं निर्विकल्प हूं' इस प्रकार |
उद्बोध-निष्पाद्क: |
ज्ञान का देने वाला है |
चक्रे - अस्मिन् |
निर्माण किया है उसी (जीव) मे |
सविकल्प-बोधक- |
सविकल्प बोधक |
महत्-तत्वं |
अहंकार तत्व का |
महान् खलु-असौ |
यही महत् तत्व निश्चय ही |
सम्पुष्टं त्रिगुणै: - |
त्रिगुणों से परिपोषित हो कर |
तम: - अतिबहुलं |
तमोगुण की प्रधानता से |
विष्णो |
हे विष्णु! |
भवत् प्रेरणात् |
आपकी ही प्रेरणा से |
हे विष्णु! इस प्रकार माया के प्रभावों में, महत् तत्व त्रिगुणात्मक होते हुए भी सत्व प्रधान है और जीवो में "मैं निर्विकल्प हूं" इस प्रकार का ज्ञान जगाता है। उसी जीव में सविकल्प बोधक अहंकार तत्व का भी बोध कराता है, क्योंकि यह महत् तत्व, आपकी प्रेरणा से ही तमोप्रधान हो जाता है।
सोऽहं च त्रिगुणक्रमात् त्रिविधतामासाद्य वैकारिको
भूयस्तैजसतामसाविति भवन्नाद्येन सत्त्वात्मना
देवानिन्द्रियमानिनोऽकृत दिशावातार्कपाश्यश्विनो
वह्नीन्द्राच्युतमित्रकान् विधुविधिश्रीरुद्रशारीरकान् ॥६॥
स: - अहं च |
और वह अहंकार |
त्रिगुण-क्रमात् |
त्रिगुणों के क्रम से |
त्रिविधताम्-आसाद्य |
तीन भावों को प्राप्त करके |
वैकारिक: |
सात्विक |
भूय: तैजस-तामसौ- |
और फिर तैजसिक और तामसिक |
इति भवन्- |
इस प्रकार हो कर |
आद्येन सत्त्व-आत्मना |
प्रारम्भिक सात्विकता के द्वारा |
देवान्-इन्द्रियमानिन: -अकृत |
देवताओं को, जो इन इन्द्रियों के अधिष्ठातृ हैं, बनाया |
दिशा-वात-अर्क-पाशि-अश्विन: |
दिशा, वायु, सूर्य, वरुण और अश्विनि कुमार |
वह्नी-इन्द्र-अच्युत-मित्रकान् |
अग्नि, इन्द्र, भगवान विष्णु,, मित्र और प्रजापति |
विधु-विधि-श्रीरुद्र-शारीरकान् |
चन्द्र, ब्रह्मा, श्रीरुद्र, और क्षेत्रज्ञ |
उस अहंकार तत्व के तीनों गुणों पर अधारित तीन विभाग हुए - सात्विक, राजसिक एवं तामसिक। सात्विक अहंकार से दिक्, वायु, सूर्य, वरुण और अश्विनि कुमारों का प्रादुर्भाव हुआ जो श्रोत्र, त्वक्, चक्षु, जिह्वा और घ्राण - इन ज्ञानेन्द्रियों के अधिष्ठातृ देवता हैं। राजसिक अहंकार के द्वारा अग्नि, इन्द्र, भगवान विष्णु, मित्र और प्रजापति का प्रादुर्भाव हुआ जो वाक्, हस्थ, पाद, पायु, और उपस्थ -इन कर्मेन्द्रियों के अधिष्ठातृ देवता हैं। एवं तामसिक अहंकार से चन्द्र, ब्रह्मा, श्रीरुद्र और क्षेत्रज्ञ का प्रादुर्भाव हुआ जो मन, बुद्धि, अहंकार और चित्त - इन अन्त:करण चतुष्टय के अधिष्ठातृ देवता हैं।
भूमन् मानसबुद्ध्यहंकृतिमिलच्चित्ताख्यवृत्त्यन्वितं
तच्चान्त:करणं विभो तव बलात् सत्त्वांश एवासृजत् ।
जातस्तैजसतो दशेन्द्रियगणस्तत्तामसांशात्पुन-
स्तन्मात्रं नभसो मरुत्पुरपते शब्दोऽजनि त्वद्बलात् ॥७॥
भूमन् |
हे भूमन! |
मानस-बुद्धि-अहंकृति-मिलत्- |
मन बुद्धि अहंकार से संयुक्त |
चित्ताख्य-वृत्ति-अन्वितं |
चित्त नामक वृत्ति से संयुक्त |
तत्-च-अन्त: - करणं |
और उस अन्त:करण की |
विभो |
हे विभो |
तव बलात् |
आपके ही बल से |
सत्त्वांश: एव- |
सात्विक अंश से ही |
असृजत् |
रचना की |
जात: - तैजसत: |
पैदा हुआ तैजस से |
दश-इन्द्रिय-गण: |
दश इन्द्रियों का समूह |
तत्-तामस-अंशात्- |
उसके (अहंकार तत्त्व के) तामसिक अंश से |
पुन: |
फिर |
तन्मात्रं नभस: |
तन्मात्र आकाश का |
मरुत्पुरपते |
हे मरुत्पुरपति! |
शब्द्: -अजनि |
शब्द पैदा हुआ |
त्वत्-बलात् |
आपके ही बल से |
हे भूमन! आपकी इच्छा शक्ति ने ही अहंकार के सत्वांश से मन बुद्धि और अहंकार से युक्त चित्त नामक वृत्ति सहित अन्त:करण की रचना की। हे विभो! अहंकार तत्व के तैजसिक अंश से दश इन्द्रियों का समूह पैदा हुआ। हे मरुत्पुरपति! आपके ही बल से फिर उसके तामसिक अंश से आकाश का तन्मात्र स्वरूप शब्द पैदा हुआ।
शब्दाद्व्योम तत: ससर्जिथ विभो स्पर्शं ततो मारुतं
तस्माद्रूपमतो महोऽथ च रसं तोयं च गन्धं महीम् ।
एवं माधव पूर्वपूर्वकलनादाद्याद्यधर्मान्वितं
भूतग्राममिमं त्वमेव भगवन् प्राकाशयस्तामसात् ॥८॥
श्ब्दात्-व्योम |
शब्द से आकाश |
तत: ससर्जिथ |
तब रचना की |
विभो |
हे विभो! |
स्पर्शं |
स्पर्श |
तत: मारुतं |
उससे वायु |
तस्मात्-रूपम्- |
उससे रूप |
अत: मह: - |
फिर तेज |
अथ च रसं |
और फिर रस |
तोयं च गन्धं महीम् |
जल गन्ध और पृथ्वी |
एवं माधव |
इस प्रकार हे माधव! |
पूर्व-पूर्व-कलनात्- |
पहले वाले के पहले अंश से |
आद्य-आद्य-धर्म-अन्वितं |
उन पहले वालों के लक्षणो सहित |
भूत-ग्रामम्-इममं |
इस भूत समूह का |
त्वमेव भगवन् |
आप ही ने भगवन |
प्राकाशय: |
प्रकाशित किया |
तामसात् |
तामसिक अंश से |
हे विभो! शब्द से आकाश की, उससे स्पर्श की, उससे फिर वायु की, उससे रूप, उससे तेज और फिर रस, उससे जल, गन्ध और पृथ्वी की रचना की। इस प्रकार हे माधव! पहले पहले की रचना से उन्हीं उन्हीं के लक्षणों से युक्त इस भूत समूह को आपने तामस अहंकार से प्रकट किया।
एते भूतगणास्तथेन्द्रियगणा देवाश्च जाता: पृथङ्-
नो शेकुर्भुवनाण्डनिर्मितिविधौ देवैरमीभिस्तदा ।
त्वं नानाविधसूक्तिभिर्नुतगुणस्तत्त्वान्यमून्याविशं-
श्चेष्टाशक्तिमुदीर्य तानि घटयन् हैरण्यमण्डं व्यधा: ॥९॥
एते भूतगणा: - |
ये सब भूतगण |
तथा-इन्द्रियगणा: |
और इन्द्रियगण |
देवा: च |
और देवगण |
जाता: |
जो पैदा हुए थे |
पृथक् नो शेकु: - |
अलग से (स्वयंसे) नहीं सके |
भुवन-अण्ड-निर्मिति-विधौ |
जगत अण्ड के निर्माण करने की विधि में |
देवै: अमीभि: तदा |
इन देवों के द्वारा तब |
त्वं नाना-विध-सूक्तिभि:-नुत-गुण:- |
आप नाना प्रकार की स्तुतियॊ के द्वारा पूजे गये |
तत्त्वानि-अमूनि-आविशन्- |
(तब) इन्हीं तत्वों में प्रवेश करके |
चेष्टा-शक्तिम्-उदीर्य |
(आपने) चेष्टा शक्ति को कार्यान्वित करके |
तानि घटयन् |
उन सब को परस्पर मिलाजुला कर |
हैरण्यम्-अण्डम् |
हिरण्यमय ब्रह्माण्ड की |
व्यधा: |
रचना की |
जब यह सब भूतगण, इन्द्रिय समुदाय और उनके अधिष्टातृ देवता गण स्वयं जगत अण्ड के निर्माण की विधि को नहीं जान पाए, तब उन देवताओं ने नाना प्रकार की स्तुतियों से आपकी स्तुति की। तब आपने उन विभिन्न तत्वों में प्रवेश कर के, उनकी क्रिया शक्ति को कार्यान्वित किया और फिर उन तत्वों को परस्पर संयुक्त कर के इस हिरण्यमय ब्रह्माण्ड की रचना की।
अण्डं तत्खलु पूर्वसृष्टसलिलेऽतिष्ठत् सहस्रं समा:
निर्भिन्दन्नकृथाश्चतुर्दशजगद्रूपं विराडाह्वयम् ।
साहस्रै: करपादमूर्धनिवहैर्निश्शेषजीवात्मको
निर्भातोऽसि मरुत्पुराधिप स मां त्रायस्व सर्वामयात् ॥१०॥
अण्डं तत्-खलु |
वह अण्ड निश्चय ही |
पुर्व-सृष्ट-सलिले- |
पूर्व रचित जल में |
अतिष्ठत् |
पडा रहा |
सहस्त्रं समा: |
हजारों वर्षों तक |
निर्भिन्दन्- |
(उसे) भेद कर |
अकृथा: - |
(आपने) बनाया |
चतुर्दश-जगत्-रूपं |
चौदह रूपी जगत |
विराट-अह्वयम् |
विराट स्वरूप कहलाता है जो |
साहस्त्रै: करपादमूर्धनिवहै: - |
हजार हाथ पैर और सिरों सहित |
निश्शेष जीवात्मक: |
सम्पूर्ण जीवात्मा के रूप में |
निर्भात: असि |
भासमान हो रहे हैं |
मरुत्पुराधिप |
हे मरुत्पुराधिप! |
स मां त्रायस्व |
वह (आप) मेरी रक्षा करें |
सर्व-आमयात् |
सभी रोगों से |
वह हिरण्यमय अण्ड पूर्व रचित जल में हजारों वर्षों तक पडा रहा। आपने उसको भेद कर चौदह भुवन रूपी विराट नाम से जाना जाने वाला जगत बनाया । सम्पूर्ण जीवात्मा के रूप में हजारों हाथ पैर एवं सिर सहित आप ही भासमान हो रहे हैं। हे ऐसे मरुत्पुराधिप! आप सभी रोगों से मेरी रक्षा करें।
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