Shriman Narayaneeyam

दशक 3 | प्रारंभ | दशक 5

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दशक ४

कल्यतां मम कुरुष्व तावतीं कल्यते भवदुपासनं यया ।
स्पष्टमष्टविधयोगचर्यया पुष्टयाशु तव तुष्टिमाप्नुयाम् ॥१॥

कल्यतां स्वास्थ्य
मम मेरा
कुरुष्व कृपा करें
तावतीं उतना हो
कल्यते (जिससे) कर सकूं
भवत्-उपासनं आपकी उपासना
यया जिससे
स्पष्टम्- निश्चयही
अष्ट-विध-योग-चर्यया अष्टविधि यॊग का आचरण करके
पुष्टय-आशु स्वस्थ हो कर शीघ्र ही
तव तुष्टिम् आपकी तुष्टि
आप्नुयाम् प्राप्त कर सकूं

हे ईश! मुझको कम से कम इतना स्वास्थ्य प्रदान कीजिये जिससे मैं आपकी उपासना कर सकूं। फिर निश्चय ही अष्टाङ्ग योग का पालन करके, शीघ्र ही पुष्टि लाभ करके, आपकी प्रसन्नता प्राप्त कर लूंगा।

ब्रह्मचर्यदृढतादिभिर्यमैराप्लवादिनियमैश्च पाविता: ।
कुर्महे दृढममी सुखासनं पङ्कजाद्यमपि वा भवत्परा: ॥२॥

ब्रह्मचर्य-ढृढता-आदिभि:-यमै:- ब्रह्मचर्य आदि यमों के द्वार दृढता
आप्लव-आदि-नियमै:-च और स्नानादि नियमॊं से
पाविता: पवित्र
कुर्महे हम करेंगे
दृढम्-अमी दृढता से वे सब
सुखासनम् सुखासन
पङ्कज-आद्यम्-अपि वा पद्मासन आदि भी
भवत्-परा: आपके उन्मुख हो कर

हे ईश! हम, आपके भक्त, ब्रह्मचर्य आदि यमों के द्वारा दृढ हो कर एवं स्नान आदि नियमों से पवित्र हो कर, आपके सम्मुख हो कर पद्मासन या सुखासन आदि को भी दृढता से अभ्यास करेंगे।

तारमन्तरनुचिन्त्य सन्ततं प्राणवायुमभियम्य निर्मला: ।
इन्द्रियाणि विषयादथापहृत्यास्महे भवदुपासनोन्मुखा: ॥३॥

तारम्-अन्तरम्-अनुचिन्त्य प्रणव का अन्तर में ध्यान करके
सन्ततं निरन्तर
प्राण-वायुम्-अभियम्य प्राण वायु का सुसंचार कर के
निर्मला: पवित्र हो कर
इन्द्रियाणि विषयात्- इन्द्रियों को विषयों से
अथ-अपहृत्य तत्पश्चात हटाकर
आस्महे हो जायेंगे
भवत् उपासन-उन्मुखा: आपकी उपासना में तत्पर

हे ईश! अन्तरमन में निरन्तर प्रणव का ध्यान धारण करके प्राण वायु का सुसंचार करके फिर इन्द्रियों को विषयों से हटा कर हम आपकी उपासना के लिए प्रस्तुत हो जायेंगे।

अस्फुटे वपुषि ते प्रयत्नतो धारयेम धिषणां मुहुर्मुहु: ।
तेन भक्तिरसमन्तरार्द्रतामुद्वहेम भवदङ्घ्रिचिन्तका ॥४॥

अस्फुटे वपुषि ते अस्पष्ट विग्रह आपके
प्रयत्नत: में प्रयत्न पूर्वक
धारयेम लगायेंगे
धिषणां बुद्धि को
मुहु: मुहु: बार बार
तेन इस प्रकार
भक्तिरसम्-अन्त: - आर्द्रताम्- भक्ति रस और हृदय की कोमलता
उद्वहेम प्राप्त कर लेंगे
भवत्-अङ्घ्रिचिन्तका: एवं आपके चरणों के पुजारी हो जायेंगे।

हे ईश! आपके अस्पष्ट विग्रह पर यत्नत: बुद्धि को बार बार लगायेंगे। इस प्रकार सतत अभ्यास से भक्ति रस एवं चित्त की कोमलता प्राप्त कर के आपके चरण कमलों के पुजारी हो जायेंगे।

विस्फुटावयवभेदसुन्दरं त्वद्वपु: सुचिरशीलनावशात् ।
अश्रमं मनसि चिन्तयामहे ध्यानयोगनिरतास्त्वदाश्रयाः ॥५॥

विस्फुट-अवयव-भेद-सुन्दरं स्पष्ट हो रहे पाद से शिखर तक के सुंदर अवयव भेद्
त्वत्-वपु: वाले आपके श्री विग्रह (में)
सुचिर-शीलनावशात् चिरकाल तक ध्यानावस्थित रहने के कारण
अश्रमं मनसि अनायास ही चित्त में
चिन्तयामहे ध्यान करने लगेंगे
ध्यान-योग-निरता:- ध्यान योग में लगे हुए
त्वत्-आश्रयाः आपके आश्रित हो जायेंगे

हे ईश! चिरकाल तक ध्यानावस्थित रहने के कारण स्पष्ट हो रहे आपके श्रीविग्रह के पादादिकेशान्त (चरणों से केशों तक) अवयव भेद में अनायास ही ध्यान लग जायेगा। ध्यान योग में लगे हुए हम, आपके भक्त, आपके आश्रित हो जायेंगे।

ध्यायतां सकलमूर्तिमीदृशीमुन्मिषन्मधुरताहृतात्मनाम् ।
सान्द्रमोदरसरूपमान्तरं ब्रह्म रूपमयि तेऽवभासते ॥६॥

ध्यायतां ध्यान करने वालों के
सकल-मूर्तिम्-ईदृशीम्- आपकी ऐसी कलामयी मूर्ति
उन्मिषन्-मधुरता-हृत्-आत्मनाम् (से) उत्पन्न हुई मधुरता से सम्मोहित हुए मन वालों के
सान्द्र-मोद-रस-रूपम्- घनीभूत आनन्द के रस स्वरूप
अन्तरम् हृदय में
ब्रह्म रूपम्-अयि ते- ब्रह्म रूप हे ईश! आपका
अवभासते आभासित होता है

हे ईश! आपकी ऐसी कलामयी (सगुण) मूर्ति का ध्यान करने से मन में उत्पन्न हुई मधुरता वालों के हृदय में, घनीभूत आनन्द स्वरूप आपका ब्रह्म (निर्गुण) रूप उद्भासित हो जाता है।

तत्समास्वदनरूपिणीं स्थितिं त्वत्समाधिमयि विश्वनायक ।
आश्रिता: पुनरत: परिच्युतावारभेमहि च धारणादिकम् ॥७॥

तत्-समास्वदन-रूपिणीम् स्थितिं उस (अनुभव) के समास्वादन की स्थिति
त्वत्-समाधिम्- आपकी समाधि के
अयि विश्वनायक हे विश्वविनायक!
आश्रिता: आश्रित (हम)
पुन:-अत: पुन: वहां से (उस् स्थिति से)
परिच्युतौ च्युत होने पर
आरभेमहि च और फिर से आरम्भ करेंगे
धारणा-आदिकम् धारणा आदि का

हे विश्वनायक! उस अनुभव के रसास्वादन की स्थिति से प्राप्त आपकी समाधि के आश्रित हुए हम, यदि पुन: वहां से च्युत हो जाएं, तो फिर से धारणा आदि योग के अभ्यास का आरम्भ करेंगे।

इत्थमभ्यसननिर्भरोल्लसत्त्वत्परात्मसुखकल्पितोत्सवा: ।
मुक्तभक्तकुलमौलितां गता: सञ्चरेम शुकनारदादिवत् ॥८॥

इत्थम्-अभ्यसन्- इस प्रकार से अभ्यास करते हुए
अनिर्भर-उल्लसन्- स्वतन्त्रता से अभिभूत
त्वत्-परात्म-सुख- आपके परमात्म सुख से
कल्पित्-उत्सवा: उत्पन्न उत्साह वाले
मुक्त-भक्त-कुल जीवन्मुक्त भक्तों के कुल के
मौलितां गता: शिरोमणि हो कर
सञ्चरेम विचरण करेंगे
शुक-नारद-आदि-वत् शुक नारद आदि के समान

हे ईश! इस प्रकार से अभ्यास करते हुए स्वतन्त्रता से अभिभूत होते हुए, आपके परात्म सुख से उत्पन्न उत्साह वाले हम जीवन्मुक्त भक्तों के कुल के शिरोमणि शुक नारद आदि के समान विचरण करेंगे।

त्वत्समाधिविजये तु य: पुनर्मङ्क्षु मोक्षरसिक: क्रमेण वा ।
योगवश्यमनिलं षडाश्रयैरुन्नयत्यज सुषुम्नया शनै: ॥९॥

त्वत्-समाधि-विजये आपकी समाधि पाकर
तु य: पुन:- निश्चय ही जो फिर
मङ्क्षु मोक्ष-रसिक: सद्य मोक्ष चाहने वाला
क्रमेण वा या क्रममुक्ति चाहने वाला
योगवश्यम्- योग के प्रभाव से
अनिलं वायु को
षड्-आश्रयै:- षट् चक्रों के मध्य से
उन्नयति- ऊपर को ले जाता है
अज हे अज!
सुषुम्नया सुषुम्ना नाडी के द्वारा
शनै: धीरे धीरे

हे अज! आपकी समाधि पा कर जो जन सद्य मुक्ति चाहता है अथवा जो जन क्रममुक्ति चाहता है, वह योग के प्रभाव से प्राण वायु को षट् चक्रों के सहारे सुषुम्ना नाडी के द्वारा, धीरे धीरे ऊपर को ले जाता है।

लिङ्गदेहमपि सन्त्यजन्नथो लीयते त्वयि परे निराग्रह: ।
ऊर्ध्वलोककुतुकी तु मूर्धत: सार्धमेव करणैर्निरीयते ॥१०॥

लिङ्ग-देहम्-अपि लिङ्ग देह को भी
सन्त्यजन्-अथ: त्याग कर फिर
लीयते विलीन हो जाता है
त्वयि परे आप के ब्रह्म स्वरूप में
निराग्रह: अनाग्रही
ऊर्ध्व-लोक-कुतुकी तु ऊर्ध्व लोक का चाहने वाला किन्तु
मूर्धत: ब्रह्मरन्ध्र से
सार्धम्-एव करणै:- सङ्ग इन्द्रियों के
निरीयते (ऊपर को) निकल जाता है

निराग्रही जन लिङ्ग देह का भी त्याग कर के आपके ब्रह्म स्वरूप में विलीन हो जाता है। किन्तु ऊर्ध्व लोकों का अभिलाषी ब्रह्मरन्ध्र को भेद कर इन्द्रियों के सहित ही ऊपर चला जाता है।

अग्निवासरवलर्क्षपक्षगैरुत्तरायणजुषा च दैवतै: ।
प्रापितो रविपदं भवत्परो मोदवान् ध्रुवपदान्तमीयते ॥११॥

अग्नि-वासर-वलर्क्ष-पक्षगै: - अग्नि, वासर, शुक्ल पक्ष एवं
उत्तरायणजुषा उत्त्तरायण के अधिष्ठाता
दैवतै: देवताओं के द्वारा
प्रापितो रविपदं पहुंचाये जाने पर सूर्य की सतह पर
भवत्-पर: आपके अभिमुख (भक्त)
मोदवान् आनन्दपूर्वक
ध्रुवपदान्तम् ईयते ध्रुवपद को प्राप्त कर लेते हैं

हे ईश! आपके परायण भक्त जन अग्नि वासर शुक्लपक्ष एवं उत्तरायण के अधिष्ठाता देवताओं के द्वारा सूर्य लोक तक पहुंचाए जाने पर आनन्द पूर्वक ध्रुव लोक को प्राप्त करते हैं।

आस्थितोऽथ महरालये यदा शेषवक्त्रदहनोष्मणार्द्यते ।
ईयते भवदुपाश्रयस्तदा वेधस: पदमत: पुरैव वा ॥१२॥

आस्थित: अथ महरालये रहता हुआ तब महर्लोक में
यदा शेषवक्त्र-दहन-ऊष्मणा- जब आदि शेष के मुख की अग्नि की ऊष्मा से
आर्द्यते संतप्त हो जाता है
ईयते (तब वह) पहुंचता है
भवत्-उपाश्रय: - आपके शरणागत हो कर
तदा तब
वेधस: पदम्- ब्रह्मलोक को
अत: पुरा-एव वा इसके पहले ही अथवा

तदन्तर महर्लोक में वास करता हुआ जब जीव आदिशेष के मुख से निकली हुई अग्नि की ऊष्मा से संतप्त होता है, तब आपके शरणागत हो कर, ब्रह्मलोक को पहुंच जाता है। अथवा वह चाहे तो ऊष्मा से संतप्त होने से पहले ही वह ब्रह्मलोक जा सकता है।

तत्र वा तव पदेऽथवा वसन् प्राकृतप्रलय एति मुक्तताम् ।
स्वेच्छया खलु पुरा विमुच्यते संविभिद्य जगदण्डमोजसा ॥१३॥

तत्र वा वहां (ब्रह्मलोक में)
तव पदे-अथवा आपके लोक (विष्णुलोक) में अथवा
वसन् रहते हुए
प्राकृतप्रलये प्राकृत प्रलय के समय
एति मुक्तताम् पहुंचता है मुक्ति को
स्वेच्छया खलु पुरा स्वेच्छा से निश्चय ही पहले भी
विमुच्यते मुक्त हो जाता है
संविभिद्य भेद कर
जगत्-अण्डम् जगत् ब्रह्माण्ड को
ओजसा (अपने योग) बल से

ब्रह्मलोक में अथवा आपके लोक - वैकुण्ठलोक में रहते हुए, प्राकृत प्रलय के समय मुक्त हो जाता है। अथवा निश्चय ही पहले ही, स्वेच्छा से अपनी यौगिक शक्ति से जगत् ब्रह्माण्ड को भेदता हुआ मुक्त हो जाता है।

तस्य च क्षितिपयोमहोऽनिलद्योमहत्प्रकृतिसप्तकावृती: ।
तत्तदात्मकतया विशन् सुखी याति ते पदमनावृतं विभो ॥१४॥

तस्य च और उस
क्षिति-पयो-मह:-अनिल-द्यो-महत्-प्रकृति- पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश महत् तत्त्व और् प्रकृति
सप्तक-आवृती: सात आवरण
तत्-तत्-आत्मकतया विशन् उस उस (अनुरूप) स्वरूप (के द्वारा) प्रवेश करता हुआ
सुखी सुखानुभूति से
याति जाता है
ते पदम्-अनावृतं आपके पद (जो) अनावृत है
विभो हे विभो!

हे विभो! उस जगत् ब्रह्माण्ड के सात आवरण पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, महत तत्त्व एवं प्रकृति को उनके अनुकूल स्वरूप को धारण कर के उनमें प्रवेश करता हुआ सुखानुभूति के साथ आपके अनावृत पद-ब्रह्म पद को चला जाता है।

अर्चिरादिगतिमीदृशीं व्रजन् विच्युतिं न भजते जगत्पते ।
सच्चिदात्मक भवत् गुणोदयानुच्चरन्तमनिलेश पाहि माम् ॥१५॥

अर्चि: - आदि-गतिम्- ज्योति आदि गतियों को
ईदृशीं इस प्रकार
व्रजन् पा कर
विच्युतिं विच्युति को
न भजते नहीं प्राप्त होता
जगत्पते हे जगत्पति
सच्चिदात्मक हे सच्चितानन्दस्वरूप
भवत्-गुण-उदयान् आपके गुणों की महत्ता
उच्चरन्तम् का संकीर्तन करता हुआ
अनिलेश हे वायुपुरनाथ!
पाहि माम् रक्षा करें मेरी

हे जगत्पति! इस प्रकार ज्योति आदि गतियों को प्राप्त करके, भक्त, विच्युत हो कर फिर संसार में नहीं आता। हे सच्चिदानन्दस्वरूप! आपके गुणों की महत्ता का गान करने वाले मुझ पर कृपा करें। हे अनिलेश! मेरी रक्षा करें।

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