दशक ५६
रुचिरकम्पितकुण्डलमण्डल: सुचिरमीश ननर्तिथ पन्नगे ।
अमरताडितदुन्दुभिसुन्दरं वियति गायति दैवतयौवते ॥१॥
रुचिर-कम्पित- |
मोहकता से कम्पायमान होते हुए |
कुण्डल-मण्डल: |
कुण्डल मण्डल (वाले आप) |
सुचिरम्-ईश |
बहुत समय तक हे ईश! |
ननर्तिथ पन्नगे |
नाचते रहे नाग के ऊपर |
अमर-ताडित- |
देवो के द्वारा बजाये गये |
दुन्दुभि:-सुन्दरम् |
मधुर दुन्दुभि (के साथ) |
वियति गायति |
आकाश में गाने लगीं |
दैवत-यौवते |
देवाङ्गनाएं |
हे ईश! आप बहुत समय तक नाग के फाणों के ऊपर नाचते रहे। उस समय आपके कुण्डल मनमोहकता से कांप रहे थे। आकाश में देवों ने मधुर दुन्दुभि बजाई और देवाङ्गनाएं सङ्ग में गाने लगीं।
नमति यद्यदमुष्य शिरो हरे परिविहाय तदुन्नतमुन्नतम् ।
परिमथन् पदपङ्करुहा चिरं व्यहरथा: करतालमनोहरम् ॥२॥
नमति यत्-यत्- |
झुकता था जो जो |
अमुष्य शिर: |
उसका शिर |
हरे |
हे हरे! |
परिविहाय तत्- |
छोड कर उसको |
उन्नतम्-उन्नतम् |
ऊंचे उठे हुए |
परिमथन् पद्-पङ्करुहा |
(शिर को) मथित करते हुए चरण कमल से |
चिरं व्यहरथा: |
बहुत समय तक क्रीडा करते रहे |
करताल-मनोहरम् |
मनोहर करताल (देते हुए) |
हे हरे! कालिय का जो जो शिर झुक जाता था उसको छोड कर आप उसके ऊपर उठे हुए शिरों पर चढ कर अपने चरण्कमलों से मथ देते थे। इस प्रकार मनोहर करताल देते हुए आप बहुत समय तक क्रीडा करते रहे।
त्वदवभग्नविभुग्नफणागणे गलितशोणितशोणितपाथसि ।
फणिपताववसीदति सन्नतास्तदबलास्तव माधव पादयो: ॥३॥
त्वत्-अवभग्न- |
आपके मर्दन कर देने से |
विभुग्न-फणागणे |
झुक जाने से फणो के |
गलित-शोणित- |
बहने लगा रक्त |
शोणित-पाथसि |
लाल हो जाने पर जल के |
फणिपतौ-अवसीदति |
नागराज के निर्बल हो जाने पर |
सन्नता:-तत्-अबला:- |
नमन करने लगी उसकी पत्नियां |
तव माधव पादयो: |
आपके हे माधव चरण युगल में |
नृत्य करते हुए आपके चरणों के प्रहार से नाग के फण विमर्दित हो गये और उनमें से रक्त बहने लगा जिससे यमुना का जल लाल हो गया। हे माधव! नाग के निर्बल और विक्षिप्त हो जाने पर उसकी पत्नियों ने आपके चरण युगल में नमन किया।
अयि पुरैव चिराय परिश्रुतत्वदनुभावविलीनहृदो हि ता: ।
मुनिभिरप्यनवाप्यपथै: स्तवैर्नुनुवुरीश भवन्तमयन्त्रितम् ॥४॥
अयि पुरा-एव |
अयि! पहले ही |
चिराय परिश्रुत- |
सदा से सुनी हुई थी |
त्वत्-अनुभाव- |
आपकी महानता |
विलीन-हृद: हि |
(आपमें) निमग्न हृदय वाली |
ता: मुनिभि:-अपि- |
वे, मुनियों को भी |
अनवाप्य-पथै: |
अप्राप्य मार्गों से |
स्तवै:-नुनुवु:- |
स्तुतियों से स्तवन करने लगीं |
ईश |
हे ईश! |
भवन्तम्-अयन्त्रितम् |
आपका, अनियन्त्रित |
अहो! उन नाग पत्नियों ने बहुत पहले से ही आपकी महानता का गुणगान सुना हुआ था और उनका हृदय सदा आपमें ही निमग्न रहता था। हे ईश! वे, मुनियों को भी दुष्प्राप्य मार्गों से युक्त स्तोत्रों द्वारा, निर्बाध और अनियन्त्रित रूप से आपका स्तवन करने लगीं।
फणिवधूगणभक्तिविलोकनप्रविकसत्करुणाकुलचेतसा ।
फणिपतिर्भवताऽच्युत जीवितस्त्वयि समर्पितमूर्तिरवानमत् ॥५॥
फणि-वधू-गण- |
नाग पत्नियों की |
भक्ति-विलोकन- |
भक्ति देख कर |
प्रविकसत्-करुणा- |
प्रस्फुटित करुणा से |
आकुल-चेतसा |
व्याकुल चित्त से |
फणिपति:-भवता- |
नागराज आपके द्वारा |
अच्युत |
हे अच्युत! |
जीवित:-त्वयि |
पुनर्जीवित (हुआ) आपमे |
समर्पित-मूर्ति:- |
समर्पित स्वयं को कर के |
अवानमत् |
प्रणाम किया |
हे अच्युत! नाग पत्नियों की उत्कट भक्ति देख कर आपका चित्त करुणा के उद्वेग से व्याकुल हो उठा। आपने नागराज को पुनर्जीवित कर दिया। उसने स्वयं को समर्पित कर के आपको प्रणाम किया।
रमणकं व्रज वारिधिमध्यगं फणिरिपुर्न करोति विरोधिताम् ।
इति भवद्वचनान्यतिमानयन् फणिपतिर्निरगादुरगै: समम् ॥६॥
रमणकं व्रज |
रमणक (द्वीप) को जाओ |
वारिधि-मध्यगं |
समुद्र के मध्य में स्थित |
फणि-रिपु:-न करोति |
सर्प श्त्रु (गरुड) नही करेगा |
विरोधिताम् इति |
शत्रुता इस प्रकार |
भवत्-वचनानि- |
आपके वचनों को |
अतिमानयन्- |
आदर दे कर |
फणपति:-निरगात्- |
नागराज चला गया |
उरगै: समम् |
(अन्य) सर्पों के साथ |
'तुम, समुद्र के बीच में स्थित रमणक द्वीप को चले जाओ वहां गरुड तुमसे शत्रुता नहीं करेगा।' आपके इस आदेष का आदर कर के वह नागराज अन्य सर्पों के साथ चला गया।
फणिवधूजनदत्तमणिव्रजज्वलितहारदुकूलविभूषित: ।
तटगतै: प्रमदाश्रुविमिश्रितै: समगथा: स्वजनैर्दिवसावधौ ॥७॥
फणिवधूजन- |
नागपत्नियों ने |
दत्त-मणिव्रज- |
दिये मणि समूह |
ज्वलित-हार- |
दीप्ति युक्त हार |
दुकूल-विभूषित: |
(और) वस्त्र (उनसे) विभूषित हो कर |
तट-गतै: |
तट के ऊपर खडे |
प्रमदाश्रु-विमिश्रितै: |
आनन्दाश्रुओं से मिश्रित (दृष्टि वाले) |
समगथा: स्वजनै:- |
पास गये स्वजनों के |
दिवस-अवधौ |
सन्ध्या समय में |
नागपत्नियों ने आपको नाना भंति की मणियां देदिप्यमान हार और वस्त्र दिये। आप उनसे विभूषित हो कर, सन्ध्या समय, तट पर प्रतीक्षा करते हुए आनन्दाश्रु मिश्रित दृष्टि वाले स्वजनों के निकट गए।
निशि पुनस्तमसा व्रजमन्दिरं व्रजितुमक्षम एव जनोत्करे ।
स्वपति तत्र भवच्चरणाश्रये दवकृशानुररुन्ध समन्तत: ॥८॥
निशि पुन:-तमसा |
रात्रि में फिर अन्धकार के कारण |
व्रज-मन्दिरं |
व्रज के घरों में |
व्रजितुम्-अक्षम |
जाने में असमर्थ |
एव जनोत्करे |
होने से जन समुदाय |
स्वपति तत्र |
सो गये वहां |
भवत्-चरण-आश्रये |
आपके चरणों के आश्रय में |
दवकृशानु:- |
वनाग्नि ने |
अरुन्ध समन्तत: |
घेर लिया सब ओर से |
रात्रि में अन्धकार हो जाने के कारण उस जन समुदाय व्रज मे अपने अपने घर वापस जाने में असमर्थ हो गया। आपके चरणों का आश्रय ले कर वे सभी वहीं यमुना के तट पर सो गये। उसी समय दावाग्नि ने उन्हें सब ओर से घेर लिया।
प्रबुधितानथ पालय पालयेत्युदयदार्तरवान् पशुपालकान् ।
अवितुमाशु पपाथ महानलं किमिह चित्रमयं खलु ते मुखम् ॥९॥
प्रबुधितान्-अथ |
जागे हुए तब उनको |
पालय पालय-इति- |
बचाओ, बचाओ' इस प्रकार |
उदयत्-आर्त-रवान् |
उठती हुई दु:खित स्वर वाले |
पशुपालकान् |
गोपालकों को |
अवितुम्-आशु |
बचाने के लिये तुरन्त |
पपाथ महानलम् |
पी लिया महान अग्नि को |
किम्-इह चित्रम्- |
क्या इसमें आश्चर्य है |
अयम् खलु |
यह (अग्नि) तो नि:सन्देह |
ते मुखम् |
आपका मुख है |
अग्नि के ताप से गोपाल गण जाग गये और 'बचाओ, बचाओ' इस प्रकार आर्त स्वर में पुकारने लगे। उनको बचाने के लिये आपने तुरन्त ही उस महाग्नि का पान कर लिया। इसमे आश्चर्य भी क्या है क्योंकि अग्नि तो नि:सन्देह आपका मुख ही है।
शिखिनि वर्णत एव हि पीतता परिलसत्यधुना क्रिययाऽप्यसौ ।
इति नुत: पशुपैर्मुदितैर्विभो हर हरे दुरितै:सह मे गदान् ॥१०॥
शिखिनि वर्णत: एव |
अग्नि में वर्ण से ही |
हि पीतता |
है पीतता (पीलापन) |
परिलसति-अधुना |
स्थित है (यह) अब |
क्रियया-अपि-असौ |
क्रिया से भी पीतता (पीये जाने से) युक्त यह |
इति नुत: |
इस प्रकार स्तुति की |
पशुपै:-मुदितै:- |
गोपों ने प्रसन्नता पूर्वक |
विभो |
हे विभो! |
हर हरे |
हर लीजिये, हे हरे! |
दुरितै: सह |
पापों के सहित |
मे गदान् |
मेरे रोगों को |
अग्नि में वर्ण स्वरूप 'पीतता' (पीलापन) है। अब यह क्रिया स्वरूप 'पीतता' (पान की गई) से भी युक्त हो गई है। हे विभो! गोपों ने प्रसन्नतापूर्वकइन शब्दों में आपकी स्तुति की। हे हरे! पापों सहित मेरे रोगों को हर लीजिये।
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