दशक ५५
अथ वारिणि घोरतरं फणिनं
प्रतिवारयितुं कृतधीर्भगवन् ।
द्रुतमारिथ तीरगनीपतरुं
विषमारुतशोषितपर्णचयम् ॥१॥
अथ वारिणि |
तब फिर जल में |
घोरतरं फणिनं |
अत्यन्त घोर सर्प का |
प्रतिवारयितुं |
निवारण करने के लिये |
कृतधी: |
निश्चय कर के |
भगवन् |
हे भगवन! |
द्रुतम्-आरिथ |
शीघ्रता से आये पास |
तीरग-नीप-तरुं |
किनारे पर लगे हुए कदम्ब वृक्ष के |
विष-मारुत-शोषित- |
विषाक्त वायु से सूखे हुए |
पर्ण-चयम् |
पत्तों के समूह वाले |
हे भगवन! फिर आपने जल में स्थित उस अत्यन्त घोर सर्प का निवारण करने का निश्चय किया। आप शीघ्रतापूर्वक यमुना के किनारे लगे हुए उस कदम्ब वृक्ष के पास आ कर उस पर चढ गये, जिसके पत्तों का समूह विषाक्त वायु से सूख गया था।
अधिरुह्य पदाम्बुरुहेण च तं
नवपल्लवतुल्यमनोज्ञरुचा ।
ह्रदवारिणि दूरतरं न्यपत:
परिघूर्णितघोरतरङ्ग्गणे ॥२॥
अधिरुह्य |
चढ कर |
पद-अम्बु-रुहेण |
चरणकमल कोमल |
च तं |
और उस पर |
नव-पल्लव-तुल्य- |
नये पत्तों के समान |
मनोज्ञ-रुचा |
मनोहर और सुन्दर |
ह्रद-वारिणि |
बीच में जल के |
दूरतरं न्यपत: |
दूर तक छलाङ्ग लगाते हुए |
परिघूर्णित- |
घूमती हुई |
घोर-तरङ्ग-गणे |
बडी तरङ्गों के समूह वाले |
आप उस पेड पर अपने नये सुन्दर और कोमल पत्तो के समान चरण कमलों से चढ गये। घूमती हुई बडी बडी तरङ्गोवाले उस जल के बीच आप ऊंची और लम्बी छलाङ्ग लगाते हुए कूद पडे।
भुवनत्रयभारभृतो भवतो
गुरुभारविकम्पिविजृम्भिजला ।
परिमज्जयति स्म धनुश्शतकं
तटिनी झटिति स्फुटघोषवती ॥३॥
भुवन-त्रय-भार-भृत: |
त्रिभुवन के भार को वहन करने वाले |
भवत: गुरु-भार- |
आपके दीर्घ भार से |
विकम्पि-विजृम्भि-जला |
कम्पायमान हुई और विकसित जल वाली ने |
परिमज्जयति स्म |
निमग्न कर दिया |
धनु:-शतकं |
धनुष शतक तक के |
तटिनी झटिति |
तट को, शीघ्र ही |
स्फुट-घोषवती |
प्रस्फुटित हुआ घोर शब्द |
त्रिभुवन के भार को वहन करने वाले आपके दीर्घ भार से यमुना कम्पायमान हो उठी। उसका जल प्लावित होने से धनुष तक का उसका तट जल निमग्न हो गया और उसमें से घोर शब्द प्रस्फुटित हुआ।
अथ दिक्षु विदिक्षु परिक्षुभित-
भ्रमितोदरवारिनिनादभरै: ।
उदकादुदगादुरगाधिपति-
स्त्वदुपान्तमशान्तरुषाऽन्धमना: ॥४॥
अथ दिक्षु विदिक्षु |
तब दिशाओं और विदिशाओं में |
परिक्षुभित-भ्रमित- |
अत्यन्त क्षुभित और घूर्णित |
उदर-वारि-निनाद-भरै: |
जल के अन्तर भाग से निकले घोर निनाद वाले |
उदकात्-उदगात्- |
जल से ऊपर उठ आया |
उरगाधिपति:- |
नागराज |
त्वत्-उपान्तम्- |
आपके सामने |
अशान्त-रुषा- |
विचलित और क्रोध से |
अन्धमना: |
अन्ध मन वाला |
जल के अन्तर भाग से निकलता हुआ घोर निनाद सारी दिशाओं और विदिशाओं में व्याप्त हो गया। अत्यन्त क्षुभित और घूर्णित जल से विचलित और क्रोध से अभिभूत अन्धमना नागराज जल से बाहर निकल कर आपके सम्मुख आ गया।
फणशृङ्गसहस्रविनिस्सृमर-
ज्वलदग्निकणोग्रविषाम्बुधरम् ।
पुरत: फणिनं समलोकयथा
बहुशृङ्गिणमञ्जनशैलमिव ॥५॥
फण-शृङ्ग- |
फणों शिखरों (के समान) |
सहस्र-विनि:सृमर- |
सहस्रों, उगलते हुए |
ज्वलत्-अग्नि-कण- |
प्रज्वलित अग्नि कणों के समान |
उग्र-विष-अम्बुधरम् |
कूट विष द्रव्य वाले |
पुरत: फणिनं |
सामने सर्प को |
समलोकयथा: |
देखा (आपने) |
बहु-शृङ्गिणम्- |
अनेक शिखरों वाले |
अञ्जन-शैलम्-इव |
कज्जल गिरि के समान |
सहस्रों शिखरों के समान फणों वाले, प्रस्फुटित अग्नि कणों के समान कूट विष द्रव्य उगलते हुए, अनेक शिखरो वाले कज्जल गिरि के समान उस भयंकर सर्प को आपने अपने समक्ष देखा जो अनेक शिखरों वाले कज्जल गिरि के समान दिखाई दे रहा था।
ज्वलदक्षि परिक्षरदुग्रविष-
श्वसनोष्मभर: स महाभुजग: ।
परिदश्य भवन्तमनन्तबलं
समवेष्टयदस्फुटचेष्टमहो ॥६॥
ज्वलत्-अक्षि |
प्रज्वलित नेत्रों वाला |
परिक्षरत्-उग्र-विष- |
उगलते हुए उग्र विष को |
श्वसन्-ऊष्मभर: |
तप्त वायु का निश्वास छोडते हुए |
स महाभुजग: |
वह महानाग |
परिदश्य |
डसते हुए |
भवन्तम्-अनन्तबलं |
आपको, (जो) अनन्त बलशाली हैं |
समवेष्टयत्- |
लिपट गया (आपके चारों ओर) |
अस्फुट-चेष्टम्- |
गुप्त चेष्टाओं वाले आप को |
अहो |
अहो! |
अहो! उग्र विष को उगलते हुए, तप्त वायु का निश्वास छोडते हुए प्रज्वलित नेत्रों वाले, उस महानाग ने अनन्त बलशाली और गुप्त चेष्टाओं वाले आपको डस लिया और आपके चारों ओर लिपट गया।
अविलोक्य भवन्तमथाकुलिते
तटगामिनि बालकधेनुगणे ।
व्रजगेहतलेऽप्यनिमित्तशतं
समुदीक्ष्य गता यमुनां पशुपा: ।।७॥
अविलोक्य भवन्तम्- |
न देखते हुए आपको |
अथ-आकुलिते |
तब फिर व्याकुल हुए |
तट-गामिनि |
(यमुना) तट पर गये |
बालक-धेनु-गणे |
बालक और गो गण |
व्रज-गेह-तले-अपि- |
व्रज के घरों के भीतर भी |
अनिमित्त-शतं |
अपशगुन सौओं को |
समुदीक्ष्य गता |
देख कर गये |
यमुनां पशुपा: |
यमुना को गोपगण |
बालकों और गौओं ने जब आपको नहीं देखा, तब अत्यधिक व्याकुल हो कर आपको खोजते हुए यमुना के तट पर गये। व्रज के घरों में भी सौओं अपशगुनों को देख कर उद्विग्न हुए गोप गण भी यमुना की ओर गये।
अखिलेषु विभो भवदीय दशा-
मवलोक्य जिहासुषु जीवभरम् ।
फणिबन्धनमाशु विमुच्य जवा-
दुदगम्यत हासजुषा भवता ॥८॥
अखिलेषु |
(वे) सभी |
विभो |
हे विभो! |
भवदीय-दशाम् |
(जब) आपकी दशा को |
अवलोक्य |
देख कर |
जिहासुषु |
त्याग देने के लिये उद्यत हो गये |
जीवभरम् |
(अपने) जीवन को |
फणि-बन्धनम्- |
फणों के बन्धन को |
आशु विमुच्य |
शीघ्र खोल कर |
जवात्-उदगम्यत |
झट से निकल आये |
हासजुषा भवता |
मुस्कुराते हुए आप |
हे विभो! वे सभी आपकी दशा देख कर अपने प्राण त्याग देने को उद्यत हो गये। उसी समय आप शीघ्रतापूर्वक फणों के उस बन्धन को खोल कर तुरन्त ही मुस्कुराते हुए बाहर निकल आये।
अधिरुह्य तत: फणिराजफणान्
ननृते भवता मृदुपादरुचा ।
कलशिञ्जितनूपुरमञ्जुमिल-
त्करकङ्कणसङ्कुलसङ्क्वणितम् ॥९॥
अधिरुह्य तत: |
चढ कर तब |
फणि-राज-फणान् |
महा भुजंग के फणों पर |
ननृते भवता |
नाचे आप |
मृदु-पाद-रुचा |
कोमल सुन्दर पैरों से |
कलशिञ्जित-नूपुर- |
मधुर रव नूपुरों के |
मञ्जु-मिलत्- |
मनोहर रूप से मिल (ताल दे) रहे थे |
कर-कङ्कण-सङ्कुल- |
हाथों के कङ्गनों के टकराने की |
सङ्क्वणितम् |
झंकार से |
तब महा भुजङ्ग के फणों पर चढ कर आपने कोमल सुन्दर पैरों से नृत्य किया। पैरों के नूपुरों की मधुर झनक हाथ के कङ्गनो के टकराने से उठी झन्कार के साथ मिल कर ,मनोहर ताल देती हुई, सुन्दर ध्वनि पैदा कर रही थी।
जहृषु: पशुपास्तुतुषुर्मुनयो
ववृषु: कुसुमानि सुरेन्द्रगणा: ।
त्वयि नृत्यति मारुतगेहपते
परिपाहि स मां त्वमदान्तगदात् ॥१०॥
जहृषु: पशुपा:- |
हर्षित हुए गोपगण |
तुतुषु:-मुनय: |
तृप्त हुए मुनि जन |
ववृषु: कुसुमानि |
वर्षा की कुसुमों की |
सुरेन्द्र-गणा: |
देव मण्डल ने |
त्वयि नृत्यति |
आपके नाचने पर |
मारुतगेहपते |
हे मारुतगेहपते! |
परिपाहि |
रक्षा करें |
स |
वही (आप) |
मां |
मेरी |
त्वम्- |
आप |
अदान्त-गदात् |
अदम्य रोगों से |
हे मरुतगेह्पते! आपके नृत्य करने पर गोपगण हर्षित हो उठे, मुनिजन तृप्त हो गये और देवमण्डल ने कुसुमों की वर्षा की। वही आप, अदम्य रोगों से मेरी रक्षा करें।
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