दशक ३९
भवन्तमयमुद्वहन् यदुकुलोद्वहो निस्सरन्
ददर्श गगनोच्चलज्जलभरां कलिन्दात्मजाम् ।
अहो सलिलसञ्चय: स पुनरैन्द्रजालोदितो
जलौघ इव तत्क्षणात् प्रपदमेयतामाययौ ॥१॥
भवन्तम्-अयम्-उद्वहन् |
आपको इनके (वसुदेव के) ले जाते हुए |
यदुकुल-उद्वह: |
यदुकुलनायक ने (वसुदेव ने) |
निस्सरन् ददर्श |
प्रस्थान करते हुए देखा |
गगन-उच्चलत्-जल-भराम् |
गगन छूने तक जल से भरी |
कलिन्द-आत्मजाम् |
कलिन्द पुत्री (यमुना) को |
अहो सलिल-सञ्चय: स: |
आश्चर्य जनक जल का समूह वह |
पुन:-ऐन्द्रजाल-उदित: |
फिर (मानो) जादू से उत्पन्न |
जलौघ:- इव |
अगाध जल जैसे |
तत्-क्षणात् |
उसी क्षण से |
प्रपद-मेयताम्-आययौ |
पैर के परिमाण तक आ गया |
यदुकुल नायक वसुदेव ने आप को ले कर प्रस्थान करते हुए आकाश को छूते हुए जल से भरी कलिन्द पुत्री यमुना को देखा। मानो जादू से उत्पन्न हुआ सा आश्चर्य जनक वह अगाध जल, उसी क्षण पैर के परिमाण तक आ गया।
प्रसुप्तपशुपालिकां निभृतमारुदद्बालिका-
मपावृतकवाटिकां पशुपवाटिकामाविशन् ।
भवन्तमयमर्पयन् प्रसवतल्पके तत्पदा-
द्वहन् कपटकन्यकां स्वपुरमागतो वेगत: ॥२॥
प्रसुप्त-पशुपालिकां |
सुसुप्त गोपिका वाली |
निभृतम्-आरुदद्-बालिकाम्- |
मन्द रुदन करती हुई बालिका वाली |
अपावृत-कवाटिकाम् |
खुले हुए दरवाजों वाली |
पशुप-वाटिकाम्-आविशन् |
गोप के घर में प्रवेश कर के |
भवन्तम्-अयम्-अर्पयन् |
आपको इन्होने (वसुदेव ने)रख कर |
प्रसव-तल्पके |
प्रसव शैया पर |
तत्-पदात्-वहन् |
उस स्थान से उठा कर |
कपट-कन्यकाम् |
कपट कन्या को |
स्वपुरम्-आगत: वेगत: |
अपनी पुरी को आ गये शीघ्र ही |
नन्द गोप की वाटिका के दरवाजे खुले थे, गोपिकाएं निद्राग्रस्त थीं और एक बालिका का मन्द रुदन सुनाई दे रहा था। वसुदेव ने वहां प्रवेश किया और प्रसव शैया पर आपको रख कर, उस स्थान से कपट कन्या को उठा लिया और वेग से अपनी पुरी को लौट आये।
ततस्त्वदनुजारवक्षपितनिद्रवेगद्रवद्-
भटोत्करनिवेदितप्रसववार्तयैवार्तिमान् ।
विमुक्तचिकुरोत्करस्त्वरितमापतन् भोजरा-
डतुष्ट इव दृष्टवान् भगिनिकाकरे कन्यकाम् ॥३॥
तत:-त्वत्-अनुजा-रव- |
उसके बाद आपकी छोटी बहन की आवाज से |
क्षपित-निद्र-वेग-द्रवत्- |
टूटी हुई निद्रा वाले वेग से दौडते हुए |
भट-उत्कर-निवेदित- |
द्वार पाल गणों के द्वारा बताये जाने पर |
प्रसव-वार्तया- |
प्रसव वार्ता से |
एव-आर्तिमान् |
निश्चय पीडित |
विमुक्त-चिकुर-उत्कर:- |
बिखरे हुए बालों के समूह वाला |
त्वरितम्-आपतन् |
शीघ्रता से पहुंच कर |
भोज-राज-अतुष्ट |
भोजराज (कंस) ने असन्तुष्ट |
इव दृष्टवान् |
के समान देखा |
भगिनिका-करे कन्यकाम् |
बहन के हाथ में बालिका को |
उसके बाद आपकी छोटी बहन के रोने की आवाज से द्वारपालों की निद्रा टूट गई। वे दौड कर गये और कंस को प्रसव के बारे में सूचित किया। भय और पीडा से त्रस्त बिखरे हुए बालो वाला कंस वहां अत्यन्त शीघ्रता से पहुंचा और उसने अपनी बहन के हाथ में बालिका को देखा।
ध्रुवं कपटशालिनो मधुहरस्य माया भवे-
दसाविति किशोरिकां भगिनिकाकरालिङ्गिताम् ।
द्विपो नलिनिकान्तरादिव मृणालिकामाक्षिप-
न्नयं त्वदनुजामजामुपलपट्टके पिष्टवान् ॥४॥
ध्रुवम् कपटशालिन: |
निश्चय ही (उस) कपटी |
मधुहरस्य माया भवेत्- |
मधुसूदन की माया होगी |
असौ-इति किशोरिकाम् |
यह, इस प्रकार बालिका को |
भगिनिका-कर-आलिङ्गिताम् |
(जो) बहन की बाहों में आलिङ्गित (थी) |
द्विप: नलिनि-कान्तरात्-इव |
हाथी कमल सरोवर से जैसे |
मृणालिकाम्-आक्षिपन्- |
कोमल मृणाल को तोड लेता है |
अयम् त्वत्-अनुजाम्-अजाम्- |
इसने आपकी छोटी बहन को, अजन्मा को |
उपल-पट्टके पिष्टवान् |
प्रस्तरशिला के ऊपर पटक दिया |
'निश्चय ही यह उस कपटी मधुसूदन की माया होगी' इस प्रकार सोच कर कंस ने अपनी बहन की बाहों के आलिङ्ग्न में से आपकी छोटी बहन को उसी प्रकार खींच लिया जैसे हाथी कमल सरोवर में से कोमल मृणाल को तोड लेता है, और उस अजन्मा कन्या को प्रस्तर शिला पर पटक दिया।
तत: भवदुपासको झटिति मृत्युपाशादिव
प्रमुच्य तरसैव सा समधिरूढरूपान्तरा ।
अधस्तलमजग्मुषी विकसदष्टबाहुस्फुर-
न्महायुधमहो गता किल विहायसा दिद्युते ॥५॥
तत: भवत्-उपासक: |
तदन्तर (जिस प्रकार) आपके उपासक |
झटिति मृत्युपाशात्-इव |
तत्काल मृत्यु के पाश से जिस प्रकार |
प्रमुच्य तरसा-एव |
छूट कर तुरन्त ही |
सा समधिरूढ-रूपान्तरा |
वह (बालिका) धारण कर के अन्य रूप को |
अध:-तलम्-अजग्मुषी |
नीचे लोकों में नहीं जा कर |
विकसत्-अष्ट-बाहु:- |
प्राप्त करते हुए आठ भुजाएं |
स्फुरन्-महा-आयुधम्- |
(उनमें) सुशोभित महा आयुध |
अहो गता किल |
अहो! चली गई निश्चय ही |
विहायसा दिद्युते |
आकाश मार्ग से, देदीप्यमती |
तदनन्तर, जिस प्रकार आपके उपासक मृत्यु के पाश से तत्काल ही छूट जाते हैं, वह, योगमाया भी तुरन्त ही कंस की पकड से छूट गई। नीचे के लोकों की ओर न जाती हुई वह ऊपर की ओर उठी और अन्य रूप धारण कर लिया, जिसमें आठ भुजायें थीं और उन भुजाओं में दिव्य महा आयुध सुशोभित हो रहे थे। अहो! इस प्रकार वह दीप्तिमयी आकाश मार्ग से चली गई।
नृशंसतर कंस ते किमु मया विनिष्पिष्टया
बभूव भवदन्तक: क्वचन चिन्त्यतां ते हितम् ।
इति त्वदनुजा विभो खलमुदीर्य तं जग्मुषी
मरुद्गणपणायिता भुवि च मन्दिराण्येयुषी ॥६॥
नृशंसतर कंस |
अत्यन्त क्रूर कंस |
ते किमु |
तुम्हारा क्या (लाभ है) |
मया विनिष्पिष्टया |
मुझे पटकने में |
बभूव भवत्-अन्तक: |
हो गया है तुम्हारा अन्त करने वाला |
क्वचन |
कहीं पर |
चिन्त्यतां ते हितम् |
चिन्ता करो तुम्हारे हित की |
इति त्वत्-अनुजा |
इस प्रकार आपकी छोटी बहन |
विभो खलम्-उदीर्य तं |
हे विभो! उस दुष्ट को कह कर |
जग्मुषी मरुद्गण-पणायिता |
चली गई मरुद्गणों के द्वारा स्तुत हो कर |
भुवि च मन्दिराणि-एयुषी |
और पृथ्वी पर मन्दिरों में आ गई |
'हे क्रूर कंस! मुझे इस प्रकार पटकने में तुम्हारा क्या लाभ है? तुम्हारा अन्त करने वाला और कहीं पैदा हो गया है। तुम अपने हित की चिन्ता करो।' हे विभो! उस दुष्ट को इस प्रकार कहते हुए आपकी छोटी बहन चली गई। मरुद्गण उसकी स्तुति करने लगे और वह पृथ्वी पर मन्दिरों में आ विराजी।
प्रगे पुनरगात्मजावचनमीरिता भूभुजा
प्रलम्बबकपूतनाप्रमुखदानवा मानिन: ।
भवन्निधनकाम्यया जगति बभ्रमुर्निर्भया:
कुमारकविमारका: किमिव दुष्करं निष्कृपै: ॥७॥
प्रगे पुन:- |
दूसरे दिन सुबह फिर |
अगात्मजा- |
योग माया द्वारा |
वचनम्-ईरिता |
वचन कहे हुए |
भूभुजा |
राजा के द्वारा (कहा गया) |
प्रलम्ब-बक-पूतना- |
प्रलम्ब, बक, पूतना आदि |
प्रमुख-दानवा: |
प्रमुख दानवों को |
मानिन: |
वे दम्भी |
भवत्-निधन-काम्यया |
आपके अन्त के इच्छुक |
जगति बभ्रमु:-निर्भया: |
भूतल पर विचरने लगे निर्भयता से |
कुमारक-विमारका: |
बालकों को मारने वाले |
किमिव दुष्करं निष्कृपै: |
क्या दुष्कर है निर्दयी लोगों के लिये |
दूसरे दिन सुबह राजा कंस ने योगमाया द्वारा कही हुई बात प्रमुख दानव गण - प्रलम्ब, बक, पूतना आदि को कही। आपका अन्त कर देने के इच्छुक, बालकों की हत्या करने वाले वे दम्भी दानव भूतल पर निर्भयता से विचरने लगे। क्रूर निर्दयी लोगों के लिये कौन सा कुकर्म दुष्कर है?
तत: पशुपमन्दिरे त्वयि मुकुन्द नन्दप्रिया-
प्रसूतिशयनेशये रुदति किञ्चिदञ्चत्पदे ।
विबुध्य वनिताजनैस्तनयसम्भवे घोषिते
मुदा किमु वदाम्यहो सकलमाकुलं गोकुलम् ॥८॥
तत: पशुप-मन्दिरे |
तब गोप (नन्द के) घर में |
त्वयि मुकुन्द |
आपको, हे मुकुन्द! |
नन्द प्रिया-प्रसूति-शयने- |
नन्द पत्नी की प्रसूति शय्या पर |
शये रुदति |
सोये हुए और रोते हुए |
किञ्चित्-अञ्चत्-पदे |
कुछ उछालते हुए पैरों को |
विबुध्य वनिता-जनै:- |
(देख कर) जगाये जाने पर गोपियों के द्वारा |
तनय-सम्भवे घोषिते |
पुत्र के पैदा होने की घोषणा किये जाने पर |
मुदा किमु वदामि-अहो |
आनन्दित क्या कहूं मैं अहो! |
सकलम्-आकुलं गोकुलं |
सम्पूर्ण गोकुल आनन्द से विह्वल हो उठा |
हे मुकुन्द! तब नन्द गोप के घर में उनकी पत्नी की प्रसूती शय्या पर सोये हुए ,रोते हुए और पैरों को किञ्चित उछालते हुए आपको देख कर गोपियों के द्वारा जगाये जाने पर और यह घोषणा की जाने पर कि पुत्र उत्पन्न हुआ है, अहो! मैं क्या कहूं, सम्पूर्ण गोकुल आनन्द से विह्वल हो उठा।
अहो खलु यशोदया नवकलायचेतोहरं
भवन्तमलमन्तिके प्रथममापिबन्त्या दृशा ।
पुन: स्तनभरं निजं सपदि पाययन्त्या मुदा
मनोहरतनुस्पृशा जगति पुण्यवन्तो जिता: ॥९॥
अहो खलु यशोदया |
अहो! निश्चय ही यशोदा ने |
नव-कलाय-चेतोहरं |
नूतन कलाय पुष्प के समान लुभावने |
भवन्तम्-अलम्-अन्तिके |
अआपको अपने अत्यन्त निकट |
प्रथमम्-आपिबन्त्या |
पहले तो पान कर के |
दृशा पुन: |
नेत्रों से फिर |
स्तनभरं निजं सपदि |
परिपूर्ण स्तनों को अपने शीघ्रता से |
पाययन्त्या मुदा |
पिलाते हुए आनन्द से |
मनोहर-तनु-स्पृशा |
मनोहर शरीर का स्पर्श करने से |
जगति पुण्यवन्त: |
संसार में पुण्यशालियों में |
जिता: |
जीत हासिल कर ली |
अहो! निश्चय ही यशोदा ने संसार के सभी पुण्यशालियों को जीत लिया, क्योंकि उन्होंने नव कलाय पुष्प के समान लुभावने आपको अत्यन्त निकट से देखा, अपने नेत्रों से आपके सौन्दर्य का रसपान किया, फिर शीघ्रता से अपने परिपूर्ण स्तनों का पान कराया और आपके मनोहर शरीर का स्पर्श किया।
भवत्कुशलकाम्यया स खलु नन्दगोपस्तदा
प्रमोदभरसङ्कुलो द्विजकुलाय किन्नाददात् ।
तथैव पशुपालका: किमु न मङ्गलं तेनिरे
जगत्त्रितयमङ्गल त्वमिह पाहि मामामयात् ॥१०॥
भवत्-कुशल-काम्यया |
आपके कुशल की कामना से |
स खलु नन्दगोप:-तदा |
उन नन्द गोप ने तब |
प्रमोद-भर-सङ्कुल: |
अत्यन्त हर्ष के उद्वेग में |
द्विज-कुलाय |
द्विजों के कुलों को |
किम्-न-अददात् |
क्या नहीं दे दिया |
तथा-एव पशु-पालका: |
उसी प्रकार गोपों ने |
किमु न मङ्गलं तेनिरे |
क्या नहीं मंगल किया |
जगत्-त्रितय-मङ्गल त्वम्- |
हे तीनों जगतों के मंगलकारी आप |
इह पाहि माम्-आमयात् |
यहां रक्षा कीजिये मेरी रोगों से |
आपके कुशल की कामना से और हर्ष के उद्वेग में नन्द गोप ने द्विजों के कुलों को क्या कुछ दान में नहीं दिया! उसी प्रकार गोपों ने भी आपके लिए कौन कौन से मंगल कार्य नहीं किये। हे त्रिजगत के मंगलकारी! आप रोगों से मेरी रक्षा करें।
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