Shriman Narayaneeyam

दशक 37 | प्रारंभ | दशक 39

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दशक ३८

आनन्दरूप भगवन्नयि तेऽवतारे
प्राप्ते प्रदीप्तभवदङ्गनिरीयमाणै: ।
कान्तिव्रजैरिव घनाघनमण्डलैर्द्या-
मावृण्वती विरुरुचे किल वर्षवेला ॥१॥

आनन्द-रूप आनन्द स्वरूप
भगवन्-अयि हे भगवन!
ते-अवतारे प्राप्ते आपके अवतार के (समय़ के) आ जाने पर
प्रदीप्त-भवत्-अङ्ग- उज्ज्वल आपके अङ्गों से
निरीयमाणै: प्रदीप्त
कान्ति-व्रजै:-इव प्रकाश किरणों से जैसे
घनाघन-मण्डलै:- घनघोर घटाओं से
द्याम्-आवृण्वती आकाश को आच्छादित करते हुए
विरुरुचे किल वर्षवेला शोभा पा रही थी वर्षा ऋतु

हे भगवन! आनन्दस्वरूप आपके अवतार का समय प्रस्तुत होने पर, आपके उज्ज्वल अङ्गों की प्रकाश किरणों से प्रदीप्त घनघोर घटाओं से आकाश को आच्छादित करती हुई वर्षा ऋतु अत्यन्त शोभायमान हो रही थी।

आशासु शीतलतरासु पयोदतोयै-
राशासिताप्तिविवशेषु च सज्जनेषु ।
नैशाकरोदयविधौ निशि मध्यमायां
क्लेशापहस्त्रिजगतां त्वमिहाविरासी: ॥२॥

आशासु सभी दिशाओं के
शीतलतरासु सुशीतल हो जाने पर
पयोदतोयै:- वर्षा के जल से
आशासित- परमार्थित (वस्तु के)
आप्ति-विवशेषु पा जाने (की खुशी से) अभिभूत
च सज्जनेषु और सज्जनों के हो जाने से
नैशाकर-उदय-विधौ चन्द्रमा के उदय होने के समान
निशि मध्यमायां रात्रि के मध्य में
क्लेशापह:- त्रिजगतां क्लेशों का नाश करने वाले तीनो जगत के
त्वम्- आप
इह-आविरासी: यहां (इस धरा पर) अवतरित हुए

सभी दिशाएं के वर्षा जल से सुशीतल हो गईं। सज्जनों को अपनी मनोकामना पूर्ण होने का अहसास होने लगा और वे हर्षित हो उठे। मध्य रात्रि में, चन्द्रमा के उदित होने के समान, त्रिजगत के क्लेशों का नाश करने वाले आप इस धरा पर अवतरित हुए।

बाल्यस्पृशाऽपि वपुषा दधुषा विभूती-
रुद्यत्किरीटकटकाङ्गदहारभासा ।
शङ्खारिवारिजगदापरिभासितेन
मेघासितेन परिलेसिथ सूतिगेहे ॥३॥

बाल्य-स्पृशा-अपि बाल भाव में भी
वपुषा देह से
दधुषा विभूती:- धारण किये हुए विभूतियां
उद्यत्-किरीट- उद्दीप्त होते हुए किरीट
कटक-अङ्गद- करघनी और बाजूबन्द
हार भासा हार सुन्दर से (सुसज्जित)
शङ्ख-अरि- शङ्ख चक्र
वारिज-गदा कमल गदा (लिये हुए)
परिभासितेन मेघासितेन प्रभा युक्त मेघों के समान श्याम कान्ति वाले
परिलेसिथ आप सुशोभित हुए
सूति गेहे सूतिका गृह में

देह से बाल भाव में भी आप अपनी विभूतियों को धारण किये हुए थे। उद्दीप्त किरीट ,करघनी बाजूबन्द और सुन्दर हार से सुसज्जित, शङ्ख, चक्र गदा और पद्म लिये हुए, प्रभा युक्त मेघों के समान श्यामल कान्ति वाले आप, सूतिका गृह में सुशोभित हुए।

वक्ष:स्थलीसुखनिलीनविलासिलक्ष्मी-
मन्दाक्षलक्षितकटाक्षविमोक्षभेदै: ।
तन्मन्दिरस्य खलकंसकृतामलक्ष्मी-
मुन्मार्जयन्निव विरेजिथ वासुदेव ॥४॥

वक्ष:-स्थली- (आपके) वक्षस्थल पर
सुख-निलीन- सुख से विराजित
विलासि-लक्ष्मी- विलासिनी लक्ष्मी
मन्द-अक्ष-लक्षित- मनोहर नेत्रों से इङ्गित
कटाक्ष-विमोक्ष-भेदै: कटाक्ष डालते हुए नाना प्रकार से
तत्-मन्दिरस्य उस (सूतिका) भवन का
खल-कंस-कृताम्-अलक्ष्मीम्- दुष्ट कंस के द्वारा कीगई अमंगलता को
उन्मार्जयन्-इव परिमार्जन करती हुई मानो
विरेजिथ वासुदेव विराजमान हुए हे वासुदेव

विलासिनी लक्ष्मी आपके वक्षस्थल पर सुखपूर्वक विराजमान थीं और अपने मनोहारी नेत्रों से इङ्गित कटाक्ष करते हुए दुष्ट कंश के द्वारा अमंगलकारी बनाये हुए सूतिका भवन का मानो परिमार्जन कर रही थीं। हे वासुदेव! ऐसी उन लक्ष्मी के संग आप विराजमान हुए।

शौरिस्तु धीरमुनिमण्डलचेतसोऽपि
दूरस्थितं वपुरुदीक्ष्य निजेक्षणाभ्याम् ॥
आनन्दवाष्पपुलकोद्गमगद्गदार्द्र-
स्तुष्टाव दृष्टिमकरन्दरसं भवन्तम् ॥५॥

शौरि:-तु वसुदेव ने तो
धीर-मुनि-मण्डल- धीर मुनिमण्डल के
चेतस:-अपि चित्त से भी
दूरस्थितं दूर स्थित (आपके)
वपु:-उदीक्ष्य स्वरूप को देख कर
निज-ईक्षणाभ्याम् अपने नेत्रों के द्वारा
आनन्द-वाष्प- आनन्द अश्रुओं सहित
पुलक-उद्गम- पुलकित हुए
गद-गद-आर्द्र:- गद गद और कोमल
तुष्टाव दृष्टि- (वाणी से) स्तुति की, दृष्टि (के लिये)
मकरन्द-रसम् भवन्तम् मकरन्द रस स्वरूप आपकी

धीर मुनिमण्डल के चित्त से भी दूर रहने वाले, नयनों के लिये मकरन्दरस स्वरूप आपको, वसुदेव ने अपने नेत्रों से देखा और पुलकित होते हुए आनन्द अश्रुओं से भीगी गद गद वाणी से आपका स्तवन किया।

देव प्रसीद परपूरुष तापवल्ली-
निर्लूनदात्रसमनेत्रकलाविलासिन् ।
खेदानपाकुरु कृपागुरुभि: कटाक्षै-
रित्यादि तेन मुदितेन चिरं नुतोऽभू: ॥६॥

देव प्रसीद देव! प्रसन्न हों
परपूरुष हे परम पुरुष!
तापवल्ली- सन्तापों की लता को
निर्लून-दात्र-सम- काट डालने के लिये तीक्ष्ण तलवार के समान
नेत्र-कला-विलासिन् नेत्रों की क्रीडाओं के विलासी!
खेदान्-अपाकुरु कष्टो को दूर हटावें
कृपा-गुरुभि: कटाक्षै:- कृपापूर्ण महान कटाक्षों से
इत्यादि तेन मुदितेन इस प्रकार वह (वसुदेव) प्रफुल्लित हो कर
चिरं नुतो-अभू: अनेक समय तक स्तवन करते रहे

हे देव! प्रसन्न हों। हे परम पुरुष! सन्तापों की लता को काट डालने वाली तीक्ष्ण तलवार के समान नेत्रों की क्रीडाओं के विलासी! अपने कृपापूर्ण गम्भीर कटाक्षों से कष्टों को दूर हटावें। वसुदेव इस प्रकार हर्षोल्लास सहित दीर्घ समय तक स्तुति करते रहे।

मात्रा च नेत्रसलिलास्तृतगात्रवल्या
स्तोत्रैरभिष्टुतगुण: करुणालयस्त्वम् ।
प्राचीनजन्मयुगलं प्रतिबोध्य ताभ्यां
मातुर्गिरा दधिथ मानुषबालवेषम् ॥७॥

मात्रा च नेत्र-सलिल- और (आपकी) माता के द्वारा (जो)आंखों के आंसुओं से
आस्तृत-गात्र-वल्या बिछी हुई शरीर लता वाली (के द्वारा)
स्तोत्रै:-अभिष्टुत-गुण: स्तुति की गई (आपके) गुणों की
करुणालय:- त्वम् दयानिधान आपने
प्राचीन-जन्म-युगलं प्राचीन काल के जन्म दो का
प्रतिबोध्य ताभ्यां याद दिला कर उन दोनों को
मातु:-गिरा दधिथ माता के कहने से धारण किया
मानुष-बाल-वेषम् मानविक बाल रूप को

और माता ने भी, जिनकी कृष देह लता उनके नेत्रों से बहने वाले अश्रुओं से आप्लावित थी, आपके गुणों की स्तुति की। हे दयानिधान! आपने उन दोनों को उनके दो पूर्व जन्मों की याद दिलाई। तदुपरान्त माता के कहने पर आपने मानवीय बाल रूप धारण कर लिया।

त्वत्प्रेरितस्तदनु नन्दतनूजया ते
व्यत्यासमारचयितुं स हि शूरसूनु: ।
त्वां हस्तयोरधृत चित्तविधार्यमार्यै-
रम्भोरुहस्थकलहंसकिशोररम्यम् ॥८॥

त्वत्-प्रेरित:-तदनु आपकी प्रेरणा से उसके बाद
नन्द-तनूजया नन्द की पुत्री से
ते व्यत्यासम्-आरचयितुम् आपकी अदला-बदली को कार्यान्वित करने के लिये
स हि शूरसूनु: ही वे शूर पुत्र (वसुदेव)
त्वां हस्थयो:-अधृत आपको हाथों में ले लिया
चित्त-विधार्यम्-आर्यै:- चित्त में धारण किये जाने योग्य साधुओं के द्वारा
अम्भोरुह-स्थ- (मानो) कमल पर स्थित
कल-हंस-किशोर-रम्यम् सुन्दर कल हंस किशोर (के समान)

आपकी ही प्रेरणा से, तत्पश्चात, नन्द की पुत्री से आपकी अदला बदली को कार्यान्वित करने के लिये ही उन शूर पुत्र वसुदेव ने आपको अपने हाथों में ले लिया। उस समय आप, जो केवल योग्य साधुओं के द्वारा ही चित्त में धारण किए जाते हैं, कमल पर स्थित सुन्दर नव किशोर कलहंस के समान मनोहर लग रहे थे।

जाता तदा पशुपसद्मनि योगनिद्रा ।
निद्राविमुद्रितमथाकृत पौरलोकम् ।
त्वत्प्रेरणात् किमिव चित्रमचेतनैर्यद्-
द्वारै: स्वयं व्यघटि सङ्घटितै: सुगाढम् ॥९॥

जाता तदा पैदा हुई उस समय
पशुप-सद्मनि नन्द गोप के घर में
योग-निद्रा योग निद्रा
निद्रा-विमुद्रितम्- निद्रा से अभिभूत
अथ-अकृत पौर-लोकम् तब कर दिया पुरवासियों को
त्वत्-प्रेरणात् आपकी प्रेरणा से
किम्-इव चित्रम्- क्या इस प्रकार विचित्र है
अचेतनै:-यत्-द्वारै: अचेतन जो द्वारों का
स्वयं व्यघटि स्वयं खुलना
सङ्घटितै: सुगाढम् बन्द थे जो दृढता से

उस समय नन्द गोप के घर में योग निद्रा ने जन्म लिया। आपकी ही प्रेरणा से पुरवासी गण घोर निद्रा से अभिभूत हो गये। और इसमें क्या आश्चर्य है कि सुदृढ रूप से बन्द निर्जीव द्वार भी स्वत: खुल गये।

शेषेण भूरिफणवारितवारिणाऽथ
स्वैरं प्रदर्शितपथो मणिदीपितेन ।
त्वां धारयन् स खलु धन्यतम: प्रतस्थे
सोऽयं त्वमीश मम नाशय रोगवेगान् ॥१०॥

शेषेण भूरि-फण-वारित शेष(नाग) के बहुत से फणों से रोके गये
वारिणा-अथ स्वैरम् जल से तब निर्विघ्न
प्रदर्शित-पथ: प्रदर्शित हुए मार्ग पर
मणि-दीपितेन (शेष नाग के) मणि से आलोकित
त्वां धारयन् आपको लिये हुए
स खलु धन्यतम: वे निश्चय ही धन्य शिरोमणि (वसुदेव) ने
प्रतस्थे प्रस्थान किया
स:-अयं त्वम्-ईश वही यह आप हे ईश्वर!
मम नाशय रोगा-वेगान् मेरे नाश कीजिये रोगों के वेग का

शेष नाग के सहस्र फणों के द्वारा रोके गये जल से सुरक्षित और शेष नाग के फणों की मणि से आलोकित एवं प्रदर्शित मार्ग पर धन्य शिरोमणि वसुदेव ने आपको ले कर प्रस्थान किया। हे ईश्वर! वही आप मेरे रोगों के वेग का नाश कीजिये।

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