Shriman Narayaneeyam

दशक 36 | प्रारंभ | दशक 38

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दशक ३७

सान्द्रानन्दतनो हरे ननु पुरा दैवासुरे सङ्गरे
त्वत्कृत्ता अपि कर्मशेषवशतो ये ते न याता गतिम् ।
तेषां भूतलजन्मनां दितिभुवां भारेण दूरार्दिता
भूमि: प्राप विरिञ्चमाश्रितपदं देवै: पुरैवागतै: ॥१॥

सान्द्र-आनन्द-तनो हे घनीभूत आनन्द स्वरूप!
हरे ननु पुरा भगवन! प्राचीन काल में
दैव-असुरे सङ्गरे देवों और असुरों के संग्राम में
त्वत्-कृत्ता अपि आपके द्वारा काट दिये जाने पर भी
कर्म-शेष-वशत: ये कर्मों के शेष रह जाने के कारण
ते न याता गतिम् वे लोग गति को प्राप्त नहीं हुए
तेषां भूतल-जन्मनां उनके भूमि पर जन्म हुए
दितिभूवां भारेण असुरों के भार से
दूरार्दिता भूमि: विक्षिप्त हुई धरती
प्राप विरिञ्चम्-आश्रित-पदं पहुंच कर ब्रह्मा के पास,आश्रय ले कर चरणों में
देवै: पुरा-एव-आगतै: (बोली) पहले से आये हुए देवों के संग

हे घनीभूत आनन्द स्वरूप भगवन! प्राचीन काल में देवों और असुरों के संग्राम में, आपके द्वारा वध कर दिये जाने पर भी कर्मों के शेष रह जाने के कारण असुरों ने मुक्ति नहीं पाई और फिर से धरती पर जन्म लिया। उनके भार से विक्षिप्त हुई धरती ब्रह्मा के पास पहुंची और उनके चरणों का आश्रय ले कर, वहां पहले से उपस्थित देवों के साथ इस प्रकार प्रार्थना करने लगी -

हा हा दुर्जनभूरिभारमथितां पाथोनिधौ पातुका-
मेतां पालय हन्त मे विवशतां सम्पृच्छ देवानिमान् ।
इत्यादिप्रचुरप्रलापविवशामालोक्य धाता महीं
देवानां वदनानि वीक्ष्य परितो दध्यौ भवन्तं हरे ॥२॥

हा हा हाय! हाय!
दुर्जन-भूरि-भार-मथितां दुष्टों के अतीव भार से मर्दित
पाथोनिधौ पातुकाम्- समुद्र में मग्न प्राय:
एतां पालय हन्त इस (मेरा) पालन कीजिये, दु:ख है
मे विवशतां सम्पृच्छ मेरी विवशता को पूछिये (जानिये)
देवान्-इमान् इति-आदि इन देवताओं से, इस प्रकार इत्यादि
प्रचुर-प्रलाप-विवशाम्- अत्यन्त विलाप करती हुई शिथिल को
आलोक्य धाता महीं देख कर ब्रह्मा पृथ्वी को
देवानाम् वदनानि वीक्ष्य (और) देवों के मुखों को देख कर
परित: चारों ओर से
दध्यौ भवन्तं ध्यान किया आपका
हरे हे हरि!

हाय! हाय! दुष्टों के अतीव भार से मर्दित और समुद्र में मग्न प्राय: मेरी विवशता को इन देवताओं से पूछिये और जानिये।' हे हरि! इस प्रकार विलाप करती हुई और शिथिल हुई धरती और चारों ओर एकत्रित देवताओं के मुखों को देख कर ब्रह्मा आपका ध्यान करने लगे।

ऊचे चाम्बुजभूरमूनयि सुरा: सत्यं धरित्र्या वचो
नन्वस्या भवतां च रक्षणविधौ दक्षो हि लक्ष्मीपति: ।
सर्वे शर्वपुरस्सरा वयमितो गत्वा पयोवारिधिं
नत्वा तं स्तुमहे जवादिति ययु: साकं तवाकेतनम् ॥३॥

ऊचे च-अम्बुजभू:- कहा और कमलजन्मा (ब्रह्मा) ने
अमून्-अयि सुरा: उनको, ' हे देवों
सत्यं धरित्र्या वच: सत्य हैं धरती के वचन
ननु-अस्या भवतां च निश्चय ही इसके और आप लोगों के
रक्षण-विधौ रक्षण की विधि में
दक्ष: हि लक्ष्मीपति: चतुर हैं लक्ष्मीपति (विष्णु) ही
सर्वे शर्व-पुर:-सरा सब (जन) शंकर को सामने कर के
वयम्-इत: गत्वा हम यहां से जा कर
पय:-वारिधिं क्षीर सागर को
नत्वा तं स्तुमहे जवात्- नमन कर के उनकी स्तुति करें शीघ्र'
इति ययु: साकं इस प्रकार गये साथ में
तव-आकेतनम् आपके निकेत को

कमलजन्मा ब्रह्मा ने कहा कि 'हे देवों निश्चय ही धरती के वचन सत्य हैं। आप लोगों की और इसकी रक्षा के प्रबन्ध में लक्ष्मीपति विष्णु ही समर्थ हैं। हम सब शीघ्र ही शंकर को सामने कर के यहां से क्षीर सागर जा कर उनको नमस्कार कर के उनकी स्तुति करें'। इस प्रकार वे सब एक साथ आपके निकेतन को गये।

ते मुग्धानिलशालिदुग्धजलधेस्तीरं गता: सङ्गता
यावत्त्वत्पदचिन्तनैकमनसस्तावत् स पाथोजभू: ।
त्वद्वाचं हृदये निशम्य सकलानानन्दयन्नूचिवा-
नाख्यात: परमात्मना स्वयमहं वाक्यं तदाकर्ण्यताम् ॥४॥

ते वे
मुग्ध-अनिल-शालि- लुभावनी वायु युक्त
दुग्ध-जलधे: तीरं क्षीर सागर के तट पर
गता: सङ्गता यावत्- गये मिल कर जब तक
त्वत्-पद-चिन्तन-एक-मनस:- आपके चरणों का चिन्तन कर रहे थे एकाग्र मन से
तावत् स पाथोजभू: तब तक वे कमलजन्मा (ब्रह्मा)
त्वत्-वाचम् हृदये निशम्य आपके शब्द (अपने) हृदय में सुन कर
सकलान्-आनन्दयन्- सभी को आनन्द देते हुए
ऊचिवान्-आख्यात: कहने लगे 'कहा गया है
परमात्मना स्वयम्- परमात्मा के द्वारा स्वयं
अहं वाक्यं मुझे वचन
तत्-आकर्ण्यताम् उसे (आप लोग) सुनें

वे सब मिल कर लुभावनी वायु युक्त क्षीर सागर के तट पर पहुंचे। जब तक वे सब आपके चरणों का एकाग्र मन से ध्यान कर रहे थे, तब तक कमलजन्मा ब्रह्मा ने अपने हृदय में आपकी वाणी को सुना। सभी को आनन्दित करते हुए वे बोले, 'स्वयं परमात्मा ने मुझे जो वचन कहे हैं उन्हें आप सब सुनें।'

जाने दीनदशामहं दिविषदां भूमेश्च भीमैर्नृपै-
स्तत्क्षेपाय भवामि यादवकुले सोऽहं समग्रात्मना ।
देवा वृष्णिकुले भवन्तु कलया देवाङ्गनाश्चावनौ
मत्सेवार्थमिति त्वदीयवचनं पाथोजभूरूचिवान् ॥५॥

जाने दीन-दशाम्-अहं जानता हूं दीन दशा को मैं
दिविषदां भूमे:-च स्वर्गवासियों की और भूमि की
भीमै:-नृपै:- क्रूर राजाओं (के कारण)
तत्-क्षेपाय उसके उन्मूलन के लिये
भवामि यादव-कुले होऊंगा यादव कुल में
स:-अहम् समग्र-आत्मना वह मैं समस्त स्वरूप से
देवा: वृष्णिकुले भवन्तु देव लोग वृष्णि कुल में (पैदा) हों
कलया कलाओं सहित
देवाङ्गना:-च-अवनौ और देवताओं की पत्नियां पृथ्वी पर
मत्-सेवा-अर्थम्- मेरी सेवा के लिये
इति त्वदीय-वचनम् यह आपके वचन
पाथोजभू:-ऊचिवान् ब्रह्मा ने कहे

'क्रूर राजाओं के कारण उपस्थित स्वर्गवासियों की और पृथ्वी की दीन दशा को मैं जानता हूं। उसका उन्मूलन करने के लिये मैं अपने सम्पूर्ण स्वरूप से प्रकट होऊंगा। देव गण वृष्णि कुल में अपने अपने अंश से पैदा हों और मेरी सेवा के लिये देव पत्नियां भी जन्म लें।' ब्रह्मा ने आपके ये वचन सुनाए।

श्रुत्वा कर्णरसायनं तव वच: सर्वेषु निर्वापित-
स्वान्तेष्वीश गतेषु तावककृपापीयूषतृप्तात्मसु ।
विख्याते मधुरापुरे किल भवत्सान्निध्यपुण्योत्तरे
धन्यां देवकनन्दनामुदवहद्राजा स शूरात्मज: ॥६॥

श्रुत्वा कर्ण-रसायनम् सुन कर कानों के लिये अमृत तुल्य
तव वच: सर्वेषु आपके वचन, सब के
निर्वापित-स्वान्तेषु- हो जाने पर परिष्कृत अन्त:करण
ईश गतेषु हे ईश्वर! (सब के) चले जाने पर
तावक-कृपा- आपकी कृपा
पीयूष-तृप्त-आत्मसु रूपी अमृत से तृप्त हुई आत्मा वालों के
विख्याते मधुरापुरे किल प्रसिद्ध मथुरा में निश्चय रूप से
भवत्-सान्निध्य-पुण्य-उत्तरे आपके सानिध्य के कारण उद्भूत पुण्य वाली (में)
धन्यां देवकनन्दनाम्- सौभाग्यशाली देवक सुता का
उद्वहत्-राजा स पाणिग्रहण किया उन राजा
शूरात्मज: शूर पुत्र (वसुदेव) ने

आपके अमृत तुल्य वचन सुन कर उन सभी के अन्त:करण परिमार्जित हो गये और आपकी अमृत स्वरूप कृपा से तृप्त आत्मा वाले वे सभी चले गये। हे ईश्वर! आपके सान्निध्य से उन्नत हुए पुण्यों वाली प्रसिद्ध मथुरा नगरी में ही देवक की सौभाग्यशालिनी कन्या का राजा शूरसेन के पुत्र वसुदेव ने पाणिग्रहण किया।

उद्वाहावसितौ तदीयसहज: कंसोऽथ सम्मानय-
न्नेतौ सूततया गत: पथि रथे व्योमोत्थया त्वद्गिरा ।
अस्यास्त्वामतिदुष्टमष्टमसुतो हन्तेति हन्तेरित:
सन्त्रासात् स तु हन्तुमन्तिकगतां तन्वीं कृपाणीमधात् ॥७॥

उद्वाह्-अवसितौ विवाह के सम्पन्न हो जाने पर
तदीय-सहज: कंस:-अथ उसके (देवकी के) भाई कंस ने तब
सम्मानयन्-एतौ सम्मान करते हुए दोनों का
सूततया गत: पथि रथे सारथीत्व ले कर मार्ग में रथ पर
व्योम-उत्थया त्वत्-गिरा आकाश से उठी हुई आपकी वाणी से
अस्या:-त्वाम्-अति-दुष्टम्- इसका (देवकी का) तुम अत्यन्त दुष्ट को
अष्टम-सुत: हन्ता-इति आठवां पुत्र मारने वाला होगा इस प्रकार
हन्त-ईरित: हाय! कहे जाने पर
सन्त्रासत् स तु भयभीत वह तो (कंस ने)
हन्तुम्-अन्तिकगतां तन्वीं मारने को उद्यत पास में (स्थित) युवती को
कृपाणीम्-अधात् तलवार को निकाला

विवाह के सम्पन्न हो जाने पर देवकी के भाई कंस ने दोनों के सम्मान में रथ का सारथीत्व ग्रहण किया। मार्ग में जाते हुए आपकी आकाशवाणी हुई, 'तुझ दुष्ट का, इसका आठवां पुत्र संहार करेगा।' हाय! इस प्रकार कहे जाने पर भयभीत कंस ने पास में स्थित युवती देवकी को मारने के लिये तलवार निकाल ली।

गृह्णानश्चिकुरेषु तां खलमति: शौरेश्चिरं सान्त्वनै-
र्नो मुञ्चन् पुनरात्मजार्पणगिरा प्रीतोऽथ यातो गृहान् ।
आद्यं त्वत्सहजं तथाऽर्पितमपि स्नेहेन नाहन्नसौ
दुष्टानामपि देव पुष्टकरुणा दृष्टा हि धीरेकदा ॥८॥

गृह्णान:-चिकुरेषु ताम् पकड कर केशों से उसको
खलमति: दुष्ट्बुद्धि ने
शौरे:-चिरं सान्त्वनै: वसुदेव के बहुत समय तक सान्त्वना देने के द्वारा
नो मुञ्चन् पुन:- (भी) नहीं छोडा, तब फिर
आत्मज-अर्पण-गिरा पुत्र को अर्पण करने की प्रतिज्ञा से
प्रीत:-अथ यात: गृहान् सन्तुष्ट तब चला गया घर को
आद्यं त्वत्-सहजम् पहले आपके भाई को
तथा-अर्पितम्-अपि उसी प्रकार अर्पित कर देने पर भी
स्नेहेन न-अहन्-असौ स्नेहवश नहीं मारा इसने
दुष्टानम्-अपि देव दुष्टों का भी हे देव!
पुष्ट-करुणा युक्त करुणा
दृष्टा हि धी:-एकदा देखी ही जाती है बुद्धि कभी

उस दुष्ट बुद्धि कंस ने वसुदेव के बहुत समय तक सान्त्वना देने पर भी देवकी को नहीं छोडा। तब यह आश्वासन पा कर कि अपने पुत्रों को वसुदेव कंस को अर्पित कर देंगे, वह सन्तुष्ट हो कर घर चला गया। उसी के अनुसार आपके पहले भाई को अर्पित कर देने पर भी कंस ने स्नेह्वश उसे नहीं मारा। हे देव! कभी कभी दुष्टों में भी करुणा युक्त बुद्धि देखी जाती है।

तावत्त्वन्मनसैव नारदमुनि: प्रोचे स भोजेश्वरं
यूयं नन्वसुरा: सुराश्च यदवो जानासि किं न प्रभो ।
मायावी स हरिर्भवद्वधकृते भावी सुरप्रार्थना-
दित्याकर्ण्य यदूनदूधुनदसौ शौरेश्च सूनूनहन् ॥९॥

तावत्-त्वत्-मनसा-एव तब आपकी इच्छा से ही
नारद मुनि: नारद मुनि
प्रोचे स भोजेश्वरं बोले उन भोजराज (कंस) को
यूयं ननु-असुरा: आपलोग हैं ही असुर
सुरा:-च यादव: और देव हैं यादव
जानासि किं न प्रभो जानते क्या नहीं है प्रभू
मायावी स हरि:- (कि) मायावी वह हरि
भवत्-वध कृते आपके संहार के लिये
भावी सुर-प्रार्थनात्- जन्म लेंगे देवों की प्रार्थना से
इति-आकर्ण्य ऐसा सुन कर
यदून्-अदूधुनत्-असौ यदुओं को भगा दिया इसने (कंस ने)
शौरे:-च सूनून्-अहन् और वसुदेव के पुत्रों को मार दिया

आपकी ही प्रेरणा से नारद मुनि ने उस भोजराज कंस से कहा कि 'हे प्रभॊ! आप क्या जानते नहीं हैं कि आप लोग असुर हैं और यादव देव हैं। मायावी हरि देवों की प्रार्थना से आपके संहार के लिये जन्म लेंगे।' ऐसा सुन कर उसने यदुओं को भगा दिया और वसुदेव के पुत्रों को मार दिया।

प्राप्ते सप्तमगर्भतामहिपतौ त्वत्प्रेरणान्मायया
नीते माधव रोहिणीं त्वमपि भो:सच्चित्सुखैकात्मक: ।
देवक्या जठरं विवेशिथ विभो संस्तूयमान: सुरै:
स त्वं कृष्ण विधूय रोगपटलीं भक्तिं परां देहि मे ॥१०॥

प्राप्ते सप्तम-गर्भताम्- प्राप्त हो जाने पर सातवें गर्भ में
अहिपतौ आदिशेष के
त्वत्-प्रेरणात्- आपकी प्रेरणा से
मायया नीते माया के द्वारा ले जाया गया (वह)
माधव रोहिणीं हे माधव! रोहिणी के (गर्भ में)
त्वम्-अपि भो:- आप भी हे!
सत्-चित्-सुख-एक-आत्मक: सत चित और आनन्द एक आत्मक
देवक्या जठरं विवेशिथ देवकी के गर्भ में प्रवेश कर गये
विभो संस्तूयमान: सुरै: हे विभो! देवों के द्वारा स्तुति किये जाते हुए
स त्वं कृष्ण वे ही आप हे कृष्ण!
विधूय रोग-पटलीम् नष्ट करके रोग के समूह को
भक्तिं परां देहि मे भक्ति परा दें मुझको

देवकी के सातवें गर्भ में आदिशेष के प्राप्त हो जाने पर हे माधव! आपकी प्रेरणा से माया ने उसे रोहिणी के गर्भ में पहुंचा दिया। हे विभो! देवों के द्वारा स्तुति किये जाते हुए आप भी देवकी के गर्भ में प्रवेश कर गये। वे ही हे कृष्ण! आप मेरे रोगों के समूह को नष्ट कर के मुझे परा भक्ति प्रदान करें।

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