दशक ३३
वैवस्वताख्यमनुपुत्रनभागजात-
नाभागनामकनरेन्द्रसुतोऽम्बरीष: ।
सप्तार्णवावृतमहीदयितोऽपि रेमे
त्वत्सङ्गिषु त्वयि च मग्नमनास्सदैव ॥१॥
वैवस्वत-आख्य-मनु- |
वैवस्वत नाम के मनु (के) |
पुत्र-नभाग- |
पुत्र नभाग (के) |
जात-नाभाग-नामक- |
पैदा हुए नाभाग नाम (के पुत्र) |
नरेन्द्र-सुत:-अम्बरीष: |
(उन) राजा के पुत्र अम्बरीष |
सप्त-अर्णव-आवृत- |
सातों समुद्रों से घिरी हुई |
मही-दयित:अपि |
पृथ्वी के स्वामी होते हुए भी |
रेमे त्वत्-सङ्गिषु |
आनन्द पाते थे आपके भक्तों के साथ |
त्वयि च |
और आप में |
मग्न-मना:-सदैव |
मग्न मन वाले (रहते थे) सदा ही |
वैवस्वत मनु के पुत्र नभाग के नाभाग नामक पुत्र हुए। नाभाग के पुत्र अम्बरीष सातों समुद्रों से घिरी हुई पृथ्वी के स्वामी होते हुए भी आपके भक्तों के सङ्ग में आनन्द पाते थे और उनका मन सदा आपमें मग्न रहता था।
त्वत्प्रीतये सकलमेव वितन्वतोऽस्य
भक्त्यैव देव नचिरादभृथा: प्रसादम् ।
येनास्य याचनमृतेऽप्यभिरक्षणार्थं
चक्रं भवान् प्रविततार सहस्रधारम् ॥२॥
त्वत्-प्रीतये |
आपकी प्रसन्नता के लिये |
सकलम्-एव वितन्वत:- |
सभी कुछ भी करते हुए |
अस्य भक्त्या-एव |
इनकी भक्ति के द्वारा ही |
देव |
हे देव! |
नचिरात्-अभृथा: प्रसादम् |
शीघ्र ही पा गये (आपकी) कृपा |
येन- |
जिसके द्वारा |
अस्य याचनम्-ऋते-अपि- |
इनके याचना के बिना भी |
अभिरक्षण-अर्थम् |
रक्षा के लिये |
चक्रं भवान् प्रविततार |
सुदर्शन चक्र को आपने नियुक्त किया |
सहस्रधारम् |
(जो) सहस्र धाराओं वाला है |
आपकी प्रसन्नता के लिये लौकिक वैदिक सभी कर्मों को करते हुए, अपनी भक्ति के द्वारा इन्हें शीघ्र ही आपकी कृपा प्राप्त हो गई। उनके याचना न करने पर भी आपने अपने सहस्र धाराओं वाले सुदर्शन चक्र को उनकी रक्षा के लिये नियुक्त किया।
स द्वादशीव्रतमथो भवदर्चनार्थं
वर्षं दधौ मधुवने यमुनोपकण्ठे ।
पत्न्या समं सुमनसा महतीं वितन्वन्
पूजां द्विजेषु विसृजन् पशुषष्टिकोटिम् ॥३॥
स द्वादशी-व्रतम्-अथ: |
उन्होंने (अम्बरीष ने) द्वादशी व्रत का तब |
भवत्-अर्चन-अर्थम् |
आपकी अर्चना के लिये |
वर्षं दधौ मधुवने |
एक वर्ष तक संकल्प किया, मधुवन में |
यमुना-उपकण्ठे |
यमुना के तट पर |
पत्न्या समं सुमनसा |
पत्नी के साथ भक्तिमती |
महतीं वितन्वन् पूजां |
भव्य अनुष्ठान किया पूजा का |
द्विजेषु विसृजन् |
ब्राह्मणो को दिया |
पशु-षष्टि-कोटिम् |
गौएं साठ करोड |
तब अम्बरीष ने आपकी अर्चना के लिये एक वर्ष के द्वादशी व्रत का संकल्प किया। उन्होंने अपनी भक्तिमति पत्नी के साथ यमुना के तट पर मधुवन में भव्य पूजा का अनुष्ठान किया और ब्राह्मणों को साठ करोड गौएं दान में दीं।
तत्राथ पारणदिने भवदर्चनान्ते
दुर्वाससाऽस्य मुनिना भवनं प्रपेदे ।
भोक्तुं वृतश्चस नृपेण परार्तिशीलो
मन्दं जगाम यमुनां नियमान्विधास्यन् ॥४॥
तत्र-अथ पारण-दिने |
वहां तब, भोजन प्राप्ति के दिन |
भवत्-अर्चन-अन्ते |
आपकी पूजा के अन्त में |
दुर्वाससा-अस्य मुनिना |
दुर्वासा उन मुनि का |
भवनं प्रपेदे |
भवन में आगमन हुआ |
भोक्तुं वृत:-च स नृपेण |
और भोजन पर आमन्त्रित हुए राजा के द्वारा |
परार्तिशील: |
पर पीडा में लगे |
मन्दं जगाम यमुनां |
(वह) मन्द गति से गये यमुना को |
नियमान्-विधास्यन् |
नियमों का पालन करने के लिये |
वहां, तब, भोजन पाने के दिन, आपकी पूजा के बाद, भवन में दुर्वासा मुनि का आगमन हुआ। राजा ने उनको भोजन के लिये आमन्त्रित किया। वे मुनि, पर पीडा में पटु, अपने नियमॊं का पालन करने के लिये यमुना नदी की ओर मन्द गति से गये।
राज्ञाऽथ पारणमुहूर्तसमाप्तिखेदा-
द्वारैव पारणमकारि भवत्परेण ।
प्राप्तो मुनिस्तदथ दिव्यदृशा विजानन्
क्षिप्यन् क्रुधोद्धृतजटो विततान कृत्याम् ॥५॥
राज्ञा-अथ |
राजा ने तब |
पारण-मुहुर्त-समाप्ति-खेदात् |
भोजन के मुहुर्त की समाप्ति के दुख से |
वारा-एव पारणम्-अकारि |
जल से ही पारण कर लिया |
भवत्-परेण |
आपके भक्त ने |
प्राप्त: मुनि:-तत्-अथ |
आने पर उन मुनि के तब |
दिव्य-दृशा विजानन् |
दिव्य दृष्टि से जान लेने पर |
क्षिप्यन् |
झिडकते हुए |
क्रुधा-उद्धृत-जट: |
क्रोध से उखाड कर जटा को |
विततान कृत्याम् |
उत्पन्न की कृत्या को |
भोजन ग्रहण करने के मुहुर्त के समाप्त हो जाने के कारण दुख आपके भक्त राजा ने जल से ही पारण कर के व्रत को समाप्त किया। लौटने पर दुर्वासा मुनि अपनी दिव्य दृष्टि से जान गये कि पारण हो गया है। तब राजा को झिडकते हुए मुनि ने क्रोध से अपनी जटा को खोल कर कृत्या को उत्पन्न किया।
कृत्यां च तामसिधरां भुवनं दहन्ती-
मग्रेऽभिवीक्ष्यनृपतिर्न पदाच्चकम्पे ।
त्वद्भक्तबाधमभिवीक्ष्य सुदर्शनं ते
कृत्यानलं शलभयन् मुनिमन्वधावीत् ॥६॥
कृत्यां च ताम्-असि-धरां |
कृत्या उसको खड्ग लिये हुए |
भुवनं दहन्तीम्- |
तीनों लोकों को जलाती हुई |
अग्रे-अभिवीक्ष्य- |
(को) सामने देख कर (भी) |
नृपति:-न पदात्-चकम्पे |
राजा नहीं जरा भी विचलित हुए |
त्वत्-भक्त-बाधम्- |
आपके भक्त के संकट को |
अभिवीक्ष्य सुदर्शनं ते |
देख कर सुदर्शन आपका |
कृत्या-अनलं शलभयन् |
कृत्या को अग्नि में पतङ्गे (की भांति जला दिया) |
मुनिम्-अन्वधावीत् |
और मुनि का पीछा किया |
हाथ में खड्ग लिये हुए तीनों लोकों को जलाते हुए, कृत्या को सामने देख कर भी राजा अम्बरीष जरा भी विचलित नहीं हुए। आपके भक्त को संकट में देख कर आपके सुदर्शन चक्र ने अग्नि में पतङ्गे के समान कृत्या को भस्म कर दिया और दुर्वासा मुनि का पीछा करने लगा।
धावन्नशेषभुवनेषु भिया स पश्यन्
विश्वत्र चक्रमपि ते गतवान् विरिञ्चम् ।
क: कालचक्रमतिलङ्घयतीत्यपास्त:
शर्वं ययौ स च भवन्तमवन्दतैव ॥७॥
धावन्-अशेष-भुवनेषु |
भागते हुए समस्त भुवनों में |
भिया स पश्यन् विश्वत्र |
भय से उन (मुनि) ने देखा सर्वत्र |
चक्रम्-अपि ते |
चक्र को ही आपके |
गतवान् विरिञ्चम् |
(वे) गये ब्रह्मा के पास |
क:-काल-चक्रम्-अतिलङ्घयति- |
कौन काल के चक्र को लांघ सकता है |
इति-अपास्त: |
इस प्रकार लौटाये जाने पर |
शर्वं ययौ स च |
और शंकर के पास गये वे |
भवन्तं अवन्दत एव |
(शंकर ने) आपकी वन्दना ही की |
समस्त भुवनों में भागते हुए दुर्वासा को सर्वत्र आपका सुदर्शन चक्र ही पीछा करता हुआ दिखाई दिया। भयभीत हो कर वे ब्रह्मा जी के पास गये, किन्तु ब्रह्मा जी ने यह कह कर लौटा दिया कि 'काल के चक्र को कौन लांघ सकता है'। फिर वे शंकर जी के पास गये। शंकर जी ने आप ही की वन्दना की।
भूयो भवन्निलयमेत्य मुनिं नमन्तं
प्रोचे भवानहमृषे ननु भक्तदास: ।
ज्ञानं तपश्च विनयान्वितमेव मान्यं
याह्यम्बरीषपदमेव भजेति भूमन् ॥८॥
भूय: भवत्-निलयम्-एत्य |
वापस आपके निवास पहुंच कर |
मुनिं नमन्तं प्रोचे |
नमन करते हुए मुनि को बोले |
भवान-अहम्-ऋषे |
आप 'मैं हे ऋषि |
ननु भक्त-दास: |
तो भक्तों का दास हूं' |
ज्ञानं तप:-च |
ज्ञान और तप |
विनय-आन्वितम्-एव मान्यम् |
विनय युक्त होने पर ही आदरणीय हैं |
याहि |
जाइये |
अम्बरीष-पदम्-एव भज- |
अम्बरीष के चरणों ही में नमन कीजिये |
इति भूमन् |
इस प्रकार, हे भूमन! |
हे भूमन! अन्त में दुर्वासा आपके निवास वैकुण्ठ पहुंचे। तब आपको नमन करते हुए उन मुनि से आपने कहा - 'हे ऋषि! मैं तो अपने भक्तों का दास हूं। ज्ञान और तप, विनययुक्त हो कर ही आदर पाते हैं। जाइये, आप अम्बरीष के ही चरणों में नमन कीजिये।'
तावत्समेत्य मुनिना स गृहीतपादो
राजाऽपसृत्य भवदस्त्रमसावनौषीत् ।
चक्रे गते मुनिरदादखिलाशिषोऽस्मै
त्वद्भक्तिमागसि कृतेऽपि कृपां च शंसन् ॥९॥
तावत्-समेत्य |
तब पास जा कर (अम्बरीष के) |
मुनिना स गृहीत-पाद्: |
मुनि के द्वारा उनके चरण पकड लिये गये |
राजा-अपसृत्य |
राजा हट गये |
भवत्-अस्त्रम्-असौ-अनौषीत् |
आपके अस्त्र की उन्होंने स्तुति की |
चक्रे गते |
चक्र के चले जाने पर |
मुनि:-अदात्- |
मुनि ने दिये |
अखिल-आशिष:-अस्मै |
अनन्त आशीष उनको |
त्वत्-भक्तिम्- |
आपकी भक्ति |
अगासि कृते-अपि |
अपराध किये जाने पर भी |
कृपां च शंसन् |
और कृपा की प्रशंसा की |
तब अम्बरीष के पास जा कर मुनि ने उनके चरण पकड लिये। अम्बरीष पीछे हट गये और सुदर्शन चक्र की स्तुति की। चक्र के चले जाने पर मुनि ने आपके भक्त अम्बरीष का अपराधी होने के बावहूद उनके द्वारा प्राप्त कृपा की प्रशंसा करते हुए उन्हें अनन्त आशीष दिए।
राजा प्रतीक्ष्य मुनिमेकसमामनाश्वान्
सम्भोज्य साधु तमृषिं विसृजन् प्रसन्नम् ।
भुक्त्वा स्वयं त्वयि ततोऽपि दृढं रतोऽभू-
त्सायुज्यमाप च स मां पवनेश पाया: ॥१०॥
राजा प्रतीक्ष्य मुनिम्- |
राजा प्रतीक्षा कर के मुनि की |
एकसमाम्-अनाश्वान् |
एक वर्ष के लिये नहीं खा कर |
सम्भोज्य साधु |
भलि प्रकार खिला कर ठीक से |
तम्-ऋषिम् |
उन ऋषि को |
विसृजन् प्रसन्नम् |
प्रसन्नता पूर्वक भेज कर |
भुक्त्वा स्वयं |
खा कर स्वयं |
त्वयि तत:-अपि |
आपमें तब से और भी |
दृढं रत:-अभूत्- |
दृढ प्रेमी हो गये |
सायुज्यम्-आप च स |
और उन्होने सायुज्य प्राप्त कर लिया |
मां पवनेश पाया: |
मेरी, हे पवनेश! रक्षा करें |
राजा ने एक वर्ष तक निराहार रह मुनि की प्रतीक्षा की, फिर उन्हे भली भांति भोजन करा कर प्रसन्नता पूर्वक विदा करने के पश्चात स्वयं ने भोजन किया। अम्बरीष आपमें पहले से भी अधिक अनुरक्त हो गये और आपका सायुज्य प्राप्त किया। हे पवनेश! मेरी रक्षा करें।
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