दशक ३४
गीर्वाणैरर्थ्यमानो दशमुखनिधनं कोसलेष्वृश्यशृङ्गे
पुत्रीयामिष्टिमिष्ट्वा ददुषि दशरथक्ष्माभृते पायसाग्र्यम् ।
तद्भुक्त्या तत्पुरन्ध्रीष्वपि तिसृषु समं जातगर्भासु जातो
रामस्त्वं लक्ष्मणेन स्वयमथ भरतेनापि शत्रुघ्ननाम्ना ॥१॥
गीर्वाणै:-अर्थ्यमान: |
देवताओं के द्वारा (आपकी) प्रार्थना किये जाने पर |
दशमुख-निधनं |
रावण के वध के लिये |
कोसलेषु-ऋश्यशृङ्गे |
कोशल देश में ऋश्यशृङ्ग (ऋषि) के |
पुत्रीयाम्-इष्टिम्-इष्ट्वा |
पुत्रकामेष्टि यज्ञ के करा लेने पर |
ददुषि दशरथ-क्ष्माभृते |
दिया (आपने) दशरथ राजा को |
पायस-अग्र्यम् |
पायस दिव्य |
तत्-भुक्त्या |
जिसे खाने से |
तत्-पुरन्ध्रीषु-अपि तिसृषु |
उनकी पत्नियों में भी तीनों में |
समं जातगर्भासु |
एक साथ गर्भ धारण हो गया |
जात: राम:-त्वं |
उत्पन्न हुए राम (रूप में) आप |
लक्ष्मणेन स्वयम्-अथ |
लक्ष्मण (रूप में) आप ही फिर |
भरतेन-अपि |
भरत (रूप में) भी |
शत्रुघ्न-नाम्ना |
(और) शत्रुघ्न नाम से भी |
देवताओं ने रावण के वध के लिये आपकी प्रार्थना की। कोशल देश में ऋश्यशृङ्ग ऋषि के द्वारा पुत्रकामेष्टि यज्ञ का अनुष्ठान करवा लेने पर आपने राजा दशरथ को दिव्य पायस दिया। राजा दशरथ की तीनों पत्नियां उस पायस को खा कर एक साथ गर्भवती हो गईं। तब आपने राम रूप में जन्म लिया। लक्ष्मण भी आप हे थे और भरत और शत्रुघ्न नाम्ना भी आप ही थे।
कोदण्डी कौशिकस्य क्रतुवरमवितुं लक्ष्मणेनानुयातो
यातोऽभूस्तातवाचा मुनिकथितमनुद्वन्द्वशान्ताध्वखेद: ।
नृणां त्राणाय बाणैर्मुनिवचनबलात्ताटकां पाटयित्वा
लब्ध्वास्मादस्त्रजालं मुनिवनमगमो देव सिद्धाश्रमाख्यम् ॥२॥
कोदण्डी |
कोदण्ड (नामक धनुष) धारी |
कौशिकस्य क्रतुवरम्-अवितुं |
कौशिक के यज्ञ श्रेष्ठ की रक्षा के लिये |
लक्ष्मणेन-अनुयात: |
लक्ष्मण के साथ |
यात:-अभू:-तात-वाचा |
चले गये पिता की आज्ञा से |
मुनि-कथित-मनु-द्वन्द्व- |
मुनि के द्वारा उपदिष्ट दो मन्त्रों |
शान्त-अध्व-खेद: |
शान्त करने के लिये मार्ग की थकान को |
नृणां त्राणाय बाणै:- |
लोगों की रक्षा के लिये बाणों के द्वारा |
मुनि-वचन-बलात्- |
मुनि की आज्ञा से प्रेरित हो कर |
ताटकां पाटयित्वा |
ताडका को चीर कर |
लब्ध्वा-अस्मात्- |
पा कर उनसे (मुनि से) |
अस्त्र-जालं |
अस्त्र बहुत से |
मुनि-वनम्-अगम: |
मुनि के साथ वन को गये |
देव |
हे देव! |
सिद्धाश्रम-आख्यम् |
सिद्धाश्रम नाम के |
पिता की आज्ञा से कोदण्ड नामक धनुष को धारण किये हुए आप, लक्ष्मण के साथ कौशिक मुनि के श्रेष्ठ यज्ञ की रखवाली के लिये गये। मार्ग की क्लान्ति को दूर करने के लिये मुनि ने आपको दो मन्त्रों का उपदेश दिया। लोगों की रक्षा के लिये मुनि की आज्ञा से आपने ताडका को चीर डाला। हे देव! मुनि से बहुत प्रकार के अस्त्र प्राप्त कर के आप उन के साथ वन में सिद्धाश्रम गये।
मारीचं द्रावयित्वा मखशिरसि शरैरन्यरक्षांसि निघ्नन्
कल्यां कुर्वन्नहल्यां पथि पदरजसा प्राप्य वैदेहगेहम् ।
भिन्दानश्चान्द्रचूडं धनुरवनिसुतामिन्दिरामेव लब्ध्वा
राज्यं प्रातिष्ठथास्त्वं त्रिभिरपि च समं भ्रातृवीरैस्सदारै: ॥३॥
मारीचं द्रावयित्वा |
मारीच को खदेड कर |
मख-शिरसि शरै:- |
यज्ञ के प्रारम्भ में बाणों के द्वारा |
अन्य-रक्षांसि निघ्नन् |
अन्य राक्षसों को मार कर |
कल्यां कुर्वन्-अहल्यां |
पवित्र करके अहिल्या को |
पथि पदरजसा |
मार्ग में पग धूलि से |
प्राप्य वैदेह-गेहम् |
पहुंच कर जनक पुरी को |
भिन्दान:-चान्द्रचूडं धनु:- |
तोड दिया शंकर जी के धनुष को |
अवनि-सुताम्- |
भूमि पुत्री को |
इन्दिराम्-एव लब्ध्वा |
लक्ष्मी स्वरूप ही को (पत्नी रूप में) पा कर |
राज्यं प्रातिष्ठथा:-त्वं |
राज्य की ओर प्रस्थान किया आपने |
त्रिभि:-अपि च समं |
तीनों के भी संग |
भ्रातृवीरै:-सदारै: |
वीर भ्राताओं के और उनकी पत्नियों के |
यज्ञ के प्रारम्भ में आपने मारीच को खदेड कर अन्य राक्षसों को बाणों से मार दिया। मार्ग में अपनी पगधूलि से अहिल्या को पवित्र करके श्राप मुक्त किया। जनकपुरी पहुंच कर शंकर जी के धनुष को तोड दिया और लक्ष्मी स्वरूपा भूमि पुत्री सीता का पत्नी रूप में वरण किया। तत्पश्चात आपने अपने तीनों वीर भ्राताओं और उनकी पत्नियों के साथ अपने राज्य अयोध्या को प्रस्थान किया।
आरुन्धाने रुषान्धे भृगुकुल तिलके संक्रमय्य स्वतेजो
याते यातोऽस्ययोध्यां सुखमिह निवसन् कान्तया कान्तमूर्ते ।
शत्रुघ्नेनैकदाथो गतवति भरते मातुलस्याधिवासं
तातारब्धोऽभिषेकस्तव किल विहत: केकयाधीशपुत्र्या ॥४॥
आरुन्धाने रुषान्धे |
(मार्ग में) सामना किया क्रोधान्ध हो कर |
भृगुकुल तिलके |
भृगुकुल तिलक (परशुरामजी) ने |
संक्रमय्य स्वतेज: याते |
न्यौछावर कर के अपना सारा तेज,चले जाने पर |
यात:-असि-अयोध्यां |
चले गये आप अयोध्या को |
सुखम्-इह निवसन् कान्तया |
सुख से यहां पर रहते हुए पत्नी के साथ |
कान्तमूर्ते |
हे कान्तमूर्ते! |
शत्रुघ्नेन-एकदा-अथ: |
शत्रुघ्न के साथ एक दिन तब |
गतवति भरते |
चले जाने पर भरत के |
मातुलस्य-अधिवासं |
मामा के निवास स्थान को |
तात-आरब्ध:- |
पिता के द्वारा आरम्भ किया गया |
अभिषेक:-तव किल विहत: |
अभिषेक आपका परन्तु रोक दिया गया |
केकय-अधीश-पुत्र्या |
कैकेय राजा की पुत्री (कैकेयी)के द्वारा |
मार्ग में भृगुकुलतिलक परशुरामजी ने आपके मार्ग में बाधा डाली, फिर आपको ब्रह्मस्वरूप जान कर अपना समस्त तेज आप ही में न्यौछावर कर के चले गये। हे कान्तमूर्ते! आप अयोध्या को चले गये और अपनी पत्नी के साथ सुखपूर्वक रहने लगे। फिर एक दिन शत्रुघ्न के संग भरत जी अपने मामा के निवास स्थान को चले जाने के बाद आपके पिता ने आपके अभिषेक की तैयारी शुरू की। किन्तु उसमें कैकेय नरेश की पुत्री कैकेयी ने विघ्न डाल दिया।
तातोक्त्या यातुकामो वनमनुजवधूसंयुतश्चापधार:
पौरानारुध्य मार्गे गुहनिलयगतस्त्वं जटाचीरधारी।
नावा सन्तीर्य गङ्गामधिपदवि पुनस्तं भरद्वाजमारा-
न्नत्वा तद्वाक्यहेतोरतिसुखमवसश्चित्रकूटे गिरीन्द्रे ॥५॥
तात-उक्त्या |
पिता की आज्ञा से |
यातुकाम: वनम्- |
जाने के इच्छुक वन को |
अनुज-वधू-संयुत:- |
छोटे भाई और पत्नी के संग |
चाप-धार: |
धनुष ले कर |
पौरान्-आरुध्य मार्गे |
नगरवासियों को रोक कर मार्ग में |
गुह-निलय-गत:-त्वं |
गुह के घर को चले गये आप |
जटा-चीर-धारी |
जटा और वल्कल धारण कर के |
नावा सन्तीर्य गङ्गाम्- |
नौका के द्वारा पार कर के गङ्गा को |
अधिपदवि पुन:-तं |
मार्ग में फिर उन |
भरद्वाजम्-आरात्-नत्वा |
भरद्वाज के निकट जा कर और प्रणाम कर के |
तत्-वाक्य-हेतो:- |
उनके कहने के अनुसार |
अति-सुखम्-अवस:- |
अत्यन्त सुख से रहे |
चित्रकूटे गिरीन्द्रे |
चित्रकूट पर्वत के ऊपर |
पिता के आदेश से छोटे भाई लक्ष्मण और पत्नि सीता के साथ आपने धनुष ले कर वन को प्रस्थान किया। नगरवासियों को मार्ग में ही रोक कर गुह के घर गये और जटा और वल्कल धारण कर के नौका के द्वारा गङ्गा को पार किया। मार्ग मे, निकट ही में भरद्वाज मुनि से मिल कर उनको प्रणाम किया और उनके बताए हुए चित्रकूट पर्वत पर सुख से रहे।
श्रुत्वा पुत्रार्तिखिन्नं खलु भरतमुखात् स्वर्गयातं स्वतातं
तप्तो दत्वाऽम्बु तस्मै निदधिथ भरते पादुकां मेदिनीं च
अत्रिं नत्वाऽथ गत्वा वनमतिविपुलं दण्डकं चण्डकायं
हत्वा दैत्यं विराधं सुगतिमकलयश्चारु भो: शारभङ्गीम् ॥६॥
श्रुत्वा पुत्र-आर्ति-खिन्नं |
सुन कर कि पुत्र के दुख से दुखी हो कर |
खलु भरत-मुखात् |
निश्चय ही भरत के मुख से |
स्वर्ग-यातं स्व-तातं |
स्वर्ग गामी हो गये अपने पिता |
तप्त: दत्वा-अम्बु तस्मै |
अत्यन्त दुखी हो कर दे कर जलाञ्जलि उनको |
निदधिथ भरते |
सौंप दी भरत को |
पादुकां मेदिनीं च |
पादुका और पृथ्वी |
अत्रिं नत्वा-अथ |
अत्री (मुनि) को प्रणाम कर के तब |
गत्वा वनम्- |
जा कर वन को |
अति-विपुलं दण्डकं |
अत्यन्त विस्तृत दण्डक (वन को) |
चण्डकायं |
भयानक शरीर वाले |
हत्वा दैत्यं विराधं |
मार कर असुर विराध को |
सुगतिम्-अकलय:- |
सुगति प्रदान कर के |
चारु भो: शारभङ्गीम् |
सुन्दर हे! शरभङ्ग (मुनि) को |
भरत के मुख से सुन कर कि पुत्र के शोक में दुखी हो कर पिता स्वर्ग गामी हो गये, आपने उनको जलाञ्जलि दी, और भरत को पादुका और राज्य सौंप दिया। फिर आपने अत्री मुनि को प्रणाम किया और अत्यन्त गहन दण्डक वन में प्रवेश किया। वहां भयंकर और विशाल काया वाले असुर विराध को मारा। हे सुन्दर! आपने शरभङ्ग मुनि को सुगति प्रदान की।
नत्वाऽगस्त्यं समस्ताशरनिकरसपत्राकृतिं तापसेभ्य:
प्रत्यश्रौषी: प्रियैषी तदनु च मुनिना वैष्णवे दिव्यचापे ।
ब्रह्मास्त्रे चापि दत्ते पथि पितृसुहृदं वीक्ष्य भूयो जटायुं
मोदात् गोदातटान्ते परिरमसि पुरा पञ्चवट्यां वधूट्या ॥७॥
नत्वा-अगस्त्यं |
प्रणाम करके अगस्त्य (मुनि) को |
समस्त-आशर-निकर-सपत्राकृतिं |
समस्त असुर समूह का आमूल विनाश (करने की) |
तापसेभ्य: प्रत्यश्रौषी: |
तपस्वियों को प्रतिज्ञा कर के |
प्रियैषी तदनु च |
और प्रिय करने के इच्छुक (आप) तब |
मुनिना वैष्णवे दिव्य-चापे |
मुनि के द्वारा दिव्य वैष्णव धनुष |
ब्रह्मास्त्रे च-अपि |
और ब्रह्मास्त्र भी |
दत्ते पथि |
देने पर मार्ग में |
पितृ-सुहृदं वीक्ष्य |
पिता के मित्र को देख कर |
भूय: जटायुं मोदात् |
फिर जटायु को प्रसन्नता से |
गोदा-तटान्ते |
गोदा नदी के तट के किनारे |
परिरमसि पुरा |
रहने लगे पहले |
पञ्चवट्यां वधूट्या |
पञ्चवटी में पत्नी के साथ |
तपस्वियों का प्रिय करने के इच्छुक आपने अगस्त्य मुनि को प्रणाम कर के तपस्वियों के सामने समस्त राक्षस समूदाय का वध करने की प्रतिज्ञा की। मुनि ने आपको दिव्य वैष्णव धनुष और ब्रह्मास्त्र भी प्रदान किया। मार्ग में पिता के मित्र जटायु को देख करप्रसन्न हुए। फिर आप गोदावरी नदी के तट पर पञ्चवटी में पत्नि के साथ आनन्दपूर्वक रहने लगे।
प्राप्ताया: शूर्पणख्या मदनचलधृतेरर्थनैर्निस्सहात्मा
तां सौमित्रौ विसृज्य प्रबलतमरुषा तेन निर्लूननासाम् ।
दृष्ट्वैनां रुष्टचित्तं खरमभिपतितं दूषणं च त्रिमूर्धं
व्याहिंसीराशरानप्ययुतसमधिकांस्तत्क्षणादक्षतोष्मा ॥८॥
प्राप्ताया: शूर्पणख्या |
पहुंचने पर शूर्पणखा के |
मदन-चल-धृते:- |
(जो) काम के वश में पडी हुई थी |
अर्थनै:-निस्सहात्मा |
(उसकी) (काम) प्रार्थनाओं से क्षुब्ध हो कर |
तां सौमित्रौ विसृज्य |
उसको लक्ष्मण के पास भेज कर |
प्रबलतम-रुषा तेन |
अत्यधिक क्रोध से उसके (लक्षमण) द्वारा |
निर्लून-नासाम् |
कटी हुई नासिका वाली (उसको) |
दृष्ट्वा-ऐनां रुष्ट-चित्तं |
देख कर उसको क्रोधित हुए |
खरम्-अभिपतितं |
खर को आक्रमणकारी |
दूषणं च त्रिमूर्धं |
दूषण और त्रिशिरा को |
व्याहिंसी:-आशरान्-अपि- |
मार डाला और भी असुरों को |
अयुतसम-अधिकान्- |
(जो) दस हजार से ज्यादा थे |
तत्-क्षणात्- |
उसी क्षण |
अक्षत-ऊष्मा |
अनन्त तेजस्वी (आपने) |
काम के वशीभूत शूर्पणखा वहां आ पहुंची। उसकी कामुक प्रार्थनाओं से क्षुब्ध हो कर आपने उसे लक्ष्मण के पास भेज दिया। लक्ष्मण ने अत्यधिक क्रोधित हो कर उसकी नाक काट डाली। उसको नासिका रहित देख कर क्रोध में भर कर आक्रमण करने आए खर दूषण और त्रिशिरा को आपने मार डाला और हे अनन्त तेजस्वी! साथ ही क्षण भर में ही आपने और भी राक्षसों को मार डाला जो दस हजार से भी अधिक थे।
सोदर्या प्रोक्तवार्ताविवशदशमुखादिष्टमारीचमाया-
सारङ्गं सारसाक्ष्या स्पृहितमनुगत: प्रावधीर्बाणघातम् ।
तन्मायाक्रन्दनिर्यापितभवदनुजां रावणस्तामहार्षी-
त्तेनार्तोऽपि त्वमन्त: किमपि मुदमधास्तद्वधोपायलाभात् ॥९॥
सोदर्या-प्रोक्त-वार्ता- |
बहन (शूर्पणखा) के द्वारा कही गई वार्ता |
विवश-दशमुख- |
(से) विवश हुए रावण ने |
आदिष्ट-मारीच- |
आदेश दिया मारीच को |
माया-सारङ्ग |
मायावी हिरण बनने का |
सारसाक्ष्या |
सारस के समान नेत्रों वाली (सीता) के द्वारा |
स्पृहितम्-अनुगत: |
(वह) इच्छित, (उसका) पीछा किया (आपने) |
प्रावधी:-बाण-घातम् |
वध कर दिया बाण के आघात से |
तत्-माया-क्रन्द- |
उसके (हिरण के) मायावी क्रन्दन |
निर्यापित-भवत्-अनुजां |
(ने) भेज दिया आपके अनुज को उसके (सीता) के द्वारा |
रावण:-ताम्-अहार्षीत्- |
रावण ने उसका (सीता का) अपहरण कर लिया |
तेन-आर्त:-अपि |
इस (घटना) से दुखी (होते हुए) भी |
त्वम्-अन्त: |
आप मन मे |
किम्-अपि-मुदम्-अधा:- |
कुछ प्रसन्न भी हुए |
तत्-वध-उपाय-लाभात् |
उसके बध के बहाने के लाभ से |
अपनी बहन शूर्पणखा से सारे वृत्तान्त को सुन कर, रावण सीता के मोह से विवश हो गया। उसने मारीच को मायावी हिरण बनने का आदेश दिया। हिरण को देख कर सीता द्वारा उसकी कामना की जाने पर आपने उसका पीछा किया और धनुष के आघात से उसे मार दिया। मरते समय उस मायावी हिरण का मायावी क्रन्दन सुन कर सीता ने लक्ष्मण को जाने पर विवश कर दिया। रावण ने सीता का अपहरण कर लिया। इस घटना से दुखी होते हुए भी आप उसके वध के बहाने के लाभ से कुछ प्रसन्न भी हुए।
भूयस्तन्वीं विचिन्वन्नहृत दशमुखस्त्वद्वधूं मद्वधेने-
त्युक्त्वा याते जटायौ दिवमथ सुहृद: प्रातनो: प्रेतकार्यम् ।
गृह्णानं तं कबन्धं जघनिथ शबरीं प्रेक्ष्य पम्पातटे त्वं
सम्प्राप्तो वातसूनुं भृशमुदितमना: पाहि वातालयेश ॥१०॥
भूय:-तन्वीं विचिन्वन्- |
तदनन्तर कोमल (सीता) को खोजते हुए |
अहृत: दशमुख:- |
''हर ले गया है रावण |
त्वत्-वधूं मत्-वधेन- |
आपकी वधू को, मुझे मार कर' |
इति-उक्त्वा याते जटायौ |
इस प्रकार कह कर चले जाने पर जटायू के |
दिवम्-अथ सुहृद: |
स्वर्ग को, तब मित्र का |
प्रातनो: प्रेतकार्यम् |
सम्पन्न किया प्रेतकार्य |
गृह्णानं तं कबन्धं |
(आपको) पकडते हुए उस कबन्ध को |
जघनिथ शबरीं प्रेक्ष्य |
मार दिया, शबरी से मिल कर, |
पम्पातटे त्वं सम्प्राप्त: वातसूनुं |
पम्पा तट पर मिले हनुमान से |
भृशमुदितमना: |
अत्यन्त हर्षित मन से |
पाहि वातालयेश |
रक्षा करें हे वातालयेश! |
तदनन्तर कोमलाङ्गी सीता को खोजते हुए आप जटायु से मिले। 'आपकी वधू को रावण हर कर ले गया है, मुझे मार कर' ऐसा कह कर वह स्वर्ग चला गया। तब आपने अपने मित्र की प्रेत-क्रिया सम्पन्न की। आपको पकडने वाले कबन्ध का आपने वध किया और शबरी से मिले। फिर पम्पा तट पर अत्यन्त हर्षित चित्त से हनुमान से मिले। हे वातालयेश! मेरी रक्षा करें।
|