दशक ३२
पुरा हयग्रीवमहासुरेण षष्ठान्तरान्तोद्यदकाण्डकल्पे ।
निद्रोन्मुखब्रह्ममुखात् हृतेषु वेदेष्वधित्स: किल मत्स्यरूपम् ॥१॥
पुरा |
प्राचीन काल में |
हयग्रीव-महा-असुरेण |
हयग्रीव महा असुर के द्वारा |
षष्ठ-अन्तरान्त-उद्यत्- |
छठे मन्वन्तर के अन्त में उदित |
अकाण्ड-कल्पे |
नैमित्तिक प्रलय के समय |
निद्रा-उन्मुख-ब्रह्म-मुखात्- |
निद्रा के लिये उन्मुख ब्रह्मा जी के मुख से |
हृतेषु वेदेषु- |
हरण कर लिये जाने पर वेदों के |
अधित्स: किल |
धारण करने के इच्छुक निश्चय ही |
मत्स्य-रूपम् |
मत्स्य के रूप को (आपने) |
प्राचीन काल में, छठे मन्वन्तर के अन्त में नैमित्तिक प्रलय के उदित होने के समय, हयग्रीव नामक महासुर ने निद्रोन्मुख ब्रह्मा के मुख से वेदों को चुरा लिया। निश्चय ही तब आपने मत्स्य रूप धारण करने की इच्छा की।
सत्यव्रतस्य द्रमिलाधिभर्तुर्नदीजले तर्पयतस्तदानीम् ।
कराञ्जलौ सञ्ज्वलिताकृतिस्त्वमदृश्यथा: कश्चन बालमीन: ॥२॥
सत्यव्रतस्य |
सत्यव्रत (मुनि) के |
द्रमिल-अधिभर्तु:- |
द्रमिल के राजा |
नदीजले |
नदी के जल में |
तर्पयत:-तदानीम् |
तर्पण करते हुए उस समय |
कर-अञ्जलौ |
हाथों की अञ्जलि में |
सञ्ज्वलित-आकृति:- |
प्रकाशमान आकृति वाले |
त्वम्-अदृश्यथा: |
आप दिखाई दिये |
कश्चन बालमीन |
कोई छोटी मछली (के रूप में) |
द्रमिल देश के राजा सत्यव्रत कृतमाला नदी में तर्पण कर रहे थे। तब उनके हाथों की अञ्जलि में प्रकाशमान आप किसी छोटी मछली के रूप में दिखाई दिये।
क्षिप्तं जले त्वां चकितं विलोक्य निन्येऽम्बुपात्रेण मुनि: स्वगेहम् ।
स्वल्पैरहोभि: कलशीं च कूपं वापीं सरश्चानशिषे विभो त्वम् ॥३॥
क्षिप्तं जले |
फेंक दिये जाने पर जल में |
त्वां चकितं विलोक्य |
आपको चकित देख कर |
निन्ये-अम्बु-पात्रेण |
ले लिया जल पात्र के द्वारा |
मुनि: स्वगेहम् |
मुनि ने अपने घर को |
स्वल्पै:-अहोभि: |
थोडे दिनॊ में ही |
कलशीं च कूपं |
कलश और कूप को |
वापीं सर:-च- |
वापी और तालाब को |
आनशिषे |
अतिक्रम कर दिया |
विभो त्वम् |
हे विभो! आपने |
जब मुनि ने आपको जल में फेक दिया तब आप अचंभित दिखाई दिये। तब मुनि आपको अपने जल के पात्र में डाल कर अपने घर ले गये। हे विभो! थोडे ही दिनों में आपकी आकृति कलश और कूप, वापी और तालाब की सीमाओं का अतिक्रमण करके बढने लगी।
योगप्रभावाद्भवदाज्ञयैव नीतस्ततस्त्वं मुनिना पयोधिम् ।
पृष्टोऽमुना कल्पदिदृक्षुमेनं सप्ताहमास्वेति वदन्नयासी: ॥४॥
योग-प्रभावात्- |
योग के प्रभाव से |
भवत्-आज्ञया-एव |
आपकी आज्ञा से ही |
नीत:-तत:-त्वम् |
ले जाये गये आप |
मुनिना पयोधिम् |
मुनि के द्वारा सागर को |
पृष्ट:-अमुना |
पूछा जाने पर इनके (मुनि के) द्वारा |
कल्प-दिदृक्षुम्-एनम् |
कल्प देखने के इच्छुक इनको (मुनि को) |
सप्त-आहम्-आस्व-इति |
सात दिनों के लिये अपेक्षा करो इस प्रकार |
वदन्-अयासी: |
कहते हुए अन्तर्धान हो गये (आप) |
योग के प्रभाव से और आपकी ही आज्ञा से मुनि आपके मत्स्य स्वरूप को सागर में ले गये। मुनि के द्वारा पूछे जाने पर और प्रलय देखने की इच्छा व्यक्त करने पर आप उन्हे सात दिनों तक प्रतीक्षा करने के लिए कह कर अन्तर्धान हो गये।
प्राप्ते त्वदुक्तेऽहनि वारिधारापरिप्लुते भूमितले मुनीन्द्र: ।
सप्तर्षिभि: सार्धमपारवारिण्युद्घूर्णमान: शरणं ययौ त्वाम् ॥५॥
प्राप्ते त्वत्-उक्ते-अहनि |
प्राप्त हो जाने पर आपके कहे हुए दिन के |
वारि-धारा-परिप्लुते भूमितले |
वर्षा की धारा से आच्छादित हो जाने पर भूमि के तल के |
मुनीन्द्र: सप्तर्षिभि: सार्धम्- |
वह मुनीन्द्र सप्त ऋषियों के साथ |
अपार्-वारिणि-उद्घूर्णमान: |
असीम जलों में गोते लगाते हुए |
शरणं ययौ त्वाम् |
शरण गये आपकी |
आपका कहा हुआ दिन आ पहुंचा, और सारी पृथ्वी का तल वर्षा के जल से परिप्लावित हो गया। तब मुनीन्द्र सप्त ऋषियों के संग उस असीम जल में गोते लगाते हुए आपकी शरण में गये।
धरां त्वदादेशकरीमवाप्तां नौरूपिणीमारुरुहुस्तदा ते
तत्कम्पकम्प्रेषु च तेषु भूयस्त्वमम्बुधेराविरभूर्महीयान् ॥६॥
धरां त्वत्-आदेशकरीम्- |
पृथ्वी आपके आदेशों का पालन करने वाली |
अवाप्तां नौ-रूपिणीम्- |
पहुंच गई थी नौका के रूप में |
आरुरुहु:-तदा ते |
चढ गये तब वे |
तत्-कम्प-कम्प्रेषु |
उसके डगमगाने से भयभीत होने से |
च तेषु |
और उनके |
भूय:-त्वम्- |
फिर से आप |
अम्बुधे:-आविर्भू:- |
(उस) जल राशि में प्रकट हुए |
महीयन् |
ऐश्वर्यशाली (आप) |
आपके आदेशों का पालन करने वाली पृथ्वी नौका के रूप में पहुंच गई, और वे सब उस पर आरूढ हो गए। नौका के डगमगाने से सब भयभीत हो गए, तब आप फिर से ऐश्वर्यशाली मत्स्य के रूप में जल राशि में प्रकट हुए।
झषाकृतिं योजनलक्षदीर्घां दधानमुच्चैस्तरतेजसं त्वाम् ।
निरीक्ष्य तुष्टा मुनयस्त्वदुक्त्या त्वत्तुङ्गशृङ्गे तरणिं बबन्धु: ॥७॥
झष-आकृतिं |
मत्स्य की आकृति में |
योजन-लक्ष-दीर्घां |
एक लाख योजन बडी |
दधानम्-उच्चै:-तर-तेजसम् |
धारण किये हुए अत्यन्त उत्कृष्ट तेज |
त्वाम् निरीक्ष्य तुष्टा: मुनय:- |
आपको देख कर सन्तुष्ट हुए मुनिगण |
त्वत्-उक्त्या |
आपके कहने से |
त्वत्-तुङ्गशृङ्गे |
आपके ऊंचे सींग पर |
तरणिं बबन्धु: |
नौका को बांध दिया |
एक लाख योजन वाले मत्स्य की आकृति में अति उत्कृष्ट तेज युक्त आपको देख कर मुनिगण अत्यन्त सन्तुष्ट हुए। फिर आपके कहने पर उन्होंने आपके उत्तुङ्ग सींग से नौका को बांध दिया।
आकृष्टनौको मुनिमण्डलाय प्रदर्शयन् विश्वजगद्विभागान् ।
संस्तूयमानो नृवरेण तेन ज्ञानं परं चोपदिशन्नचारी: ॥८॥
आकृष्ट-नौक: |
खींचते हुए नौका को (और) |
मुनि-मण्डलाय प्रदर्शयन् |
मुनिमण्डल को दिखाते हुए |
विश्व-जगत्-विभागान् |
विश्व और उसके विभिन्न विभागों को |
संस्तूयमान: |
आप की स्तुति होते हुए |
नृवरेण तेन |
नरश्रेष्ठ उन (सत्यव्रत के द्वारा) |
ज्ञानं परं |
परम ज्ञान (ब्रह्म ज्ञान) का |
च-उपदिशन्- |
और उपदेश देते हुए |
अचारी: |
विचरने लगे (आप) |
उस नौका को खींचते हुए आप, मुनिमण्डल को विश्व के विभिन्न विभागों को दिखाने लगे। उन नर श्रेष्ठ मुनि सत्यव्रत के द्वारा आपकी स्तुति किये जाने पर, आप उनको परम ज्ञान, ब्रह्मज्ञान का उपदेश देते हुए विचरने लगे।
कल्पावधौ सप्तमुनीन् पुरोवत् प्रस्थाप्य सत्यव्रतभूमिपं तम् ।
वैवस्वताख्यं मनुमादधान: क्रोधाद् हयग्रीवमभिद्रुतोऽभू: ॥९॥
कल्प-अवधौ |
कल्प के अन्त में |
सप्तमुनीन् |
सप्त मुनियों को |
पुरोवत् प्रस्थाप्य |
पहले के समान स्थापित कर के |
सत्यव्रत-भूमिपं तं |
सत्यव्रत राजा उसको |
वैवस्वत-आख्यं |
वैवस्वत नाम के |
मनुम्-आदधान: |
मनु बना दिया |
क्रोधात्-हयग्रीवम्-अभिद्रुत:-अभू: |
क्रोध से हयग्रीव के पीछे भागने लगे |
कल्प के अन्त में आपने सप्तर्षियों को पूर्ववत उनके स्थान पर स्थापित कर दिया और राजा सत्यव्रत को वैवस्वत नाम का मनु बना दिया। फिर आप क्रोध में हयग्रीव का पीछा करते हुए भागने लगे।
स्वतुङ्गशृङ्गक्षतवक्षसं तं निपात्य दैत्यं निगमान् गृहीत्वा ।
विरिञ्चये प्रीतहृदे ददान: प्रभञ्जनागारपते प्रपाया: ॥१०॥
स्व-तुङ्ग-शृङ्ग-क्षत-वक्षसं |
अपने ऊंचे सींग से चीर कर छाती को |
तं निपात्य दैत्यं |
उस को मार कर, दैत्य को |
निगमान् गृहीत्वा |
वेदों को ले कर |
विरिञ्चये प्रीतहृदे ददान: |
ब्रह्मा को प्रसन्न चित्तवाले को दे दिया |
प्रभञ्जन-आगारपते |
हे गुरुवायुर के स्वामी |
प्रपाया: |
मेरी रक्षा करें |
आपने अपने ऊंचे सींग से उस दैत्य की छाती को चीर कर उसे मार डाला, और प्रसन्नचित्त ब्रह्मा को वेदों को ला कर दे दिया। हे गुरुवायुर के स्वामी! आप मेरी रक्षा करें।
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