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दशक २० 
प्रियव्रतस्य प्रियपुत्रभूता- 
दाग्नीध्रराजादुदितो हि नाभि: । 
त्वां दृष्टवानिष्टदमिष्टिमध्ये 
तवैव तुष्ट्यै कृतयज्ञकर्मा ॥१॥ 
 
| प्रियव्रतस्य | 
प्रियव्रत के | 
 
| प्रियपुत्रभूतात्-आग्नीध्र-राजात्- | 
प्रिय पुत्र आग्नीध्र राजा से | 
 
| उदित: हि नाभि: | 
जन्मे नाभि | 
 
| त्वां दृष्टवान्-इष्टदम्- | 
आपको देखा (जो) अभीष्टों के दाता हैं | 
 
| इष्टि-मध्ये | 
यज्ञ के मध्य में | 
 
| तव-एव तुष्ट्यै | 
 आप ही की प्रसन्नता के लिये  | 
 
| कृत-यज्ञ-कर्मा | 
(जो नाभि) यज्ञ कर्म कर रहे थे | 
 
 
प्रियव्रत के प्रिय पुत्र राजा आग्नीध्र से नाभि का जन्म हुआ। नाभि आप ही की तुष्टि के लिये यज्ञ कर्म कर रहे थे। उसी यज्ञ में उन्हें सभी अभीष्टों के दाता आपके दर्शन हुए।
 
अभिष्टुतस्तत्र मुनीश्वरैस्त्वं 
राज्ञ: स्वतुल्यं सुतमर्थ्यमान: । 
स्वयं जनिष्येऽहमिति ब्रुवाण- 
स्तिरोदधा बर्हिषि विश्वमूर्ते ॥२॥ 
 
| अभिष्टुत:-तत्र | 
स्तुति की गई वहां पर  | 
 
| मुनीश्वरै:-त्वं | 
मुनिश्वरों के द्वारा आपकी | 
 
| राज्ञ: स्वतुल्यं सुतम्- | 
राजा (नाभि) के लिये स्वयं (आपके) जैसे पुत्र | 
 
| अर्थ्यमान: | 
 याचना किये जाने पर | 
 
| स्वयं जनिष्ये-अहम्- | 
स्वयं जन्म लूंगा मैं | 
 
| इति ब्रुवाण:- | 
इस प्रकार कहते हुए | 
 
| तिरोदधा बर्हिषि | 
अन्तर्धान हो गये अग्नि में | 
 
| विश्वमूर्ते | 
हे विश्वमूर्ति! | 
 
 
मुनीश्वरों ने उस यज्ञ में प्रकट हुए आपकी स्तुति की और राजा नाभि के लिये आपके समान ही पुत्र की याचना की। हे विश्वमूर्ति! तब आपने कहा कि ' मै स्वयं ही जन्म लूंगा'। इस प्रकार कह कर उस यज्ञाग्नि में आप अन्तर्धान हो गये।
 
नाभिप्रियायामथ मेरुदेव्यां 
त्वमंशतोऽभू: ॠषभाभिधान: । 
अलोकसामान्यगुणप्रभाव- 
प्रभाविताशेषजनप्रमोद: ॥३॥ 
 
| नाभि-प्रियायाम्-अथ | 
नाभि की प्रिया (पत्नी) से तब | 
 
| मेरुदेव्यां | 
मेरुदेवी से | 
 
| त्वम्-अंशत:-अभू: | 
आप अंश रूप से प्रकट हुए | 
 
| ॠषभ-अभिधान: | 
ॠषभ नाम से | 
 
| अलोक-सामान्य-गुण-प्रभाव | 
अलौकिक गुणों के प्रभाव से  | 
 
| प्रभावित-अशेष-जन-प्रमोद: | 
प्रभावित किया सभी लोगों के आनन्द को | 
 
 
नाभि की प्रिय पत्नी मेरुदेवी से फिर अंश रूप से ऋषभ नाम वाले आप प्रकट हुए। आपके असामान्य अलौकिक गुणों के प्रभाव से सभी आनन्द के भर गये।
 
त्वयि त्रिलोकीभृति राज्यभारं 
निधाय नाभि: सह मेरुदेव्या । 
तपोवनं प्राप्य भवन्निषेवी 
गत: किलानन्दपदं पदं ते ॥४॥ 
 
| त्वयि त्रिलोकीभृति | 
आप के ऊपर, जो त्रिलोकी का भार वहन करते है | 
 
| राज्य-भारं निधाय | 
राज्य के भार को डाल कर | 
 
| नाभि: सह मेरुदेव्या | 
नाभि, मेरुदेवी के संग | 
 
| तपोवनं प्राप्य | 
तपोवन को जाकर | 
 
| भवत्-निषेवी | 
आपकी अर्चना करते हुए | 
 
| गत: किल-आनन्दपदं | 
प्राप्त कर गये निश्चय ही आनन्द पद को | 
 
| पदं ते | 
आपके धाम को | 
 
 
आप स्वयं ही त्रिलोक का भार वहन करने वाले हैं। आपके ऊपर राज्य का भार डाल कर नाभि, मेरुदेवी के संग तपोवन को चले गये। वहां आपकी ही सेवा अर्चना करते हुए वे परम आनन्द दायक आपके ही धाम वैकुण्ठ को प्राप्त हो गये।
 
इन्द्रस्त्वदुत्कर्षकृतादमर्षा- 
द्ववर्ष नास्मिन्नजनाभवर्षे । 
यदा तदा त्वं निजयोगशक्त्या 
स्ववर्षमेनद्व्यदधा: सुवर्षम् ॥५॥ 
 
| इन्द्र:-त्वत्-उत्कर्षकृतात्- | 
इन्द्र ने आपके उत्कर्ष से | 
 
| अमर्षात् | 
ईर्ष्या से | 
 
| ववर्ष न-अस्मिन्- | 
वर्षा नहीं की इस | 
 
| अजनाभवर्षे | 
अजनाभवर्ष पर | 
 
| यदा तदा त्वं | 
जब तब आपने | 
 
| निज-योग-शक्त्या | 
अपनी योग शक्ति से | 
 
| स्व-वर्षम्-एनत्- | 
अपने (अजनाभ) वर्ष पर लाये | 
 
| व्यदधा: सुवर्षम् | 
व्यवधान से सुन्दर वृष्टि | 
 
 
आपके उत्कर्ष से ईर्ष्या के वशीभूत हुए इन्द्र ने इस अजनाभ वर्ष के ऊपर वर्षा नहीं की। तब आप अपनी योग शक्ति के व्यवधान से अपने अजनाभवर्ष पर सुन्दर वृष्टि लाये।
 
जितेन्द्रदत्तां कमनीं जयन्ती- 
मथोद्वहन्नात्मरताशयोऽपि । 
अजीजनस्तत्र शतं तनूजा- 
नेषां क्षितीशो भरतोऽग्रजन्मा ॥६॥ 
 
| जितेन्द्र-दत्तां | 
इन्द्र के द्वारा दी गई | 
 
| कमनीं जयन्तीम्- | 
सुन्दरी जयन्ती को | 
 
| अथ-उद्वहन्- | 
तब विवाह कर के | 
 
| आत्मरत-आशय:-अपि | 
आत्मा में ही रंमण करने के आशय वाले भी (आपने) | 
 
| अजीजन:-तत्र शतं तनूजान्- | 
जन्म दिया वहां सौ पुत्रों को | 
 
| एषां क्षितीश: भरत:- | 
इनमें से राजा भरत | 
 
| अग्र-जन्मा | 
सब से बडे थे | 
 
 
विजित इन्द्र ने तब आपको सुन्दरी जयन्ती प्रदान की। स्वयं अपनी आत्मा में रमण करने के आशय वाले आपने उससे विवाह कर के सौ पुत्रों को जन्म दिया जिनमें से राजा भरत सब से बडे थे।
 
नवाभवन् योगिवरा नवान्ये 
त्वपालयन् भारतवर्षखण्डान् । 
सैका त्वशीतिस्तव शेषपुत्र- 
स्तपोबलात् भूसुरभूयमीयु: ॥७॥ 
 
| नव-अभवन् योगिवरा: | 
नौ हो गये योगिराज | 
 
| नव-अन्ये-तु- | 
नौ दूसरे तो | 
 
| अपालयन् भारतवर्षखण्डान् | 
पालन करने लगे भारत वर्ष के खन्डों का | 
 
| सैका तु-अशीति:- | 
इक्यासी तो | 
 
| तव शेष पुत्र:- | 
आपके बाकी पुत्र | 
 
| तपोबलात् | 
तपोबल से | 
 
| भूसुरभूयम्-ईयु: | 
ब्राह्मणत्व को प्राप्त हुए | 
 
 
उन पुत्रों में से नौ तो योगिराज हो गये और दूसरे नौ भारत वर्ष के विभिन्न खन्डों पर राज्य करने लगे। बाकी इक्यासी पुत्र अपने तपोबल से ब्राह्मणत्व को प्राप्त हुए।
 
उक्त्वा सुतेभ्योऽथ मुनीन्द्रमध्ये 
विरक्तिभक्त्यन्वितमुक्तिमार्गम् । 
स्वयं गत: पारमहंस्यवृत्ति- 
मधा जडोन्मत्तपिशाचचर्याम् ॥८॥ 
 
| उक्त्वा सुतेभ्य:-अथ | 
तब पुत्रों को बता कर | 
 
| मुनीन्द्र-मध्ये | 
मुनीश्वरों के बीच में | 
 
| विरक्ति-भक्ति-अन्वित- | 
विरक्ति भक्ति सहित | 
 
| मुक्ति-मार्गम् | 
मुक्ति मार्ग को | 
 
| स्वयं गत:  | 
स्वयं चले गये | 
 
| पारमहंस्यवृत्तिम्- | 
परमहंस वृत्ति को | 
 
| अधा: | 
धारण कर लिया | 
 
| जड-उन्मत्त-पिशाच-चर्याम् | 
जड उन्मत्त तथा पिशाच के आचरण को | 
 
 
तब आप (ऋषभ देव)  मुनीश्वरों के सम्मुख अपने पुत्रों को विरक्ति भक्ति सहित मुक्ति मार्ग का उपदेश दे कर स्वयं परमहंस वृत्ति को प्राप्त हुए और आपने जड उन्मत्त और पिशाचों के आचरण को अपना लिया।
 
परात्मभूतोऽपि परोपदेशं 
कुर्वन् भवान् सर्वनिरस्यमान: । 
विकारहीनो विचचार कृत्स्नां 
महीमहीनात्मरसाभिलीन: ॥९॥ 
 
| परात्मभूत:-अपि | 
परम आत्मस्वरूप (होने पर) भी | 
 
| पर-उपदेशं कुर्वन् | 
औरों को उपदेश देते हुए | 
 
| भवान् सर्व-निरस्य-मान: | 
आप सभी से तिरस्कृत होते हुए | 
 
| विकार-हीन: | 
विकारहीन | 
 
| विचचार | 
विचरते रहे | 
 
| कृत्स्नां महीम्- | 
पूरी पृथ्वी पर | 
 
| अहीन-आत्मरस-अभिलीन: | 
परम आत्मानन्द में अभिलीन | 
 
 
परम आत्मस्वरूप होते हुए भी आप अन्य लोगों को उपदेश देते रहे। सभी से तिरस्कृत होते हुए भी विकारहीन, परमानन्द रस में अभिलीन हुए आप पूरी पृथ्वी पर विचरते रहे।
 
शयुव्रतं गोमृगकाकचर्यां 
चिरं चरन्नाप्य परं स्वरूपं । 
दवाहृताङ्ग: कुटकाचले त्वं 
तापान् ममापाकुरु वातनाथ ॥१०॥ 
 
| शयु-व्रतम् | 
सर्प के व्रत  | 
 
| गो-मृग-काक-चर्याम् | 
(और) गौ मृग और काक की (जीवन) चर्या को | 
 
| चिरं चरन्- | 
चिर काल तक निभाते हुए | 
 
| आप्य परं स्वरूपं | 
प्राप्त हो गये स्वयं के परम स्वरूप को | 
 
| दवा-हृत-अङ्ग: | 
अग्नि के द्वारा ले लिया गया शरीर (जिसका) | 
 
| कुटकाचले त्वं | 
कुटकाचल पर (वे) आप | 
 
| तापान् मम-अपाकुरु | 
तापों को मेरे दूर करें | 
 
| वातनाथ | 
हे वातनाथ! | 
 
 
सर्प की वृत्ति और गौ मृग एवं काक की जीवन चर्या को चिर काल तक निभाते हुए आप स्वयं के परम स्वरूप को प्राप्त हो गये। फिर कुटकाचल पर दावाग्नि के द्वारा आपने अपने शरीर को भस्म कर दिया। हे वातनाथ! मेरे तापों को दूर करें।
 
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