दशक १९
पृथोस्तु नप्ता पृथुधर्मकर्मठ:
प्राचीनबर्हिर्युवतौ शतद्रुतौ ।
प्रचेतसो नाम सुचेतस: सुता-
नजीजनत्त्वत्करुणाङ्कुरानिव ॥१॥
पृथो:-तु नप्ता |
पृथु के ही प्रपौत्र |
पृथु-धर्म-कर्मठ: |
कठोर धर्म कर्मों मे प्रवृत्त |
प्राचीनबर्हि:- |
प्राचीनबर्ही (नाम वाले) ने |
युवतौ शतद्रुतौ |
युवती शतद्रुति से |
प्रचेतस: नाम |
प्रचेतस नाम के |
सुचेतस: सुतान्- |
सुधी: सुतों को |
अजीजनत्- |
जन्म दिया |
त्वत्-करुणा-अङ्कुरान्-इव |
आपकी करुणा के अंकुरों के समान |
पृथु के प्रपौत्र प्राचीनबर्ही ने जो कठोर धर्म के कर्मों में निष्णात थे, युवती शतद्रुति से प्रचेतस नाम के शुद्ध बुद्धि वाले दस पुत्रों को जन्म दिया। वे इतने कोमल हृदय के थे मानो आपकी करुणाके ही अंकुर हों।
पितु: सिसृक्षानिरतस्य शासनाद्-
भवत्तपस्याभिरता दशापि ते
पयोनिधिं पश्चिममेत्य तत्तटे
सरोवरं सन्ददृशुर्मनोहरम् ॥२॥
पितु: सिसृक्षा-निरतस्य |
पिता, जो सृष्टि में निरत थे |
शासनात्- |
(उनके) आदेश से |
भवत्-तपस्या-अभिरता दश-अपि ते |
आपकी तपस्या में संलग्न हुए भी वे दस |
पयोनिधिं पश्चिमम्-एत्य |
समुद्र के पश्चिम (तट पर) जा कर |
तत्-तटे सरोवरं सन्ददृशु:- |
उस तट पर एक सरोवर को देखा |
मनोहरं |
(जो अत्यन्त) मनोहर था |
सृष्टि करने में निरत पिता के द्वारा आदेश दिये जाने पर, आपकी ही तपस्या मे लगे हुए ये दस समुद्र के पश्चिम तट पर चले गये। वहां उन्होने एक अत्यन्त मनोहर सरोवर देखा।
तदा भवत्तीर्थमिदं समागतो
भवो भवत्सेवकदर्शनादृत: ।
प्रकाशमासाद्य पुर: प्रचेतसा-
मुपादिशत् भक्ततमस्तव स्तवम् ॥३॥
तदा भवत्-तीर्थम्-इदम् |
तब आपके तीर्थ स्थान इस (सरोवर) |
समागत: भव: |
के पास आये हुए शकंर (जो) |
भवत्-सेवक-दर्शन-आदृत: |
आपके भक्तो के दर्शन के उत्सुक हैं |
प्रकाशम्-आसाद्य |
प्रकट हो कर |
पुर: प्रचेतसाम्- |
सामने प्रचेतसों के |
उपादिशत् |
(उन्हें) उपदेश दिया |
भक्ततम:- |
भक्त श्रेष्ठ (उन्होंने) |
तव स्तवं |
आपके स्तोत्र का |
तब भक्तश्रेष्ठ शंकर जो आपके भक्तों के दर्शन के लिये उत्सुक थे, आपके उस तीर्थ सरोवर के पास जा कर प्रचेतसों के सामने प्रकट हुए और उन्हें आपके स्तोत्र का उपदेश दिया।
स्तवं जपन्तस्तममी जलान्तरे
भवन्तमासेविषतायुतं समा: ।
भवत्सुखास्वादरसादमीष्वियान्
बभूव कालो ध्रुववन्न शीघ्रता ॥४॥
स्तवं जपन्त:-तम्-अमी |
(उस) स्तोत्र का जप करते हुए वे सब |
जल-अन्तरे |
जल के अन्दर |
भवन्तम्-आसेविषत- |
आपका स्तवन करते रहे |
अयुतं समा: |
दस हजार वर्ष तक |
भवत्-सुख-आस्वाद्-रसात्- |
आपके सुख के रस के आस्वादन से |
अमीषु- |
इनका (प्रचेतसों का) |
इयान् बभूव काल: |
इस प्रकार समय हो गया |
ध्रुववत्-न शीघ्रता |
ध्रुव के समान शीघ्रता से नहीं |
जल के अन्दर जा कर उस स्तोत्र का जप करते हुए उन्हें दस हजार वर्ष व्यतीत हो गये। आपके ब्रह्म सुख के आनन्द के रसास्वादन से उन्हें इतना समय लग गया। ध्रुव के समान शीघ्रता से यह नहीं घटा।
तपोभिरेषामतिमात्रवर्धिभि:
स यज्ञहिंसानिरतोऽपि पावित: ।
पिताऽपि तेषां गृहयातनारद-
प्रदर्शितात्मा भवदात्मतां ययौ ॥५॥
तपोभि:-एषाम्- |
तप से इनके (प्रचेतसों के) |
अति-मात्र-वर्धिभि: |
अधिक मात्रा में बढ जाने से |
स यज्ञ-हिंसा-निरत:-अपि |
वह (जो) यज्ञ में हिंसा करने में लगा रहता था (वेन) वह भी |
पावित: |
पवित्र हो गया |
पिता-अपि तेषां |
पिता भी उनके |
गृहयात-नारद- |
घर आये नारद के द्वारा |
प्रदर्शित-आत्मा |
दिखाये गये आत्मज्ञान से |
भवत्-आत्मतां ययौ |
आपके आत्मरूप को प्राप्त हुए |
प्रचेतसों की अत्यधिक मात्रा में बढती हुई तपस्या से वेन, जो यज्ञॊ में हिंसा में निरत रहता था, पवित्र हो गया। प्रचेतसों के पिता प्राचीनबर्ही भी, घर आये नारद के द्वारा दिखाये गये आत्मज्ञान के द्वारा आप में आत्मसात हो गये।
कृपाबलेनैव पुर: प्रचेतसां
प्रकाशमागा: पतगेन्द्रवाहन: ।
विराजि चक्रादिवरायुधांशुभि-
र्भुजाभिरष्टाभिरुदञ्चितद्युति: ॥६॥
कृपा-बलेन-एव |
आपकी कृपा के बल से ही |
पुर: प्रचेतसां |
सामने प्रचेतसों के |
प्रकाशम्-आगा: |
प्रकट हुए आप |
पतगेन्द्र-वाहन: |
गरुड वाहन पर |
विराजि चक्र-आदि-वर-आयुध-अंशुभि:- |
विराजित चक्र आदि श्रेष्ठ आयुध युक्त |
भुजाभि:-अष्टाभि:- |
अष्ट भुजाओं के द्वारा |
उदञ्चित-द्युति: |
फैलाते हुए कान्ति |
अपनी कृपा के बल से आप प्रचेतसों के समक्ष प्रकट हुए। उस समय आपकी अष्ट भुजायें चक्र आदि श्रेष्ठ आयुधों से युक्त थीं और गरुड के वाहन पर विराजे हुए आपकी कान्ति देदीप्यमान हो रही थी।
प्रचेतसां तावदयाचतामपि
त्वमेव कारुण्यभराद्वरानदा: ।
भवद्विचिन्ताऽपि शिवाय देहिनां
भवत्वसौ रुद्रनुतिश्च कामदा ॥७॥
प्रचेतसां तावत्- |
प्रचेतसों को, तब |
अयाचताम्-अपि |
याचना न करने पर भी |
त्वम्-एव कारुण्य-भरात्- |
आपने ही करुणा से पूर्ण हो कर |
वरान्-अदा: |
वरों को प्रदान किया |
भवत्-विचिन्ता-अपि |
आपलोगों का स्मरण मात्र |
शिवाय देहिनां भवतु- |
कल्याणकारी हो शरीरधारियों के लिये |
असौ रुद्रनुति:-च |
और यह रुद्र के द्वारा गायी गई |
कामदा (भवतु) |
(स्तुति) अभीष्ट दायिनी होगी |
प्रचेतसों के याचना न करने पर भी आपने करुणा के वशीभूत हो कर उन्हें वर प्रदान किया कि उनके स्मरण मात्र से शरीरधारियों का कल्याण होगा और रुद्र के द्वारा गाई गई यह स्तुति समस्त अभीष्टों को प्रदान करने वाली होगी।
अवाप्य कान्तां तनयां महीरुहां
तया रमध्वं दशलक्षवत्सरीम् ।
सुतोऽस्तु दक्षो ननु तत्क्षणाच्च मां
प्रयास्यथेति न्यगदो मुदैव तान् ॥८॥
अवाप्य कान्तां |
पा कर पत्नी के रूप में |
तनयां महीरुहां |
पुत्री वृक्षों की |
तया रमध्वं |
उसके संग सुखोपभोग करें |
दशलक्ष-वत्सरीम् |
दस लाख वर्षों तक |
सुत:-अस्तु दक्ष: |
(आपके) दक्ष (नाम के) पुत्र हों |
ननु तत्-क्षणात्- |
निश्चय ही उसी क्षण ही |
च मां प्रयास्यथ-इति |
और मुझे प्राप्त करें इस प्रकार |
न्यगद: |
कहा आपने |
मुदा-एव तान् |
प्रसन्नतापूर्वक उनको |
वृक्षों की कन्या को पत्नी के रूप में प्राप्त करके आप उसके संग दस लाख वर्षों तक रमण करें। आपको दक्ष नाम के पुत्र की प्राप्ति होगी। तत्पश्चात उसी क्षण, निश्चय ही मुझे प्राप्त करें' इस प्रकार प्रसन्नतापूर्वक आपने उनको कहा।
ततश्च ते भूतलरोधिनस्तरून्
क्रुधा दहन्तो द्रुहिणेन वारिता: ।
द्रुमैश्च दत्तां तनयामवाप्य तां
त्वदुक्तकालं सुखिनोऽभिरेमिरे ॥९॥
तत:-च ते |
और तब वे |
भू-तल-रोधिन:-तरून् |
भूतल को आच्छादित करने वाले वृक्षों को |
क्रुधा दहन्त: |
क्रोधित हो कर जलाने लगे |
द्रुहिणेन वारिता: |
(और) ब्रह्मा के द्वारा रोके गये |
द्रुमै:-च दत्तां तनयाम्- |
वृक्षों के द्वारा दी गई कन्या को |
अवाप्य तां |
पा कर उसको |
त्वत्-उक्त-कालं |
आपके द्वारा कहे गये समय तक |
सुखिन:-अभिरेमिरे |
सुख से रमण किया |
और तब वे कुपित हो कर, भूतल को अवरोधित करते हुए तरुओ को जलाने लगे। तब ब्रह्मा जी ने उन्हे रोका। फिर तरुओं के द्वारा दी गई कन्या को पत्नी रूप में पा कर उन्होंने आपके द्वारा कहे गये समय तक उसके संग सुख पूर्वक रमण किया।
अवाप्य दक्षं च सुतं कृताध्वरा:
प्रचेतसो नारदलब्धया धिया ।
अवापुरानन्दपदं तथाविध-
स्त्वमीश वातालयनाथ पाहि माम् ॥१०॥
अवाप्य दक्षं च सुतं |
और पुत्र दक्ष को पा कर |
कृत-अध्वरा: |
(और) ब्रह्म सत्र करके |
प्रचेतस: |
प्रचेतस |
नारद-लब्धया धिया |
नारद से प्राप्त ज्ञान वाली बुद्धि से |
अवापु:-आनन्द-पदं |
प्राप्त कर गये आनन्द पद को |
तथा-बिध:-त्वम्- |
उस प्रकार के आप |
ईश |
हे ईश्वर! |
वातालयनाथ |
वातालयनाथ |
पाहि माम् |
मेरी रक्षा करें |
दक्ष नामक पुत्र को पा कर प्रचेतस ने ब्रह्म सत्र किया। नारद से प्राप्त ज्ञान वाली बुद्धि वाले वे लोग आनन्द पद (आपको) को प्राप्त हुए। इस प्रकार के हे ईश्वर! वातालयनाथ! आप मेरी रक्षा करें।
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