दशक २१
मध्योद्भवे भुव इलावृतनाम्नि वर्षे
गौरीप्रधानवनिताजनमात्रभाजि ।
शर्वेण मन्त्रनुतिभि: समुपास्यमानं
सङ्कर्षणात्मकमधीश्वर संश्रये त्वाम् ॥१॥
मध्य-उद्भवे भुव: |
पृथ्वी के मध्य भाग में |
इलावृत-नाम्नि वर्षे |
इलावृत नाम का स्थान है |
गौरी-प्रधान-वनिताजन-मात्र-भाजि |
गौरी प्रधान हैं जिनमें, वनिताएं मात्र ही वहां निवास करती हैं |
शर्वेण |
शिवजी |
मन्त्र-नुतिभि: |
मन्त्रों और स्तुतियों द्वारा |
समुपास्यमानं |
उपासना करते हैं |
सङ्कर्षण-आत्मकम्- |
संकर्षण स्वरूप आपकी |
अधीश्वर |
हे अधीश्वर! |
संश्रये |
शरण लेता हूं |
त्वाम् |
आपकी |
पृथ्वी के मध्य भाग में स्थित इलावृत नाम का स्थान है। वहां, केवल वनिताएं निवास करती हैं जिनमें गौरी प्रधान हैं। वहां शिवजी, अर्धनारीश्वर रूप से मन्त्रों और स्तुतियों के द्वारा आपके संकर्षण स्वरूप की उपासना करते हैं। हे अधीश्वर! मैं आपकी शरण लेता हूं।
भद्राश्वनामक इलावृतपूर्ववर्षे
भद्रश्रवोभि: ऋषिभि: परिणूयमानम् ।
कल्पान्तगूढनिगमोद्धरणप्रवीणं
ध्यायामि देव हयशीर्षतनुं भवन्तम् ॥२॥
भद्राश्व-नामक |
भद्राश्व नामक |
इलावृत-पूर्व-वर्षे |
इलावृत के पूर्व भाग में |
भद्रश्रवोभि: ऋषिभि: |
भद्रश्रवा ऋषियों के द्वारा |
परिणूयमानम् |
संस्तुति किये जाने वाले (आप) |
कल्पान्त-गूढ-निगम-उद्धरण-प्रवीणं |
(जो) कल्पान्त में लुप्त हुए वेदों का उद्धार करने में पटु हैं |
ध्यायामि |
(उनका) मैं ध्यान करता हूं |
देव |
हे देव! |
हयशीर्ष-तनुं भवन्तम् |
हयग्रीव स्वरूप आपका |
इलावृत के पूर्व भाग में स्थित भद्राश्व नामक स्थान में भद्रश्रवा ऋषिगण आपकी संस्तुति करते हैं। कल्पान्त में लुप्त हुए वेदों का उद्धार करने में प्रवीण, आप वहां हयग्रीव स्वरूप में स्थित हैं। मैं आपके उस स्वरूप का ध्यान करता हूं।
ध्यायामि दक्षिणगते हरिवर्षवर्षे
प्रह्लादमुख्यपुरुषै: परिषेव्यमाणम् ।
उत्तुङ्गशान्तधवलाकृतिमेकशुद्ध-
ज्ञानप्रदं नरहरिं भगवन् भवन्तम् ॥३॥
ध्यायामि |
ध्यान करता हूं |
दक्षिणगते हरिवर्षवर्षे |
दक्षिण दिशा में हरिवर्ष स्थान में |
प्रह्लाद-मुख्य-पुरुषै: |
प्रह्लाद आदि मुख्य पुरुषों के द्वारा |
परिषेव्यमाणम् |
आराधना किये जाने वाले |
उत्तुङ्ग-धवल-आकृतिम्- |
उन्नत श्वेत स्वरूप |
एकशुद्ध-ज्ञान-प्रदम् |
एक मात्र शुद्ध ज्ञान के प्रदाता |
नरहरिं |
नरहरि रूप |
भगवन् |
हे भगवन। |
भवन्तं |
आपका |
इलावृत की दक्षिण दिशा में हरिवर्ष नामक स्थान है। वहां प्रह्लाद आदि मुख्य पुरुषों के द्वारा आपकी आराधना की जाती है। एक मात्र शुद्ध ज्ञान के प्रदाता, हे भगवन! आप वहां उन्नत श्वेत नरहरि के रूप में विराजमान हैं । मैं आपके उस स्वरूप का ध्यान करता हूं।
वर्षे प्रतीचि ललितात्मनि केतुमाले
लीलाविशेषललितस्मितशोभनाङ्गम् ।
लक्ष्म्या प्रजापतिसुतैश्च निषेव्यमाणं
तस्या: प्रियाय धृतकामतनुं भजे त्वाम् ॥४॥
वर्षे प्रतीचि |
(इलावृत के) पश्चिम भाग में |
ललित-आत्मनि |
सुन्दरता से युक्त |
केतुमाले |
केतुमाल में |
लीला-विशेष-ललित-स्मित-शोभन-अङ्गम् |
विशेष लीला से मनोरम और मन्द मुस्कान से सुशोभित (आपके) स्वरूप की |
लक्ष्म्या |
लक्ष्मी के द्वारा |
प्रजापतिसुतै: च |
और प्रजापति के पुत्रों के द्वारा |
निषेव्यमाणम् |
सेवा की जाती है |
तस्या: प्रियाय |
उनकी (लक्ष्मी की) प्रसन्नता के लिये |
धृत-काम-तनुम् |
धारण किया कामदेव के स्वरूप को |
भजे त्वाम् |
भजन करता हूं आपका |
इलावृत के पश्चिम भाग में सुन्दरता से युक्त केतुमाल नामक स्थान है। वहां लक्ष्मी और प्रजापति के पुत्र, विशेष लीला से मनोहारी और मन्द मुस्कान से सुशोभित आपके स्वरूप की सेवा करते हैं। लक्ष्मी की प्रसन्नता के लिये आपने कामदेव के स्वरूप को धारण कियाहौ। आपके उस स्वरूप का मैं भजन करता हं।
रम्ये ह्युदीचि खलु रम्यकनाम्नि वर्षे
तद्वर्षनाथमनुवर्यसपर्यमाणम् ।
भक्तैकवत्सलममत्सरहृत्सु भान्तं
मत्स्याकृतिं भुवननाथ भजे भवन्तम् ॥५॥
रम्ये हि उदीचि खलु |
इलावृत के उत्तर में रमणीय |
रम्यक-नाम्नि वर्षे |
रम्यक नाम के स्थान में |
तत्-वर्ष-नाथ-मनुवर्य- |
उस स्थान के स्वामी मनु श्रेष्ठ |
सपर्यमाणम् |
पूजन करते रहते हैं (आपकी) |
भक्त-एक-वत्सलम्- |
(जो) एकमात्र भक्तवत्सल |
अमत्सर-हृत्सु भान्तं |
मत्सर विहीन हृदयों में प्रकाशित होने वाले |
मत्स्य-आकृतिं |
मत्स्य मूर्ति |
भुवननाथ |
हे भुवननाथ! |
भजे भवन्तं |
पूजा करता हूं आपकी |
इलावृत के उत्तर में अति रमणीय रम्यक नाम का स्थान है। वहां के स्वामीमनु श्रेष्ठ निरन्तर आपका पूजन करते रहते हैं। हे भुवननाथ! केवल भक्तवत्सल और मात्सर्य रहित हृदयों मे प्रकाशित होने वाले आप वहां मत्स्य रूप में विराजमान हैं। मैं आपकी पूजा करता हूं।
वर्षं हिरण्मयसमाह्वयमौत्तराह-
मासीनमद्रिधृतिकर्मठकामठाङ्गम् ।
संसेवते पितृगणप्रवरोऽर्यमा यं
तं त्वां भजामि भगवन् परचिन्मयात्मन् ॥६॥
वर्षं |
(वह) भाग |
हिरण्मय-समाह्वयम्- |
(जो) हिरण्मय नाम से जाना जाता है |
औत्तराहम्- |
और (रम्यक के) उत्तर की ओर है |
आसीनम्- |
(वहां) स्थित |
अद्रि-धृति-कर्मठ-कामठ-अङ्गम् |
वह पर्वत (जो) धारण करने में सक्षम है (आपके) कच्छ्प स्वरूप को |
संसेवते |
उसकी उपासना करते हैं |
पितृगण-प्रवर:-अर्यमा |
पितृ गणों में श्रेष्ठ अर्यमा |
यं तं त्वां |
जिन उन आपको |
भजामि भगवन् |
भजता हूं हे भगवन! |
परचिन्मय-आत्मन् |
परम चिन्मयात्मक |
जो भू भाग हिरण्मय नाम से जाना जाता है, वह रम्यक के उत्तर की ओर है। वहां वह पर्वत (मन्दार) स्थित है, जो आपके कच्छप स्वरूप को वहन करने में सक्षम है, स्थित है। हे परम चिन्मयात्मक भगवन! पितृगणों में श्रेष्ठ अर्यमा कच्छप स्वरूप आपकी उपासना करते हैं। आपके उसी स्वरूप को मैं भजता हं।
किञ्चोत्तरेषु कुरुषु प्रियया धरण्या
संसेवितो महितमन्त्रनुतिप्रभेदै: ।
दंष्ट्राग्रघृष्टघनपृष्ठगरिष्ठवर्ष्मा
त्वं पाहि बिज्ञनुत यज्ञवराहमूर्ते ॥७॥
किम्-च |
और भी |
उत्तरेषु |
(हिरण्मय के) उत्तर में |
कुरुषु |
कुरु भागों में |
प्रियया धरण्या |
प्रियतमा पृथ्वी के द्वारा |
संसेवित: |
उपासना किये जाते हुए |
महित-मन्त्र-नुति-प्रभेदै: |
विभिन्न महा मन्त्र और स्तुतियों से |
दंष्ट्र-अग्र-घृष्ट-घन-पृष्ठ-गरिष्ष्ठ-वर्ष्मा |
दांत के अगले भाग से बादलों के पृष्ठ को रगडने वाले दीर्घ आकार वाले |
त्वं पाहि |
आप रक्षा करें |
विज्ञ-नुत यज्ञ-वराह-मूर्ते |
हे ज्ञानियों से संस्तुत यज्ञ वराह स्वरूप |
और भी, हिरण्मय के उत्तर भाग में, आपकी प्रियतमा पृथ्वी विभिन्न महा मन्त्रों और स्तुतियों से आपकी उपासना करती हैं। हे ज्ञानियों के द्वारा संस्तुत यज्ञ वराह स्वरूप ईश्वर! आप दांतों के अग्र भाग से बादलो के पृष्ठ को रगडने वाले विशाल आकृति के है। आप मेरी रक्षा करें।
याम्यां दिशं भजति किंपुरुषाख्यवर्षे
संसेवितो हनुमता दृढभक्तिभाजा ।
सीताभिरामपरमाद्भुतरूपशाली
रामात्मक: परिलसन् परिपाहि विष्णो ॥८॥
याम्यां दिशं भजति |
दक्षिण दिशा में स्थित |
किंपुरुष-आख्य-वर्षे |
किंपुरुष नामक भाग में |
संसेवित: |
पूजे जाते हैं |
हनुमता |
हनुमान के द्वारा |
दृढ-भक्तिभाजा |
(जो) दृढ भक्तिमान हैं |
सीता-अभिराम-परम-अद्भुत-रूप-शाली |
सुन्दरी सीता के संग अद्भुत सौन्दर्यली |
रामात्मक: परिलसन् |
राम स्वरूप से सुशोभित |
परिपाहि |
रक्षा करें |
विष्णो |
हे विष्णो! |
दक्षिण दिशा में किंपुरुष नामक भाग में दृढ भक्तिमान हनुमान के द्वारा आप पूजे जाते हैं। हे विष्णॊ! परम सुन्दरी सीता के संग अद्भुत सौन्दर्य से युक्त राम रूप से सुशो्भित आप, मेरी रक्षा करें।
श्रीनारदेन सह भारतखण्डमुख्यै-
स्त्वं साङ्ख्ययोगनुतिभि: समुपास्यमान: ।
आकल्पकालमिह साधुजनाभिरक्षी
नारायणो नरसख: परिपाहि भूमन् ॥९॥
श्री-नारदेन सह |
श्री नारद जी के साथ |
भारत-खण्ड-मुख्यै:- |
भारतवर्ष के प्रमुख जनों के द्वारा |
त्वं |
आप |
सांख्य-योग-नुतिभि: |
सांख्य योग की स्तुतियों के द्वारा |
समुपास्यमान: |
सम्यक उपासित होते हैं |
आकल्प-कालम्-इह |
यहां कल्पान्त तक |
साधुजन-अभिरक्षी |
साधु जनों के रक्षक |
नारायण: नरसख: |
नारायण नरसखा (के रूप में) |
परिपाहि |
रक्षा करें |
भूमन् |
हे भूमन |
भारतवर्ष में आप नरसखा नारायण रूप से विराजमान हैं। नारद मुनि के साथ साथ भारतवर्ष के प्रमुख जन, सांख्य योग की स्तुतियो के द्वारा आपकी सम्यक उपासना करते हैं। हे भूमन! मेरी रक्षा करें।
प्लाक्षेऽर्करूपमयि शाल्मल इन्दुरूपं
द्वीपे भजन्ति कुशनामनि वह्निरूपम् ।
क्रौञ्चेऽम्बुरूपमथ वायुमयं च शाके
त्वां ब्रह्मरूपमपि पुष्करनाम्नि लोका: ॥१०॥
प्लाक्षे-अर्क-रूपम्- |
प्लाक्ष में (आपके) सूर्य रूप को |
अयि |
हे आप |
शाल्मले इन्दुरूपं |
शाल्मलि में चन्द्र रूप को |
द्वीपे भजन्ति कुश-नामनि |
कुश नाम के द्वीप में |
वह्नि-रूपम् |
अग्नि रूप को |
क्रौञ्चे-अम्बु-रूपम्- |
क्रौञ्च में जल रूप को |
अथ वायु-मयं च शाके |
और फिर वायु रूप को शाक में |
त्वां ब्रह्म-रूपम्-अपि |
आप के ब्रह्म रूप को भी |
पुष्कर-नाम्नि लोका: |
पुष्कर नाम में लोग (भजते हैं) |
हे प्रभु! प्लाक्ष में सूर्य के रूप में, शाल्मलि में चन्द्र रूप में, कुश नामक द्वीप में अग्नि रूप में, और फिर क्रौञ्च में जल रूप में, शाक में वायु मय, और पुष्कर में ब्रह्म रूप में लोग आपकी पूजा करते हैं।
सर्वैर्ध्रुवादिभिरुडुप्रकरैर्ग्रहैश्च
पुच्छादिकेष्ववयवेष्वभिकल्प्यमानै: ।
त्वं शिंशुमारवपुषा महतामुपास्य:
सन्ध्यासु रुन्धि नरकं मम सिन्धुशायिन् ॥११॥
सर्बै:-ध्रुव-आदिभि:-उडुप्रकरै:- |
समस्त ध्रुव आदि नक्षत्रो द्वारा |
ग्रहै:-च |
और ग्रहों के द्वारा |
पुच्छ-आदिकेषु अवयवेषु- |
पूंछ आदि अवयवों में |
अभिकल्प्यमानै: |
कल्पना किये जाने से |
त्वं शिंशुमार-वपुषा |
आप शिशुमार स्वरूप से |
महताम्-उपास्य: |
ज्ञानीजनों के द्वारा उपासित हैं |
सन्ध्यासु |
(तीनों) सन्ध्याओं में |
रुन्धि नरकं मम |
रोकिये नरक को मेरे |
सिन्धुशायिन् |
हे! सिन्धुशायिन! |
ज्ञानि जन तीनों सन्ध्या के समय आपके शिंशुमार स्वरूप की आराधना करते हैं। आपके उस स्वरूप के पूंछ आदि अवयवों में ध्रुव आदि समस्त नक्षत्र और सूर्य आदि ग्रहों की कल्पना की गई है। हे सिन्धुशायिन! मेरे नरक पात को रोकिये।
पातालमूलभुवि शेषतनुं भवन्तं
लोलैककुण्डलविराजिसहस्रशीर्षम् ।
नीलाम्बरं धृतहलं भुजगाङ्गनाभि-
र्जुष्टं भजे हर गदान् गुरुगेहनाथ ॥१२॥
पाताल-मूल-भुवि |
पाताल के मूल में भूतल में |
शेष-तनुं भवन्तं |
शेष स्वरूप आपको |
लोल-ऐक-कुण्डल-विराजि-सहस्र-शीर्षम् |
झूमते हुए एकमात्र कुण्डल से सुशोभित एक हजार फण |
नीलाम्बरं |
नीलाम्बर युक्त |
धृत-हलं |
हल आयुध धारी |
भुजग-अङ्गनाभि:-जुष्टं |
भुजंगाङ्गनाओं के द्वारा सेवित |
भजे |
(मैं) भजता हूं |
(शेषतनुं भवन्तं) |
शेष स्वरूप आपको |
हर गदान् |
हरिये रोगों को |
गुरुगेहनाथ |
हे गुरुगेहनाथ! |
मूल पाताल के भूतल पर आप शेष स्वरूप में विद्यमान हैं। झूमता हुआ एकमात्र कुण्डल आपके हजार फणो को सुशोभित करता है। आपने नीलाम्बर धारण किया है और हल आपका आयुध है। भुजंगाङ्गनाएं आपकी सेवा में रत हैं। आपके इस स्वरूप का मैं भजन करता हं। हे गुरुगेहनाथ! मेरे रोगों को हर लीजिये।
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