दशक १८
जातस्य ध्रुवकुल एव तुङ्गकीर्ते-
रङ्गस्य व्यजनि सुत: स वेननामा ।
यद्दोषव्यथितमति: स राजवर्य-
स्त्वत्पादे निहितमना वनं गतोऽभूत् ॥१॥
जातस्य ध्रुवकुले-एव |
पैदा हुए ध्रुव के कुल में ही |
तुङ्ग-कीर्ते:-अङ्गस्य |
उच्च कीर्ति वाले अङ्ग के |
व्यजनि सुत: स वेन-नामा |
पैदा हुआ एक पुत्र जिसका नाम वेन था |
यत्-दोष-व्यथित-मति: |
उस के कुचरित्र होने से दु;खी मन वाले |
स: राजवर्य:- |
वे राज श्रेष्ठ |
त्वत्-पादे निहित-मना |
आपके चरणों में मन को निहित कर के |
वनं गत:-अभूत् |
वन को चले गये |
ध्रुव के ही कुल में बहुत विख्यात कीर्ति वाले राजा अङ्ग हुए। उनके पुत्र उत्पन्न हुए जिनका नाम वेन था। वेन के कुचरित्र से दु:खी राजश्रेष्ठ अङ्ग ने आपके चरणो मे मन को लगा लिया और वन को चले गये।
पापोऽपि क्षितितलपालनाय वेन:
पौराद्यैरुपनिहित: कठोरवीर्य: ।
सर्वेभ्यो निजबलमेव सम्प्रशंसन्
भूचक्रे तव यजनान्ययं न्यरौत्सीत् ॥२॥
पाप:-अपि |
पापी होने पर भी |
क्षिति-तल-पालनाय |
पृथ्वी के पालन के लिये |
वेन: पौराद्यै:-उपनिहित: |
वेन पुरवासियों के द्वारा अभिषिक्त कर दिया गया |
कठोर-वीर्य: |
क्रूर वीरता वाले उसने |
सर्वेभ्य: निज-बलम्-एव |
सभी से अपनी वीरता की ही |
सम्प्रशंसन् |
प्रशंसा करते हुए |
भूचक्रे |
भूतल पर |
तव यजनानि- |
आपके पूजन आदि को |
अयं न्यरौत्सीत् |
इसने बन्द कर दिया |
पृथ्वी के शासक की कमी होने के कारण, वेन के पापी होने पर भी पुरवासियों ने उसका राजतिलक कर दिया। क्रूर वीरता वाले उसने लोगों से अपनी ही वीरता की प्रशंसा करवाते हुए भूतल पर आपके पूजन अर्चनादि पर प्रतिबन्ध लगवा दिया।
सम्प्राप्ते हितकथनाय तापसौघे
मत्तोऽन्यो भुवनपतिर्न कश्चनेति ।
त्वन्निन्दावचनपरो मुनीश्वरैस्तै:
शापाग्नौ शलभदशामनायि वेन: ॥३॥
सम्प्राप्ते |
उसके पास जा कर |
हितकथनाय |
हितार्थक वचन कहने के लिये |
तापस-औघे |
(जब) तपस्वियों का समूह (गया) |
मत्त:-अन्य: भुवनपति:-न कश्चन्-इति |
मुझ जैसा भुवनपति दूसरा कोई नहीं है' इस प्रकार |
त्वत्-निन्दा-वचन-पर: |
आपकी निन्दा करने में प्रवृत्त |
मुनीश्वरै:-तै: |
उन मुनीश्वरों के द्वारा |
शाप-अग्नौ |
शाप की अग्नि में |
शलभ-दशाम्-अनायि |
शलभ की दशा को ले गये |
वेन: |
वेन को |
मुनि समुदाय वेन के हितार्थ वचन कहने के लिये उसके पास गये, किन्तु उसने कहा कि सम्पूर्ण भुवन मण्डल में उसके समान प्रतापी कोई है ही नहीं और आपकी निन्दा करने में प्रवृत्त हो गया। तब उन मुनीश्वरों ने शापाग्नि में जला कर उसे शलभ समान कर दिया।
तन्नाशात् खलजनभीरुकैर्मुनीन्द्रै-
स्तन्मात्रा चिरपरिरक्षिते तदङ्गे ।
त्यक्ताघे परिमथितादथोरुदण्डा-
द्दोर्दण्डे परिमथिते त्वमाविरासी: ॥४॥
तत्-नाशात् |
उसके नाश से |
खलजन-भीरुकै:- मुनीन्द्रै:- |
दुष्ट जनों से डरे हुए मुनियों के द्वारा |
तत्-मात्रा चिरपरिरक्षिते तत्-अङ्गे |
उसकी (वेन की) माता द्वाराके दीर्घ काल से संरक्षित अङ्ग से |
त्यक्त-अघे |
(जिनसे) पाप निकल गया था |
परिमथितात्-अथ-उरुदण्डात्- |
तब परिमथित किये जाने पर जङ्घाओं से |
दोर्दण्डे परिमथिते |
(फिर) बाहू दण्डो के परिमथन करने से |
त्वम्-आविरासीत् |
आप प्रकट हुए |
वेन के नाश होने से दुष्टों की अराजकता के भय से मुनिजन भयभीत हो गये । तब वेन की माता के द्वारा दीर्घकाल तक सुरक्षित रखे गये उसके शरीर में से जङ्घाओं के मथे जाने पर वेन के पाप निकल गये। फिर उसके बाहु दण्डों को मथा गया। तब स्वयं आप प्रकट हो गये।
विख्यात: पृथुरिति तापसोपदिष्टै:
सूताद्यै: परिणुतभाविभूरिवीर्य: ।
वेनार्त्या कबलितसम्पदं धरित्री-
माक्रान्तां निजधनुषा समामकार्षी: ॥५॥
विख्यात: पृथु-इति |
प्रसिद्ध हुए पृथु इस प्रकार |
तापस-उपदिष्टै: |
तपस्वियों के द्वारा उपदिष्ट |
सूत-आद्यै: |
सूत आदि के द्वारा |
परिणुत-भावि-भूरि-वीर्य: |
स्तुति और प्रशंसा की गई आपके भावी पराक्रम की |
वेन-आर्त्या |
वेन के द्वारा सताई गई |
कबलित-सम्पदं धरित्रीम्- |
अन्त:स्थ कर लेने पर धरती के |
आक्रान्ताम् निज-धनुषा |
आक्रमण किये जाने पर अपने धनुष के द्वारा |
समाम्-अकार्षी |
समानता को खींच लाये |
इस अवतार में आप पृथु नाम से विख्यात हुए। तपस्वियों के उपदेश से सूत आदि ने आपके भावी पराक्रम की स्तुति और प्रशंसा की। वेन के सताये जाने पर पृथ्वी ने अपनी सम्पदाएं आत्मसात कर ली थी। अप धनुष से आक्रमण कर के आपने उन्हे समान तल पर खींच कर ले आए।
भूयस्तां निजकुलमुख्यवत्सयुक्त्यै-
र्देवाद्यै: समुचितचारुभाजनेषु ।
अन्नादीन्यभिलषितानि यानि तानि
स्वच्छन्दं सुरभितनूमदूदुहस्त्वम् ॥६॥
भूय:-तां |
फिर से उसको (भूमि को) |
निज-कुल-मुख्य-वत्स-युक्तै:- |
अपने अपने कुलों के प्रधान (पुरुषों) को साथ ले कर |
देव-आद्यै: |
देवादि ने |
समुचित-चारु-भाजनेषु |
अत्यन्त सुन्दर पात्रों में |
अन्नादीनि-अभिलषितानि |
अन्नादि अभिलषित वस्तुऒं का |
यानि तानि |
जो कुछ भी |
स्वच्छन्दं |
स्वच्छन्दता पूर्वक |
सुरभि-तनूम् |
सुरभि शरीर धारी का |
अदूदुह: त्वम् |
दोहन किया आपने |
तब फिर से आपने देवादि के द्वारा अपने अपने कुल के प्रधान पुरुषों के साथ अत्यन्त सुन्दर पात्रों में अन्न औषधि आदि जो कुछ भी अभिलषित था, उन वस्तुओं का सुरभि रूपी पृथ्वी से दोहन करवाया।
आत्मानं यजति मखैस्त्वयि त्रिधाम-
न्नारब्धे शततमवाजिमेधयागे ।
स्पर्धालु: शतमख एत्य नीचवेषो
हृत्वाऽश्वं तव तनयात् पराजितोऽभूत् ॥७॥
आत्मानं यजति मखै:-त्वयि |
स्वयं को यजन करते हुए यज्ञों के द्वारा स्वयं ही |
त्रिधामन्- |
हे त्रिधामन! |
आरब्धे शततम-वाजि-मेध-यागे |
प्रारम्भ होने पर सौवें अश्वमेध यज्ञ के |
स्पर्धालु शतमख: |
ईर्ष्यावान इन्द्र ने |
एत्य नीचवेष: |
आ कर कपटवेष में |
हृत्वा-अश्वं |
हरण कर के (यज्ञ) अश्व का |
तव तनयात् |
आपके पुत्र के द्वारा |
पराजित:-अभूत् |
हरा दिया गया |
हे त्रिधामन! यज्ञों के द्वारा आप स्वयं का स्वयं ही यजन कर रहे थे। सौवें अश्वमेध यज्ञ के प्रारम्भ होने के समय ईर्ष्यालू इन्द्र ने कपट वेष में यज्ञ अश्व चुराने का प्रयत्न किया, तब वह आपके पुत्र के द्वारा हरा दिया गया।
देवेन्द्रं मुहुरिति वाजिनं हरन्तं
वह्नौ तं मुनिवरमण्डले जुहूषौ ।
रुन्धाने कमलभवे क्रतो: समाप्तौ
साक्षात्त्वं मधुरिपुमैक्षथा: स्वयं स्वम् ॥८॥
देवेन्द्रं मुहु:-इति |
इन्द्र बार बार इस प्रकार |
वाजिनं हरन्तं |
घोडे को चुराता हुआ |
वह्नौ तं |
अग्नि में उसको |
मुनिवर-मण्डले जुहूषौ |
मुनि मण्डली के द्वारा आहुति देने के इच्छुक को |
रुन्धाने कमलभवे |
रोक दिया ब्रह्मा ने |
क्रतो: समाप्तौ |
यज्ञ के समाप्त हो जाने पर |
साक्षात्-त्वं |
साक्षात आपने |
मधुरिपुम्-ऐक्षथा: |
मधुसूदन को देखा |
स्वयं स्वम् |
स्वयं ने स्वयं को |
इन्द्र के इस प्रकार बार बार घोडे को चुरा लेने से खिन्न मुनिमण्डल उसे ही अग्नि में होम देना चाहते थे, किन्तु ब्रह्मा जी ने उन्हें रोक दिया। यज्ञ के समाप्त होने पर आपने (पृथु ने) स्वयं ही स्वयं को साक्षात मधुसूदन रूप में देखा।
तद्दत्तं वरमुपलभ्य भक्तिमेकां
गङ्गान्ते विहितपद: कदापि देव ।
सत्रस्थं मुनिनिवहं हितानि शंस-
न्नैक्षिष्ठा: सनकमुखान् मुनीन् पुरस्तात् ॥९॥
तत्-दत्तं वरम्-उपलभ्य |
उनके (मधुसूदन के) द्वारा वर को पा कर |
भक्तिम्-एकां |
एकनिष्ठ भक्ति को (पा कर) |
गङ्गा-अन्ते विहित-पद: कदापि |
गङ्गा के तट पर निहित कर के स्थान एकबार |
देव |
हे देव! |
सत्रस्थं मुनि-निवहं |
यज्ञ में उपस्थित मुनि समूह को |
हितानि शंसन्- |
धर्मॊं का उपदेश देते हुए |
ऐक्षिष्ठा: |
आपने (पृथु ने) देखा |
सनक-मुखान् मुनीन् पुरस्तात् |
सनकादि मुनियों को सामने |
मधुसूदन से आपने (पृथु ने) एकनिष्ठ भक्ति का वरदान पाया। हे देव! एक बार गङ्गा के तट पर चुने हुए स्थान पर यज्ञ मे उपस्थित मुनिवृन्द को आप धर्म का उपदेश दे रहे थे। उसी समय आपने अपने समक्ष सनकादि मुनियों को देखा।
विज्ञानं सनकमुखोदितं दधान:
स्वात्मानं स्वयमगमो वनान्तसेवी ।
तत्तादृक्पृथुवपुरीश सत्वरं मे
रोगौघं प्रशमय वातगेहवासिन् ॥१०॥
विज्ञानं |
ब्रह्म ज्ञान को |
सनक-मुख-उदितं |
सनकादि मुनियों के मुख से कहे गये |
दधान: |
धारण करते हुए |
स्व-आत्मानं स्वयम्-अगम: |
स्वम अपनी आत्मा को स्वयं प्राप्त हुए |
वन-अन्त-सेवी |
वन के भीतर रहते हुए |
तत्-तादृक्-पृथु-वपु:-ईश |
वअही उस प्रकार के पृथु शरीरी हे ईश! |
सत्वरं मे |
शीघ्र ही मेरे |
रोगौघं |
रोग समूहों का |
प्रशमय |
नाश करें |
वातगेहवासिन् |
हे वातगेहवासिन! |
फिर आप वन में रहने लगे। सनकादि मुनियों के द्वारा दिये गये ब्रह्म ज्ञान के उपदेश को भली भांति धारण करते हुए आपने स्वयं अपनी आत्मा को स्वयं के भीतर प्राप्त किया। ऐसे पृथुवपुधारी ईश! हे वातगेहवासिन! शीघ्र ही मेरे रोग समूहों को नष्ट कीजिये।
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