दशक १७
उत्तानपादनृपतेर्मनुनन्दनस्य
जाया बभूव सुरुचिर्नितरामभीष्टा ।
अन्या सुनीतिरिति भर्तुरनादृता सा
त्वामेव नित्यमगति: शरणं गताऽभूत् ॥१॥
उत्तानपाद-नृपते:- |
उत्तानपाद राजा की |
मनु-नन्दनस्य |
मनु के पुत्र की |
जाया बभूव सुरुचि:- |
पत्नी थीं सुरुचि |
नितराम्-अभीष्टा |
अत्यन्त प्रिया |
अन्या सुनीति:-इति |
दूसरी सुनीति इस प्रकार (नाम की) |
भर्तु:-अनादृता सा |
पति से अवहेलित वह |
त्वाम्-एव नित्यम्- |
आपके ही प्रतिदिन |
अगति:-शरणं |
(जो) अशरणों के शरण हैं |
गता-अभूत् |
(शरण में) जाने वाली हुई |
मनु पुत्र उत्तानपाद की पत्नी सुरुचि उनकी अत्यन्त प्रिया थी। दूसरी पत्नी सुनीति पति से अवहेलित और शरणहीन थी। वह नित्य प्रति आपकी ही शरण में जाती थी, आप जो अशरणों के शरण हैं।
अङ्के पितु: सुरुचिपुत्रकमुत्तमं तं
दृष्ट्वा ध्रुव: किल सुनीतिसुतोऽधिरोक्ष्यन् ।
आचिक्षिपे किल शिशु: सुतरां सुरुच्या
दुस्सन्त्यजा खलु भवद्विमुखैरसूया ॥२॥
अङ्के पितु: |
गोद में पिता के |
सुरुचि-पुत्रकम्-उत्तमं तं |
सुरुचि के पुत्र उत्तम को उसको |
दृष्ट्वा ध्रुव: किल |
देख कर ध्रुव निश्चय ही |
सुनीति-सुत:-अधिरोक्ष्यन् |
सुनीति का पुत्र चढने लगा |
आचिक्षिपे किल शिशु: |
कठोरता से डांटा गया निश्चय ही वह बालक |
सुतरां सुरुच्या |
उस कारण से सुरुचि के द्वारा |
दुस्सन्त्यजा खलु |
कठिनाई से छोडी जाती है निश्चय ही |
भवत्-विमुखै:- |
आपसे विमुख (लोगों के द्वारा) |
असूया |
ईर्ष्या |
पिता की गोद में सुरुचि के पुत्र उत्तम को देख कर सुनीति के पुत्र ध्रुव ने भी पिता की गोद में चढने का उपक्रम किया। फलस्वरूप उस बालक को सुरुचि ने अत्यधिक कठोरता से डांटा। निश्चय ही, आप से विमुख लोग ईर्ष्या और द्वेष को आसानी से नहीं छोड पाते।
त्वन्मोहिते पितरि पश्यति दारवश्ये
दूरं दुरुक्तिनिहत: स गतो निजाम्बाम् ।
साऽपि स्वकर्मगतिसन्तरणाय पुंसां
त्वत्पादमेव शरणं शिशवे शशंस ॥३॥
त्वत्-मोहिते पितरि |
आपाकी (माया से) मोहित पिता के होने पर |
पश्यति दार्-वश्ये |
(जो) देखने लगे पत्नी के वशीभूत |
दूरं दुरुक्ति-निहत: स: |
हट गया कटुवचनों से आहत हुआ वह |
गत: निज-अम्बाम् |
गया अपनी माता के पास |
सा-अपि |
उसने भी |
स्व-कर्म-गति-सन्तरणाय |
स्वयं के कर्मों की गति को पार करने के लिये |
पुंसां |
मनुष्यों को |
त्वत्-पादम्-एव शरणं |
आपके चरण ही शरण हैं |
शिशवे शशंस |
बालक को बतलाया |
आपकी माया से मोहित होने पर पत्नी के वशीभूत हुए पिता के चुपचाप देखते रह जाने पर कटुवचनों से आहत ध्रुव वहां से हट गया और अपनी माता के पास गया। माता ने भी उस बालक को यही बतलाया कि मनुष्य मात्र को अपने कर्मों की गति को पार करने के लिये, एकमात्र आप ही की शरण में जाना होता है।
आकर्ण्य सोऽपि भवदर्चननिश्चितात्मा
मानी निरेत्य नगरात् किल पञ्चवर्ष: ।
सन्दृष्टनारदनिवेदितमन्त्रमार्ग-
स्त्वामारराध तपसा मधुकाननान्ते ॥४॥
आकर्ण्य स:-अपि |
सुन कर वह भी |
भवत्-अर्चन-निश्चित-आत्मा |
आपकी अर्चना करने के लिये मन में निश्चित कर के |
मानी निरेत्य नगरात् |
स्वाभिमानी (वह) निकल कर नगर से |
किल पञ्च-वर्ष: |
मात्र पांच वर्षीय |
सन्दृष्ट-नारद |
देखा नारद को |
निवेदित-मन्त्र-मार्ग:- |
उपदेश पा कर मन्त्र मार्ग का |
त्वाम्-आरराध तपसा |
आपकी आराधना की तपस्या से |
मधु-कानन-अन्ते |
मधुवन के अन्दर जा कर |
यह सुन कर वह पांच वर्षीय स्वाभिमानी बालक आपकी आराधना का मन में दृढ निश्चय कर के नगर से निकल गया। मार्ग में उसकी नारद जी से भेंट हुई और उनसे मन्त्र मार्ग की दीक्षा मिली। फिर वह मधुवन में जा कर आपकी आराधना और तपस्या करने लगा।
ताते विषण्णहृदये नगरीं गतेन
श्रीनारदेन परिसान्त्वितचित्तवृत्तौ ।
बालस्त्वदर्पितमना: क्रमवर्धितेन
निन्ये कठोरतपसा किल पञ्चमासान् ॥५॥
ताते विषण्ण-हृदये |
पिता के दु:खी हृदय हो जाने पर |
नगरीं गतेन श्रीनारदेन |
(और) नगरी को जाने से श्री नारद के |
परिसान्त्वित-चित्त-वृतौ |
परिश्रान्त हो जाने पर चित्त के |
बाल:-त्वत्-अर्पित-मना: |
बालक के आप पर केन्द्रित कर देने पर मन को |
क्रम-वर्धितेन |
शनै शनै बढते हुए |
निन्ये कठोर-तपसा |
पालन करते हुए कठिन तप के द्वारा |
किल पञ्च-मासान् |
निश्चय ही पांच महीने बिताए |
ध्रुव के पिता उत्तानपाद का हृदय अत्यन्त दुखित हो गया। उसी समय नारद जी उनके नगर को गये और उनको सान्त्वना देते हुए शान्त किया। ध्रुव भी एकाग्र चित्त से आपकी आराधना करते रहा और क्रमश: उसकी तपस्या बढती गई। इस प्रकार उसने पांच महीने बिताए।
तावत्तपोबलनिरुच्छ्-वसिते दिगन्ते
देवार्थितस्त्वमुदयत्करुणार्द्रचेता: ।
त्वद्रूपचिद्रसनिलीनमते: पुरस्ता-
दाविर्बभूविथ विभो गरुडाधिरूढ: ॥६॥
तावत्-तपो-बल-निरुच्छ्-वसिते |
तब (ध्रुव के) तप के बल से श्वासावरोध होने से |
दिगन्ते |
सभी दिशाओं में |
देव-अर्थित:-त्वम्- |
देवों के द्वारा प्रार्थना किये गये आप |
उदयत्-करुणा-आर्द्र-चेता: |
उदय होने से करुणा के पिघले हुए मन वाले |
त्वत्-रूप-चित्-रस-निलीन-मते: |
आपके स्वरूपभूत चिदानन्द रस में निमग्न मन वाले |
पुरस्तात्- |
के सामने |
आविर्बभूविथ |
प्रकट हो गये |
विभो |
हे प्रभू |
गरुड-अधिरूढ: |
गरुड पर सवार हो कर |
ध्रुव के तप के बल से सभी दिशांओं में श्वासावरोध हो गया। तब देवताओं ने आपसे प्रार्थना की। ध्रुव के तप और देवों की प्रार्थना से करुणा के उदित होने से आपका मन पिघल गया। आपके स्वरूपभूत चिदानन्द रस में निमग्न उस बालक ध्रुव के समक्ष फिर आप गरुड के ऊपर आरूढ हो कर प्रकट हुए।
त्वद्दर्शनप्रमदभारतरङ्गितं तं
दृग्भ्यां निमग्नमिव रूपरसायने ते ।
तुष्टूषमाणमवगम्य कपोलदेशे
संस्पृष्टवानसि दरेण तथाऽऽदरेण ॥७॥
त्वत्-दर्शन |
आपके दर्शन से |
प्रमद-भार-तरङ्गितं तं |
हर्षातिरेक से तरङ्गित वह |
दृग्भ्याम् निमग्नम्-इव |
नेत्रों से (आपकी छबि में) डूबे हुए के समान |
रूप-रसायने ते |
आपके रूपामृत में |
तुष्टूषमाणम्- |
स्तुति करने के इच्छुक उसको |
अवगम्य |
समझते हुए |
कपोल-देशे |
गाल पर |
संस्पृष्टवान्-असि |
छू दिया आपने |
दरेण |
शंख से |
तथा-आदरेण |
और प्यार से |
आपके दर्शन जनित हर्ष के अतिरेक से ध्रुव का तरङ्गित मन आपके स्वरूप के अमृत में डूब गया। वह स्तुति करने का इच्छुक है यह समझ कर आपने उसके गाल पर प्यार से अपना शंख छुआ दिया।
तावद्विबोधविमलं प्रणुवन्तमेन-
माभाषथास्त्वमवगम्य तदीयभावम् ।
राज्यं चिरं समनुभूय भजस्व भूय:
सर्वोत्तरं ध्रुव पदं विनिवृत्तिहीनम् ॥८॥
तावत्- |
तब तक |
विबोध-विमलं |
तत्व बोध से निर्मल हुए |
प्रणुवन्तम्-एनम्- |
स्तुति करते हुए उसको |
अभाषथा:-त्वम्- |
कहा आपने |
अवगम्य तदीय-भावम् |
जान कर उसके मनोभाव को |
राज्यं चिरं समनुभूय |
राज्य का अनन्त काल तक उपभोग कर के |
भजस्व भूय: |
पा जाओ फिर |
सर्वोत्तरं ध्रुव पदं |
सब से ऊपर (स्थित) ध्रुव पद को |
विनिवृत्ति-हीनं |
जो पुनरावृत्ति विहीन (स्थान) है |
तब तक तत्त्व बोध से विमल हुआ ध्रुव आपकी स्तुति करने लगा। उसके मनोभाव को जानते हुए आपने कहा - ' चिरकाल तक राज्य का उपभोग कर लेने के पश्चात तुम सब से ऊपर स्थित ध्रुव पद को प्राप्त करो, जो पुनरावृत्ति रहित लोक है।'
इत्यूचिषि त्वयि गते नृपनन्दनोऽसा-
वानन्दिताखिलजनो नगरीमुपेत: ।
रेमे चिरं भवदनुग्रहपूर्णकाम-
स्ताते गते च वनमादृतराज्यभार: ॥९॥
इति-ऊचिषि |
इस प्रकार कहे जाने पर |
त्वयि गते |
आपके चले जाने पर |
नृपनन्दन:-असौ- |
राजकुमार यह |
आनन्दित-अखिल-जन: |
आनन्द देता हुआ अखिल जनों को |
नगरीम्-उपेत: |
नगरी को पहुंचा |
रेमे चिरं |
उपभोग किया चिरकाल तक |
भवत्-अनुग्रह-पूर्ण-काम:- |
आपके अनुग्रह से पूर्ण काम हुआ वह |
ताते गते च वनम्- |
पिता के वन को चले जाने पर |
आदृत-राज्य-भार: |
सौंप दिया था (जिसने) राज्य भार |
सभी लोगों को आनन्दित करता हुआ यह राजकुमार ध्रुव नगर को लौट गया। उसके पिता उसके ऊपर राज्य भार सौंप कर वन को चले गये। आपकी कृपा से पूर्ण काम हुए ध्रुव ने चिरकाल तक राज्य का उपभोग किया।
यक्षेण देव निहते पुनरुत्तमेऽस्मिन्
यक्षै: स युद्धनिरतो विरतो मनूक्त्या ।
शान्त्या प्रसन्नहृदयाद्धनदादुपेता-
त्त्वद्भक्तिमेव सुदृढामवृणोन्महात्मा ॥१०॥
यक्षेण |
यक्ष के द्वारा |
देव |
हे ईश्वर! |
निहते पुन:- |
मार दिये जाने पर फिर |
उत्तमे-अस्मिन् |
उस उत्तम के |
यक्षै: स युद्ध-निरत: |
यक्ष के साथ वह युद्ध में लगा हुआ |
विरत: मनु-उक्त्या |
रुक जाने पर मनु के कहने से |
शान्त्या प्रसन्न-हृदयात्- |
(ध्रुव के) शान्त हृदय से प्रसन्न हो कर |
धनदात्-उपेतात् |
कुबेर के आगमन से |
त्वत्-भक्तिम्-एव सुदृढाम्- |
आपकी भक्ति ही सुदृढ |
अवृणोत्- |
वरण की |
महात्मा |
महात्मा (ध्रुव) ने |
यक्ष के द्वारा उत्तम के मारे जाने पर ध्रुव उस यक्ष के साथ युद्ध करने लगे किन्तु फिर मनु के कहने पर युद्ध को रोक भी दिया। ध्रुव के शान्त स्वभाव से प्रसन्न हो कर कुबेर उसके पास पहुंचे। महात्मा ध्रुव ने कुबेर से भी आपमें दृढ भक्ति का ही वरदान मांगा।
अन्ते भवत्पुरुषनीतविमानयातो
मात्रा समं ध्रुवपदे मुदितोऽयमास्ते ।
एवं स्वभृत्यजनपालनलोलधीस्त्वं
वातालयाधिप निरुन्धि ममामयौघान् ॥११॥
अन्ते |
अन्त में |
भवत्-पुरुष-नीत-विमान-यात: |
आपके पार्षदो के द्वारा लाये हुए विमान में जाते हुए |
मात्रा समं |
माता के संग |
ध्रुवपदे मुदित:-अयम्-आस्ते |
ध्रुव पद पर प्रसन्नता पूर्वक यह विराजमान हैं |
एवं |
और |
स्व-भृत्य-जन-पालन-लोल-धी:-त्वं |
अपने सेवकों के पालन में उद्यत मन वाले आप |
वातालयाधिप |
हे वातालयाधिप! |
निरुन्धि |
नष्ट करें |
मम-आमय-औघान् |
मेरे कष्ट समूहों का |
आपके पार्षदों के द्वारा लाये गये विमान पर ध्रुव अपनी माता के संग चले गये। वे ध्रुव पद पर प्रसन्नता पूर्वक विराजमान हैं। इस प्रकार अपने सेवको के पालन में उद्यत हे वातालयाधिप! मेरे कष्ट समूहों का नाश करें।
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