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दशक ११ 
क्रमेण सर्गे परिवर्धमाने 
कदापि दिव्या: सनकादयस्ते । 
भवद्विलोकाय विकुण्ठलोकं 
प्रपेदिरे मारुतमन्दिरेश ॥१॥ 
 
| क्रमेण सर्गे | 
क्रम से प्रजनन की | 
 
| परिवर्धमाने | 
वृद्धि होने पर | 
 
| कदापि | 
एक समय | 
 
| दिव्या: सनकादय: ते | 
दिव्य सनकादि वे लोग | 
 
| भवत्-विलोकाय  | 
आपके दर्शन के लिये | 
 
| विकुण्ठलोकं प्रपेदिरे | 
वैकुण्ठलोक पहुंचे | 
 
| मारुतमन्दिरेश | 
हे मारुतमन्दिरेश! | 
 
 
हे मारुतमन्दिरेश! क्रम से प्रजनन की वृद्धि होने पर, वे दिव्य सनकादि किसी समय आपके दर्शन के लिये वैकुण्ठ लोक पहुंचे।
 
मनोज्ञनैश्रेयसकाननाद्यै- 
रनेकवापीमणिमन्दिरैश्च । 
अनोपमं तं भवतो निकेतं 
मुनीश्वरा: प्रापुरतीतकक्ष्या: ॥२॥ 
 
| मनोज्ञ- | 
मनोहर | 
 
| नैश्रेयस-कानन-आद्यै: - | 
नैश्रेयस कानन आदि, | 
 
| अनेक-वापी | 
अनेक बावलियों | 
 
| मणिमन्दिरै: - च | 
(और) मणि (जडित) मन्दिरों और | 
 
| अनोपमं तं | 
अनुपम उस  | 
 
| भवत: निकेतं | 
आपके निवास को | 
 
| मुनीश्वरा: प्रापु: - | 
मुनीश्वर पहुंचे | 
 
| अतीत-कक्ष्या: | 
पार करके ( छ:) कक्षों को | 
 
 
नैश्रेयस कानन आदि काननो, अनेक बावलियों और मणि जडित मन्दिरों से मनोहर, छ: कक्षों को पार करके वे मुनिगण आपके उस अनुपम निवास स्थान को पहुंचे।
 
भवद्दिद्दृक्षून्भवनं विविक्षून् 
द्वा:स्थौ जयस्तान् विजयोऽप्यरुन्धाम् । 
तेषां च चित्ते पदमाप कोप: 
सर्वं भवत्प्रेरणयैव भूमन् ॥३॥ 
 
| भवत्-दिद्दृक्षून्- | 
आपके दर्शन के इच्छुक, | 
 
| भवनं विविक्षून् | 
(इसलिये) भवन में प्रवेश करने के इच्छुक, | 
 
| द्वा:स्थौ | 
द्वार पर स्थित | 
 
| जय: - तान् | 
जय (ने) उनको | 
 
| विजय: -अपि-अरुन्धाम् | 
विजय (ने) भी रोक लिया  | 
 
| तेषां च चित्ते | 
और उनके चित्त में | 
 
| पदम्-आप कोप: | 
पैर रक्खा क्रोध ने | 
 
| सर्वं भवत्-प्रेरणया-एव | 
सब कुछ आप की प्रेरणा से ही | 
 
| भूमन् | 
हे भूमन! | 
 
 
हे भूमन! वे सनकादि आपके दर्शन के इच्छुक थे इसीलिये आपके भवन में प्रवेश करना चाहते थे। किन्तु द्वार पर जय और विजय ने उन्हे रोक लिया। तब उनके मन में क्रोध उत्पन्न हो गया। यह सब आपकी ही प्रेरणा से हुआ।
 
वैकुण्ठलोकानुचितप्रचेष्टौ 
कष्टौ युवां दैत्यगतिं भजेतम् । 
इति प्रशप्तौ भवदाश्रयौ तौ 
हरिस्मृतिर्नोऽस्त्विति नेमतुस्तान् ॥४॥ 
 
| वैकुण्ठलोक-अनुचित-प्रचेष्टौ | 
वैकुण्ठ लोक के अनुचित व्यवहार (वाले) | 
 
| कष्टौ युवां | 
दुष्ट (तुम) दोनों | 
 
| दैत्य-गतिं भजेतम् | 
दैत्य की गति को प्राप्त होगे | 
 
| इति प्रशप्तौ | 
इस प्रकार शापित | 
 
| भवत्-आश्रयौ तौ | 
आपके आश्रित वे दोनों | 
 
| हरि: -स्मृति: -न: -अस्तु- | 
भगवत स्मृति हमको रहे | 
 
| इति नेमतु:-तान् | 
ऐसी प्रार्थना की उनको | 
 
 
सनकादि ने उनको कहा कि उनका व्यवहार वैकुण्ठ लोक के अनुचित था। अतएव उन्होने शाप दिया कि वे दोनों दुष्ट दैत्य की गति को प्राप्त करें। आपके आश्रित उन दोनों ने प्रार्थना की कि उन्हे सदा भगवत स्मृति बनी रहे।
 
तदेतदाज्ञाय भवानवाप्त: 
सहैव लक्ष्म्या बहिरम्बुजाक्ष । 
खगेश्वरांसार्पितचारुबाहु- 
रानन्दयंस्तानभिराममूर्त्या ॥५॥ 
 
| तत्-एतत्-आज्ञाय | 
वह यह जान कर | 
 
| भवान्-अवाप्त: | 
आप पहुंचे | 
 
| सह-एव लक्ष्म्या | 
साथ ही लक्ष्मी के | 
 
| बहि: -अम्बुजाक्ष | 
बाहर, हे कमलनयन! | 
 
| खगेश्वर-अंस- | 
गरुड के कन्धे पर | 
 
| अर्पित-चारु-बाहु: - | 
रखे हुये सुन्दर भुजा | 
 
| आनन्दयन्-तान्- | 
आनन्द देते हुए उनको (सनकादि को) | 
 
| अभिराम-मूर्त्या | 
(अपनी) सुन्दर छबि के द्वारा | 
 
 
यह सब जान कर आप लक्ष्मी के साथ बाहर पहुंचे। हे कमलनयन! आपने गरुड के कन्धे पर अपनी सुन्दर भुजा रखी हुई थी। अपनी मनोहर छबि दिखा कर आपने सनकादि को  बहुत आनन्दित किया।
 
प्रसाद्य गीर्भि: स्तुवतो मुनीन्द्रा- 
ननन्यनाथावथ पार्षदौ तौ । 
संरम्भयोगेन भवैस्त्रिभिर्मा- 
मुपेतमित्यात्तकृपं न्यगादी: ॥६॥ 
 
| प्रसाद्य गीर्भि: | 
प्रसन्न करके (अपनी) वाणी द्वारा | 
 
| स्तुवत: मुनीन्द्रान्- | 
स्तुति करते हुए मुनीन्द्रों को | 
 
| अनन्य-नाथौ- | 
अन्य नहीं थे नाथ जिनके (उन दोनों) | 
 
| अथ पार्षदौ तौ | 
तब उन दोनों पार्षदों (सेवकों) को | 
 
| संरम्भयोगेन भवै:-त्रिभि:- | 
क्रोध से कठोर होने के कारण जन्म तीन के द्वारा (के बाद) | 
 
| माम्-उपेतम्- | 
मुझको प्राप्त होगे | 
 
| इति-आत्त-कृपम् | 
इस प्रकार कृपा परिपूर्ण (आप) ने  | 
 
| न्यगादी: | 
कहा | 
 
 
उन स्तुति करते हुए मुनीन्द्रों को आपने अपनी वाणी के द्वारा प्रसन्न किया। उन दोनों सेवकों को, जिनके और कोई आश्रय नहीं थे, कृपा से पूर्ण होकर आपने कहा कि उन्हे तीन जन्मों तक क्रोध से कठोर उस श्राप को सहना होगा, तत्पश्चात वे लोग आपको प्राप्त कर लेंगे।
 
त्वदीयभृत्यावथ काश्यपात्तौ 
सुरारिवीरावुदितौ दितौ द्वौ । 
सन्ध्यासमुत्पादनकष्टचेष्टौ 
यमौ च लोकस्य यमाविवान्यौ ॥७॥ 
 
| त्वदीय-भृत्यौ- | 
आपके ही सेवक (वे दोनों) | 
 
| अथ काश्यपात्-तौ | 
फिर कश्यप से, वे दोनों | 
 
| सुरारि-वीरौ- | 
असुर वीर | 
 
| उदितौ दितौ द्वौ | 
पैदा हुए दिति (के गर्भ) से दोनों | 
 
| सन्ध्या-समुत्पादन- | 
सन्ध्या काल में (गर्भ में) आने के कारण | 
 
| कष्ट-चेष्टौ | 
(वे) क्रूर कर्मों वाले थे | 
 
| यमौ च | 
वे दोनों जुडवां | 
 
| लोकस्य यमौ-इव-अन्यौ | 
लोक के लिये दूसरे यम (काल) के समान थे | 
 
 
तदनन्तर आपके उन दोनों सेवकों ने कश्यप और दिति के दो असुर वीर पुत्रों के रूप में जन्म लिया। सन्ध्या के समय गर्भ में आने के कारण वे अति क्रूर स्वभाव के थे। वे दोनों जुडवां भाई लोकों के लिये मानों दूसरे यम-काल ही थे।
 
हिरण्यपूर्व: कशिपु: किलैक: 
परो हिरण्याक्ष इति प्रतीत: । 
उभौ भवन्नाथमशेषलोकं 
रुषा न्यरुन्धां निजवासनान्धौ ॥८॥ 
 
| हिरण्य-पूर्व: कशिपु: किल-एक: | 
हिरण्य पहले कशिपु के, निश्चय ही एक  | 
 
| पर: हिरण्याक्ष इति प्रतीत: | 
दूसरा हिरण्याक्ष इस प्रकार जाना जाता था | 
 
| उभौ | 
दोनों | 
 
| भवत्-नाथम्-अशेष-लोकं | 
आपही नाथ हैं समस्त लोकों के | 
 
| रुषा  | 
(उन लोकों को) क्रोध में | 
 
| न्यरुन्धां | 
पीडित करते थे | 
 
| निज-वासना-अन्धौ | 
स्वयं की वासनाओं से अन्धे हो कर | 
 
 
एक का नाम हिरण्यकशिपु था और दूसरा हिरण्याक्ष के नाम से प्रसिद्ध हुआ। इस सम्पूर्ण लोक को जिसके आप ही स्वामी हैं, वे दोनों अपनी वासनाओं से अन्धे हो कर पीडित करते रहते थे।
 
तयोर्हिरण्याक्षमहासुरेन्द्रो 
रणाय धावन्ननवाप्तवैरी । 
भवत्प्रियां क्ष्मां सलिले निमज्य 
चचार गर्वाद्विनदन् गदावान् ॥९॥ 
 
| तयो: - | 
उन में से | 
 
| हिरण्याक्ष-महासुरेन्द्र: | 
हिरण्याक्ष्य महा असुर | 
 
| रणाय धावन्- | 
युद्ध के लिये ललकारता हुआ | 
 
| अनवाप्त-वैरी | 
न पा कर किसी वैरी को | 
 
| भवत्-प्रियां क्ष्मां | 
आपकी प्रिया पृथ्वी को | 
 
| सलिले निमज्य | 
जल में डुबो कर | 
 
| चचार गर्वात्-विनदन् | 
घूमता फिरा गर्व से दहाडता हुआ | 
 
| गदावान् | 
गदा लेकर | 
 
 
उनमें से महा असुर हिरण्याक्ष युद्ध के लिये लालायित होकर ललकारता हुआ घूमता फिरा। कोई योग्य शत्रु को न पा कर उसने आपकी प्रिया पृथ्वी को जल में डुबो दिया, और गदा ले कर गर्व से दहाडता हुआ घूमने लगा।
 
ततो जलेशात् सदृशं भवन्तं 
निशम्य बभ्राम गवेषयंस्त्वाम् । 
भक्तैकदृश्य: स कृपानिधे त्वं 
निरुन्धि रोगान् मरुदालयेश ॥१०। 
 
| तत: | 
तब | 
 
| जलेशात् | 
वरुण (समुद्र) के भीतर से | 
 
| सदृशं भवन्तं | 
समान आपको (जान कर) | 
 
| निशम्य | 
सुन कर | 
 
| बभ्राम | 
घूमने लगा | 
 
| गवेषयन् त्वाम् | 
खोजते हुए आपको | 
 
| भक्तैक-दृश्य: | 
भक्तों को ही दिखने वाले | 
 
| स कृपानिधे त्वं | 
वह कृपानिधि आप | 
 
| निरुन्धि रोगान् | 
विनाश करिये रोगों का | 
 
| मरुदालयेश | 
हे मरुदालयेश | 
 
 
तब जलों के देवता वरुण से यह जान कर कि आप ही उसके सदृश हैं, वह रुक गया, और आपको खोजता हुआ घूमने लगा। केवल भक्तों को दृश्यमान,  हे करुणानिधि, हे मरुदालयेश! ऐसे आप मेरे रोगों का विनाश करें।
 
 
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