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दशक १२
स्वायम्भुवो मनुरथो जनसर्गशीलो
दृष्ट्वा महीमसमये सलिले निमग्नाम् ।
स्रष्टारमाप शरणं भवदङ्घ्रिसेवा-
तुष्टाशयं मुनिजनै: सह सत्यलोके ॥१॥
| स्वायम्भुव: मनु: |
स्वयम्भुव मनु |
| अथ: जनसर्गशील: |
तब प्रजा उत्पादन में संलग्न थे |
| दृष्ट्वा महीम्- |
(उन्होने) देख कर पृथ्वी को |
| असमये सलिले निमग्नाम् |
असमय में जल में डूबे हुए |
| स्रष्टारम्-आप शरणं |
ब्रह्मा के पास पहुंचे (उनकी) शरण में |
| भवत्-अङ्घ्रि-सेवा |
आपके चरण कमलों की सेवा से |
| तुष्ट-आशयं |
(वे) संतुष्ट मन वाले (थे) |
| मुनिजनै: सह |
मुनिजनों के साथ |
| सत्यलोके |
सत्यलोक में |
स्वयंभुव मनु ने जो प्रजा प्रजनन में व्यस्त थे, देखा कि पृथ्वी असमय में जल में निमग्न है। वे अन्य मुनिजनों के साथ ब्रह्माकी शरण में सत्यलोक पहुंचे। उस समय ब्रह्मा का मन आपके चरण कमलों की सेवा करने से सन्तुष्ट था।
कष्टं प्रजा: सृजति मय्यवनिर्निमग्ना
स्थानं सरोजभव कल्पय तत् प्रजानाम् ।
इत्येवमेष कथितो मनुना स्वयंभू-
रम्भोरुहाक्ष तव पादयुगं व्यचिन्तीत् ॥ २ ॥
| कष्टं |
कष्ट (की बात) है |
| प्रजा: सृजति मयि- |
प्रजा का सृजन करते हुए मैने |
| अवनि: -निमग्ना |
पृथ्वी को निमग्न (देखा) |
| स्थानं |
स्थान |
| सरोजभव |
हे ब्रह्मा |
| कल्पय तत्-प्रजानाम् |
रचिये तब प्रजा के लिये |
| इति-एवम्-एष |
इस प्रकार यह |
| कथित: मनुना स्वयंभू: - |
कहा जाने पर मनु के द्वारा ब्रह्मा |
| अम्भोरुहाक्ष |
हे कमलनयन! |
| तव पादयुगं |
आपके चरण युगलों (का) |
| व्यचिन्तीत् |
ध्यान करने लगे |
स्वायम्भुव मनु ने कहा कि " कष्ट की बात है कि जब मै प्रजा का सृजन कर रहा था, मैने पृथ्वी को जल मग्न देखा। अतएव हे ब्रह्मा! आप प्रजा के लिये स्थान की रचना कीजिये।' हे कमलनयन! मनु के ऐसा कहने पर ब्रह्मा आपके चरण युगल का ध्यान करने लगे।
हा हा विभो जलमहं न्यपिबं पुरस्ता-
दद्यापि मज्जति मही किमहं करोमि ।
इत्थं त्वदङ्घ्रियुगलं शरणं यतोऽस्य
नासापुटात् समभव: शिशुकोलरूपी ।३॥
| हा हा विभो |
हाय हाय भगवन |
| जलम्-अहं न्यपिबं |
जल को मैने पीया था |
| पुरस्तात्- |
पहले भी |
| अद्य-अपि मज्जति मही |
आज भी डूबी जाती है पृथ्वी |
| किम्-अहं करोमि |
क्या मैं करुं |
| इत्थं |
इस प्रकार |
| त्वत्-अङ्घ्रि-युगलं |
आपके चरण द्वयके |
| शरणं यत: - |
शरण हुए |
| अस्य नासापुटात् |
इसके (ब्रह्मा के) नासापुट से |
| समभव: |
प्रकट हुए (आप) |
| शिशु-कोल-रूपी |
वराह शिशु के रूप में |
'हे भगवन! आश्चर्य और दुख की बात है कि मैने पहले भी समस्त जल पी लिया था फिर भी धरा जल मग्न ही है। मैं क्या करूं।' तब आपके चरण द्वय की शरण गये हुए ब्रह्मा के नासापुट से आप वराह शिशु के रूप में प्रकट हुए।
अङ्गुष्ठमात्रवपुरुत्पतित: पुरस्तात्
भोयोऽथ कुम्भिसदृश: समजृम्भथास्त्वम् ।
अभ्रे तथाविधमुदीक्ष्य भवन्तमुच्चै -
र्विस्मेरतां विधिरगात् सह सूनुभि: स्वै: ॥४॥
| अङ्गुष्ठ-मात्र-वपु:- |
अङ्गुष्ठ मात्र शरीर |
| उत्पतित: |
(से) उत्पन्न हुए |
| पुरस्तात् |
पहले |
| भूय: -अथ |
फिर तब |
| कुम्भि-सदृश: |
हाथी के समान |
| समजृम्भथा: - त्वम् |
बढ गये आप |
| अभ्रे |
आकाश में |
| तथा-विधम्-उदीक्ष्य |
उस प्रकार का देख कर |
| भवन्तम्-उच्चै: |
आपको, अत्यन्त |
| विस्मेरतां विधि: -अगात् |
विस्मित हुए ब्रह्मा |
| सह सूनुभि: स्वै: |
साथ ही पुत्रों के अपने |
पहले आप अङ्गुष्ठ मात्र परिमाण में उत्पन्न हुए, फिर हाथी के समान बढ गये। आपको इस प्रकार देख कर आकाश में स्थित ब्रह्मा अपने पुत्रों (मरीचि आदि) के सङ्ग अत्यन्त विस्मित हो गये।
कोऽसावचिन्त्यमहिमा किटिरुत्थितो मे
नासापुटात् किमु भवेदजितस्य माया ।
इत्थं विचिन्तयति धातरि शैलमात्र:
सद्यो भवन् किल जगर्जिथ घोरघोरम् ॥५॥
| क: -असौ- |
कौन यह |
| अचिन्त्य-महिमा |
अवर्णनीय महिमा (वाला) |
| किटि: -उत्थित:- |
सूकर निकल आया है |
| मे नासापुटात् |
मेरे नासिका पुट से |
| किमु भवेत्- |
क्या ऐसा है |
| अजितस्य माया |
(कि यह है) भगवान की माया |
| इत्थं विचिन्तयति |
इस प्रकार सोचते हुए |
| धातरि |
ब्रह्मा के |
| शैलमात्र: |
पर्वत के समान |
| सद्य: भवन् |
तुरन्त हो गये |
| किल जगर्जिथ |
और निश्चय ही गर्जन करने लगे |
| घोरघोरं |
घोर और भयंकर |
ब्रह्मा आश्चर्य चकित हो कर विचार करने लगे कि वह अवर्णनीय महिमा वाला सूकर कौन था जो उनके नासिका पुट से निकल आया था, और क्या यह भगवान की माया थी। उसी समय तुरन्त आप पर्वताकार हो कर भयंकर गर्जना करने लगे।
तं ते निनादमुपकर्ण्य जनस्तप:स्था:
सत्यस्थिताश्च मुनयो नुनुवुर्भवन्तम् ।
तत्स्तोत्रहर्षुलमना: परिणद्य भूय-
स्तोयाशयं विपुलमूर्तिरवातरस्त्वम् ॥६॥
| तं ते निनादम्- |
उस आपके गर्जन |
| उपकर्ण्य |
को सुन कर |
| जन:-तप:-स्था: |
जन (लोक) तप: (लोक) में स्थित |
| सत्य-स्थिता: -च |
और सत्य लोक में स्थित |
| मुनय: |
मुनिजन |
| नुनुवु: -भवन्तम् |
स्तवन करने लगे आपका |
| तत्-स्तोत्र-हर्षुल-मना: |
उस स्तवन से हर्षित हुए मन वाले (आप) |
| परिणद्य भूय: |
गर्जन करके फिर से |
| तोयाशयं |
(उस प्रलय) जलाब्धि में |
| विपुल-मूर्ति: - |
विशाल मूर्ति रूप |
| अवातर: -त्वम् |
उतर गये आप |
आपके उस भयंकर गर्जन को सुन कर जनलोक, तप:लोक एवं सत्य लोक में स्थित मुनिजन आपका स्तवन करने लगे। स्तवन से प्रसन्न हो कर आप फिर भीषण गर्जना करते हुए विशाल रूप हो कर प्रलय जलाब्धि में उतर गये।
ऊर्ध्वप्रसारिपरिधूम्रविधूतरोमा
प्रोत्क्षिप्तवालधिरवाङ्मुखघोरघोण: ।
तूर्णप्रदीर्णजलद: परिघूर्णदक्ष्णा
स्तोतृन् मुनीन् शिशिरयन्नवतेरिथ त्वम् ॥७॥
| ऊर्ध्व-प्रसारि- |
ऊपर को उठे हुए |
| परिधूम्र-विधूत-रोमा |
काले और लोहित (रंग वाले) रोम |
| प्रोत्क्षिप्त-वालधि: |
ऊंची उठी हुई पूंछ |
| अवाङ्-मुख-घोर-घोण: |
नीचे की ओर (झुके हुए) भयंकर नथुने |
| तूर्ण-प्रदीर्ण-जलद: |
अनायास तोड देने वाले बादलों को |
| परिघूर्णत्-अक्ष्णा |
(चारों ओर) घूमते हुए नेत्रों से |
| स्तोतृन् मुनीन् |
स्तुति करते हुए मुनियों को |
| शिशिरयन्- |
रोमाञ्चित करते हुए |
| अवतेरिथ त्वम् |
कूद गये आप |
उस समय आपका स्वरूप इस प्रकार था - काले और लोहित रोम ऊपर की ओर उठे हुए थे, और पूंछ भी ऊपर की ओर उठी हुई थी, भयंकर नथुने नीचे की ओर झुके हुए थे और अनायास ही बादलों को छिन्न भिन्न कर देने वाले नेत्र चारो ओर घूम रहे थे। आपके इस स्वरूप को देख कर स्तुति करते हुए मुनिजन को रोमञ्चित करते हुए आप कूद पडे।
अन्तर्जलं तदनुसंकुलनक्रचक्रं
भ्राम्यत्तिमिङ्गिलकुलं कलुषोर्मिमालम् ।
आविश्य भीषणरवेण रसातलस्था -
नाकम्पयन् वसुमतीमगवेषयस्त्वम् ॥८॥
| अन्तर्जलं |
अन्त:स्थ जल के |
| तदनु- |
तब फिर |
| संकुल-नक्र-चक्रं |
व्याप्त ग्राह समूहों से |
| भ्राम्यत्-तिमिङ्गिल-कुलं |
घूमते हुए तिमिङ्गल मत्स्य कुलों के |
| कलुष-उर्मि-मालम् |
धूमिल तरंगों सहित |
| आविश्य |
में प्रवेश कर के |
| भीषण-रवेण |
भयंकर शब्द के द्वारा |
| रसातलस्थान्- |
रसातल में स्थित (जीवों) को |
| आकम्पयन् |
कम्पायमान करते हुए |
| वसुमतीम्- |
पृथ्वी को |
| अगवेषय: - |
खोजा |
| त्वम् |
आपने |
तब फिर उस जल में जिसके भीतर ग्राह के समूह स्थित थे और तिमिङ्गल मत्स्य के कुल इधर उधर घूम रहे थे, आप भयंकर शब्द करते हुए प्रवेश कर गये। इससे वह जल धूमिल हो गया, और आप रसातल में स्थित जन्तुओं को कम्पायमान करते हुए पृथ्वी को खोजने लगे।
दृष्ट्वाऽथ दैत्यहतकेन रसातलान्ते
संवेशितां झटिति कूटकिटिर्विभो त्वम् ।
आपातुकानविगणय्य सुरारिखेटान्
दंष्ट्राङ्कुरेण वसुधामदधा: सलीलम् ॥९॥
| दृष्ट्वा-अथ |
देख कर तब |
| दैत्य-हतकेन |
असुर दुष्ट के द्वारा |
| रसातल-अन्ते |
रसातल के अन्त में |
| संवेशितां |
छुपाई हुई |
| झटिति |
शीघ्र ही |
| कूट-किटि: - |
मायावी सूकर |
| विभो त्वम् |
हे भगवन! आप |
| आपातुकान्- |
आक्रमक (असुर) को |
| अविगण्य्य |
अवहेलना करते ह्ये |
| सुरारि-खेटान् |
असुर नीचों को |
| दंष्ट्र-अङ्कुरेण |
दांत की चोंच के द्वारा |
| वसुधाम्-अदधा: |
पृथ्वी को उठा लिया |
| सलीलम् |
लीलापूर्वक |
तब आपने देखा कि दुष्ट असुरों के द्वारा पृथ्वी रसातल के अन्त में छुपाई हुई है। हे भगवन! मायावी सूकर स्वरूप आपने शीघ्र ही आक्रमक नीच असुरों की अवहेलना करते हुए, पृथ्वी को दांत की नोक पर उठा लिया।
अभ्युद्धरन्नथ धरां दशनाग्रलग्न
मुस्ताङ्कुराङ्कित इवाधिकपीवरात्मा ।
उद्धूतघोरसलिलाज्जलधेरुदञ्चन्
क्रीडावराहवपुरीश्वर पाहि रोगात् ॥१०॥
| अभ्युद्धरन्-अथ |
उद्धार करते हुए तब |
| धरां |
पृथ्वी का |
| दशन-अग्र-लग्नं |
दांत के सामने के भाग में लगे हुए |
| मुस्त-अङ्कुर-अङ्कित इव |
मुस्त (नामक दूर्वा) के अङ्कुर से अङ्कित के समान |
| अधिक-पीवर-आत्मा |
और भी ज्यादा स्थूल शरीर वाले |
| उद्धूत-घोर-सलिलात्-जलधे:- |
भीतर से (उन) घोर (प्रलय) जलों के समुद्र से |
| उदञ्चन् |
निकलते हुए |
| क्रीडा-वराह-वपु: -ईश्वर |
लीला सूकर शरीर हे ईश्वर! |
| पाहि रोगात् |
रक्षा कीजिये रोगों से |
हे ईश्वर! आप फिर उस समुद्र के घोर जलों से पृथ्वी का उद्धार करते हुए बाहर निकले। पृथ्वी आपके दंष्टाग्र पर वैसे ही शोभायमान हो रही थी जैसे सामान्य सूकर के दंष्टाग्र पर मुस्त नामक दूर्वा शोभायमान होती है। हे लीला सूकर शरीर धारी ईश्वर! रोगों से मेरी रक्षा करें।
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