Shriman Narayaneeyam

दशक 86 | प्रारंभ | दशक 88

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दशक ८७

कुचेलनामा भवत: सतीर्थ्यतां गत: स सान्दीपनिमन्दिरे द्विज: ।
त्वदेकरागेण धनादिनिस्स्पृहो दिनानि निन्ये प्रशमी गृहाश्रमी ॥१॥

कुचेल-नामा कुचेल (सुदामा) नामक
भवत: सतीर्थ्यतां आपका सहपाठी
गत: स जा कर वह
सान्दीपनि-मन्दिरे सान्दीपनि के आश्रम में
द्विज: (वह) ब्राह्मण
त्वत्-एक-रागेण आपमें ही एकमात्र अनुरागी (होने के कारण)
धन-आदि-निस्स्पृह: धन आदि (लालसाओं) के अनिच्छुक
दिनानि निन्ये दिनों को व्यतीत करते थे
प्रशमी गृहाश्रमी जितेन्द्रिय हो कर गृहस्थ (पालन करते थे)

सान्दीपनि मुनि के आश्रम में कुचेल नामक आपके सहपाठी ब्राह्मण एकमात्र आप ही में अनुराग रखते थे। इसी कारण वे धन आदि लालसाओं से निस्स्पृह थे। वे जितेन्द्रिय थे और गृहस्थ आश्रम का निर्वाह करते हुए दिन व्यतीत करते थे।

समानशीलाऽपि तदीयवल्लभा तथैव नो चित्तजयं समेयुषी ।
कदाचिदूचे बत वृत्तिलब्धये रमापति: किं न सखा निषेव्यते ॥२॥

समान-शीला-अपि (उनके) समान ही शील (स्वभाव) होने पर भी
तदीय-वल्लभा उनकी पत्नी
तथा-एव नो उस प्रकार का नहीं
चित्त-जयं समेयुषी चित्त पर अधिकार पा सकी
कदाचित्-ऊचे बत एक समय बोली अहो!
वृत्ति-लब्धये जीविका प्राप्ति के लिए
रमापति: लक्ष्मीपति
किं न सखा क्यों नही (अपने) सखा की
निषेव्यते सेवा में जाते

उनकी पत्नी उनके समान ही शील स्वभाव की थी परन्तु अपने चित्त पर वैसा अधिकार नहीं पा सकी थीं। एक समय अपने पति को बोली, 'जीविका अर्जन के लिए आप अपने सखा लक्ष्मीपति की सेवा में क्यों नहीं जाते।'

इतीरितोऽयं प्रियया क्षुधार्तया जुगुप्समानोऽपि धने मदावहे ।
तदा त्वदालोकनकौतुकाद्ययौ वहन् पटान्ते पृथुकानुपायनम् ॥३॥

इति-ईरित:-अयं इस प्रकार कहे जाने पर यह
प्रियया क्षुधार्तया प्रिया के द्वारा क्षुधा पीडिता
जुगुप्समान:-अपि तिरस्कार करते हुए भी
धने मद-आवहे धन का उन्मत्त बना देने के कारण
तदा त्वत्-आलोकन- उस समय आपको देखने की
कौतुकात्-ययौ उत्सुकता से चले गए
वहन् पट-अन्ते ले कर कपडे के कोने में
पृथुकान्-उपायनम् चिडवा भेंट स्वरूप

इस प्रकार क्षुधा पीडिता पत्नी के कहने पर, धन की भर्त्सना करते हुए भी, कि वह उन्मत्त बना देता है, कुचेल मात्र आपके दर्शन की उत्कट इच्छासे प्रेरित हो कर द्वारका गए। भेंट स्वरूप वे अपने वस्त्र के कोने में चिडवा लेते गए।

गतोऽयमाश्चर्यमयीं भवत्पुरीं गृहेषु शैब्याभवनं समेयिवान् ।
प्रविश्य वैकुण्ठमिवाप निर्वृतिं तवातिसम्भावनया तु किं पुन: ॥४॥

गत:-अयम्- जा कर वे
आश्चर्यमयीम् अद्भुत
भवत्-पुरीम् अपकी पुरी को
गृहेषु शैब्या-भवन अनेक घरों में से, मित्रवृन्दा के घर में
समेयिवान् प्रवेश कर गए
प्रविश्य प्रवेश करने पर
वैकुण्ठम्-इव- वैकुण्ठ के समान
आप निवृतिं प्राप्त किया परमानन्द
तव-अति-सम्भावनया आपके अत्यधिक आदर सत्कार से
तु किम् पुन: तो (और) कितना अधिक

अद्भुत आश्चर्य चकित कर देने वाली द्वारका पुरी पहुंच कर, वहां के अनेक घरों में से वे मित्रवृन्दा के घर में प्रवेश कर गए। वहां प्रवेश करने पर उन्हें वैकुण्ठ के समान ही पमानन्द प्राप्त हुआ। पुन: आपके अत्यधिक आदर सत्कार से तो और कितना अवर्णनीय आनन्द प्राप्त हुआ होगा!!

प्रपूजितं तं प्रियया च वीजितं करे गृहीत्वाऽकथय: पुराकृतम् ।
यदिन्धनार्थं गुरुदारचोदितैरपर्तुवर्षं तदमर्षि कानने ॥५॥

प्रपूजितं तं सुसत्कृत उनको
प्रियया च वीजितं और प्रिया (रुक्मिणी) के पंखा झलने पर
करे गृहीत्वा- हाथ (अपने हाथ) में लेकर
अकथय: कहा (आपने)
पुराकृतम् पहले की हुई (घटना)
यत्-इन्धन-अर्थम् जैसे इन्धन के लिए
गुरु-दार-चोदितै:- गुरू पत्नी के द्वारा भेजे गए
अपर्तु-वर्षम् ऋतु के विपरीत वर्षा
तत्-अमर्षि कानने वह हुई थी वन में

उनका सुस्त्कार कर के, आपकी प्रिया पत्नी रुक्मिणी पंखा झलने लगीं। तब आपने उनका हाथ अपने हाथ में ले कर पुरानी घटनाओं का स्मरण कराया, जैसे एक बार जब गुरु पत्नि के आदेश से आप दोनों जंगल में इन्धन लाने गए थे तब वहां वन में, ऋतु के विपरीत वर्षा होने लगी थी।

त्रपाजुषोऽस्मात् पृथुकं बलादथ प्रगृह्य मुष्टौ सकृदाशिते त्वया ।
कृतं कृतं नन्वियतेति संभ्रमाद्रमा किलोपेत्य करं रुरोध ते ॥६॥

त्रपाजुष:-अस्मात् लज्जित होते हुए उनसे
पृथुकम् बलात्-अथ चिडवे बलपूर्वक तब
प्रगृह्य छीन कर
मुष्टौ सकृत्- मुट्ठी एक
आशिते त्वया खा लेने पर आपके
कृतं कृतं बस बस
ननु-इयत-इति इतना ही पर्याप्त है इस प्रकार
संभ्रमात्-रमा ससम्भृत रुक्मिणी ने
किल-उपेत्य निस्सन्देह निकट आ कर
करं रुरोध ते हाथ रोक दिया आपका

इस प्रकार के अप्रत्याशित सत्कार से संकुचित सुदामा से आपने बलपूर्वक चिडवे छीन लिए। आपके एक मुट्ठी चिडवा खालेने पर ही, 'बस बस इतना पर्याप्त है' कहते हुए ससम्भृत रुक्मिणी ने निकट आ कर आपका हाथ रोक लिया।

भक्तेषु भक्तेन स मानितस्त्वया पुरीं वसन्नेकनिशां महासुखम् ।
बतापरेद्युर्द्रविणं विना ययौ विचित्ररूपस्तव खल्वनुग्रह: ॥७॥

भक्तेषु भक्तेन भक्तों में भक्त
स मानित:- वह सम्मानित हुए
त्वया पुरीं वसन्- आपके द्वारा, पुरी में रह कर
एक निशाम् एक रात्रि के लिए
महा-सुखम् अत्यन्त सुख से
बत-अपरेद्यु:- अहो! दूसरे दिन
द्रविणं विना ययौ धन के बिना चले गए
विचित्र-रूप:-तव अद्भुत रूपों की है
खलु-अनुग्रह: आपकी कृपा

भक्तों में श्रेष्ठ भक्त रूप में आपके द्वारा सुसम्मानित हो कर एक रात्रि के लिए आपके मित्र द्वारका में अत्यन्त सुख से रहे। दूसरे दिन अहो! बिना धन के ही वे चले गए। अपकी कृपा भी कितने अद्भुत रूपों वाली होती है!

यदि ह्ययाचिष्यमदास्यदच्युतो वदामि भार्यां किमिति व्रजन्नसौ ।
त्वदुक्तिलीलास्मितमग्नधी: पुन: क्रमादपश्यन्मणिदीप्रमालयम् ॥८॥

यदि हि-अयाचिष्यम्- यदि ही याचना करता (मैं)
अदास्यत्-अच्युत: दे देते अच्युत (कृष्ण)
वदामि भार्यां किम्-इति कहूंगा क्या पत्नी को इस प्रकार
व्रजन्-असौ चलते हुए यह
त्वत्-उक्ति-लीला-स्मित- आपकी बातें, (आपकी) लीला, (आपकी) मुस्कान में
मग्न-धी: पुन: निमग्न हो जाता (था) उनका मन, फिर
क्रमात्-अपश्यत्- क्रमश: देखा
मणि-दीप्रम्-आलयम् मणियों से देदीप्यमान भवन

यदि, याचना करता तो अवश्य ही अच्युत कृष्ण मुझे धन दे देते। अब पत्नी को क्या कहूंगा।' इस प्रकार सोचते हुए, आपकी ही बातों में, आप ही की लीलाओं में, आप ही की मुस्कान में मग्न चित्त वे मार्ग में चले जाते थे। क्रमश: उन्होने देखा - मणियों से देदीप्यमान एक भवन।

किं मार्गविभ्रंश इति भ्रंमन् क्षणं गृहं प्रविष्ट: स ददर्श वल्लभाम् ।
सखीपरीतां मणिहेमभूषितां बुबोध च त्वत्करुणां महाद्भुताम् ॥९॥

किं मार्ग-विभ्रंश क्या मार्ग भूल गया
इति भ्रंमन् क्षणं इस प्रकार भ्रमित हो कर क्षण भर के लिए
गृहं प्रविष्ट: घर में प्रवेश कर के
स ददर्श वल्लभाम् उन्होंने देखा पत्नी को
सखी-परीतां सखियों से घिरी हुई
मणि-हेम-भूषितां मणियों और सोने के आभूषणों से भूषित
बुबोध च और समझ गए
त्वत्-करुणां आपकी करुणा को
महा-अद्भुताम् (जो) अत्यन्त ही विचित्र है

उस भवन को देख कर क्षण भर के लिए सुदामा को भ्रम हुआ कि कहीं वे मार्ग तो नहीं भूल गए। फिर घर में प्रवेश कर के उन्होने अपनी पत्नी को देखा जो सोने और मणियों के आभूषणों से भूषित थी और सखियां उन्हें घेरे हुए थीं। तब सुदामा को आपकी अत्यन्त विचित्र करुणा का ज्ञान हुआ।

स रत्नशालासु वसन्नपि स्वयं समुन्नमद्भक्तिभरोऽमृतं ययौ ।
त्वमेवमापूरितभक्तवाञ्छितो मरुत्पुराधीश हरस्व मे गदान् ॥१०॥

स रत्न-शालासु वह मणिमय भवन में
वसन्-अपि स्वयं निवास करते हुए भी स्वयं
समुन्नमद्-भक्ति-भर:- (उनकी) विकसित होती गई भक्ति की प्रगाढता
अमृतं ययौ (और) वे मोक्ष को प्राप्त हुए
त्वम्-एवम्-आपूरित- आप ने इस प्रकार पूर्ण किया
भक्त-वाञ्छित: भक्त का मनोरथ
मरुत्पुराधीश हे मरुत्पुराधीश!
हरस्व मे गदान् हर लीजिए मेरे रोगों को

उस मणिमय भवन में निवास करते हुए भी स्वयं सुदामा की भक्ति की प्रगाढता क्रमश: विकसित होती गई, और वे मोक्ष को प्राप्त हुए। इस प्रकार अपने भक्तों के मनोरथों को परिपूर्ण करने वाले, हे मरुत्पुराधीश! आप मेरे रोगों को हर लीजिए।

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