दशक ८६
साल्वो भैष्मीविवाहे यदुबलविजितश्चन्द्रचूडाद्विमानं
विन्दन् सौभं स मायी त्वयि वसति कुरुंस्त्वत्पुरीमभ्यभाङ्क्षीत् ।
प्रद्युम्नस्तं निरुन्धन्निखिलयदुभटैर्न्यग्रहीदुग्रवीर्यं
तस्यामात्यं द्युमन्तं व्यजनि च समर: सप्तविंशत्यहान्त: ॥१॥
साल्व: भैष्मी-विवाहे |
साल्व ने (जिसको) रुक्मिणी के विवाह में |
यदु-बल-विजित:- |
यदु सेना ने पराजित किया था |
चन्द्रचूडात्-विमानं |
शंकर से विमान (मांगने पर) |
विन्दन् सौभं |
प्राप्त किया सौभ (नामक विमान को) |
स मायी त्वयि |
उस मायावी ने, आपके |
वसति कुरून्- |
रहते हुए कौरवों के शहर (इन्द्रप्रस्थ) में |
त्वत्-पुरीम्-अभ्यभाङ्क्षीत् |
आपके नगर (द्वारका) पर आक्रमण किया |
प्रद्युम्न:-तं |
प्रद्युम्न ने उसका |
निरुन्धन्- |
सामना किया |
निखिल-यदु-भटै:- |
समस्त यदु सेना के साथ |
न्यग्रहीत्-उग्र-वीर्यं |
मार डाला पराक्रमी |
तस्य-आमात्यं द्युमन्तं |
उसके मन्त्री द्युमन्त को |
व्यजनि च समर: |
चलता रहा और (वह) युद्ध |
सप्त-विंशति-अहान्त: |
सात बीस (२७) दिनों तक |
रुक्मिणी विवाह के समय यादव सेना से पराजित साल्व ने, शंकर से विमान की याचना करके, नामक विमान प्राप्त किया। जिस समय आप कौरवों की राजधानी इन्द्रप्रस्थ में थे, उसी समय मायावी साल्व ने आपकी नगरी द्वारका पर आक्रमण कर दिया। प्रद्युम्न ने समस्त यादव सेना के साथ डट कर उसका सामना किया और उसके पराक्रमी मन्त्री द्युमन्त को मार डाला। इस प्रकार वह युद्ध सत्ताईस दिनों तक चलता रहा।
तावत्त्वं रामशाली त्वरितमुपगत: खण्डितप्रायसैन्यं
सौभेशं तं न्यरुन्धा: स च किल गदया शार्ङ्गमभ्रंशयत्ते ।
मायातातं व्यहिंसीदपि तव पुरतस्तत्त्वयापि क्षणार्धं
नाज्ञायीत्याहुरेके तदिदमवमतं व्यास एव न्यषेधीत् ॥२॥
तावत्-त्वम् रामशाली |
फिर आपने बलराम के साथ |
त्वरितम्-उपगत: |
निर्विलम्ब जा कर |
खण्डित-प्राय-सैन्यं |
नष्ट प्राय: सेना वाले |
सौभेशं तं न्यरुन्धा: |
सौभ के मालिक उसका सामना किया |
स च किल गदया |
और उसने निस्सन्देह गदा से |
शार्ङ्गम्-अभ्रंशयत्-ते |
शार्ङ्ग (धनुष) को गिरा दिया आपके |
माया-तातं |
माया से, पिता को (वसुदेव) |
व्यहिंसीत्-अपि |
भी मार दिया |
तव-पुरत:-तत्-त्वया-अपि |
आपके ही सामने, वह आपके द्वारा भी |
क्षणार्धं न-अज्ञायि-इति |
आधे क्षण के लिए नहीं समझा गया, ऐसा |
आहु:-एके तत्-इदम्-अवमतं |
कहते हैं कुछ, वह यह कहना |
व्यास एव न्यषेधीत् |
(स्वयं) व्यास ने निषेध किया है |
तब आपने बलराम के साथ अविलम्ब जा कर सौभ के मालिक साल्व का जिसकी सेना नष्ट प्राय: हो गई थी, सामना किया। उसने अपनी गदा से प्रहार किया जिससे आपका धनुष शार्ङ्ग गिर पडा। फिर आपके देखते ही देखते उसने माया से रचे आपके पिता वसुदेव का भी वध कर दिया। कुछ जन कहते हैं कि उसके इस मायावी कृत्य को आधे क्षण के लिए आप भी नहीं समझ सके थे। किन्तु स्वयं व्यास ने इस धारणा का निषेध किया है।
क्षिप्त्वा सौभं गदाचूर्णितमुदकनिधौ मङ्क्षु साल्वेऽपि चक्रे-
णोत्कृत्ते दन्तवक्त्र: प्रसभमभिपतन्नभ्यमुञ्चद्गदां ते ।
कौमोदक्या हतोऽसावपि सुकृतनिधिश्चैद्यवत्प्रापदैक्यं
सर्वेषामेष पूर्वं त्वयि धृतमनसां मोक्षणार्थोऽवतार: ॥३॥
क्षिप्त्वा सौभं |
फेंक कर सौभ को |
गदा-चूर्णितम्- |
गदा से चूर्णित को |
उदकनिधौ मङ्क्षु |
समुद्र में तुरन्त |
साल्वे-अपि-चक्रेण- |
साल्व के भी चक्र से |
उत्कृत्ते दन्तवक्त्र: |
काट दिए जाने पर, दन्तवक्त्र |
प्रसभम्-अभिपतन्- |
वेगपूर्वक आक्रमण करते हुए |
अभ्यमुञ्चत्-गदां ते |
दे मारा गदा को आप पर |
कौमोदक्या |
कौमुदकी से |
हत:-असौ-अपि |
मार दिया गया यह भी |
सुकृति-निधि:- |
पुण्यशाली |
चैद्य-वत्-प्रापत्-ऐक्यं |
चैद्य के समान पा गया एकत्व |
सर्वेषाम्-एष |
सभी जनों के लिए, यह |
पूर्वं त्वयि धृत-मनसां |
पहले से आपमें चित्त लगाए हुओं के |
मोक्षण-अर्थ:-अवतार: |
मोक्ष के लिए, था यह अवतार (आपका) |
गदा से सौभ विमान को चकनाचूर करके आपने उसे समुद्र में फेंक दिया और तुरन्त ही साल्व के शिर को भी चक्र से काट दिया। तब दन्तवक्त्र ने वेगपूर्वक आप पर आक्रमण कर गदा को आप पर दे मारा। आपने उसे कौमुदकी से मार डाला। दन्तवक्त्र ने चेद्य (शिशुपाल) के समान ही आपके साथ एकत्व प्राप्त कर लिया और पुण्यशाली कहलाया। निश्चय ही आपका यह अवतार उन सभी लोगों को मोक्ष देने के लिए हुआ है, जो बहुत समय से आपमें ही चित्त लगाए हुए थे।
त्वय्यायातेऽथ जाते किल कुरुसदसि द्यूतके संयताया:
क्रन्दन्त्या याज्ञसेन्या: सकरुणमकृथाश्चेलमालामनन्ताम् ।
अन्नान्तप्राप्तशर्वांशजमुनिचकितद्रौपदीचिन्तितोऽथ
प्राप्त: शाकान्नमश्नन् मुनिगणमकृथास्तृप्तिमन्तं वनान्ते ॥४॥
त्वयि-आयाते-अथ |
आपके आ जाने पर, इसके बाद |
जाते किल कुरुसदसि |
सम्पन्न हुआ निस्सन्देह कुरुसभा में |
द्यूतके संयताया: |
कपट द्यूत क्रीडा (जिसमें) खींच लाई गई |
क्रन्दन्त्या याज्ञसेन्या: |
रोती हुई द्रौपदी |
सकरुणम्-अकृथा:- |
दु:खित, कर दिया (उसके) |
चेल-मालाम्-अनन्ताम् |
वस्त्र को माला के समान अनन्त |
अन्न-अन्त-प्राप्त- |
अन्न के समाप्त हो जाने पर |
शर्वांशज-मुनि- |
शंकर के अंशज मुनि (दुर्वासा) |
चकित्-द्रौपदी- |
(को देख कर) चकित हुई द्रौपदी ने |
चिन्तित:-अथ प्राप्त: |
आपका स्मरण किया, पहुंच कर (आपने) |
शाक-अन्नम्-अश्नन् |
पत्ते का शाकअन्न खा कर |
मुनिगणम्-अकृथा:- |
मुनिगण को कर दिया |
तृप्तिम्-अन्तम् वनान्ते |
तृप्त समुचित, वनान्त में |
आपके द्वारका लौट आने के बाद, कुरुसभा में कपट द्यूत क्रीडा सम्पन्न हुई। उसमें रोती हुई दु:खित द्रौपदी को खींच लाया गया। करुणा परिपूर्ण आपने उसके वस्त्र को माला के समान अन्तहीन कर दिया। फिर वनवास के समय एकबार, सब का भोजन समाप्त हो जाने पर, शंकर अंशज दुर्वासा को शिष्यों सहित देख कर द्रौपदी चिन्तित हो गई। उसने तब आपका स्मरण किया। आपने वहां पहुंच कर शाक अन्न खा कर मुनिगण की समुचित क्षुधा तृप्त कर दी।
युद्धोद्योगेऽथ मन्त्रे मिलति सति वृत: फल्गुनेन त्वमेक:
कौरव्ये दत्तसैन्य: करिपुरमगमो दौत्यकृत् पाण्डवार्थम् ।
भीष्मद्रोणादिमान्ये तव खलु वचने धिक्कृते कौरवेण
व्यावृण्वन् विश्वरूपं मुनिसदसि पुरीं क्षोभयित्वागतोऽभू: ॥५॥
युद्ध-उद्योगे-अथ |
युद्ध के उद्योग (तैयारी) में तब |
मन्त्रे मिलति सति |
मन्त्रणाओं का विचार करते समय |
वृत: फल्गुनेन त्वम्-एक: |
वरण किया अर्जुन ने आपका एकमात्र |
कौरव्ये दत्त-सैन्य: |
कौरवों को दे दी सेना |
करिपुरम्-अगम: |
हस्तिनापुर को आए (आप) |
दौत्य-कृत् पाण्डव-अर्थम् |
दूत कर्तव्य करने के लिए पाण्डवों के लिए |
भीष्म-द्रोण-आदि-मान्ये |
भीष्म द्रोण आदि के मान लेने पर |
तव खलु वचने |
आपके निस्सन्देह वचन |
धिक्कृते कौरवेण |
अमान्य करदेने पर कौरव (दुर्योधन) के |
व्यावृण्वन् विश्वरूपं |
धारण किया विश्वरूप |
मुनि-सदसि |
मुनियों की सभा में |
पुरीं क्षोभयित्वा- |
हस्तिनापुर को विचलित कर के |
गत:-अभू: |
चले आए |
युद्ध की तैयारियां और मन्त्रणाएं करने के समय, अर्जुन ने एकमात्र आपका ही वरण किया। आपनी यादव सेना आपने कौरवों को दे दी। पाण्डवों के हित के लिए दूत का कर्तव्य निभाते हुए आप हस्तिनापुर आए। भीष्म द्रोण आदि ने निस्सन्देह आपके वचनों को मान लिया, किन्तु कौरव दुर्योधन ने उसे अमान्य कर दिया। तब मुनिजन की सभा में आपने विश्वरूप प्रकट किया, जिसको देख कर सारा हस्तिनापुर विचलित हो गया। फिर आप द्वारका लौट आए।
जिष्णोस्त्वं कृष्ण सूत: खलु समरमुखे बन्धुघाते दयालुं
खिन्नं तं वीक्ष्य वीरं किमिदमयि सखे नित्य एकोऽयमात्मा ।
को वध्य: कोऽत्र हन्ता तदिह वधभियं प्रोज्झ्य मय्यर्पितात्मा
धर्म्यं युद्धं चरेति प्रकृतिमनयथा दर्शयन् विश्वरूपम् ॥६॥
जिष्णो:-त्वं |
अर्जुन को आपने |
कृष्ण सूत: खलु |
हे कृष्ण सारथी (रूप में) निश्चय ही |
समर-मुखे |
युद्ध के प्रारम्भ में |
बन्धु-घाते दयालुं |
स्वजनों के वध (के प्रसंग) में दयालू को |
खिन्नं तं वीक्ष्य वीरं |
दु:खी उसको देख कर वीर को |
किम्-इदम्-अयि सखे |
क्या यह हे सखे |
नित्य:-एक:-अयम्-आत्मा |
अविनाशी और अद्वितीय है यह आत्मा |
क: वध्य: |
कौन वध के योग्य है |
क:-अत्र हन्ता |
कौन यहां वध करने वाला है |
तत्-इह |
इसलिए यहां |
वध-भियं प्रोज्झ्य |
हिंसा के भय को त्याग कर |
मयि-अर्पित-आत्मा |
मुझ में आत्मा का समर्पण करके |
धर्म्यम् युद्धं चर-इति |
धर्म युक्त युद्ध का पालन करो, इस प्रकार |
प्रकृतिम्-अनयथा: |
प्रकृतिस्थ अवस्था में ला कर (अर्जुन को) |
दर्शयन् विश्वरूपम् |
(और) दिखला कर विश्वरूप |
आपने अर्जुन का सारथीत्व किया। युद्धारम्भ के पहले स्वजनों के वध के प्रसंग में वीर अर्जुन को कातर और दु:खी देख कर आपने कहा, 'हे सखे! यह क्या है? यह आत्मा अविनाशी और अद्वितीय है। यहां कौन वध के योग्य है, और कौन वध करने वाला है? अतएव यहां हिंसा के भय को त्याग कर, मुझमें आत्म समर्पण कर के धर्म युक्त युद्ध करने में संलग्न हो जाओ।'ऐसा कह कर और अपना विश्वरूप दिखला कर आप अर्जुन को प्रकृतिस्थ अवस्था में ले आए।
भक्तोत्तंसेऽथ भीष्मे तव धरणिभरक्षेपकृत्यैकसक्ते
नित्यं नित्यं विभिन्दत्ययुतसमधिकं प्राप्तसादे च पार्थे ।
निश्शस्त्रत्वप्रतिज्ञां विजहदरिवरं धारयन् क्रोधशाली-
वाधावन् प्राञ्जलिं तं नतशिरसमथो वीक्ष्य मोदादपागा: ॥७॥
भक्त-उत्तंसे-अथ भीष्मे |
भक्तशिरोमणि तब भीष्म के |
तव धरणि-भर-क्षेप- |
आपके धरती के भार को हटाने के |
कृत्ये-एक-सक्ते |
कार्य में अकेले संलग्न (हो कर) |
नित्यं नित्यं विभिन्दति- |
प्रतिदिन मारते हुए |
अयुत-सम-अधिकं |
दस हजार प्राय: से भी अधिक को |
प्राप्त-सादे च पार्थे |
और क्लान्त हो जाने पर अर्जुन के |
निश्शस्त्रत्व-प्रतिज्ञां |
निश्शस्त्र रहने की प्रतिज्ञा को |
विजहत्-अरिवरं |
त्याग कर, सुदर्शन चक्र को |
धारयन् क्रोधशाली- |
धारण करके क्रोध से |
इव-अधावन् |
मानो भागते हुए |
प्राञ्जलिं तं |
हाथ जोडे हुए उस (भीष्म) को |
नतशिरसम्-अथ |
नतमस्तक को तब |
वीक्ष्य मोदात्-अपागा: |
देख कर हर्ष से लौट गए |
युद्ध में भक्तशिरोमणि भीष्म, भू भार को क्षीण करने के आपके कार्य में संलग्न, प्रति दिन प्राय: दस हजार से अधिक सैनिकों को अकेले ही मार रहे थे। अर्जुन क्लान्त हो गए थे। तब आपने अपनी निश्शस्त्र रहने की प्रतिज्ञा को भुला कर अपने दिव्य आयुध सुदर्शन चक्र को धारण कर क्रोध पूर्वक भीष्म की ओर भागे। भीष्म को अञ्जलि बद्ध नतमस्तक अवस्था में देख कर आप हर्ष से लौट गए।
युद्धे द्रोणस्य हस्तिस्थिररणभगदत्तेरितं वैष्णवास्त्रं
वक्षस्याधत्त चक्रस्थगितरविमहा: प्रार्दयत्सिन्धुराजम् ।
नागास्त्रे कर्णमुक्ते क्षितिमवनमयन् केवलं कृत्तमौलिं
तत्रे तत्रापि पार्थं किमिव नहि भवान् पाण्डवानामकार्षीत् ॥८॥
युद्धे द्रोणस्य |
युद्धमें द्रोण के साथ |
हस्ति-स्थिर- |
हाथी पर बैठे हुए |
रण-भगदत्त-ईरितं |
युद्ध करते हुए भगदत्त ने छोडा (जो) |
वैष्णव-अस्त्रं |
वैष्णव अस्त्र (उसको) |
वक्षसि-आधत्त |
वक्षस्थल पर ले लिया (आपने) |
चक्र-स्थगित- |
सुदर्शन चक्र में रोक लिया |
रवि-महा: |
सूर्य की किरणो को |
प्रार्दयत्-सिन्धुराजं |
(और) मार दिया जयद्रथ को |
नाग-अस्त्रे कर्ण-मुक्ते |
नाग अस्त्र कर्ण के छोडने पर |
क्षितिम्-अवनमयन् |
धरती को नीचा करके |
केवलं कृत्त-मौलिं |
केवल कट जाने से किरीट |
तत्रे तत्र-अपि पार्थं |
रक्षा की वहां भी आर्जुन की |
किम्-इव नहि भवान् |
क्या कुछ नहीं आपने |
पाण्डवानाम्-अकार्षीत् |
पाण्डवों के (हित के) लिए किया |
युद्ध में द्रोणाचार्य के साथ हाथी पर सुस्थित भगदत्त ने अर्जुन के ऊपर वैष्णवास्त्र चलाया जिसे आपने अपने वक्षस्थल पर झेल लिया। पुन: अपने दिव्य अस्त्र सुदर्शन से सूर्य की किरणों को रोक कर सिन्धुराज जयद्रथ के वध में सहायक हुए। उसके बाद जब कर्ण ने अर्जुन के ऊपर नागास्त्र का प्रयोग किया, तब आपने पैर से धरती को नीचे कर दिया, फलस्वरूप अर्जुन का केवल किरीट ही कटा, वह स्वयं बच गया। इस प्रकार आपने पाण्डवों के हित के लिए क्या क्या नहीं किया?
युद्धादौ तीर्थगामी स खलु हलधरो नैमिषक्षेत्रमृच्छ-
न्नप्रत्युत्थायिसूतक्षयकृदथ सुतं तत्पदे कल्पयित्वा ।
यज्ञघ्नं वल्कलं पर्वणि परिदलयन् स्नाततीर्थो रणान्ते
सम्प्राप्तो भीमदुर्योधनरणमशमं वीक्ष्य यात: पुरीं ते ॥९॥
युद्ध-आदौ तीर्थ-गामी |
(महाभारत)युद्ध के प्रारम्भ में तीर्थ को जाते हुए |
स खलु हलधर: |
उन ही बलराम ने |
नैमिष-क्षेत्रम्-ऋच्छन्- |
नैमिष क्षेत्र का भ्रमण किया |
अप्रत्युत्थायि-सूत- |
उठ कर अभिवादन न करने के कारण सूत को |
क्षय-कृत्-अथ |
मार कर तब |
सुतं तत्-पदे |
पुत्र को उसके स्थान पर |
कल्पयित्वा |
नियुक्त कर के |
यज्ञघ्नं वल्कलं |
यज्ञ को नष्ट करने वाले वल्कल (असुर) को |
पर्वणि परिदलयन् |
पर्व के समय, मार कर |
स्नात-तीर्थ: |
स्नान करके तीर्थ जलों में |
रण-अन्ते सम्प्राप्त: |
युद्ध के अन्त में लौट कर |
भीम-दुर्योधन-रणम्- |
भीम और दुर्योधन के (गदा) युद्ध को |
अशमं वीक्ष्य यात: |
समाप्त न होते हुए देख कर चले गए |
पुरीं ते |
(द्वारिका) पुरी को आपके |
महाभारत युद्ध के प्रारम्भ में ही बलराम तीर्थ यात्रा के लिए निकल गए। उन्होंने नैमिष क्षेत्र का भ्रमण किया। उठ कर अभिवादन न करने की धृष्टता के कारण सूत को मार डाला और उसके पुत्र को उसके स्थान पर नियुक्त कर दिया। पर्व के समय किए जाने वाले यज्ञ का विध्वन्स करने वाले वल्कल असुर का वध कर दिया। तत्पश्चात तीर्थ जलों में स्नान किया और कुरुक्षेत्र लौट आए। किन्तु यह देख कर कि भीम और दुर्योधन के बीच अभी भी गदा युद्ध समाप्त नहीं हुआ, वे आपकी पुरी द्वारिका लौट आए।
संसुप्तद्रौपदेयक्षपणहतधियं द्रौणिमेत्य त्वदुक्त्या
तन्मुक्तं ब्राह्ममस्त्रं समहृत विजयो मौलिरत्नं च जह्रे ।
उच्छित्यै पाण्डवानां पुनरपि च विशत्युत्तरागर्भमस्त्रे
रक्षन्नङ्गुष्ठमात्र: किल जठरमगाश्चक्रपाणिर्विभो त्वम् ॥१०॥
संसुप्त-द्रौपदेय |
निद्रा मग्न द्रौपदी के पुत्रों का |
क्षपण-हत-धियं |
वध करके नष्ट बुद्धि उस के |
द्रौणिम्-एत्य |
द्रोण के पुत्र (अश्वत्थामा) के निकट जा कर |
त्वत्-उक्त्या |
आपके कहने से |
तत्-मुक्तं ब्राह्मम्-अस्त्रं |
उसके छोडे हुए ब्रह्मास्त्र को |
समहृत विजय: |
स्तम्भित कर दिया अर्जुन ने |
मौलिरत्नम् च जह्रे |
और (उसके) मौलिरत्न को छीन लिया |
उच्छितै पाण्डवानां |
उच्छेदन करने के लिए पाण्डवों का |
पुन;-अपि च |
और फिर से भी |
विशति-उत्तरा-गर्भम्- |
प्रवेश करने पर उत्तरा के गर्भ में |
अस्त्रे रक्षन्- |
अस्त्र के, रक्षा करते हुए |
अङ्गुष्ठ-मात्र: किल |
अंगूठे के बराबर ही |
जठरम्-अगा:- |
उदर में गए |
चक्रपाणि:-विभो त्वम् |
चक्र धारण करके हे विभो! आप |
द्रौपदी के निद्रामग्न पुत्रों का, द्रोणपुत्र नीच अश्वत्थामा ने हनन कर दिया, नष्ट बुद्धि उसने ब्रह्मास्त्र का मोचन कर दिया। तब आपके आदेश से अर्जुन ने उसके उसके समीप जा कर उस अस्त्र को स्तम्भित कर दिया और अश्वत्थामा का मौलिरत्न छीन लिया। पाण्डवों के उच्छेदन के लिए फिर से वह अस्त्र उत्तरा के गर्भ में प्रवेश कर गया। तब, हे विभो! रक्षा करने के लिए आप अंगुष्ठ मात्र शरीर धारण कर सुदर्शन चक्र के साथ उत्तरा के उदर मे घुस गए।
धर्मौघं धर्मसूनोरभिदधदखिलं छन्दमृत्युस्स भीष्म-
स्त्वां पश्यन् भक्तिभूम्नैव हि सपदि ययौ निष्कलब्रह्मभूयम् ।
संयाज्याथाश्वमेधैस्त्रिभिरतिमहितैर्धर्मजं पूर्णकामं
सम्प्राप्तो द्वरकां त्वं पवनपुरपते पाहि मां सर्वरोगात् ॥११॥
धर्मौघं धर्मसूनो:- |
धर्मशास्त्र का धर्मपुत्र (युधिष्ठिर) को |
अभिदधत्-अखिलं |
उपदेश दे कर समस्त |
छन्द-मृत्यु:-स भीष्म:- |
मृत्यु क्षण (ज्ञानी) उन भीष्म ने |
त्वां पश्यन् |
आपको देखते हुए |
भक्ति-भूम्ना-एव हि |
भक्ति सुदृढ से ही |
सपदि ययौ |
शीघ्र ही चले गए |
निष्कल-ब्रह्म-भूयम् |
कला रहित ब्रह्म स्वरूप मोक्ष को |
संयाज्य-अथ- |
यजन करके तब |
अश्व-मेधै:-त्रिभि:- |
अश्व मेध यज्ञों का तीन |
अति-महितै:- |
अत्यन्त महत्वपूर्ण |
धर्मजं पूर्णकामं |
धर्मपुत्र (युधिष्ठिर) को कृतकृत्य कर के |
सम्प्राप्त: द्वारकां त्वं |
पहुंच गए द्वारका को आप |
पवनपुरपते |
हे पवनपुरपते! |
पाहि मां सर्वरोगात् |
रक्षा करें मेरी सभी रोगों से |
इच्छा मृत्यु वर प्राप्त ज्ञानी भीष्म ने धर्मपुत्र युधिष्ठिर को समस्त धर्म शास्त्रों का उपदेश दे दिया और अपनी सुदृढ भक्ति के बल पर ही आपको देखते हुए निष्कल ब्रह्मस्वरूप मोक्ष प्राप्त कर लिया। तत्पश्चात युधिष्ठिर ने तीन महत्वपूर्ण अश्वमेध यज्ञों का अनुष्ठान किया। उसको कृतकृत्य करके आप द्वारका लौट गए। हे पवनपुरपते! सभी रोगों से मेरी रक्षा करें।
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