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दशक ३०
शक्रेण संयति हतोऽपि बलिर्महात्मा
शुक्रेण जीविततनु: क्रतुवर्धितोष्मा ।
विक्रान्तिमान् भयनिलीनसुरां त्रिलोकीं
चक्रे वशे स तव चक्रमुखादभीत: ॥१॥
| शक्रेण संयति हत:-अपि |
इन्द्र के द्वारा युद्ध में मारे जाने पर भी |
| बलि:-महात्मा |
महात्मा बलि |
| शुक्रेण जीवित-तनु: |
शुक्राचार्य के द्वारा जीवित कर दिये गये शरीर वाले |
| क्रतु-वर्धित-उष्मा |
विश्वजित यज्ञ करने से वर्धित बल वाले |
| विक्रान्तिमान् |
पराक्रमी |
| भय-निलीन-सुरां |
भय से छुप जाने पर देवों के |
| त्रिलोकीं |
त्रिलोक को |
| चक्रे वशे स |
कर लिया वश में उसने |
| तव चक्र-मुखात्-अभीत: |
आपके चक्र के मुख से निर्भय |
इन्द्र के द्वारा महात्मा बलि के युद्ध में मारे जाने पर भी शुक्राचार्य ने उनका शरीर जीवित कर दिया। विश्वजित यज्ञ करने से बलि का बल वर्धित हो गया। भय से सभी देवगण छुप गये। आपके सुदर्शन चक्र के आक्रमण से निर्भय पराक्रमी बलि ने तीनों लोकों को वश में कर लिया।
पुत्रार्तिदर्शनवशाददितिर्विषण्णा
तं काश्यपं निजपतिं शरणं प्रपन्ना ।
त्वत्पूजनं तदुदितं हि पयोव्रताख्यं
सा द्वादशाहमचरत्त्वयि भक्तिपूर्णा ॥२॥
| पुत्र-आर्ति-दर्शन-वशात्- |
पुत्रों के कष्ट को देखने से विवश |
| अदिति-विषण्णा |
अदिति कातर हो कर |
| तं काश्यपं निज-पतिं |
उन कश्यप के निज पति के |
| शरणं प्रपन्ना |
शरण में गई |
| त्वत्-पूजनं तत्-उदितं |
आपके पूजन को उनके द्वारा कहे गये |
| हि पयोव्रत-आख्यं |
हि पयोव्रत नामक (अनुष्ठान को) |
| सा द्वादश-आहम्-अचरत्- |
उसने (अदिति ने) बारह दिनों तक आचरण किया |
| त्वयि भक्ति-पूर्णा |
आपकी भक्ति से परिपूर्ण हो कर |
अपने पुत्रों के कष्ट देख कर विवश और कातर अदिति अपने पति कश्यप मुनि की शरण में गई। उनके द्वारा बताई हुई आपके पूजन की विधि पयोव्रत का अदिति ने आपकी भक्ति से परिपूर्ण हो कर बारह दिनों तक आचरण किया।
तस्यावधौ त्वयि निलीनमतेरमुष्या:
श्यामश्चतुर्भुजवपु: स्वयमाविरासी: ।
नम्रां च तामिह भवत्तनयो भवेयं
गोप्यं मदीक्षणमिति प्रलपन्नयासी: ॥३॥
| तस्य-अवधौ |
उस अवधि में |
| त्वयि निलीन-मते:-अमुष्या: |
आपमें निलीन बुद्धि वाली उसके (अदिति के) (सामने) |
| श्याम:-चतुर्भुज-वपु: |
श्याम वर्ण और चतुर्भुज रूप में |
| स्वयम्-आविरासी: |
(आप) स्वयं प्रकट हुए |
| नम्रां च ताम्-इह |
और नत मस्तक हुई हुई उसको यहां |
| भवत्-तनय: भवेयं |
आपका पुत्र होऊंगा |
| गोप्यं मत्-ईक्षणम्-इति |
गोपनीय मेरा दर्शन है इस प्रकार |
| प्रलपन् |
कह कर |
| अयासी: |
अन्तर्धान हो गये |
पयोव्रत के आचरण की अवधि में अदिति की बुद्धि आपमें निलीन हो गई। अपने सम्मुख नतमस्तक शरणागत हुई उसके सामने आप अपने श्यामवर्ण और चतुर्भुज स्वरूप में प्रकट हुए। "मैं आपका पुत्र होऊंगा। मेरा यह दर्शन गोपनीय है।" इस प्रकार कह कर आप अन्तर्धान हो गये।
त्वं काश्यपे तपसि सन्निदधत्तदानीं
प्राप्तोऽसि गर्भमदिते: प्रणुतो विधात्रा ।
प्रासूत च प्रकटवैष्णवदिव्यरूपं
सा द्वादशीश्रवणपुण्यदिने भवन्तं ॥४॥
| त्वं |
आपने |
| काश्यपे तपसि |
कश्यप मुनि में |
| सन्निदधत्- |
प्रविष्ट हो कर |
| तदानीं |
उस समय |
| प्राप्त:-असि |
प्राप्त किया |
| गर्भम्-अदिते: |
गर्भ को अदिति के |
| प्रणुत: विधात्रा |
स्तुति किये गये ब्रह्मा के द्वारा |
| प्रासूत च |
और जन्म दिया |
| प्रकट-वैष्णव-दिव्य-रूपं |
प्रकट हुए विष्णुयुक्त दिव्य रूप में |
| सा |
उसने (अदिति ने) |
| द्वादशी-श्रवण-पुण्य-दिने |
द्वादशी और श्रवण के शुभ दिन में |
| भवन्तम् |
आपको |
उस समय कश्यप मुनि के वीर्य में प्रवेश कर के आप अदिति के गर्भ में प्रविष्ट हुए। ब्रह्मा ने आपकी स्तुति की। द्वादशी और श्रावण के शुभ दिन में अदिति ने विष्णु के समस्त लक्षणों से युक्त दिव्य रूप में आपको जन्म दिया।
पुण्याश्रमं तमभिवर्षति पुष्पवर्षै-
र्हर्षाकुले सुरगणे कृततूर्यघोषे ।
बध्वाऽञ्जलिं जय जयेति नुत: पितृभ्यां
त्वं तत्क्षणे पटुतमं वटुरूपमाधा: ॥५॥
| पुण्य-आश्रमं तम्- |
पुण्य आश्रम उस पर |
| अभिवर्षति पुष्प-वर्षै:- |
वर्षा करते हुए फूलों की वर्षा के द्वारा |
| हर्ष-आकुले सुरगणे |
हर्ष से विभोर होने पर देवगणों के |
| कृत-तूर्य-घोषे |
किया गया दुन्दुभियों का नाद |
| बध्वा-अञ्जलिं |
बांध के अञ्जलि |
| जय जय इति |
जय जय इस प्रकार |
| नुत: पितृभ्यां |
स्तुति किये जाने पर माता पिता के द्वारा |
| त्वं तत्-क्षणे |
आपने उसी क्षण |
| पटुतमं वटु-रूपम्- |
अत्यन्त पटु ब्रह्मचारी के रूप को |
| आधा: |
धारण कर लिया |
हर्ष से विभोर देवगण उस पुण्याश्रम पर पुष्प वृष्टि करने लगे और दुन्दुभियों का नाद करने लगे। अञ्जलि बांध कर देवगण और आपके माता पिता भी ’जय हो जय हो’ इस प्रकार आपकी स्तुति करने लगे। तब उसी समय आप ने एक अत्यन्त पटु ब्रह्मचारी का रूप धारण कर लिया।
तावत्प्रजापतिमुखैरुपनीय मौञ्जी-
दण्डाजिनाक्षवलयादिभिरर्च्यमान: ।
देदीप्यमानवपुरीश कृताग्निकार्य-
स्त्वं प्रास्थिथा बलिगृहं प्रकृताश्वमेधम् ॥६॥
| तावत्- |
तब |
| प्रजापतिमुखै:- |
प्रजापति (कश्यप आदि) प्रमुखों के द्वारा |
| उपनीय |
उपनयन होने पर |
| मौञ्जी-दण्ड-अजिन-अक्ष-वलय-आदिभि:- |
मौञ्जी, दण्ड, कृष्ण मृग चर्म और अक्षमाला आदि से |
| अर्च्यमान: |
आपकी पूजा करने पर |
| देदीप्यमान-वपु:- |
प्रकाशमान शरीर वाले आप |
| ईश |
हे ईश |
| कृत-अग्नि-कार्य:- |
करके अग्नि होत्रादि कार्य |
| त्वं |
आप |
| प्रास्थिथा |
प्रस्तुत हो गये |
| बलि-गृहं |
बलि के घर की ओर |
| प्रकृत-अश्व-मेधम् |
(जहां) हो रहा था अश्वमेध यज्ञ |
हे ईश! तब कश्यप प्रजापति ने आपका उपनयन किया और मौञ्जी, दण्ड कृष्ण मृग चर्म, और अक्षमाला आदि से आपको सुसज्जित करके अर्चना की। आप अग्निहोत्र आदि कर्म सम्पन्न कर के बलि के घर की ओर प्रस्तुत हुए जहां अश्वमेध यज्ञ हो रहा था।
गात्रेण भाविमहिमोचितगौरवं प्रा-
ग्व्यावृण्वतेव धरणीं चलयन्नायासी: ।
छत्रं परोष्मतिरणार्थमिवादधानो
दण्डं च दानवजनेष्विव सन्निधातुम् ॥७॥
| गात्रेण |
शरीर से |
| भावि-महिमा-उचित-गौरवं |
आगामी महिमा के लिये उचित गौरव को |
| प्राक्- |
पहले ही |
| व्यावृण्वता-इव |
दर्शाते हुए मानो |
| धरणीं चलयन्- |
पृथ्वी को कंपायमान करते हुए |
| आयासी: |
चलते गये |
| छत्रं |
छत्र को |
| पर-उष्मति-रण-अर्थम्-इव |
शत्रुओं की गर्मी के विरोध के लिये मानो |
| आदधान: |
उठाए हुए |
| दण्डं च |
और दण्ड को |
| दानव-जनेषु-इव |
दानव लोगों के ऊपर मानो |
| सन्निधातुम् |
मारने के लिये |
आप अपनी आगामी महिमा के अनुरूप गौरव को मानो पहले ही दर्शाते हुए, धरती को कंपायमान करते हुए चलते गये। शत्रुओं के क्रोध की गर्मी का रण में विरोध करने के लिये मानो आपने छत्र उठा रखा था। दानवों पर प्रहार करने के लिए ही मानो दण्ड भी धारण कर रखा था।
तां नर्मदोत्तरतटे हयमेधशाला-
मासेदुषि त्वयि रुचा तव रुद्धनेत्रै: ।
भास्वान् किमेष दहनो नु सनत्कुमारो
योगी नु कोऽयमिति शुक्रमुखैश्शशङ्के ॥८॥
| तां |
उस |
| नर्मदा-उत्तरतटे |
नर्मदा के उत्तरी तट पर |
| हयमेध-शालाम्- |
अश्व मेध की यज्ञशाला में |
| आसेदुषि त्वयि |
पहुंचने पर आपके |
| रुचा तव |
तेज से आपके |
| रुद्ध-नेत्रै: |
बन्द हुए नेत्रों वाले |
| भास्वान् किम्-एष |
यह सूर्य है क्या |
| दहन: नु |
या अग्नि है |
| सनत्कुमार: योगी नु |
या सनत्कुमार योगी तो नहीं |
| क:-अयम्-इति |
कौन है यह इस प्रकार |
| शुक्रमुखै:- |
शुक्र आदि मुख्यों के द्वारा |
| शशङ्के |
शङ्का की गई |
नर्मदा के उत्तरी तट पर उस अश्वमेध यज्ञशाला में आपके पहुंचने पर, आपके तेज से शुक्र आदि प्रमुखों के नेत्रबन्द से हो गये। यह सूर्य है क्या, या अग्नि है, या सनत्कुमार योगी जन तो नहीं है, यह कौन है, इस प्रकार सब शङ्का सहित विचार करने लगे।
आनीतमाशु भृगुभिर्महसाऽभिभूतै-
स्त्वां रम्यरूपमसुर: पुलकावृताङ्ग: ।
भक्त्या समेत्य सुकृती परिणिज्य पादौ
तत्तोयमन्वधृत मूर्धनि तीर्थतीर्थम् ॥९॥
| आनीतम्-आशु |
लाये गये शीघ्र ही |
| भृगुभि:- |
शुक्राचार्य आदि के द्वारा |
| महसा-अभिभूतै:- |
(आपके) तेज से अभिभूत हुए |
| त्वां रम्यरूपम्- |
आपको मनोहर रूप धारी |
| असुर: पुलक-आवृत-अङ्ग: |
(बालि) असुर का अङ्ग पुलकित हो गया |
| भक्त्या समेत्य |
भक्ति से पास में जा कर |
| सुकृती |
पुण्यात्मा ने |
| परिणिज्य पादौ |
धो कर चरणों को |
| तत्-तोयम्-अन्वधृत |
उस जल को रख लिया |
| मूर्धनि |
सर पर |
| तीर्थ-तीर्थम् |
पवित्र से भी पवित्र (जल) को |
आपके तेज से अभिभूत शुक्राचार्य आदि आपको शीघ्र ही बलि असुर के पास ले गये। मनोहर रूप धारी आपको देख कर असुर बलि के अङ्ग पुलकित हो उठे। तब उस पुण्यात्मा ने आपके पास जा कर आपके चरणों को धोया और उस पवित्र से भी पवित्र जल को अपने सर पर रख लिया।
प्रह्लादवंशजतया क्रतुभिर्द्विजेषु
विश्वासतो नु तदिदं दितिजोऽपि लेभे ।
यत्ते पदाम्बु गिरिशस्य शिरोभिलाल्यं
स त्वं विभो गुरुपुरालय पालयेथा: ॥१०॥
| प्रह्लाद-वंशजतया |
प्रह्लाद के वंशज होने के कारण |
| क्रतुभि:- |
(या) यज्ञानुष्ठानों से |
| द्विजेषु विश्वासत: नु |
या ब्राह्मणों में विश्वास के कारण |
| तत्-इदं |
वह यह |
| दितिज:-अपि लेभे |
दिति पुत्र (असुर) होने पर भी प्राप्त कर लिया |
| यत्-ते पद-अम्बु |
जो आपके चरण जल (को) |
| गिरिशस्य शिर:-अभिलाल्यं |
(जो) शंकर के सिर पर धारण करने के योग्य है |
| स त्वं विभो |
वैसे आप हे विभो! |
| गुरुपुर-आलय |
गुरुपुर के निवासी |
| पालयेथा |
पालन करें (मेरा) |
बलि ने प्रह्लाद का वंशज होने के कारण, या अपने यज्ञानुष्ठानों के बल के कारण, या ब्राह्मणों की महिमा में विश्वास के कारण दिति पुत्र असुर होने पर भी आपकावह पादोदक प्राप्त कर लिया, जो शंकर के मस्तक पर धारण करने योग्य है। वैसे आप हे विभो! हे गुरुपुर के निवासी! आप मेरा पालन करें।
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