दशक २९
उद्गच्छतस्तव करादमृतं हरत्सु
दैत्येषु तानशरणाननुनीय देवान् ।
सद्यस्तिरोदधिथ देव भवत्प्रभावा-
दुद्यत्स्वयूथ्यकलहा दितिजा बभूवु: ॥१॥
उद्गच्छत:-तव |
उद्धृत होते हुए आपके |
करात्-अमृतं हरत्सु |
हाथों से अमृत का हरण करते हुए |
दैत्येषु |
दैत्यों के |
तान्-अशरणान्-अनुनीय देवान् |
उन शरण हीन देवों को सान्त्वना देते हुए |
सद्य:-तिरोदधिथ देव |
तुरन्त ही अदृश्य हो गये (आप) हे देव |
भवत्-प्रभावात्- |
आपके प्रभाव से |
उद्यत्-स्व-यूथ्य-कलहा |
आरम्भ हो गई निज जाति में विवाद |
दितिजा बभूवु: |
दैत्य ऐसे हो गये |
जैसे ही आप कलश ले कर उद्धृत हो रहे थे, दैत्यों ने आपके हाथों से अमृत का हरण करने की चेष्टा की। उन शरणहीन देवों को सान्त्वना देते हुए आप अदृश्य हो गये। आपके ही प्रभाव से तब असुरों में आपस में विवाद आरम्भ हो गया।
श्यामां रुचाऽपि वयसाऽपि तनुं तदानीं
प्राप्तोऽसि तुङ्गकुचमण्डलभंगुरां त्वम् ।
पीयूषकुम्भकलहं परिमुच्य सर्वे
तृष्णाकुला: प्रतिययुस्त्वदुरोजकुम्भे ॥२॥
श्यामां |
सुन्दर और युवा |
रुचा-अपि वयसा-अपि |
कान्ति से भी और वयस से भी |
तनुं तदानीं प्राप्त:-असि |
शरीर् को तब प्राप्त किया (आपने) |
तुङ्ग-कुच-मण्डल-भंगुरां |
उन्नत स्तन मण्डलों से झुकी हुई |
त्वम् |
आप |
पीयूष-कुम्भ-कलहम् |
अमृत कलश के कलह को |
परिमुच्य सर्वे |
त्याग कर सभी |
तृष्णा-आकुला: |
तृष्णा से व्यथित |
प्रतिययु:- |
पीछे चले गये |
त्वत्-उरोज-कुम्भे |
आपके स्तन कलशों के |
तब आपने सुन्दर कान्ति और युवावस्था वाले शरीर को धारण किया। उन्नत स्तनों के भार से किञ्चित झुके हुए आपके उस रूप को देख कर, तृष्णा से आकुल-व्याकुल हुए सभी, अमृत कलश के कलह को त्याग कर आपके स्तन कलशों के पीछे भागे।
का त्वं मृगाक्षि विभजस्व सुधामिमामि-
त्यारूढरागविवशानभियाचतोऽमून् ।
विश्वस्यते मयि कथं कुलटाऽस्मि दैत्या
इत्यालपन्नपि सुविश्वसितानतानी: ॥३॥
का त्वं मृगाक्षि |
कौन हो तुम मृगनयनी |
विभजस्व सुधाम्-इमाम्- |
भाग कर दो इस अमृत का |
इति-आरूढ-राग-विवशान्- |
अत्यन्त मोह के वश में विवश हुए उनलोगों ने |
अभियाचित:-अमून् |
इस प्रकार याचना की उन लोगों ने |
विश्वस्यते मयि कथं |
(उनको) विश्वास करते हो मुझ में कैसे |
कुलटा-अस्मि दैत्या |
कुलटा हूं, हे असुर! |
इति-आलपन्-अपि |
इस प्रकार कहते हुए भी |
सुविश्वसितान्-अतानी: |
(आपने) अच्छी तरह (उनका) विश्वास जीत लिया |
’हे मृगनयनी तुम कौन हो? यह अमृत हम लोगों में बांट कर दो’, अत्यन्त मोह के वशिभूत हुए उन लोगों ने इस प्रकार याचना की। ’हे असुर! मैं कुलटा हूं, मुझ पर कैसे विश्वास करते हो’, इस प्रकार कहते हुए भी आपने उन लोगों का विश्वास जीत लिया।
मोदात् सुधाकलशमेषु ददत्सु सा त्वं
दुश्चेष्टितं मम सहध्वमिति ब्रुवाणा ।
पङ्क्तिप्रभेदविनिवेशितदेवदैत्या
लीलाविलासगतिभि: समदा: सुधां ताम् ॥४॥
मोदात् सुधा-कलशम्- |
हर्ष से अमृत कलश को |
एषु ददत्सु |
इन लोगों के देते हुए |
सा त्वं |
वह आप |
दुश्चेष्टितं मम सहध्वम्- |
’दुष्चेष्टाओं को मेरी सहन करिये’ |
इति ब्रुवाणा |
इस प्रकार कहती हुई |
पङ्क्ति-प्रभेद- |
पङ्क्तियां भिन्न भिन्न |
विनिवेशित-देव-दैत्या |
में कर दिया देवों और दैत्यों को |
लीला-विलास-गतिभि: |
और लीलापूर्ण विलास की गतियों से |
समदा: सुधा ताम् |
ले लिया उस अमृत को |
आपको हर्ष पूर्वक अमृत-कलश देते हुए उन लोगों से आपने कहा ’मेरी दुष्चेष्टाओं को आप लोगों को सहन करना पडेगा।’ इस प्रकार कहते हुए आपने देवों और दैत्यों को भिन्न भिन्न पङ्क्तियों मे विभाजित कर दिया। फिर लीला सहित विलास पूर्ण गति से जा कर उनसे अमृत कलश ले लिया।
अस्मास्वियं प्रणयिणीत्यसुरेषु तेषु
जोषं स्थितेष्वथ समाप्य सुधां सुरेषु ।
त्वं भक्तलोकवशगो निजरूपमेत्य
स्वर्भानुमर्धपरिपीतसुधं व्यलावी: ॥५॥
अस्मासु-इयं प्रणयिनी- |
हम लोगों में यह अनुरक्त है |
इति-असुरेषु तेषु |
इस प्रकार उन असुरों के |
जोषं स्थितेषु-अथ |
शान्ति से बैठे हुए होने पर तब |
समाप्य सुधां सुरेषु |
समाप्त करके अमृत को देवों में |
त्वं भक्तलोक-वशग: |
आप भक्त लोगों के वशीभूत |
निज-रूपम्-एत्य |
अपने निजी रूप में प्रकट हो कर |
स्वर्भानुम्-अर्धपीत-सुधं |
असुर राहु का (जिसने) आधा पीया था अमृत को |
व्यलावी: |
शिर:च्छेद कर दिया |
’यह हम लोगों में अनुरक्त है’, ऐसा सोच कर जब असुर शान्ति से बैठे थे, आपने अमृत सारा देवों में बांट कर समाप्त कर दिया और अपने असली स्वरूप में आ गये। अपने भक्त जनों के वशीभूत आपने आधा अमृत पीये हुए असुर राहु का शिर:च्छेद कर दिया।
त्वत्त: सुधाहरणयोग्यफलं परेषु
दत्वा गते त्वयि सुरै: खलु ते व्यगृह्णन् ।
घोरेऽथ मूर्छति रणे बलिदैत्यमाया-
व्यामोहिते सुरगणे त्वमिहाविरासी: ॥६॥
त्वत्त: सुधा-हरण- |
आपसे अमृत छीनने |
योग्य-फलं परेषु दत्वा |
के योग्य फल उनको (असुरों) को दे कर |
गते त्वयि |
चले जाने पर आपके |
सुरै: खलु ते व्यगृह्णन् |
देवों के साथ फिर उन लोगों ने युद्ध आरम्भ कर दिया |
घोरे-अथ मूर्छति रणे |
तब घोर युद्ध में मुर्छित हो जाने पर |
बलि-दैत्य-माया-व्यामोहिते |
असुर बलि की माया से विमोहित हो जाने पर |
सुरगणे |
देवों के |
त्वम्-इह-आविरासी: |
आप यहां फिर से प्रकट हो गये |
आपके हाथों से अमृत अपहरण का उचित फल असुरों को दे कर आपके चले जाने के बाद, दैत्यों ने देवों के साथ फिर युद्ध आरम्भ कर दिया। जब देव गण असुर बालि की माया से विमोहित हो कर मूर्छित हो गये तब आप फिर से युद्ध के बीच में प्रकट हो गये।
त्वं कालनेमिमथ मालिमुखाञ्जघन्थ
शक्रो जघान बलिजम्भवलान् सपाकान् ।
शुष्कार्द्रदुष्करवधे नमुचौ च लूने
फेनेन नारदगिरा न्यरुणो रणं त्वं ॥७॥
त्वं कालनेमिम्- |
आपने कालनेमि |
अथ मालिमुखान्-जघन्थ |
फिर माली और औरों का संहार किया |
शक्रो जघान |
इन्द्र ने मारा |
बलि-जम्भ-वलान् सपाकान् |
बलि, जम्भ, बल और पाक के साथ औरों को |
शुष्क-आर्द्र-दुष्कर-वधे |
सूखे या गीले (पदार्थ) से कठिन था वध जिसका |
नमुचौ च |
और ऐसे नमुचि को |
लूने फेनेन |
समुद्र फिन से (मार दिया) |
नारद-गिरा |
नारद के कहने पर |
न्यरुण: रणं त्वम् |
रोक दिया रण को आपने |
आपने कालनेमि, माली, सुमाली और माल्यवान आदि का संहार किया। इन्द्र ने बलि, जम्भ, बल और पाक आदि को मार डाला। ऐसे नमुचि को जिसका सूखे या गीले पदार्थ से वध दुष्कर था, आपने समुद्र के फेन से मार गिराया। फिर नारद के कहने पर आपने युद्ध रोक दिया।
योषावपुर्दनुजमोहनमाहितं ते
श्रुत्वा विलोकनकुतूहलवान् महेश: ।
भूतैस्समं गिरिजया च गत: पदं ते
स्तुत्वाऽब्रवीदभिमतं त्वमथो तिरोधा: ॥८॥
योषा-वपु:- |
युवती का वेश |
दनुज-मोहनम्- |
दैत्यो को मोहित करने के लिये |
आहितं ते |
(जो) धारण किया था आपने |
श्रुत्वा |
सुन कर |
विलोकन-कुतूहलवान् महेश: |
देखने को उत्सुक हो गये शंकर |
भूतै:-समं |
भूतों के साथ |
गिरिजया च |
और गिरिजा (के साथ) |
गत: पदं ते |
गये आपके वास स्थान को |
स्तुत्वा-अब्रवीत् |
स्तुति कर के बोले |
अभिमतं |
अपने अभिप्राय को |
त्वम्-अथ तिरोधा: |
तब आप अन्तर्धान हो गये |
दैत्यों को मोहित करने के लिये आपने जो युवती स्त्री का वेश धारण किया था, उसके बारे में सुन कर उस रूप को देखने के लिये शंकर उत्सुक हो गये। वे पार्वती और भूतों के साथ आपके वास स्थान को गये और स्तुति कर के अपने अभिप्राय को व्यक्त किया। तब आप अन्तर्धान हो गये।
आरामसीमनि च कन्दुकघातलीला-
लोलायमाननयनां कमनीं मनोज्ञाम् ।
त्वामेष वीक्ष्य विगलद्वसनां मनोभू-
वेगादनङ्गरिपुरङ्ग समालिलिङ्ग ॥९॥
आराम-सीमनि |
उपवन के प्रान्त भाग में |
च कन्दुक-घात-लीला- |
और गैंद को मारने की लीला से |
लोलायमान-नयनां |
चञ्चल हुए नेत्रों वाली को |
कमनीं मनोज्ञाम् |
सुन्दरी मनमोहिनी को |
त्वाम्-एष वीक्ष्य |
आपको यह (शंकर) देख कर |
विगलत्-वसनाम् |
सरकते हुए वस्त्रों वाली को |
मनोभू-वेगात्- |
मनोज की तीव्रता से |
अन्ङ्गरिपु:- |
मनोजरिपु (शंकर) ने |
अङ्ग |
हे अङ्ग! |
समालिलिङ्ग |
आलिङ्गन कर लिया |
हे अङ्ग! उपवन के प्रान्त भाग में गेंन्द को मारने की लीला करती हुई चञ्चल नेत्रों वाली सुन्दर और मनमोहिनी रूप वाली जिसके वस्त्र सरक रहे थे, ऐसी युवती रूप में आपको देख कर, मनोजरिपु शंकर ने मनोज के अतिरेक से आपका आलिङ्गन कर लिया।
भूयोऽपि विद्रुतवतीमुपधाव्य देवो
वीर्यप्रमोक्षविकसत्परमार्थबोध: ।
त्वन्मानितस्तव महत्त्वमुवाच देव्यै
तत्तादृशस्त्वमव वातनिकेतनाथ ॥१०॥
भूय:-अपि |
फिर से भी |
विद्रुतवतीम्-उपधाव्य |
भागती हुई का पीछा करते हुए |
देव: |
शंकर के |
वीर्य-प्रमोक्ष- |
वीर्य स्खलित होने से |
विकसत्-परम्-अर्थ-बोध: |
प्रकाशित हो गया परम अर्थ का ज्ञान |
त्वत्-मानित:- |
आपसे सम्मानित |
तव महत्त्वम्- |
आपकी महिमा को |
उवाच देव्यै |
कहा पार्वती को |
तत्-तादृश:-त्वम्- |
वैसे उस प्रकार के आप |
अव |
प्रसन्न हों |
वातनिकेतनाथ |
हे वातनिकेतनाथ |
फिर भी भागती हुई उस रमणी का पीछा करते हुए शंकर को, वीर्य के स्खलित हो जाने से, परमार्थ के ज्ञान का प्रबोध हो गया। आपसे सम्मानित हो कर तब शंकर ने आपकी महिमा पार्वती को बताई। ऐसे इस प्रकार के हे वातनिकेतनाथ! आप प्रसन्न हों।
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