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दशक २
सूर्यस्पर्धिकिरीटमूर्ध्वतिलकप्रोद्भासिफालान्तरं
कारुण्याकुलनेत्रमार्द्रहसितोल्लासं सुनासापुटम्।
गण्डोद्यन्मकराभकुण्डलयुगं कण्ठोज्वलत्कौस्तुभं
त्वद्रूपं वनमाल्यहारपटलश्रीवत्सदीप्रं भजे॥१॥
| सूर्य-स्पर्धि-किरीटम्- |
सूर्य से स्पर्धा करने वाला मुकुट |
| ऊर्ध्वतिलक-प्रोद्भासि-फालान्तरम् |
ऊंचे सीधे तिलक से भालप्रदेश देदीप्यमान हो रहा है |
| कारुण्य-आकुलनेत्रम्- |
करुणा से परिपूर्ण नेत्र हैं |
| आर्द्र-हसित-उल्लासम् |
प्रेमार्द्र मन्द मुस्कान से उल्लसित मुख हैं |
| सुनासापुटम् |
नासिका अत्यन्त मनोहर है |
| गण्डोद्यन्-मकर-आभ-कुण्डल-युगम् |
गण्डस्थल पर लटकते हुए मकर कुण्डल युगल प्रतिबिम्बित हैं |
| कण्ठोज्ज्वलत्-कौस्तुभम् |
कण्ठ प्रदेश कौस्तुभ मणि से चमक रहा है |
| त्वत्-रूपम् |
आपका ऐसा रूप |
| वनमाल्य-हार-पटल-श्रीवत्सदीप्रम् |
(जो) वनमाला, हार समूह एवं श्रीवत्स से उद्दीप्त हो रहा है |
| भजे |
(उस रूप का) मैं ध्यान करता हूं |
हे भगवन्! मैं आपके उस रूप का ध्यान करता हूं जिसके मुकुट की प्रभा सूर्य से स्पर्धा करती है। भालप्रदेश ऊंचे लम्बे तिलक से उद्भासित है। करुणा से परिपूरित नेत्र हैं एवं मुख मधुर मन्द मुस्कान से उल्लसित हैं। नासिका अत्यन्त सुन्दर है। गण्डस्थल पर मकरकुण्डल युगल लटक रहे हैं और प्रतिबिम्बित हो रहे हैं। कण्ठप्रदेश कौस्तुभ मणि की कान्ति से चमक रहा है। वनमालाओं, हार समूहों एवं श्री वत्स से विभूषित आपके इस स्वरूप का मैं ध्यान करता हूं।
केयूराङ्गदकङ्कणोत्तममहारत्नाङ्गुलीयाङ्कित-
श्रीमद्बाहुचतुष्कसङ्गतगदाशङ्खारिपङ्केरुहाम् ।
काञ्चित् काञ्चनकाञ्चिलाञ्च्छितलसत्पीताम्बरालम्बिनी-
मालम्बे विमलाम्बुजद्युतिपदां मूर्तिं तवार्तिच्छिदम् ॥२॥
| केयूराङ्गद-कङ्कणोत्तम-महारत्न-आङ्गुलीय-अङ्कित- |
केयूर अङ्गद और कङ्गन एवं उत्तम महारत्नो से जडित हैं ऐसी अङ्गूठियों से सुशोभित अङ्गुलियां |
| श्रीमद्बाहु-चतुष्कसङ्गत-गदा-शङ्ख-अरि-पङ्केरुहां |
(ऐसी) पावन चार भुजाएं (जो) धारण करती हैं गदा शङ्ख चक्र एवं कमल को |
| काञ्चित् |
(ऐसा) अवर्णनीय (रूप) |
| काञ्चन-काञ्चि-लाञ्च्छित-लसत्-पीताम्बर-आलम्बिनीम्- |
(जो) सुवर्ण की करधनी से युक्त सुन्दर पीताम्बर धारण किये हुए है |
| आलम्बे |
आश्रय लेता हूं |
| विमल-अम्बुज-द्युति-पदां |
निर्मल कमल की शोभा के समान चरणो (वाले) |
| मूर्तिं तव- |
आपके विग्रह (का) |
| आर्तिच्छिदं |
(जो) पीडाओं का छेदन करने वाले हैं |
हे ईश! आपकी पावन चार भुजाएं बहुमूल्य रत्नो से युक्त केयूर, अङ्गद, कङ्गन आदि से अलंकृत हैं, एवं अङ्गुलियां भी बहुमूल्य रत्नों से जडित अंगूठियों से सुशोभित हैं तथा गदा, शङ्ख, चक्र एवं कमल धारण किये हुए हैं। आपका अवर्णनीय विग्रह सुवर्ण की करधनी से युक्त सुन्दर पीताम्बर धारण किये हुए है। आपके चरण निर्मल कमल की द्युति के समान उज्ज्वल हैं एवं पीडाओं का छेदन करने वाले हैं। ऐसे आपके श्रीविग्रह का मैं आश्रय लेता हूं।
यत्त्त्रैलोक्यमहीयसोऽपि महितं सम्मोहनं मोहनात्
कान्तं कान्तिनिधानतोऽपि मधुरं माधुर्यधुर्यादपि ।
सौन्दर्योत्तरतोऽपि सुन्दरतरं त्वद्रूपमाश्चर्यतोऽ-
प्याश्चर्यं भुवने न कस्य कुतुकं पुष्णाति विष्णो विभो ॥३॥
| यत्-त्रैलोक्य-महीयस: - अपि महितं |
जो त्रिलोक में महान है, उससे भी महान |
| सम्मोहनं मोहनात् |
मोहक से भी अत्यन्त मोहक |
| कान्तं कान्ति-निधानत: - अपि |
कान्ति की निधि से भी कान्तिपूर्ण |
| मधुरम् माधुर्य-धुर्यात्-अपि |
माधुर्य की धुरि से भी मधुरतम |
| सौन्दर्य-उत्तरत: - अपि सुन्दरतरं |
अलौकिक सुन्दरता से भी सौन्दर्यशाली |
| त्वत्-रूपम्- |
आपका विग्रह |
| आश्चर्यत: - अपि-आश्चर्यं |
अद्भुत लोकोत्तर आश्चर्य से भी आश्चर्यजनक |
| भुवने |
संसार में |
| न कस्य कुतुकं पुष्णाति |
किसके कुतूहल को नहीं बढाता |
| विष्णो विभो |
हे सर्वव्यापी विष्णु! |
हे सर्वव्यापी विष्णु! त्रिलोक में जो महान है, उससे भी महनीय, मोहक से भी अत्यन्त मोहक, कान्ति की निधि से भी अधिक कान्तिमय, माधुर्य की धुरि से भी मधुरतम, अलौकिक सुन्दरता से भी सौन्दर्यशाली, अद्भुत लोकोत्तर आश्चर्य से भी आश्चर्यजनक आपका श्रीविग्रह, संसार में किसके कौतूहल को नहीं बढाता? अर्थात् सभी आपके रूप से अभिभूत हो जाते हैं।
तत्तादृङ्मधुरात्मकं तव वपु: सम्प्राप्य सम्पन्मयी
सा देवी परमोत्सुका चिरतरं नास्ते स्वभक्तेष्वपि ।
तेनास्या बत कष्टमच्युत विभो त्वद्रूपमानोज्ञक -
प्रेमस्थैर्यमयादचापलबलाच्चापल्यवार्तोदभूत् ॥४॥
| तत्-तादृक्-मधुर-आत्मकं |
ऐसे उस मधुरात्मक |
| तव वपु: |
आपके श्रीविग्रह |
| सम्प्राप्य |
को पा कर |
| सम्पन्मयी |
सम्पन्नतापूर्ण |
| सा देवी |
वह देवी (लक्ष्मी) |
| परम-उत्सुका |
अति उत्सुकतावश |
| चिरतरं न-आस्ते |
बहुत समय तक नहीं रहती हैं |
| स्व-भक्तेषु-अपि |
निज भक्तों के पास भी |
| तेन-अस्या |
इसी कारण इनका |
| बत कष्टम्- |
कष्ट की बात है |
| अच्युत विभो |
हे अच्युत विभो! |
| त्वत्-रूप-मानोज्ञक-प्रेम-स्थैर्यमयात्- |
आपके मनोहारी रूप में सुस्थिर प्रेम के कारण |
| अचापल-बलात्- |
अचपलता के बल के कारण |
| चापल्य-वार्ता- |
चपला' की दुष्कीर्ति |
| उदभूत् |
उद्भूत हुई है |
हे अच्युत! हे विभो! आपके ऐसे अनुपम मधुर्यपूर्ण श्रीविग्रह को पा कर , सम्पन्नता की देवी लक्ष्मी परम उत्सुकतावश अपने भक्तों के पास भी चिरकाल तक नहीं रहतीं। बडे कष्ट की बात है कि आपके इस अतिशय मनोहर रूप मे दृढ एवं स्थिर प्रेम से उत्पन्न अचापल्य के बल के कारण ही 'चपला' नाम की दुष्कीर्ति प्राप्त हुई है।
लक्ष्मीस्तावकरामणीयकहृतैवेयं परेष्वस्थिरे-
त्यस्मिन्नन्यदपि प्रमाणमधुना वक्ष्यामि लक्ष्मीपते ।
ये त्वद्ध्यानगुणानुकीर्तनरसासक्ता हि भक्ता जना-
स्तेष्वेषा वसति स्थिरैव दयितप्रस्तावदत्तादरा ॥५॥
| लक्ष्मी: - |
लक्ष्मी |
| तावक-रामणीयकहृता-एव-इयं |
आपकी रमणीयता से अभिभूत हो कर ही यह |
| परेषु-अस्थिर-इति- |
दूसरों में स्थिर नही रह्ती इस प्रकार |
| अस्मिन्-अन्यत्-अपि प्रमाणम्-अधुना |
इसका दूसरा प्रमाण आज |
| वक्ष्यामि |
बतलाता हूं |
| लक्ष्मीपते |
हे लक्ष्मीपते! |
| ये त्वत्-ध्यान-गुण-अनुकीर्तन-रस-आस्क्ता |
जो आपके ध्यान एवं गुणों के कीर्तन के रस मे आसक्त हैं |
| हि भक्ता जना: - |
ऐसे ही भक्त जनों |
| तेषु-एषा वसति स्थिरैव |
उनमें ये (लक्ष्मी) रहती है स्थिर हो कर ही |
| दयित-प्रस्ताव-दत्त-आदरा |
(आपके) प्रेमी जनो के प्रस्ताव (गुणगान) को आदर देती हुई |
लक्ष्मी आपके रमणीय रूप से अभिभूत हो कर औरों के यहां स्थिरता से नहीं रहती हैं। इस बात का एक और प्रमाण मैं बतलाता हूं। हे लक्ष्मीपते! जो जन आपके ध्यान में रहते हैं एवं आपके ही गुण्गान के आनन्द में विभोर रहते हैं, ऐसे ही प्रेमी भक्तजनों के प्रस्ताव को आदर देती हुई, लक्ष्मी उनके यहां ही स्थिरता से रहती है।
एवंभूतमनोज्ञतानवसुधानिष्यन्दसन्दोहनं
त्वद्रूपं परचिद्रसायनमयं चेतोहरं शृण्वताम् ।
सद्य: प्रेरयते मतिं मदयते रोमाञ्चयत्यङ्गकं
व्यासिञ्चत्यपि शीतवाष्पविसरैरानन्दमूर्छोद्भवै: ॥६॥
| एवं-भूत-मनोज्ञता- |
मन से जाना जाने वाला आपका ऐसा रूप |
| नव-सुधा- |
निर्मल मधु |
| निष्यन्द-सन्दोहनं |
निरन्तर प्रवाहित करता है |
| त्वत् रूपं |
आपका विग्रह |
| पर-चित्-रसायनमयं |
परम चित् आनन्द का सम्मिश्रण है |
| चेतोहरं |
चित्त को चुराने वाला है |
| शृण्वताम् |
(आपके कथानकों का प्रेम से) श्रवण करने वालों |
| सद्य: प्रेरयते |
को तत्काल प्रेरित करता है |
| मतिं मदयते |
बुद्धि को उन्मादित करता है |
| रोमाञ्चयति-अङ्गकं |
रोमाञ्चित करता है शरीर को |
| व्यासिञ्चति-अपि |
और सींच भी देता है |
| शीत वाष्प-विसरै: - |
शीतल अश्रु प्रवाह से |
| आनन्द-मूर्च्छा-उद्भवै: |
आनन्द के व्यतिरेक से मूर्च्छा के कारण |
मन से जाने जाने वाले आपके इस रूपसे निर्मल मधु निरन्तर प्रवाहित होता है। आपका स्वरूप परम चित् आनन्द का सम्मिश्रण है और चित्त को चुराने वाला है। आपकी कथाओं को प्रेम से सुनने वालों की बुद्धि को तत्काल प्रेरणा दे कर आनन्दातिरेक से उन्मत्त बनाने वाला है। यह शरीर को पुलकित कर देता है और आनन्द के अतिरेक से मूर्च्छा के कारण उदूत शीतल अश्रुओं के प्रवाह से शरीर को सिञ्चित करने वाला है।
एवंभूततया हि भक्त्यभिहितो योगस्स योगद्वयात्
कर्मज्ञानमयात् भृशोत्तमतरो योगीश्वरैर्गीयते ।
सौन्दर्यैकरसात्मके त्वयि खलु प्रेमप्रकर्षात्मिका
भक्तिर्निश्रममेव विश्वपुरुषैर्लभ्या रमावल्लभ ॥७॥
| एवं भूततया हि |
इन्हीं कारणों से ही |
| भक्ति-अभिहित: योग: -स |
भक्ति नामक योग, वह |
| योगद्वयात् कर्म-ज्ञानमयात् |
योग द्वय से (अर्थात्) कर्म एवं ज्ञान से |
| भृशोत्तमतर: |
अत्यधिक उत्कृष्ट है |
| योगीश्वरै: - गीयते |
योगीश्वरों के द्वारा कहा गया है |
| सौन्दर्यैक-रस-आत्मके त्वयि खलु |
एकमात्र सौन्दर्य रस के स्वरूपात्मक आपमें ही निश्चय रूप से |
| प्रेमप्रकर्ष-आत्मिका भक्ति: - |
प्रेम स्वरूपात्मिका भक्ति |
| निश्रमम्-एव |
अनायास ही |
| विश्वपुरुषै: - |
संसार में लोगों को |
| लभ्या |
उपलब्ध है |
| रमावल्लभ् |
हे रमावल्लभ! |
हे रमावल्लभ! इन्ही कारणो से वह भक्ति नामक योग अन्य योग द्वय - कर्म योग एवं ज्ञान योग से अत्यधिक उत्कृष्ट है। व्यास नारदादि योगीश्वरों द्वारा भी ऐसा कहा गया है। निश्चय ही मूर्तिमान सौन्दर्य स्वरूप आप में प्रेम लक्षणा भक्ति, संसार में लोगों को सहज ही उपल्ब्ध हो जाती है।
निष्कामं नियतस्वधर्मचरणं यत् कर्मयोगाभिधं
तद्दूरेत्यफलं यदौपनिषदज्ञानोपलभ्यं पुन: ।
तत्त्वव्यक्ततया सुदुर्गमतरं चित्तस्य तस्माद्विभो
त्वत्प्रेमात्मकभक्तिरेव सततं स्वादीयसी श्रेयसी ॥८॥
| निष्कामं |
निषकामता |
| नियत-स्वधर्म-चरणं |
से विहित स्वधर्म का अनुगमन (युक्त) |
| यत् कर्मयोग-अभिधं |
जो कर्म योग कहलाता है |
| तत्-दूरेत्य-फलं |
वह सुदूर समय मे देता है फल |
| यत्-उपनिषद्-ज्ञान-उपलभ्यं पुन: |
(एवं) वह जो उपनिषद (में निहित) ज्ञान से प्राप्त होता है, फिर |
| तत्-तु-अव्यक्ततया |
वह भी निश्चय ही अस्पष्टता के कारण |
| सुदुर्गमतरं चित्तस्य |
अत्यन्त ही कठिन है चित्त के लिये प्राप्त करना |
| तस्मात्-विभो |
इसी कारण से, हे विभो! |
| त्वत्-प्रेमात्मक-भक्ति:एव |
आपकी प्रेम परिपूर्ण भक्ति ही |
| सततं |
सदा |
| स्वादीयसी |
स्वादिष्टतर (एवं) |
| श्रेयसी |
श्रेष्ठतर है |
निष्कामता से युक्त स्वधर्म का अनुगमन किये जाने वाला कर्मयोग नामक जो विधान है वह सुदूर भविष्य में फल प्रदान करने वाला है। फिर जो उपनिषदों में निहित ज्ञान के द्वारा प्राप्य है, उसे भी अस्पष्टता के कारण चित्त के लिये प्राप्त करना अत्यन्त कठिन है। हे विभो! इसी कारण से आपके प्रेम से परिपूर्ण भक्ति ही सदैव स्वादिष्टतर तथा श्रेष्ठ है।
अत्यायासकराणि कर्मपटलान्याचर्य निर्यन्मला
बोधे भक्तिपथेऽथवाऽप्युचिततामायान्ति किं तावता ।
क्लिष्ट्वा तर्कपथे परं तव वपुर्ब्रह्माख्यमन्ये पुन-
श्चित्तार्द्रत्वमृते विचिन्त्य बहुभिस्सिद्ध्यन्ति जन्मान्तरै: ॥९॥
| अति-आयास-कराणि |
कठोर परिश्रम से साध्य |
| कर्मपटलानि- |
कर्म समूहों का |
| आचर्य |
आचरण करके |
| निर्यन्मला |
निर्मल हुए मन (वाले लोग) |
| बोधे |
ज्ञान में |
| भक्तिपथे-अथवा-अपि- |
भक्ति पथ में ,अथवा भी |
| उचितताम्-आयान्ति |
अधिकार प्राप्त करते हैं |
| किं तावता |
क्या उनका |
| क्लिष्ट्वा तर्कपथे |
अत्यन्त क्लेष उठा कर ज्ञान मार्ग में |
| परं तव वपु: - ब्रह्म-आख्यम्- |
ब्रह्ममय आपके स्वरूप जो ब्रह्म कहलाता है |
| अन्ये पुन: - |
अन्य जन फिर भी |
| चित्त-आर्द्रत्वम्-ऋते |
चित्त की द्रवीभूतता के बिना |
| विचिन्त्य |
चिन्तन करते हुए |
| बहुभि: - |
अनेक (जन्मों में) |
| सिद्ध्यन्ति |
सिद्ध होते है |
| जन्मान्तरै: |
जन्मान्तरों के द्वारा |
कठोर परिश्रम से कर्मो के समूहों का आचरण करके निर्मल हुए मन वाले लोग ज्ञान अथवा भक्ति मार्ग में अधिकार पाते हैं। उनका क्या? कुछ जन वेदान्त मार्ग में अत्यन्त कष्ट से ब्रह्ममय आपके स्वरूप को, जो ब्रह्म ही कहलाता है, सिद्ध कर पाते हैं। तथा अन्य जन चित्त की निर्मलता के बिना बहुत चिन्तन करके, जन्मान्तरों में सिद्धि को प्राप्त करते हैं।
त्वद्भक्तिस्तु कथारसामृतझरीनिर्मज्जनेन स्वयं
सिद्ध्यन्ती विमलप्रबोधपदवीमक्लेशतस्तन्वती ।
सद्यस्सिद्धिकरी जयत्ययि विभो सैवास्तु मे त्वत्पद-
प्रेमप्रौढिरसार्द्रता द्रुततरं वातालयाधीश्वर ॥१०॥
| त्वत्-भक्ति: - तु |
आपकी भक्ति निश्चय ही |
| कथारस-अमृतझरी- |
कथारस के अमृत के निर्झर में |
| निर्मज्जनेन |
निमज्जन करने से |
| स्वयं सिद्ध्यन्ती |
स्वयं ही सिद्ध होती है |
| विमल-प्रबोध-पदवीम्- |
निर्मल ज्ञान के पद को |
| अक्लेशत: - |
बिना कष्ट के |
| तन्वती |
प्रदान करती है |
| सद्य: - सिद्धिकरी |
अनायास सिद्धि देती है |
| जयति- |
श्रेष्ठतर है |
| अयि विभो |
हे विभो |
| सा-एव-अस्तु मे |
वह ही प्राप्त हो मुझे |
| त्वत्-पद-प्रेम-प्रौढि-रस-आर्द्रता |
आपके चरणों में प्रेम से उत्कृष्ट रस से द्रवीभूत |
| द्रुततरं |
अति शीघ्रता से |
| वातालयाधीश्वर |
हे वातालय अधीश्वर! |
हे विभो! आपके कथारस के अमृत निर्झर में निमज्जन करने से आपकी भक्ति स्वयं ही सिद्ध होती है। निर्मल ज्ञान के पद को अनायास ही सिद्ध करके प्रदान करती है। इसीलिये कर्मयोग एवं ज्ञानयोग से श्रेष्ठतर है। हे वातालय के अधीश्वर! आपके चरणो मे प्रेम के द्वारा उत्कृष्ट रस से द्रवीभूत करने वाली वह भक्ति ही मुझे अति शीघ्रता से प्राप्त हो।
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