दशक १५
मतिरिह गुणसक्ता बन्धकृत्तेष्वसक्ता
महदनुगमलभ्या भक्तिरेवात्र साध्या
त्वमृतकृदुपरुन्धे भक्तियोगस्तु सक्तिम् ।
कपिलतनुरिति त्वं देवहूत्यै न्यगादी: ॥१॥
मति: इह |
बुद्धि यहां (इस जगत में) |
गुण-सक्ता |
(तीनॊं) गुणों (विषयों) में लगी हुई (आसक्त) |
बन्धकृत्- |
बन्धन करती है |
तेषु-असक्ता तु- |
उनमें (विषयों में) न लगी हुई (अनासक्त बुद्धि) निश्चय ही |
अमृत-कृत्- |
मोक्ष (प्रदान) करती है |
उपरुन्धे |
(किन्तु) रोक देती है |
भक्तियोग:-तु |
भक्ति योग भी |
सक्तिम् |
आसक्ति को |
महत्-अनुगम-लभ्या भक्ति:- |
महान लोगों के अनुगमन से प्राप्त होने वाली भक्ति |
एव-अत्र साध्या |
ही यहां साधन करने योग्य है |
कपिल-तनु:-इति त्वं |
कपिल के शरीरी आपने |
देवहूत्यै न्यगादी: |
देवहुति को कहा |
इस संसार में, विषयों में आसक्त बुद्धि बन्धनकारक होती है और अनासक्त बुद्धि मोक्ष दिलाने वाली होती है। किन्तु भक्ति योग तो आसक्ति को भी रोक देता है। वह भक्ति महान लोगो का अनुगमन करने से प्राप्त होती है। भक्ति ही यहां, इस संसार में, साधना कर के प्राप्त करने योग्य है। इस प्रकार कपिल के रूप में प्रकट हुए आपने देवहुति को कहा।
प्रकृतिमहदहङ्काराश्च मात्राश्च भूता-
न्यपि हृदपि दशाक्षी पूरुष: पञ्चविंश: ।
इति विदितविभागो मुच्यतेऽसौ प्रकृत्या
कपिलतनुरिति त्वं देवहूत्यै न्यगादी: ॥२॥
प्रकृति-महत्-अहङ्कारा:-च |
प्रकृति, महत तत्व, और अहंकार |
मात्रा:-च |
और (पांच) तन्मात्राएं |
भूतानि-अपि |
(पञ्च) भूत भी |
हृत्-अपि |
मन भी |
दश-आक्षी |
दस इन्द्रियां |
पूरुष: पञ्चविंश |
पुरुष पचीसवां |
इति विदित-विभाग: |
यह जाना हुआ है विभाग |
मुच्यते-असौ प्रकृत्या |
(जिसका) मुक्त हो जाता है यह (वह) प्रकृति से |
कपिल-तनु:-इति त्वं |
कपिल शरीरी इस प्रकार आपने |
देवहूत्यै न्यगादी: |
देवहुति को कहा |
मूल प्रकृति, महत तत्व, अहंकार, पांच तन्मात्राएं (शब्द, स्पर्श, गन्ध, रूप और रस), पञ्च महाभूत (आकाश, वायु, अग्नि, जल, और पृथ्वी), मन (अन्त:करण), दस इन्द्रियां, (पांच ज्ञानेन्द्रियां - सुनना, देखना, स्पर्श करना, और स्वाद लेना), (पांच कर्मेन्द्रियां - जिह्वा, हाथ, पांव, जननेन्द्रिय और बाह्येन्द्रिय), और पचीसवां स्वयं पुरुष (आत्मन), इस प्रकार इन पचीस विभागों को जिसने जान लिया है, वह प्रकृति (माया) से मुक्त हो जाता है। कपिल शरीरी आपने इस प्रकार देवहुति को कहा।
प्रकृतिगतगुणौघैर्नाज्यते पूरुषोऽयं
यदि तु सजति तस्यां तत् गुणास्तं भजेरन् ।
मदनुभजनतत्त्वालोचनै: साऽप्यपेयात्
कपिलतनुरिति त्वं देवहूत्यै न्यगादी: ॥३॥
प्रकृति-गत-गुण-औघै:- |
प्रकृति के गुण समूहों से |
न-आज्यते पूरुष:-अयं |
नहीं प्रभावित होता है यह पुरुष |
यदि तु सजति तस्यां |
किन्तु यदि आसक्त हो जाता है उसमें (प्रकृति के गुणों में) |
तत् गुणा:-तं भजेरन् |
(तब) वे गुण उसको (पुरुष को) वशीभूत कर लेती हैं |
मत्-अनुभजन- |
मुझे निरन्तर भजते हुए |
तत्-तु-आलोचनै: |
और फिर (मेरे तत्व के) आलोचन से |
सा-अपि-अपेयात् |
वह (प्रकृति) भी हट जाती है |
कपिलतनु:-इति त्वं |
कपिल शरीरी आपने |
देवहूत्यै न्यगादी: |
देवहुति को इस प्रकार बताया |
प्रकृति के गुण समूह पुरुष को प्रभावित नहीं करते, किन्तु यदि वह स्वयं उन गुणों में आसक्त हो जाता है तब वे गुण उस पुरुष को वशीभूत कर लेते हैं। निरन्तर मेरा भजन करते हुए और सतत मेरे तत्व की जिज्ञासा में लगे हुए पुरुष से प्रकृति हट जाती है। इस प्रकार कपिल शरीरी आपने देवहुति को कहा।
विमलमतिरुपात्तैरासनाद्यैर्मदङ्गं
गरुडसमधिरूढं दिव्यभूषायुधाङ्कम् ।
रुचितुलिततमालं शीलयेतानुवेलं
कपिलतनुरिति त्वं देवहूत्यै न्यगादी: ॥४॥
विमल-मति:- |
निर्मल बुद्धि वाले |
उपात्तै:-आसन-आद्यै:- |
प्राप्त किया है जिसे (बुद्धि को) आसनादि (के अभ्यास के द्वारा) |
मत्-अङ्गम् गरुड-समधिरूढम् |
(फिर) मेरे विग्रह (को, जो) गरुड पर आरूढ |
दिव्य-भूषा-आयुध-अङ्कम् |
दिव्य भूषणों तथा आयुधों से विभूषित अङ्गों वाले |
रुचि-तुलित-तमालम् |
सुन्दर तमाल से तुल्य |
शीलयेत-अनुवेलं |
अनुशीलन करे निरन्तर |
कपिल-तनु: इति त्वं |
कपिल शरीरी इस प्रकार आपने |
देवहूत्यै न्यगादी: |
देवहुति को कहा |
जिस मनुष्य ने आसन आदि सिद्धान्तों का अभ्यास कर के निर्मल बुद्धि को पाया है, उसे चाहिये कि फिर वह मेरे उस विग्रह का निरन्तर ध्यान करे, जो गरूड पर आरूढ है, जिसके अङ्ग दिव्य आभूषणों और आयुधों से विभूषित है, और जो तमाल के समान अतुलनीय कान्तिमान है। इस प्रकार कपिल तनु धारी आपने देव्हुति को कह।
मम गुणगणलीलाकर्णनै: कीर्तनाद्यै-
र्मयि सुरसरिदोघप्रख्यचित्तानुवृत्ति: ।
भवति परमभक्ति: सा हि मृत्योर्विजेत्री
कपिलतनुरिति त्वं देवहूत्यै न्यगादी: ॥५॥
मम-गुण-गण-लीला-आकर्णनै: |
मेरे गुणों के समूहों और लीलाओं के सुनने से |
कीर्तन-आद्यै: |
(और) कीर्तन आदि से |
मयि |
मुझमें |
सुर-सरित्-ओघ-प्रख्य-चित्त-अनुवृत्ति: |
गङ्गा के प्रवाह के समान चित्त वृत्ति |
भवति परम-भक्ति: |
हो जाती है, (जो) परम भक्ति (है) |
सा हि |
वह ही |
मृत्यो:-विजेत्री |
मृत्यु को जीतने वाली (होती है) |
कपिल-तनु:-इति त्वं |
कपिल शरीरी इस प्रकार आपने |
देवहूत्यै न्यगादी: |
देवहुति को कहा |
मेरे गुणो के समूहॊ के बारे में, और मेरी लीलाओं के विषय में अविरल सुनते रहने से, चित्तवृत्ति गङ्गा के प्रवाह के समान निर्मल हो जाती है। यही परम भक्ति है और यही मृत्यु पर विजय प्राप्त करवाने वाली है। इस प्रकार कपिल रूप में अवतरित आपने देवहुति को उपदेश दिया।
अहह बहुलहिंसासञ्चितार्थै: कुटुम्बं
प्रतिदिनमनुपुष्णन् स्त्रीजितो बाललाली ।
विशति हि गृहसक्तो यातनां मय्यभक्त:
कपिलतनुरितित्वं देवहूत्यै न्यगादी: ॥६॥
अहह |
खेद है |
बहुल-हिंसा-सञ्चित-अर्थै: |
बहुत हिंसा से सञ्चित किये हुए धन से |
कुटुम्बं |
परिवार का |
प्रतिदिनम्-अनुपुष्णन् |
प्रतिदिन भरण पोषण करते हुए |
स्त्रीजित: |
स्त्री से जीता हुआ |
बाललाली |
बालको का लालन पालन (करता हुआ) |
विशति हि |
पैठ जाता ही है |
गृहसक्त: |
गृहासक्ति में |
यातनां |
(और) यातनाए झेलता है |
मयि-अभक्त: |
मुझमें अभक्त हो कर |
कपिल-तनु:-इति त्वं |
कपिल शरीरी इस प्रकार आपने |
देवहूत्यै न्यगादी: |
देवहुति को कहा |
कपिल के रूप में आपने देवहुति को उपदेश दिया कि यह कितने दुख की बात है कि नाना प्रकार की हिंसाओं से अर्जित धन के द्वारा अपने परिवार का भरण पोषण करता हुआ, स्त्री के वशीभूत हो कर बालकों का लालन पालन करता हुआ, गृहासक्ति में पूर्णतया लिप्त हो जाता है। इस प्रकार मेरा अभक्त होकर मनुष्य (नरकादि) यातनाएं झेलता है।
युवतिजठरखिन्नो जातबोधोऽप्यकाण्डे
प्रसवगलितबोध: पीडयोल्लङ्घ्य बाल्यम् ।
पुनरपि बत मुह्यत्येव तारुण्यकाले
कपिलतनुरिति त्वं देवहूत्यै न्यगादी: ॥७॥
युवति-जठर-खिन्न: |
युवती (माता) के गर्भ में दुखी |
जात-बोध:-अपि-अकाण्डे |
उदय होने पर भी ज्ञान के, अकस्मात ही |
प्रसव-गलित-बोध: |
उत्पन्न होने के समय भूल जाने से उस ज्ञान को |
पीडया-उल्लङ्घ्य बाल्यं |
अत्यन्त कठिनाइयों से पार करके बालपन को |
पुन:-अपि बत मुह्यति-एव |
फिर से भी हा! मोहित हो जाता है |
तारुण्य-काले |
युवावस्था के समय में |
कपिल-तनु:-इति त्वं |
कपिल शरीरी इस प्रकार आपने |
देवहूत्यै न्यगादी: |
देवहुति को कहा |
युवती माता के गर्भ मे पडकर, उस दुख से खिन्न जीव को, यद्यपि ज्ञान का बोध हो जाता है, अकस्मात जन्म लेने के समय वह ज्ञान विलुप्त हो जाता है। फिर अत्यन्त कठिनाइयॊ से बाल्यकाल को पार कर के वह युवावस्था मे पहुंचता है तब भी वह विषयों में सम्मोहित हो जाता है। इस प्रकार कपिल रूप में अवतरित आपने देवहुति को उपदेश दिया।
पितृसुरगणयाजी धार्मिको यो गृहस्थ:
स च निपतति काले दक्षिणाध्वोपगामी ।
मयि निहितमकामं कर्म तूदक्पथार्थं
कपिलतनुरिति त्वं देवहूत्यै न्यगादी: ॥८॥
पितृ-सुर-गण-याजी |
पूर्वजों और सुरगण की पूजा करने वाला |
धार्मिक: य: गृहस्थ: |
धार्मिक जो गृहस्थ है |
स च निपतति काले |
वह गिर आ जाता है समयानुसार |
दक्षिण-अध्व-उपगामी |
दक्षिण पथ की ओर जाता हुआ |
मयि निहितम्- |
(किन्तु) मुझ में लगा दिया है |
अकामं कर्म तु- |
निष्काम कर्म निश्चय ही |
उदक्-पथार्थं |
उत्तर पथ से जाने वाला होता है |
कपिल-तनु:-इति त्वं |
कपिल शरीरी इस प्रकार आपने |
देवहूत्यै न्यगादी: |
देवहुति को कहा |
जो मनुष्य पितृगण और देव गण की पूजा अर्चना करता है और धार्मिक प्रवृत्ति का है, वह समयानुसार दक्षिण पथ से जाता है। किन्तु जिसने अपने निष्काम कर्मों को मुझ में अर्पण किया है वह उत्तर पथ से जाने वाला होता है। इस प्रकार कपिल के रूप में आपने देवहुति को उपदेश दिया।
इति सुविदितवेद्यां देव हे देवहूतिं
कृतनुतिमनुगृह्य त्वं गतो योगिसङ्घै: ।
विमलमतिरथाऽसौ भक्तियोगेन मुक्ता
त्वमपि जनहितार्थं वर्तसे प्रागुदीच्याम् ॥९॥
इति सुविदित-वेद्यां |
इस प्रकार जो जान गई थी भली प्रकार विद्या को |
देव हे |
हे देव! |
देवहूतिं कृतनुतिम्- |
देवहुति जो आपकी वन्दना कर रही थी |
अनुगृह्य त्वं गत: |
उसको अनुगृहीत कर के आप चले गये |
योगि-सङ्घै: |
योगियों के समूह के साथ |
विमल-मति:-अथ-असौ |
निर्मल बुद्धि वाली यह |
भक्ति-योगेन मुक्ता |
भक्ति योग से मुक्त हो गई |
त्वम्-अपि जन-हित-अर्थम् |
आप भी जन हितार्थ |
वर्तसे |
रहते हैं |
प्राक्-उदीच्याम् |
पूर्वोत्तर दिशा में |
हे देव! इस प्रकार जानने योग्य ब्रह्मतत्त्व का ज्ञान हो जाने पर देवहुति आपका स्तवन करने लगी। उस पर अनुग्रह कर के आप योगिजनों के साथ चले गये। वह भी भक्ति योग से मुक्त हो गई। जन हित के लिये आप पूर्वोत्तर दिशा में स्थित हो गये।
परम किमु बहूक्त्या त्वत्पदाम्भोजभक्तिं
सकलभयविनेत्रीं सर्वकामोपनेत्रीम् ।
वदसि खलु दृढं त्वं तद्विधूयामयान् मे
गुरुपवनपुरेश त्वय्युपाधत्स्व भक्तिम् ॥१०॥
परम |
हे परम! |
किमु बहूक्त्या |
क्या होगा अधिक कह कर |
त्वत्-पद्-अम्भोज-भक्तिं |
आपके चरण कमलों की भक्ति |
सकल-भय-विनेत्रीम् |
समस्त भयॊ को नष्ट करने वाली |
सर्व-काम-उपनेत्रीम् |
समस्त अभीष्टों को सिद्ध करने वाली |
वदसि खलु दृढं त्वं |
कहते हैं निश्चय रूप से दृढतापूर्वक आप |
तत्-विधूय-आमयान् मे |
इसलिये विनष्ट करके कष्टों को मेरे |
गुरुपवनपुरेश |
हे गुरुपवनपुरेश! |
त्वयि-उपाधत्स्व भक्तिम् |
आपमें लगाइये भक्ति |
हे परम! अधिक कहने से क्या लाभ? आपके चरण कमलों की भक्ति सभी भयों का नाश करने वाली है और सभी अभीष्टों को प्रदान करने वाली है, ऐसा आप निश्चय ही दृढता पूर्वक कहते है। हे गुरुपवनपुरेश! मेरे सभी रोगों कष्टों का विनाश कर के मुझ में अपनी भक्ति का सञ्चार कीजिये।
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