दशक १४
समनुस्मृततावकाङ्घ्रियुग्म:
स मनु: पङ्कजसम्भवाङ्गजन्मा ।
निजमन्तरमन्तरायहीनं
चरितं ते कथयन् सुखं निनाय ॥१॥
समनुस्मृत-तावक-अङ्घ्रि-युग्म: |
भलीभांति स्मरण करते हुए आपके दोनों चरण कमलों को |
स: मनु: |
वह मनु |
पङ्कजसम्भव-अङ्ग-जन्मा |
कमल योनि (ब्रह्मा) के अङ्ग से जन्मा |
निजम्-अन्तरम्- |
अपने मन्वन्तर को |
अन्तराय-हीनम् |
(जो) सब प्रकार के विकारों से हीन था |
चरितम् ते कथयन् |
आपकी कथाओं को कहते हुए |
सुखं निनाय |
सुख से व्यतीत किया |
उन मनु ने, जो कमलयोनि ब्रह्मा के अङ्ग से पैदा हुए थे, और आपके दोनों चरण कमलों का ध्यान करते रहते थे, आपकी लीला कथाओं को कहते हुए, अपने विकारहीन मन्वन्तर का सुख से वहन किया।
समये खलु तत्र कर्दमाख्यो
द्रुहिणच्छायभवस्तदीयवाचा ।
धृतसर्गरसो निसर्गरम्यं
भगवंस्त्वामयुतं समा: सिषेवे ॥२॥
समये खलु तत्र |
उस समय निश्चय ही वहां पर |
कर्दम-आख्य: |
कर्दम नाम के |
द्रुहिण-च्छाय-भव:- |
(जो) ब्रह्मा की छाया से उत्पन्न हुए थे, |
तदीय-वाचा |
उनके (ब्रह्मा के) आदेश से |
धृत-सर्ग-रस: |
ले कर सृजन की इच्छा |
निसर्ग-रम्यं भगवन्-त्वाम्- |
स्वभावत: सुन्दर भगवन आपको |
अयुतम् समा: |
दस हजार वर्ष तक |
सिषेवे |
सेवा करते रहे (तपस्या करते रहे) |
हे भगवन! उसी समय ब्रह्मा की छाया से उत्पन्न कर्दम नाम के ऋषि ब्रह्मा के ही आदेश से, सृजन करने की इच्छा से, दस हजार वर्षों तक, स्वभावत: सुन्दर आपकी ही तपस्या करते रहे।
गरुडोपरि कालमेघक्रमं
विलसत्केलिसरोजपाणिपद्मम् ।
हसितोल्लसिताननं विभो त्वं
वपुराविष्कुरुषे स्म कर्दमाय ॥३॥
गरुड-उपरि |
गरुड के ऊपर |
काल-मेघ-क्रमम् |
काले मेघों के समान |
विलसत्-केलि-सरोज-पाणि-पद्मम् |
शोभायमान कोमल कमल हस्तकमल में |
हसित-उल्लासित-आननम् |
मुस्कुराते हुए प्रफुल्ल मुख वाले |
विभो त्वं |
हे विभो! आप ने |
वपु:-आविष्कुरुषे स्म |
(अपने) विग्रह को प्रकट किया |
कर्दमाय |
कर्दम के लिये |
हे विभो! गरुड पर सवार, काले मेघों के समान श्याम, हस्तकमल में कोमल कमल लिये हुए, मुस्कुराते हुए प्रफुल्ल मुख वाले आपने अपना अति शोभनीय विग्रह कर्दम के लिये प्रकट किया।
स्तुवते पुलकावृताय तस्मै
मनुपुत्रीं दयितां नवापि पुत्री: ।
कपिलं च सुतं स्वमेव पश्चात्
स्वगतिं चाप्यनुगृह्य निर्गतोऽभू: ॥४॥
स्तुवते पुलक-आवृताय तस्मै |
स्तुति करते हुए, रोमाञ्चित हुए उसको |
मनुपुत्रीम् |
मनु की पुत्री |
दयिताम् |
पत्नी के रूप में |
नव-अपि पुत्री: |
और नौ पुत्रियां भी |
कपिलं च सुतम् |
और कपिल पुत्र को |
स्वम्-एव पश्चात् |
स्वयं को भी अन्त में |
स्वगतिं च-अपि-अनुगृह्य |
और मोक्ष भी प्रदान कर के |
निर्गत:-अभू: |
(आप) चले गये |
रोमाञ्चित हुए स्तुति करते हुए हर्ष और रोमाञ्च से परिपूर्ण कर्दम को आपने पत्नी रूप में मनु की पुत्री को दिया, नौ पुत्रियां और कपिल नामक पुत्र को भी दिया। अन्त में आपने स्वयं को दे दिया और मोक्ष भी प्रदान कर के चले गये।
स मनु: शतरूपया महिष्या
गुणवत्या सुतया च देवहूत्या ।
भवदीरितनारदोपदिष्ट:
समगात् कर्दममागतिप्रतीक्षम् ॥५॥
स: मनु: |
वह मनु |
शतरूपया महिष्या |
शतरूपा रानी |
गुणवत्या सुतया देवहूत्या च |
और गुणवती पुत्री देवहुत्ति के साथ |
भवत्-ईरित-नारद-उपदिष्ट: |
अपके द्वारा प्रेरित नारद के कहने पर |
समगात् कर्दमम्- |
गये कर्दम के पास |
आगति-प्रतीक्षं |
(जो उनके ) आने की प्रतीक्षा कर रहे थे |
वह मनु, अपनी रानी शतरूपा और गुणवती पुत्री देवहूति के साथ कर्दम के पास गये जो उन्ही के आगमन की प्रतीक्षा कर रहे थे। आपकी प्रेरणा से नारद ने उन्हे यह आदेश दिया था।
मनुनोपहृतां च देवहूतिं
तरुणीरत्नमवाप्य कर्दमोऽसौ ।
भवदर्चननिवृतोऽपि तस्यां
दृढशुश्रूषणया दधौ प्रसादम् ॥६॥
मनुना-उपहृताम् च |
और मनु के द्वारा उपहार स्वरूप दी हुई |
देवहूतिं तरुणी-रत्नम्- |
देवहुति तरुणीरत्न को |
अवाप्य कर्दम:-असौ |
पा कर इन कर्दम ने |
भवत्-अर्चन-निर्वृत:-अपि |
आपकी अर्चना में लगे रहने पर भी |
तस्यां दृढ-शुश्रूषणया |
उसकी दृढ सेवा से |
दधौ प्रसादम् |
धारण किया प्रसन्नता को |
मनु ने तरुणी रत्न देवहूति को कर्दम को उपहार में दे दिया। कर्दम निरन्तर आपकी अर्चना में सन्लग्न रहते थे, फिर भी देवहुति की दृढ सेवा से वे प्रसन्न हो गये।
स पुनस्त्वदुपासनप्रभावा-
द्दयिताकामकृते कृते विमाने ।
वनिताकुलसङ्कुलो नवात्मा
व्यहरद्देवपथेषु देवहूत्या ॥७॥
स: पुन;- |
वह (कर्दम) फिर |
त्वत्-उपासन-प्रभावात्- |
आपकी उपासना के प्रभाव से |
दयिता-काम-कृते |
(और) अपनी पत्नी की इच्छा के कारण |
कृते विमाने |
निर्मित विमान में |
वनिता-कुल-सङ्कुल: |
वनिताओं के समूहों के साथ |
नव-आत्मा |
नये स्वरूप से |
व्यहरत्-देवपथेषु |
विचरने लगे देव उद्यानों में |
देवहूत्या |
देवहुति के संग |
तब उसने आपकी अर्चना के प्रभाव से और अपनी पत्नी की कामना की पूर्ति के लिये एक विमान की रचना की। उस विमान में वनिताओं के समूह थे। कर्दम नया स्वरूप धारण कर के उस विमान में देवहुति के संग देव उद्यानों में विचरने लगे।
शतवर्षमथ व्यतीत्य सोऽयं
नव कन्या: समवाप्य धन्यरूपा: ।
वनयानसमुद्यतोऽपि कान्ता-
हितकृत्त्वज्जननोत्सुको न्यवात्सीत् ॥८॥
शत-वर्षम्-अथ व्यतीत्य |
सौ वर्षों को तब ब्यतीत कर के |
स:-अयम् |
वह यह (कर्दम) |
नव कन्या: समवाप्य |
नौ कन्याओं को प्राप्त कर |
धन्य-रूपा: |
(जो) अत्यन्त रूपवती थी |
वन-यान-समुद्यत:-अपि |
वन को जाने के लिये तत्पर होते हुए भी |
कान्ता-हित-कृत्- |
पत्नी के हित के लिये |
त्वत्-जनन-उत्सुक: |
आपके उत्पन्न होने की उत्सुकता में |
न्यवात्सीत् |
रुके रहे (वन को नहीं गये) |
इस प्रकार कर्दम ने सौ वर्ष व्यतीत कर दिये और उन्हे नौ रूपवती कन्याओं की प्राप्ति हुई। फिर वन को जाने के लिये तत्पर होते हुए भी, पत्नी के हित के लिये और आपके जन्म की उत्सुकता में वे घर में हीरुके रहे और वन नहीं गये।
निजभर्तृगिरा भवन्निषेवा-
निरतायामथ देव देवहूत्याम् ।
कपिलस्त्वमजायथा जनानां
प्रथयिष्यन् परमात्मतत्त्वविद्याम् ॥९॥
निज-भर्तृ-गिरा |
अपने पति के कहने से |
भवत्-निषेवा-निरतायाम्- |
आपकी सेवा में लगी हुई |
अथ देव |
तत्पश्चात हे देव |
देवहूत्याम् |
देवहुति में |
कपिल-त्वम्-अजायथा |
कपिल (के रूप मे) आप पैदा हुए |
जनानाम् |
लोगों में |
प्रथयिष्यन् |
प्रकट करने के लिये |
परम-आत्म-तत्व-विद्याम् |
परम आत्म तत्व की विद्या को |
अपने पति के कहने से देवहुति आपकी सेवा में संलग्न हो गई। तत्पश्चात हे देव! आपने उसके गर्भ से कपिल के रूप में जन्म लिया। आपके इस अवतार का उद्येश्य था कि लोगों में परम तत्व की विद्या प्रकट हो।
वनमेयुषि कर्दमे प्रसन्ने
मतसर्वस्वमुपादिशन् जनन्यै ।
कपिलात्मक वायुमन्दिरेश
त्वरितं त्वं परिपाहि मां गदौघात् ॥१०॥
वनम्-एयुषि कर्दमे प्रसन्ने |
वन को आये हुए कर्दम के प्रसन्न हुए |
मत-सर्वस्वम्- |
सिद्धान्तो को सम्पूर्ण |
उपादिशन् जनन्यै |
उपदेश करते हुए जननी को |
कपिल-आत्मक |
कपिलात्मक |
वायु-मन्दिर-ईश |
हे वायु मन्दिर के ईश्वर! |
त्वरितम् |
शीघ्रता से |
त्वं परिपाहि |
आप रक्षा करें |
माम् गद-औघात् |
मेरी रोग समूहों से |
प्रसन्न चित्त कर्दम वन को चले गये। तब आपने अपनी माता को सम्पूर्ण सिद्धान्तो का उपदेश दिया। हे कपिलात्मक वायु मन्दिर के ईश्वर! समस्त रोग समूहों से मेरी शीघ्रता से रक्षा करें।
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