Shriman Narayaneeyam

प्रारंभ

प्रस्तावना

श्रीमन् नारायणीयम् एक उच्चकोटी का भक्ति प्रधान स्तोत्र है। इसके रचनाकार श्रीनारायण मेपात्तुर भट्टथिरि ने गुरुवायुर मन्दिर में श्री कृष्ण के विग्रह के समक्ष इसकी रचना की,फलस्वरूप उन्होंने अपने वात रोग का निदान तो पाया ही, भगवद् दर्शन के भी पात्र हुए।

भारतीय शास्त्रों में १८ मुख्य पुराण है। इनमें श्रीमद् भागवत् सर्वश्रेष्ठ है। इसमें १८००० श्लोक हैं। नारायणीयम इसका संक्षिप्त रूप है, और इसमें १०३६ श्लोक हैं। किन्तु फिर भी इसका भक्तिमय और दार्शनिक स्वरूप अक्षुण्ण है।

नारायण भट्टथिरि का जन्म १५६० ईस्वी में हुआ था। इन्होंने १६ वर्ष की आयु में ही समस्त शास्त्रों का ज्ञान अर्जन् कर लिया था। किन्तु उस समय वे भक्ति पथ पर अग्रसर नहीं हुए थे। एक समय उनके गुरु अच्युत पिशारोदी ने उनकी बहुत भर्त्सना की। उसके बाद वे अपने गुरू के प्रति अत्यन्त समर्पित हो गए।

प्राय: १० वषों के बाद उनके गुरू वात रोग से पीडित हो गए। भट्टथिरि यह सहन न कर सके और उन्होंने ईश्वर से प्रार्थना की कि उनके गुरू का रोग उन पर आ जाये। उनकी प्रार्थना स्वीकृत हुई। गुरू को सुस्वास्थ प्राप्त हुआ और भट्टथिरि को वात रोग। भट्टथिरि को अटूट विश्वास् था कि गुरुवायुर के श्री कृष्ण उनको अवश्य रोग से मुक्त करेंगे। इसी विश्वास के साथ, भगवान की कृपा पाने के लिए उन्होंने गुरुवायुर मन्दिर में जा कर ईश्वर के चरणों में शरण ली।

भट्टथिरि ने उस समय के विद्वान दार्शनिक भक्त थ्युचान्त रामानुज (एजुथाचन्) से मार्गदर्शन के लिए आग्रह किया। उन्हें संकेत मिला कि 'मत्स्य से आरम्भ करो।' भट्टथिरि सहज ही समझ गए कि यह संकेत मत्स्यावतार से ले कर दशावतार की महिमा का वर्णन करने का संकेत है। इस प्रकार भागवत् में आए विष्णु के स्वरूप का संक्षेप में वर्णन करने की प्रेरणा मिली।

वात रोग से पीडित भट्टथिरि ने येन केन प्रकारेण गुरुवायुर मन्दिर में पहुंच कर, स्वयं को पूर्णत: श्री कृष्ण के चरणों में समर्पित कर दिया। वे प्रतिदिन शाष्टाङ्ग दण्डवत करके भक्ति भाव से भगवान का गुणगान करने लगे और प्रार्थना करने लगे। वे प्रतिदिन एक दशक की रचना कर के भगवान के अर्पण कर देते थे। इस प्रकार १०० दिनों में भक्ति से ओतप्रोत १०० दशकों की रचना हुई।

प्रत्येक दशक के अन्त में लेखक ने पीडा से मुक्ति पाने के लिए करुण प्रार्थना की है। तीव्र पीडा में रचित इन दशकों ने ईश्वर की कृपा और करुणा को आकर्षित किया। शीघ्र ही भगवान की कृपा वर्षा हुई, और सौवे दिन भट्टथिरि को रोग मुक्त करके भगवान ने दर्शन दे कर अनुग्रह किया। भट्टथिरि आनन्द विभोर हो गए और सौवें दशक में वे रोते हुए गा उठे - 'अग्रे पष्यामि..' - सम्मुख देखता हूं.. और वे भगवान के मन- मोहक स्वरूप का, सिर से चरण तक, 'केशादिपादं' वर्णन करते हैं।

यह रचना नारायण भट्टथिरि ने २७ वर्ष की आयु में की थी। भगवत्कृपा से उन सम्मानित दार्शनिक भक्त कवि ने ९६ वर्ष की आयु प्राप्त की। उनके द्वारा लिखी हुई कविताओं की पुस्तकें, दर्शन व संस्कृत व्याकरण पर लिखे हुए लेखों के संग्रह उपलब्ध हैं।

जन जन में नारायणीयम के सुप्रचलित होने का कारण उसकी असामान्य और अद्वितीय विशेषताएं हैं। प्रथमत: यह अत्यन्त वेदना और व्यथा में रचित है। इसलिए इसमें कवि की हार्दिक भक्तिपूर्ण प्रार्थना मुखरित हुई है। दूसरे, इसकी रचना प्रथम पुरुष में हुई है, अर्थात भगवान से सम्मुख वार्तालाप के तौर पर। इसलिए जो कोई भी इसका पाठ करता है, वह मानो स्वयं ही भगवान को सम्बोधित करता है। यह भगवान और भक्त में एक चुम्बकीय आकर्षण पैदा करता है। तीसरे, यह स्तोत्र सिद्ध करता है कि जो भी इसका पारायण पूर्ण भक्ति और शरणागति से करता है, उसे - आयु, आरोग्य और सौख्य' निश्चित रूप से प्राप्त होते है।

प्रारंभ