Shriman Narayaneeyam

दशक 7 | प्रारंभ | दशक 9

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दशक ८

एवं तावत् प्राकृतप्रक्षयान्ते
ब्राह्मे कल्पे ह्यादिमे लब्धजन्मा ।
ब्रह्मा भूयस्त्वत्त एवाप्य वेदान्
सृष्टिं चक्रे पूर्वकल्पोपमानाम् ॥१॥

एवं तावत् इस प्रकार तब
प्राकृत-प्रक्षय-अन्ते प्राकृत प्रलय के अन्त में
ब्राह्मे कल्पे हि आदिमे ब्राह्म कल्प में जो प्रथम था
लब्ध-जन्मा ब्रह्मा पा कर जन्म ब्रह्मा ने
भूय: - त्वत्त: फिर से आप से
एव-आप्य वेदान् ही पा कर वेदों को
सृष्टिं चक्रे सृष्टि की रचना की
पूर्व-कल्प-उपमानाम् पहले के कल्पों के समान

तब, इस प्रकार, प्राकृत प्रलय के अन्त में जो प्रथम ब्राह्म कल्प था, ब्रह्मा ने जन्म पाकर, आप ही से फिर से वेदों का ज्ञान पा कर, पहले के कल्प के ही समान सृष्टि की रचना की।

सोऽयं चतुर्युगसहस्रमितान्यहानि
तावन्मिताश्च रजनीर्बहुशो निनाय ।
निद्रात्यसौ त्वयि निलीय समं स्वसृष्टै-
र्नैमित्तिकप्रलयमाहुरतोऽस्य रात्रिम् ॥२॥

स: -अयं वह यह (ब्रह्मा)
चतु: -युग-सह्स्र-मितानि- चतुर्युग सहस्र अवधि
अहानि (जो उनके) दिन हैं
तावत्-मिता:- उतनी अवधि
च रजनी: और रातें हैं
बहुश: निनाय बहुत बार व्यतीत कर के
निद्रति-असौ सो जाते हैं यह
त्वयि निलीय आपमें ही विलीन कर के
समं स्वसृष्टै:- साथ में अपनी सृष्टि को
नैमित्तिक-प्रलयम्-आहु: - नैमित्तिक प्रलय कहा जाता है
अत: -अस्य रात्रिम् इसलिये उनकी (यह) रात्रि है

उन ब्रह्मा का एक दिन एक चतुर्युग की अवधी वाला और एक रात्रि उतनी ही अवधी वाली होती है। इस प्रकार बहुत से दिन और रात्रियां व्यतीत कर के , वे निद्रा के वशीभूत हो कर, स्व रचित सृष्टि के साथ आप में ही विलीन हो जाते हैं। ब्रह्मा की यह रात्रि नैमित्तिक प्रलय कहलाती है।

अस्मादृशां पुनरहर्मुखकृत्यतुल्यां
सृष्टिं करोत्यनुदिनं स भवत्प्रसादात् ।
प्राग्ब्राह्मकल्पजनुषां च परायुषां तु
सुप्तप्रबोधनसमास्ति तदाऽपि सृष्टि: ॥३॥

अस्मादृशां पुन: - हम लोगों के समान फिर
अह: -मुख-कृत्य-तुल्यां प्रात:कालीन क्रियाओं के समान
सृष्टिं करोति-अनुदिनं स सृष्टि को करते हैं हर दिन वह
भवत्-प्रसादात् आपकी कृपा से
प्राक्-ब्राह्मकल्प-जनुषां पहले ब्राह्म कल्प के उत्पन्न
च पर-आयुषां तु और अनन्त आयु वालों के लिये तो
सुप्त-प्रबोधन-समा-अस्ति सो कर उठने के समान है
तदा-अपि सृष्टि: फिर भी सृष्टि

जिस प्रकार हम लोग हर दिन की प्रात:कालीन क्रियायें करते हैं आपकी कृपा से, उसी प्रकार ब्रह्मा हर दिन सृष्टि की रचना करते हैं। ब्राह्म कल्प के पहले उत्पन्न हुए जन अथवा अनन्त आयु वाले जनों के लिये तो फिर भी यह सृष्टि सो कर जागने के समान ही है।

पञ्चाशदब्दमधुना स्ववयोर्धरूप-
मेकं परार्धमतिवृत्य हि वर्ततेऽसौ ।
तत्रान्त्यरात्रिजनितान् कथयामि भूमन्
पश्चाद्दिनावतरणे च भवद्विलासान् ॥४॥

पञ्चाशत्-अब्दम्-अधुना पचास वर्ष, इस समय
स्व-वय: -अर्ध-रूपम्- अपनी आयु के आधे भाग को
एकं परार्धम्- (जो) एक परार्ध है
अतिवृत्य हि वर्तते-असौ व्यतीत करके वर्तमान हैं वे
तत्र-अन्त्य-रात्रि-जनितान् वहां रात्रि के अन्त में उत्पन्न हुए (उनके बारे में)
कथयामि कहूंगा
भूमन् हे भगवन!
पश्चात्-दिन-अवतरणे च बाद में दिन के बीत जाने (पर) और
भवत्-विलासान् आपकी लीलाओं को (कहूंगा)

इस समय वे ब्रह्मा अपनी आयु के आधे भाग, अर्थात पचास वर्ष जो एक परार्ध कहलाता है, व्यतीत करके स्थित हैं। हे भूमन! उस परार्ध की अन्तिम रात्रि और दूसरे परार्ध के आरम्भ के दिन में घटित होने वाली आपकी लीलाओं का अब मैं वर्णन करूंगा।

दिनावसानेऽथ सरोजयोनि:
सुषुप्तिकामस्त्वयि सन्निलिल्ये ।
जगन्ति च त्वज्जठरं समीयु-
स्तदेदमेकार्णवमास विश्वम् ॥५॥

दिन-अवसाने-अथ दिन के बीत जाने पर तब
सरोजयोनि: ब्रह्मा
सुषुप्ति-काम: - सोने के इच्छुक
त्वयि सन्निलिल्ये आप ही में विलीन हो गये
जगन्ति च और जगत भी
त्वत्-जठरं समीयु: - आपके उदर में समा गया
तत्-इदम्-एक-अर्णवम्-आस विश्वम् तब यह एक समुद्र के समान हो गया सब कुछ

दिन के बीत जाने पर ब्रह्मा , सोने की इच्छा से आप ही में विलीन हो गये और यह जगत भी आप के ही उदर में समा गया। तब यह सब कुछ एक समुद्र के समान ही हो कर रह गया।

तवैव वेषे फणिराजि शेषे
जलैकशेषे भुवने स्म शेषे ।
आनन्दसान्द्रानुभवस्वरूप:
स्वयोगनिद्रापरिमुद्रितात्मा ॥६॥

तव-एव वेषे आप ही के प्रतिरूप में
फणिराजि शेषे नागराज शेष पर
जल-एक-शेषे भुवने जल एकमात्र शेष रह जाने पर जगत में
स्म शेषे थे सो रहे
आनन्द-सान्द्र-अनुभव-स्वरूप: आनन्द घन अनुभव स्वरूप (आप)
स्व-योग-निद्रा-परिमुद्रित-आत्मा स्वयं की योग निद्रा के द्वारा आवृत करके स्वयं को

समस्त भुवनों के जल मग्न हो जाने पर अपने ही प्रतिरूप शेष नाग पर, स्वयं को योगनिद्रा से आवृत्त कर के, आनन्द घन अनुभव स्वरूप आप शयन करने लगे।

कालाख्यशक्तिं प्रलयावसाने
प्रबोधयेत्यादिशता किलादौ ।
त्वया प्रसुप्तं परिसुप्तशक्ति-
व्रजेन तत्राखिलजीवधाम्ना ॥७॥

काल-आख्य-शक्तिं समय नामक शक्ति को
प्रलय-अवसाने प्रबोधय- प्रलय के अन्त में जगा देना'
इति-आदिशता इस प्रकार आदेश दे कर
किल-आदौ निश्चय ही (प्रलय) के आरम्भ में
त्वया प्रसुप्तं आप के सो जाने पर
परिसुप्त-शक्ति-व्रजेन तत्र (आप जिनमें) विलीन हो गया था शक्तियों का समूह, वहां (उस समय)
अखिल जीवधाम्ना (और आप जो) सब जीवों के विश्राम हैं

इस प्रकार प्रलय के आरम्भ में, आपमें शक्तियों के समूह विलीन हो गये थे। समस्त जीवों के विश्राम स्वरूप आप तब, समय नामक शक्ति को यह आदेश दे कर कि - 'प्रलय के अन्त में जगा देना", सो गये।

चतुर्युगाणां च सहस्रमेवं
त्वयि प्रसुप्ते पुनरद्वितीये ।
कालाख्यशक्ति: प्रथमप्रबुद्धा
प्राबोधयत्त्वां किल विश्वनाथ ॥८॥

चतुर्युगाणां च सहस्रम्- चतुर्युग के एक सहस्र
एवं त्वयि प्रसुप्ते इस प्रकार आपके सो जाने पर
पुन: -अद्वितीये फिर से, हे अद्वितीय आप!
काल-आख्य-शक्ति: समय नामक शक्ति
प्रथम-प्रबुद्धा पहले जागृत हुई
प्रबोधयत्-त्वां किल जगाया आपको निश्चय ही
विश्वनाथ हे विश्वनाथ!

हे अद्वितीय विश्वनाथ! इस प्रकार एक सहस्र चतुर्युगों तक आपके सो जाने पर, समय नामक शक्ति ने पहले जागृत हो कर, फिर निश्चय ही आपको जगाया।

विबुध्य च त्वं जलगर्भशायिन्
विलोक्य लोकानखिलान् प्रलीनान् ।
तेष्वेव सूक्ष्मात्मतया निजान्त: -
स्थितेषु विश्वेषु ददाथ दृष्टिम् ॥९॥

विबुध्य च त्वं जाग कर और (फिर) आपने
जल-गर्भ-शायिन् जलों के मध्य में शयन करने वाले (आपने)
विलोक्य देख कर
लोकान्-अखिलान् प्रलीनान् समस्त लोकों को विलीन हुए
तेषु-एव सूक्ष्म-आत्मतया उन्ही में सूक्ष्म रूप से
निजान्त: - स्थितेषु स्वयं के अन्दर स्थित
विश्वेषु (सारे) विश्व पर
ददाथ दृष्टिं डाली दृष्टि

एकार्णव हुए जगत के मध्य में शयन करने वाले हे भगवन! जाग कर फिर आपने समस्त लोकों को विलीन हुए देखा। आप ही में सूक्ष्म रूप से स्थित उन समस्त विश्वों पर आपने दृष्टि डाली।

ततस्त्वदीयादयि नाभिरन्ध्रा-
दुदञ्चितं किंचन दिव्यपद्मम् ।
निलीननिश्शेषपदार्थमाला-
संक्षेपरूपं मुकुलायमानम् ॥१०॥

तत: त्वदीयात्- फिर आप ही से
अयि हे (भगवन!)
नाभिरन्ध्रात्- नाभि छिद्र से
उदञ्चितं उद्भूत हुआ
किञ्चन दिव्य-पद्मम् कोई दिव्य कमल
निलीन-निश्शेष-पदार्थ-माला- (जिसमें) समाया हुआ था समस्त पदार्थ समूह
संक्षेप-रूपं संक्षेप (बीज) रूप में
मुकुलायमानम् (वह) कली के रूप में ही था

फिर हे भगवन! आप ही के नाभि छिद्र से एक दिव्य कमल उद्भूत हुआ, जो अभी कली की अवस्था ही में था। उसमें समस्त पदार्थ समूह संक्षिप्त बीज रूप में समाया हुआ था।

तदेतदंभोरुहकुड्मलं ते
कलेवरात् तोयपथे प्ररूढम् ।
बहिर्निरीतं परित: स्फुरद्भि:
स्वधामभिर्ध्वान्तमलं न्यकृन्तत् ॥११॥

तत्-एतद्-अम्भोरुह-कुड्मलं वह यह कमल की कली ने
ते कलेवरात् आपके शरीर से (निकल कर)
तोय-पथे प्ररूढम् जल के रास्ते से बढ कर
बहि: - निरीतं बाहर निकल कर
परित: स्फुरद्भि: स्वधामभि:- चारों ओर स्फुरित होते हुए अपने तेज से
ध्वान्तम्-अलं न्यकृन्तत् अन्धकार को पूर्णतया नष्ट कर दिया

आपके शरीर से अंकुरित वह कमल कली जल के मध्य से निकल कर बाहर आ गई। उसके तेज से जो प्रकाश चारों ओर स्फुरित हो रहा था, उस तेजोमय प्रकाश से समस्त अन्धकार पूर्णतया नष्ट हो गया।

संफुल्लपत्रे नितरां विचित्रे
तस्मिन् भवद्वीर्यधृते सरोजे ।
स पद्मजन्मा विधिराविरासीत्
स्वयंप्रबुद्धाखिलवेदराशि: ॥१२॥

संफुल्ल-पत्रे सुविकसित दल वाले
नितरां विचित्रे अत्यन्त विचित्र
तस्मिन् उस
भवत्-वीर्यधृते आपकी शक्ति से धारित
सरोजे कमल पर
स पद्मजन्मा विधि: - वह कमल भू ब्रह्मा
आविरासीत् आविर्भूत हुआ
स्वयं-प्रबुद्ध-अखिल-वेद-राशि: (जिन्हे) स्वयं ज्ञात थी सम्पूर्ण वेदों की राशि

आपकी शक्ति से धारित सुविकसित दल वाले उस अत्यन्त विचित्र कमल के ऊपर पद्मजन्मा ब्रह्मा आविर्भूत हुए, जिन्हें पहले से ही समस्त वेद राशि का ज्ञान था।

अस्मिन् परात्मन् ननु पाद्मकल्पे
त्वमित्थमुत्थापितपद्मयोनि: ।
अनन्तभूमा मम रोगराशिं
निरुन्धि वातालयवास विष्णो ॥१३॥

अस्मिन् इस (में)
परात्मन् हे परमात्मन!
ननु पाद्मकल्पे निश्चय ही पाद्मकल्प में
त्वम्-इत्थम्- आपने इस प्रकार
उत्थापित-पद्मयोनि: आविर्भूत किया था ब्रह्मा को
अनन्तभूमा अनन्त वीर्यान्वित
मम रोगराशिं निरुन्धि मेरी रोगों की राशि को नष्ट करें
वातालयवास विष्णो हे गुरुवायुर विष्णु!

अनन्त वीर्यान्वित भूमन! इस प्रकार पाद्मकल्प में निश्चय ही आपने ब्रह्मा को आविर्भूत किया। हे गुरुवायुरवासिन परमात्मन! मेरी रोगों की राशि को नष्ट करें।

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