दशक ८९
रमाजाने जाने यदिह तव भक्तेषु विभवो
न सद्यस्सम्पद्यस्तदिह मदकृत्त्वादशमिनाम् ।
प्रशान्तिं कृत्वैव प्रदिशसि तत: काममखिलं
प्रशान्तेषु क्षिप्रं न खलु भवदीये च्युतिकथा ॥१॥
रमाजाने |
हे लक्ष्मी पते! |
जाने यत्-इह |
समझता हूं कि यहां |
तव भक्तेषु विभव: |
आपके भक्तों को सम्पदाएं |
न सद्य:-सम्पद्य:- |
नही शीघ्र मिलतीं |
तत्-इह |
वह (सम्पदाएं) यहां |
मद-कृत्त्वात्- |
मद वर्धक होने के कारण |
अशमिनाम् |
निरग्रही लोगों में |
प्रशान्तिं कृत्वा-एव |
(उन्हें) प्रशान्त कर के ही |
प्रदिशसि तत: |
देते हैं तब |
कामम्-अखिलम् |
इच्छित सब कुछ |
प्रशान्तेषु क्षिप्रं |
(जो पहले से ही) प्रशान्त हैं उन्हे शीघ्र ही देते हैं |
न खलु |
नहीं है निस्सन्देह |
भवदीये च्युति-कथा |
आपके भक्तों में विकार की बात ही |
हे लक्ष्मीपते! मैं समझता हूं कि यहां आपके भक्त को सम्पदाओं के मद वर्धक दोष के कारण, शीघ्र ही सम्पदाएं नहीं मिलती। आप पहले अशान्त लोगों को शान्त करने के बाद ही उन्हे इच्छित सब कुछ देते हैं। जो पहले से ही प्रशान्त हैं उनको शीघ्र ही मनोवांछित दे देते हैं। इसलिए, निस्सन्देह आपके भक्तों में विकार की सम्भावना नही होती है।
सद्य: प्रसादरुषितान् विधिशङ्करादीन्
केचिद्विभो निजगुणानुगुणं भजन्त: ।
भ्रष्टा भवन्ति बत कष्टमदीर्घदृष्ट्या
स्पष्टं वृकासुर उदाहरणं किलास्मिन् ॥२॥
सद्य: प्रसाद-रुषितान् |
क्षण में प्रसन्न, क्षण में रुष्ट |
विधि-शङ्कर-आदीन् |
ब्रह्मा शङ्कर आदि का |
केचित्-विभो |
कुछ जन हे विभो! |
निज-गुण-अनुगुणम् |
अपने गुणों के अनुरूप गुणों के कारण |
भजन्त: |
पूजन करते हैं |
भ्रष्टा:-भवन्ति |
च्युत हो जाते हैं |
बत कष्टम्- |
अहॊ खेद है |
अदीर्घ-दृष्ट्या |
संकीर्ण दृष्टि के कारण |
स्पष्टं वृकासुर |
(यह बात) स्पष्ट है वृकासुर |
उदाहरणं किल-अस्मिन् |
के उदाहरण से इस विषय में |
क्षण में प्रसन्न और क्षण मे रुष्ट होने वाले देवों, ब्रह्मा, शङ्कर आदि का निज स्वभावानुसार, गुणों के अनुरूप, लोग पूजन करते हैं। अहो खेद है कि वे संकीर्ण दृष्टि के कारण मार्ग से च्युत हो जाते हैं। वृकासुर के उदाहरण से यह बात स्पष्ट हो जाती है।
शकुनिज: स तु नारदमेकदा
त्वरिततोषमपृच्छदधीश्वरम् ।
स च दिदेश गिरीशमुपासितुं
न तु भवन्तमबन्धुमसाधुषु ॥३॥
शकुनिज: स |
शकुनि के पुत्र उसने (वृकासुर ने) |
तु नारदम्-एकदा |
तो नारद को एकबार |
त्वरित-तोषम्-अपृच्छत्- |
तुरन्त तुष्ट होने वाले के बारे में पूछा |
अधीश्वरम् |
देव के |
स च दिदेश |
उन्होंने और निर्देश दे दिया |
गिरीशम्-उपासितुं |
शङ्कर की उपासना करने के लिए |
न तु भवन्तम्- |
नहीं ही आपकी |
अबन्धुम्-असाधुषु |
(क्योंकि आप) सहायक नहीं है दुष्टों के |
शकुनि के पुत्र वृकासुर ने एकबार नारद से शीघ्र प्रसन्न होने वाले देव के विषय में पूछा। नारद ने शङ्कर की उपासना करने का निर्देश दिया, आपकी नहीं, क्यों कि आप दुष्ट जनों के सहायक नहीं हैं।
तपस्तप्त्वा घोरं स खलु कुपित: सप्तमदिने
शिर: छित्वा सद्य: पुरहरमुपस्थाप्य पुरत: ।
अतिक्षुद्रं रौद्रं शिरसि करदानेन निधनं
जगन्नाथाद्वव्रे भवति विमुखानां क्व शुभधी: ॥४॥
तप:-तप्त्वा घोरं |
तपस्या करके घोर |
स खलु कुपित: |
वह निस्सन्देह कुपित हो कर |
सप्तम-दिने |
सातवें दिन |
शिर: छित्वा |
(अपना) शिर काट कर |
सद्य: पुरहरम्- |
तुरन्त शिव को |
उपस्थाप्य पुरत: |
उपस्थित करके सामने |
अतिक्षुद्रं रौद्रं |
अत्यन्त तुच्छ और क्रूर |
शिरसि कर-दानेन |
सिर पर हाथ रख देने से |
निधनं |
मृत्यु (यह वर) |
जगन्नाथात्-वव्रे |
जग्गन्नाथ शिव से वर मांगा |
भवति विमुखानां |
आपसे विमुख लोगों की |
क्व शुभधी: |
कहां है कल्याणकारी बुद्धि |
उसने घोर तपस्या की और सातवें दिन कुपित हो कर अपना शिर काटने का उपक्रम किया, और इस प्रकार शिव को तुरन्त अपने सामने प्रकट कर के उनसे अत्यन्त तुच्छ और क्रूर वर मांगा कि, 'जिस किसी के भी सिर पर मैं हाथ रख दूं, उसकी मृत्यु हो जाए।' आपसे विमुख लोगों की बुद्धि कल्याणकारी कैसे हो सकती है?
मोक्तारं बन्धमुक्तो हरिणपतिरिव प्राद्रवत्सोऽथ रुद्रं
दैत्यात् भीत्या स्म देवो दिशि दिशि वलते पृष्ठतो दत्तदृष्टि: ।
तूष्णीके सर्वलोके तव पदमधिरोक्ष्यन्तमुद्वीक्ष्य शर्वं
दूरादेवाग्रतस्त्वं पटुवटुवपुषा तस्थिषे दानवाय ॥५॥
मोक्तारं |
मुक्ति दाता को |
बन्ध-मुक्त: |
बन्धन मुक्त होकर |
हरिणपति:-इव |
सिंह के समान ही |
प्राद्रवत्-स-अथ रुद्रं |
दौड पडा वह तब शङ्कर की ओर |
दैत्यात् भीत्या स्म |
असुर से भयभीत हो कर |
देव: दिशि दिशि |
देव प्रत्येक दिशा में |
वलते |
भागते रहे |
पृष्ठत:-दत्त-दृष्टि: |
पीछे की ओर डालते हुए दृष्टि |
तूष्णीके सर्व-लोके |
चुप रहे सभी लोग |
तव पदम्-अधिरोक्ष्यन्तम्- |
आपके पद की ओर बढते हुए |
उद्वीक्ष्य शर्वं |
देख कर शिव को |
दूरात्-एव-अग्रत:-त्वं |
दूर से ही, सामने आप |
पटु-वटु-वपुषा |
बुद्धिमान ब्रह्मचारी के वेश में |
तस्थिषे दानवाय |
प्रस्तुत हो गए असुर के |
जिस प्रकार बन्धन मुक्त हुआ सिंह मुक्ति दाता पर ही आक्रमण कर देता है, वह असुर भी शङ्कर की ओर दौड पडा। उस असुर से भयभीत हो कर पीछे की ओर दृष्टि डालते हुए देव प्रत्येक दिशा में भागते रहे। सभी ने चुप्पी साध ली, किसी ने भी सहायता नहीं की। तब शङ्कर ने आपके पद की ओर प्रस्थान किया। दूर से ही देख कर, आप एक बुद्धिमान ब्रह्मचारी के रूप में असुर के सामने प्रस्तुत हो गए।
भद्रं ते शाकुनेय भ्रमसि किमधुना त्वं पिशाचस्य वाचा
सन्देहश्चेन्मदुक्तौ तव किमु न करोष्यङ्गुलीमङ्गमौलौ ।
इत्थं त्वद्वाक्यमूढ: शिरसि कृतकर: सोऽपतच्छिन्नपातं
भ्रंशो ह्येवं परोपासितुरपि च गति: शूलिनोऽपि त्वमेव ॥६॥
भद्रं ते शाकुनेय |
कल्याण हो! हे शकुनि पुत्र! |
भ्रमसि किं अधुना त्वं |
भाग रहे हो क्यों अभी तुम |
पिशाचस्य वाचा |
पिशाच के कहने से |
सन्देह:-चेत्-मत्-उक्तौ |
सन्देह है यदि मेरी बात का |
तव किमु न करोषि- |
तुम्हारे क्यों नहीं करते हो |
अङ्गुलीम्-अङ्ग-मौलौ |
अङ्गुली को, हे प्रिय! सिर पर |
इत्थं त्वत्-वाक्य-मूढ: |
इस प्रकार आपके कहने से उस मूर्ख ने |
शिरसि कृत-कर: |
सिर पर रख लिया हाथ |
स:-अपतत्-छिन्न-पातं |
वह गिर पडा निर्मूल वृक्ष के समान |
भ्रंश:- हि-एवं |
नाश ही है ऐसे |
पर-उपासितु: अपि |
अन्य (देवों) की उपासना से भी |
च गति: |
और अन्तिम आश्रय |
शूलिन:-अपि त्वम्-एव |
शङ्कर के भी आप ही हुए |
"हे शकुनिपुत्र तुम्हारा कल्याण हो! तुम उस पिशाच के कहने पर विश्वास कर के क्यों भागे जा रहे हो? हे प्रिय! यदि मेरे कथन में सन्देह न हो तो, अपने ही सिर पर अङ्गुली क्यों नहीं रखते?" इस प्रकार आपके कहने से उस मूर्ख ने अपने ही सिर पर हाथ रख लिया और वह निर्मूल वृक्ष की भांति गिर कर मर गया। प्रतीत होता है कि अन्य देवों की उपासना से ऐसे ही नाश होता है। शङ्कर के भी अन्तिम आश्रय आप ही हुए!
भृगुं किल सरस्वतीनिकटवासिनस्तापसा-
स्त्रिमूर्तिषु समादिशन्नधिकसत्त्वतां वेदितुम् ।
अयं पुनरनादरादुदितरुद्धरोषे विधौ
हरेऽपि च जिहिंसिषौ गिरिजया धृते त्वामगात् ॥७॥
भृगुं किल |
भृगु को, एक समय |
सरस्वती-निकट-वासिन:- |
सरस्वती (नदी) के निकट निवास करने वाले |
तापसा:- |
तपस्वियों ने |
त्रि-मूर्तिषु |
त्रिमूर्ती (ब्रह्मा, विष्णु, महेश) में |
समादिशन्- |
आदेश दे कर |
अधिक-सत्त्वतां वेदितुं |
अधिक सत्वता जानने के लिए |
अयं पुन:-अनादरात्- |
यह भृगु फिर अनादर से |
उदित-रुद्ध-रोषे |
उठे हुए क्रोध को रोक कर |
विधौ |
(जब) ब्रह्मा ने, |
हरे-अपि च |
और शङ्कर को भी |
जिहिंसिषौ |
मारने को उद्यत |
गिरिजया धृते |
पार्वती के रोक लेने पर |
त्वाम्-अगात् |
आपके पास गए |
एक समय, सरस्वती नदी के निकट निवास करने वाले तपस्वियों ने भृगु मुनि को यह जानने के लिए आदेश दिया कि त्रिमूर्ति (ब्रह्मा, विष्णु और महेश) में सर्वाधिक सात्विक कौन हैं। भृगु मुनि ने जा कर ब्रह्मा का अनादर किया, किन्तु क्रोध आने पर भी ब्रह्मा ने अपने क्रोध को दबा लिया। तब वे शङ्कर के पास गए, और उनका निरादर करने पर, शङ्कर भृगु को मारने पर उद्यत हो गए और पार्वती ने उन्हें ऐसा करने से रोका। तब फिर भृगु मुनि आपके पास गए।
सुप्तं रमाङ्कभुवि पङ्कजलोचनं त्वां
विप्रे विनिघ्नति पदेन मुदोत्थितस्त्वम् ।
सर्वं क्षमस्व मुनिवर्य भवेत् सदा मे
त्वत्पादचिन्हमिह भूषणमित्यवादी: ॥८॥
सुप्तं रमा-अङ्क-भुवि |
सोए हुए लक्ष्मी की गोद में |
पङ्कजलोचनं त्वां |
कमलनयन आपको |
विप्रे विनिघ्नति पदेन |
(जब) ब्राह्मण ने प्रहार किया पैर से |
मुदा-उत्थित:-त्वम् |
हर्ष से उठ कर आपने |
सर्वं क्षमस्व मुनिवर्य |
(कहा) सब अपराध क्षमा करें हे मुनिवर! |
भवेत् सदा मे |
रहेगा सदा मेरे |
त्वत्-पाद-चिन्हम्-इह |
आपका पग चिह्न यहां |
भूषणम्-इति-अवादी: |
आभूषण यह कहा |
जब भृगु मुनि आपके पास गए, आप लक्ष्मी की गोद में सोए हुए थे। हे कमलनयन! ब्राह्मण ने आपके वक्षस्थल पर अपने पैर से प्रहार किया। आप तुरन्त उठ कर हर्ष से बोले, ' हे मुनिवर मेरे सभी अपराध क्षमा करें। आपका यह पग चिह्न सर्वदा मेरे वक्ष पर आभूषण (श्रीवत्स) की भांति सुशोभित रहेगा।'
निश्चित्य ते च सुदृढं त्वयि बद्धभावा:
सारस्वता मुनिवरा दधिरे विमोक्षम् ।
त्वामेवमच्युत पुनश्च्युतिदोषहीनं
सत्त्वोच्चयैकतनुमेव वयं भजाम: ॥९॥
निश्चित्य ते च |
और फिर निश्चय करके वे |
सुदृढं त्वयि |
अत्यन्त दृढता से आपमें |
बद्धभावा: |
स्थित करके भक्ति |
सारस्वता:-मुनिवरा:- |
सरस्वती तीर निवासी मुनिवर गण ने |
दधिरे विमोक्षम् |
प्राप्त किया मोक्ष |
त्वाम्-एवम्-अच्युत |
आपको इस प्रकार हे अच्युत |
पुन:-च्युति-दोष-हीनं |
फिर से च्युति दोष से रहित |
सत्त्व-उच्चय-एक-तनुम्- |
सत्त्व के उत्कृष्ट एकमात्र स्वरूप (आपका) |
एव वयं भजाम: |
ही हम भजन करते हैं |
सरस्वती तीर निवासी उन मुनिवरों ने आपको ही सर्वोच्च सात्विक गुण सम्पन्न मान कर, आपमें ही दृढ भक्ति स्थिर करके, मोक्ष प्राप्त किया। हे अच्युत! इस प्रकार च्युति दोष रहित, सत्त्व के एकमात्र उत्कृष्ट स्वरूप आपका ही हम भजन करते हैं।
जगत्सृष्ट्यादौ त्वां निगमनिवहैर्वन्दिभिरिव
स्तुतं विष्णो सच्चित्परमरसनिर्द्वैतवपुषम् ।
परात्मानं भूमन् पशुपवनिताभाग्यनिवहं
परितापश्रान्त्यै पवनपुरवासिन् परिभजे ॥१०॥
जगत्-सृष्टि-आदौ |
जगत की सृष्टि के प्रारम्भ में |
त्वां निगम-निवहै:- |
आपका वेदों ने समग्र |
वन्दिभि:-इव |
वन्दियों के समान |
स्तुतं विष्णो |
स्तवन किया हे विष्णु! |
सत्-चित्-परम-रस- |
सत्य, ज्ञान, अनन्त पीयूष |
निर्द्वैत-वपुषम् |
अद्वितीय स्वरूप |
परात्मानं भूमन् |
(आप) परमात्मा का, हे भूमन! |
पशुप-वनिता-भाग्य-निवहं |
गोपाङ्गनाओं के सौभाग्य स्वरूप का |
परिताप-श्रान्त्यै |
क्लेशों की शान्ति के लिए |
पवनपुरवासिन् |
हे पवनपुरवासिन! |
परिभजे |
(मैं) भजन करता हूं |
हे विष्णु! जगत की सृष्टि के आरम्भ में, समग्र वेदों ने, वन्दीगण जैसे राजा के आने पर उसका स्तवन करते हैं, वैसे ही आपका स्तवन किया। हे भूमन! सत्य ज्ञान अनन्त पीयूष अद्वितीय स्वरूप आप परमात्मा का, गोपाङ्गनाओं के सौभाग्य स्वरूप आपका, हे पवनपुरपते! क्लेशों की शान्ति के लिए, मैं भजन करता हूं।
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