Shriman Narayaneeyam

दशक 75 | प्रारंभ | दशक 77

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दशक ७६

गत्वा सान्दीपनिमथ चतुष्षष्टिमात्रैरहोभि:
सर्वज्ञस्त्वं सह मुसलिना सर्वविद्या गृहीत्वा ।
पुत्रं नष्टं यमनिलयनादाहृतं दक्षिणार्थं
दत्वा तस्मै निजपुरमगा नादयन् पाञ्चजन्यम् ॥१॥

गत्वा सान्दीपनिम्-अथ जा कर सान्दीपनि (मुनि) के पास तब
चतु:-षष्टि-मात्रै:-अहोभि: चौसठ मात्र दिनों में
सर्वज्ञ:-त्वं सर्वज्ञ आप
सह मुसलिना साथ में बलराम के
सर्व-विद्या गृहीत्वा समस्त विद्याओं को ग्रहण करके
पुत्रं नष्टं पुत्र नष्ट हुए को
यम-निलयनात्-आहृतं यम के निवास से वापस ला कर
दक्षिणा-अर्थं दक्षिणा स्वरूप
दत्वा तस्मै दे कर उसको (सान्दीपनि को)
निज-पुरम्-अगा अपने नगर को आ गए
नादयन् पाञ्चजन्यम् बजाते हुए पाञ्चजन्य (शङ्ख) को

सर्वज्ञ आप बलराम के साथ विद्यार्जन के लिए सान्दीपनि मुनि के पास गए और मात्र चौसठ दिनों में ही आपने समस्त विद्याएं ग्रहण कर ली। मुनि सान्दीपनि के मृत पुत्र को यम निकेत से वापस ला कर गुरु-दक्षिणा स्वरूप दे कर पाञ्चजन्य शङ्ख बजाते हुए आप अपने नगर लौट आए।

स्मृत्वा स्मृत्वा पशुपसुदृश: प्रेमभारप्रणुन्ना:
कारुण्येन त्वमपि विवश: प्राहिणोरुद्धवं तम् ।
किञ्चामुष्मै परमसुहृदे भक्तवर्याय तासां
भक्त्युद्रेकं सकलभुवने दुर्लभं दर्शयिष्यन् ॥२॥

स्मृत्वा स्मृत्वा याद कर कर के
पशुप-सुदृश: गोपिकाएं सुनयनाए
प्रेम-भार-प्रणुन्ना: (जो) प्रेम के अतिरेक से विह्वल थीं
कारुण्येन (आपने) करुणा से
त्वम्-अपि विवश: आप भी विवश हो गए
प्राहिणो:-उद्धवं तम् भेजा उद्धव को उसको
किम्-च-अमुष्मै और क्या इस को
परम-सुहृदे परम सखा को
भक्तवर्याय तासां भक्तिपूर्णाओं की उनकी
भक्ति-उद्रेकं भक्ति की उत्कटता को
सकल-भुवने दुर्लभं (जो) समस्त संसार में दुर्लभ है
दर्शयिष्यन् दिखाने के लिए

सुनयना गोपिकाओं को जो प्रेमातिरेक से विह्वल थीं, याद कर कर के आप भी करुणार्दित हो कर विवश हो गए। तब आपने अपने परम प्रिय सखा भक्तमौलि उद्धव को उनके पास भेजा। ताकि भक्तिपूर्णा गोपिकाओं की, समस्त संसार में दुर्लभ भक्ति की उत्कटता को वे देख पाएं।

त्वन्माहात्म्यप्रथिमपिशुनं गोकुलं प्राप्य सायं
त्वद्वार्ताभिर्बहु स रमयामास नन्दं यशोदाम् ।
प्रातर्द्दृष्ट्वा मणिमयरथं शङ्किता: पङ्कजाक्ष्य:
श्रुत्वा प्राप्तं भवदनुचरं त्यक्तकार्या: समीयु: ॥३॥

त्वत्-माहात्म्य- आपकी महानता के
प्रथिम-पिशुनं विस्तार को सूचित करने वाले
गोकुलं प्राप्य सायं गोकुल को पहुंच कर सन्ध्या समय
त्वत्-वार्ताभि:-बहु आपकी वार्ताओं बहुत सी से
स रमयामास उसने प्रसन्न किया
नन्दं यशोदाम् नन्द और यशोदा को
प्रात:-दृष्ट्वा सुबह देख कर
मणिमय-रथं मणिमय रथ को
शङ्किता: पङ्कजाक्ष्य: शङ्कित हुई कमलनयनी
श्रुत्वा प्राप्तं सुन कर आए हैं
भवत्-अनुचरं आपके अनुगामी
त्यक्त-कार्या: छोड कर कार्यों को
समीयु: सम्मिलित हो गई

उद्धव सन्ध्या समय आपकी महानता के विस्तार को सूचित करने वाले गोकुल पहुंच गए। उन्होंने आपकी अनेक वार्ताओं और समाचारों से नन्द और यशोदा को प्रसन्न कर दिया। प्रात:काल कमलनयनी गोपिकाएं मणिमय रथ को देख कर यह सुन कर कि आपके अनुगामी आए हैं, अपने अपने कार्यों को छोड कर एकत्रित हो कर आ गईं।

दृष्ट्वा चैनं त्वदुपमलसद्वेषभूषाभिरामं
स्मृत्वा स्मृत्वा तव विलसितान्युच्चकैस्तानि तानि ।
रुद्धालापा: कथमपि पुनर्गद्गदां वाचमूचु:
सौजन्यादीन् निजपरभिदामप्यलं विस्मरन्त्य: ॥४॥

दृष्ट्वा च-एनं देख कर और इसको
त्वत्-उपम- आपके समान
लसत्-वेष-भूषा-अभिरामं सुसज्जित वस्त्रों और आभूषणों में मनोरम
स्मृत्वा स्मृत्वा याद कर कर के
तव विलसितानि- आपकी क्रीडाओं को
उच्चकै:-तानि तानि विस्तार से उन सब को
रुद्ध-आलापा: अवरुद्ध कण्ठ स्वर वाली
कथम्-अपि किसी प्रकार भी
पुन:-गद्गदां फिर से गद्गद
वाचम्-ऊचु: वाणी में बोलीं
सौजन्य-आदीन् व्यवहार आदि
निज-पर-भिदाम्- अपने पराए का भेद
अपि-अलं भी सर्वथा
विस्मरन्त्य: भूल गईं

आप ही के समान मनोरम वस्त्रों और आभूषणों से सुसज्जित उद्धव को देख कर गोपिकाएं, बारंबार आपकी क्रीडालीलाओं का विस्तार से स्मरण करने लगीं। उनके कण्ठ स्वर अवरुद्ध हो गए, फिर किसी प्रकार, सामाजिक व्यवहार और अपने पराए के भेद को भी भूल कर वे गद्गद वाणी में बोलीं।

श्रीमान् किं त्वं पितृजनकृते प्रेषितो निर्दयेन
क्वासौ कान्तो नगरसुदृशां हा हरे नाथ पाया: ।
आश्लेषाणाममृतवपुषो हन्त ते चुम्बनाना-
मुन्मादानां कुहकवचसां विस्मरेत् कान्त का वा ॥५॥

श्रीमान् किं त्वं श्रीमान! क्या तुम को
पितृजन-कृते पितृजनों के लिए
प्रेषित: निर्दयेन भेजा है निर्दयी ने
क्व-असौ कान्त: कहां है प्यारा
नगर-सुदृशां नगर कामिनियों का
हा हरे नाथ पाया: हा हरे! हे नाथ! रक्षा करें
आश्लेषाणाम्- आलिङ्गन
अमृत-वपुष: (उस) अमृत स्वरूप का
हन्त ते हाय! आपका
चुम्बनानाम् चुम्बनों का
उन्मादानां उन्माद का
कुहक-वचसां कपट वचनों का
विस्मरेत् कान्त भूलेगी प्यारे
का वा कौन अथवा

श्रीमान! उस निर्दयी ने क्या आपको पितृजनों के लिए भेजा है? नगर की कामिनियों का प्यारा कहां है?' हा हरे! हे नाथ! रक्षा करें। हे प्यारे! हाय! आपके अमृत स्वरूप के आलिङ्गन को, आपके चुम्बनों के उन्माद को, आपके कपट वचनों को कौन स्त्री भला भूलेगी?

रासक्रीडालुलितललितं विश्लथत्केशपाशं
मन्दोद्भिन्नश्रमजलकणं लोभनीयं त्वदङ्गम् ।
कारुण्याब्धे सकृदपि समालिङ्गितुं दर्शयेति
प्रेमोन्मादाद्भुवनमदन त्वत्प्रियास्त्वां विलेपु: ॥६॥

रास-क्रीडा रास क्रीडा (के समय)
लुलित-ललितं सजाए हुए सुन्दर
विश्लथत्-केश-पाशं ढीले पडे हुए केश गुच्छ वाले
मन्द-उद्भिन्न- हलके उभरते हुए
श्रमजल-कणं सश्रम जनित स्वेद बिन्दु वाले
लोभनीयं त्वत्-अङ्गम् मोहनीय आपके श्री अङ्गों को
कारुण्य-अब्धे हे करुणासिन्धु!
सकृत्-अपि एक बार भी
समालिङ्गितुम् दर्शय- आलिङ्गन करने के लिए दिखा दीजिए
इति प्रेम-उन्मादात्- इस प्रकार प्रेम के उन्माद से
भुवनमदन हे भुवनमोहन!
त्वत्-प्रिया:- आपकी प्रियायें
त्वां विलेपु: आपके लिए विलाप करने लगीं

हे करुणा सिन्धो! सजाए हुए सुन्दर केश गुच्छ जो रास क्रीडा के समय, ढीले पड गए थे, वे मोहनीय श्री अङ्ग जिन पर श्रम जनित स्वेद बिन्दु उभर आए थे, उनको, एकबार ही सही आलिङ्गन करने के लिए दिखा दीजिए।' हे भुवनमोहन! आपकी प्रेमिकाएं इस प्रकार प्रेम में उन्मत्त हो आपके लिए विलाप करने लगीं।

एवंप्रायैर्विवशवचनैराकुला गोपिकास्ता-
स्त्वत्सन्देशै: प्रकृतिमनयत् सोऽथ विज्ञानगर्भै: ।
भूयस्ताभिर्मुदितमतिभिस्त्वन्मयीभिर्वधूभि-
स्तत्तद्वार्तासरसमनयत् कानिचिद्वासराणि ॥७॥

एवं-प्रायै:- ऐसे ही प्राय:
विवश-वचनै:- विवशता पूर्ण वचनों से
आकुला: गोपिका:-ता:- विह्वल उन गोपिकाओं को
त्वत्-सन्देशै: आपके सन्देशों के द्वारा
प्रकृतिम्-अनयत् प्रकृतस्थ किया
स:-अथ उस (उद्धव) ने तब
विज्ञान-गर्भै: ज्ञानपूर्ण (बातों से)
भूय:- फिर से
ताभि:-मुदितमतिभि:- उन सम्मुदित मन वाली
त्वत्-मयीभि:-वधूभि:- आप में ही तन्मय वधुओं के साथ
तत्-तत्-वार्ता- उन उन घटनाओं का (वर्णन करते हुए )
सरसम्-अनयत् आनन्दपूर्वक बिताए
कानिचित्-वासराणि कुछ दिन

प्राय: इसी प्रकार के विवशता पूर्ण वचनों से विह्वल गोपिकाओं को आपका सन्देश सुना कर उद्धव ने प्रकृतस्थ किया। आपमें ही तन्मय और सम्मुदित मन वाली गोपिकाओं को उद्धव ने ज्ञान पूर्ण बातें बताईं। फिर उनके साथ आपकी ही उन उन घटनाओं का वर्णन करते हुए कुछ दिन आनन्दपूर्वक व्यतीत किए।

त्वत्प्रोद्गानै: सहितमनिशं सर्वतो गेहकृत्यं
त्वद्वार्तैव प्रसरति मिथ: सैव चोत्स्वापलापा: ।
चेष्टा: प्रायस्त्वदनुकृतयस्त्वन्मयं सर्वमेवं
दृष्ट्वा तत्र व्यमुहदधिकं विस्मयादुद्धवोऽयम् ॥८॥

त्वत्-प्रोद्गानै: सहितम्- आपके गीतों के साथ
अनिशं सर्वत: दिन रात सर्वत्र
गेह-कृत्यं गृह कार्यों को (करती थीं)
त्वत्-वार्ता-एव आपके किस्से ही
प्रसरति चलते थे
मिथ: सा-एव परस्पर वह ही
च-उत्स्व-अपलापा: और स्वप्न में कहती थीं
चेष्टा: प्राय:- (सभी) चेष्टाएं प्राय:
त्वत्-अनुकृतय:- आपके अनुकरण स्वरूप
त्वत्-मयं आपमें ही तन्मय
सर्वम्-एवं सभी इस प्रकार
दृष्ट्वा तत्र देख कर वहां
व्यमुहत्-अधिकं सम्मोहित और अधिक
विस्मयात्-उद्धव:-अयम् आश्चर्य से उद्धव यह

गोपिकाएं दिन रात और सर्वत्र आप ही के गीतों के साथ गृह कार्यों को करती थीं। उनके बीच परस्पर आप ही के किस्सों की चर्चा चलती थी। स्वप्न में भी वे आप ही की कहानियां कहती थीं। उनकी सारी चेष्टाएं प्राय: आप ही का अनुकरण स्वरूप होती थीं। इस प्रकार सभी कुछ आप ही में तल्लीन देख कर उद्धव आश्चर्य से और अधिक सम्मोहित हो गए।

राधाया मे प्रियतममिदं मत्प्रियैवं ब्रवीति
त्वं किं मौनं कलयसि सखे मानिनीमत्प्रियेव।
इत्याद्येव प्रवदति सखि त्वत्प्रियो निर्जने मा-
मित्थंवादैररमदयं त्वत्प्रियामुत्पलाक्षीम् ॥९॥

राधाया: मे राधा के लिए मेरी
प्रियतमम्-इदं प्रियतर है यह
मत्-प्रिया-एवं ब्रवीति मेरी प्रिया इस प्रकार कहती है
त्वं किं मौनं कलयसि तुम क्या मौन धारण किए हो
सखे हे सखे!
मानिनी-मत्-प्रिया-इव स्वाभिमानी मेरी प्रिया के समान
इति-आदि-एव यही इत्यादि ही
प्रवदति सखि कहता है, हे सखी!
त्वत्-प्रिय: तुम्हारा प्रिय
निर्जने माम्- एकान्त में मुझको
इत्थं-वादै:- इस प्रकार के कथन से
अरमत्-अयं प्रसन्न कर दिया इसने
त्वत्-प्रियाम्- आपकी प्रिया
उत्पल-आक्षीम् कमलनयनी को

मेरी राधा के लिए यह प्रियतर है,' 'मेरी प्रिया इस प्रकार कहती है,' 'हे सखे! मेरी स्वभिमानिनी प्रिया के समान तुम क्यों मौन धारण किए हो?' - 'हे सखी! तुम्हारा प्रिय एकान्त में मुझसे यही सब कहता रहता है' उद्धव ने इस प्रकार के कथनों से आपकी कमलनयना प्रिया को प्रसन्न कर दिया।

एष्यामि द्रागनुपगमनं केवलं कार्यभारा-
द्विश्लेषेऽपि स्मरणदृढतासम्भवान्मास्तु खेद: ।
ब्रह्मानन्दे मिलति नचिरात् सङ्गमो वा वियोग-
स्तुल्यो व: स्यादिति तव गिरा सोऽकरोन्निर्व्यथास्ता: ॥१०॥

एष्यामि द्राक्- आऊंगा शीघ्र
अनुपगमनं (मेरा) नहीं आना
केवलं कार्यभारात्- मात्र कार्य के भार (के कारण) है
विश्लेषे-अपि वियोग में भी
स्मरण-दृढता-सम्भवात्- स्मृतियों की प्रगाढता से
मा-अस्तु खेद: नहीं होना चाहिए दु:ख
ब्रह्मानन्दे मिलति ब्रह्मानन्द मिल जाने से
न-चिरात् नहीं देर से (जल्दी ही)
सङ्गम: वा वियोग:- सङ्गम अथवा वियोग
तुल्य: व: स्यात्- समान तुम लोगों के लिए होगा
इति तव गिरा इस प्रकार आपकी वाणी से
स:-अकरोत्- उसने कर दिया
निर्व्यथा:-ता: दु:ख रहित उनको

मैं शीघ्र ही आऊंगा। केवल कार्य भार के कारण ही मेरा आना नहीं हो रहा है। परस्पर स्मृतियों की प्रगाढता से विरह जनित दुख नहीं होना चाहिए। शीघ्र ही ब्रह्मानन्द प्राप्त हो जाने पर तुम लोगों के लिये संयोग अथवा वियोग दोनों समान होंगे।' आपकी ऐसी वाणी सुना कर उद्धव ने गोपिकाओं को दु:ख रहित कर दिया।

एवं भक्ति सकलभुवने नेक्षिता न श्रुता वा
किं शास्त्रौघै: किमिह तपसा गोपिकाभ्यो नमोऽस्तु ।
इत्यानन्दाकुलमुपगतं गोकुलादुद्धवं तं
दृष्ट्वा हृष्टो गुरुपुरपते पाहि मामामयौघात् ॥११॥

एवं भक्ति: ऐसी भक्ति
सकल-भुवने समस्त विश्व में
न-ईक्षिता नहीं देखी गई
न श्रुता वा अथवा नहीं सुनी गई
किं शास्त्र-औघै: क्या (प्रयोजन) शास्त्रों के समूह से
किम्-इह तपसा क्या (लाभ) यहां तपस्या से
गोपिकाभ्य: नम:-अस्तु गोपिकाओं को ही नमस्कार है
इति-आदि- यह और इस प्रकार
आनन्द-आकुलम्- आनन्द विभोर को
उपगतं गोकुलात्- (जो) चला गया था गोकुल से
उद्धवं तं उस उद्धव को
दृष्ट्वा हृष्ट: देख कर प्रसन्न हो गए
गुरुपुरपते पाहि हे गुरुपुरपते! रक्षा करें
माम्-आमय-औघात् मेरी रोग समूहों से

'सम्पूर्ण विश्व में ऐसी भक्ति, न तो देखने में आई और न हीं सुनने में आई। शास्त्रों के समूहों का क्या प्रयोजन? तपस्या का भी क्या लाभ? गोपिकाएं ही सर्वथा सम्पूज्य हैं।' इसी प्रकार के विचारों से आनन्द विभोर हो कर उद्धव गोकुल से चले गए। उन्हे देख कर आप प्रसन्न हो उठे। हे गुरुपुरपते! रोग समूहों से मेरी रक्षा करें।

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