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दशक ६६

उपयातानां सुदृशां कुसुमायुधबाणपातविवशानाम् ।
अभिवाञ्छितं विधातुं कृतमतिरपि ता जगाथ वाममिव ॥१॥

उपयातानां आई हुई को
सुदृशां सुनयनाओं को
कुसुमायुध- कुसुमायुध (कामदेव) के
बाण-पात- बाणों के आघात से
विवशानाम् विवश हुई को
अभिवाञ्छितं मनोवाञ्छित
विधातुं करने के लिए
कृतमति:-अपि कर के निश्चय भी
ता: जगाथ उनको कहा
वामम्-इव विपरीत की भांति

कामदेव के बाणों से आहत हो कर विवश हुई आपके पास आई हुई सुनयनाओं को उनका मनोवाञ्छित करने के लिए आप कृत निश्चय थे। फिर भी आपने उनको विपरीत भाव में कहा।

गगनगतं मुनिनिवहं श्रावयितुं जगिथ कुलवधूधर्मम् ।
धर्म्यं खलु ते वचनं कर्म तु नो निर्मलस्य विश्वास्यम् ॥२॥

गगन-गतं गगन में स्थित
मुनि-निवहं मुनि गण को
श्रावयितुं सुनाने के लिए
जगिथ (आपने) कहा
कुल-वधू-धर्मम् कुल वधुओं का धर्म
धर्म्यम् खलु धर्म के अनूकूल ही
ते वचनं आपके वचनों का
कर्म तु नो कर्मों का तो नहीं
निर्मलस्य (आप) परम निर्मल का
विश्वास्यम् अनुकरणीय है

गगन में स्थित मुनि गण को सुनाने के लिए आपने कुल वधुओं को उनके धर्म का उपदेश दिया। परम निर्मल आपके वचन सर्वदा धर्म सङ्गत होते हैं इस लिए अनुकरणीय हैं, किन्तु कर्म सर्वथा अलौकिक होने के कारण अनुकरणीय नहीं हैं।

आकर्ण्य ते प्रतीपां वाणीमेणीदृश: परं दीना: ।
मा मा करुणासिन्धो परित्यजेत्यतिचिरं विलेपुस्ता: ॥३॥

आकर्ण्य ते सुन कर आपकी
प्रतीपां वाणीम्- प्रतिकूल वाणी को
एणीदृश: मृगनयनी वे
परं दीना: अत्यन्त दु:खी (हो कर कहने लगीं)
मा मा नहीं नहीं
करुणासिन्धो हे करुणासिन्धो!
परित्यज-इति- परित्याग करें इस प्रकार
अचिरं बहुत समय तक
विलेपु:-ता: विलाप करते रहीं वे

आपकी प्रतिकूल वाणी सुन कर वे मृगनयनी गोपियां, अत्यन्त दु:खी हो कर कहने लगीं, 'हे करुणासिन्धो! हमारा परित्याग न करें, न करें।' इस प्रकार वे दीर्घ समय तक विलाप करती रहीं।

तासां रुदितैर्लपितै: करुणाकुलमानसो मुरारे त्वम् ।
ताभिस्समं प्रवृत्तो यमुनापुलिनेषु काममभिरन्तुम् ॥४॥

तासां रुदितै:- उन (गोपिकाओं) के रुदन से
लपितै: (और) करुण आग्रह से
करुणा-आकुल- करुणा से व्याकुल
मानस: मन वाले (आप)
मुरारे त्वम् हे मुरारे! आप
ताभि:-समम् उनके सङ्ग
प्रवृत्त: प्रस्तुत हो गए
यमुना-पुलिनेषु यमुना के तटों पर
कामम्-अभिरन्तुम् स्वेच्छा से रमण करने के लिए

हे मुरारे! उन गोपिकाओं के रुदन और करुण आग्रहों से करुणा द्रवित हुआ आपका मन विचलित हो गया। यमुना के तटों पर उनके सङ्ग स्वेच्छा से रमण करने के लिए आप प्रस्तुत हो गए।

चन्द्रकरस्यन्दलसत्सुन्दरयमुनातटान्तवीथीषु ।
गोपीजनोत्तरीयैरापादितसंस्तरो न्यषीदस्त्वम् ॥५॥

चन्द्रकर- चन्द्र किरणों की
स्यन्द-लसत्- स्निग्धता से सुशोभित
सुन्दर- सुन्दर
यमुना-तटान्त- यमुना के तट के किनारे की
वीथीषु वीथियों में
गोपीजन- गोपीजनों ने
उत्तरीयै:- अपने उत्तरीय से
आपादित-संस्तर: बिछा दिया बिस्तर
न्यषीद:-त्वम् (और) आप बैठ गए

यमुना के तट चन्द्र किरणो की स्निग्ध सुन्दरता भरी शोभा से आच्छादित थे। तटान्त की वीथियों मे गोपिजन ने अपने उत्तरीय से बिस्तर बिछा दिया। आप उस पर बैठ गए।

सुमधुरनर्मालपनै: करसंग्रहणैश्च चुम्बनोल्लासै: ।
गाढालिङ्गनसङ्गैस्त्वमङ्गनालोकमाकुलीचकृषे ॥६॥

सुमधुर्- अत्यन्त मधुर
नर्म-आलपनै: परिहास पूर्ण बातों से
कर-संग्रहणै:-च (परस्पर) हाथों के पकडने से
चुम्बन-उल्लासै: और चुम्बन के उल्लास से
गाढ-आलिङ्गन-सङ्गै:- प्रगाढ आलिङ्गनों से
त्वम्- आपने
अङ्गना-लोकम्- गोपिकाओं को
आकुली-चकृषे अत्यन्त आकुलित कर दिया

आपने गोपाङ्गनाओं को अपनी मधुर और हास्यपूर्ण बातों से, परस्पर हाथ पकडने से, चुम्बन के उत्साह से और प्रगाढ आलिङ्गनों से अत्यन्त आकुलित कर दिया।

वासोहरणदिने यद्वासोहरणं प्रतिश्रुतं तासाम् ।
तदपि विभो रसविवशस्वान्तानां कान्त सुभ्रुवामदधा: ॥७॥

वासो-हरण-दिने वस्त्रों के हरण के दिन
यत्-वासो-हरणम् जो वस्त्रों का हरण हुआ था
प्रतिश्रुतं तासाम् प्रतिज्ञा की थी उनसे (गोपियों से)
तत्-अपि विभो वह भी हे विभो!
रस-विवश-स्वान्तानां (आनन्द) रस से विवश चित्त वाली
कान्त हे कान्त!
सुभ्रुवाम्- सुभ्रू उनको
अदधा: दिया

हे विभो! वस्त्र हरण के दिन आपने, उन सुभ्रू गोपियों से, वस्त्र के हरण की प्रतिज्ञा की थी। हे कान्त! आपने आनन्द रस से विवश चित्त वाली गोपिकाओं को उस वस्त्र के (माया के आवरण का) हरण (का आनन्द) दिया।

कन्दलितघर्मलेशं कुन्दमृदुस्मेरवक्त्रपाथोजम् ।
नन्दसुत त्वां त्रिजगत्सुन्दरमुपगूह्य नन्दिता बाला: ॥८॥

कन्दलित- उभरे हुए
घर्म-लेशं स्वेद बिन्दुओं वाले
कुन्द-मृदु-स्मेर- कुन्द (पुष्प) के समान मधुर मुस्कान वाले
वक्त्र-पाथोजम् मुख पद्म वाले
नन्दसुत त्वां हे नन्द पुत्र! आपको
त्रिजगत्-सुन्दरम्- त्रिजगत में सर्वोत्तम सुन्दर को
उपगूह्य आलिङ्गन कर के
नन्दिता: बाला: परम आनन्दित हुई बालाएं

हे नन्द पुत्र! त्रिजगत में सर्वोच्च सुन्दर हैं। स्वेद बिन्दु युक्त, कुन्द कुसुम के समान मुस्कान से सुशोभित मुख पद्म वाले आपका आलिङ्गन कर के वे बालाएं अत्यन्त आनन्दित हुईं।

विरहेष्वङ्गारमय: शृङ्गारमयश्च सङ्गमे हि त्वम्
नितरामङ्गारमयस्तत्र पुनस्सङ्गमेऽपि चित्रमिदम् ॥९॥

विरहेषु- विरह के समय
अङ्गारमय: अङ्गारमय (दाहक)
शृङ्गारमय:-च और शृङ्गारमय
सङ्गमे समागम के समय (में)
हि त्वम् भी आप
नितराम्- सर्वथा
अङ्ग-अरमय: हे अङ्ग! रमण किया
तत्र पुन:- वहां फिर
सङ्गमे-अपि संगम में भी
चित्रम्-इदम् आश्चर्य है यह

विरह में आप अङ्गार स्वरूप (दाहक) प्रतीत होते हैं। और समागम के समय आप सर्वथा शृङ्गारमय (शीतल) प्रतीत होते हैं। हे अङ्ग! आप गोपियों से समागम के समय रागमय प्रतीत हुए। क्या आश्चर्य है?

राधातुङ्गपयोधरसाधुपरीरम्भलोलुपात्मानम् ।
आराधये भवन्तं पवनपुराधीश शमय सकलगदान् ॥१०॥

राधा-तुङ्ग-पयोधर- राधा के उतुङ्ग स्तनों का
साधु-परीरम्भ- भलि भांति आलिङ्गन करने के लिए
लोलुप-आत्मानम् लोलुप मन वाले (आपकी)
आराधये भवन्तं आराधना (करता हूं) आपकी
पवनपुराधीश हे पवनपुराधीश!
शमय सकल-गदान् शान्त करें व्याधियों को

राधा के उतुङ्ग पयोधरों का भलि भांति आलिङ्गन करने के लिए उतावले मन वाले हे पवनपुराधीश! मैं आपकी आराधना करता हूं। मेरी व्याधियों का शमन करें।

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