|
दशक ६३
ददृशिरे किल तत्क्षणमक्षत-
स्तनितजृम्भितकम्पितदिक्तटा: ।
सुषमया भवदङ्गतुलां गता
व्रजपदोपरि वारिधरास्त्वया ॥१॥
| ददृशिरे किल |
देखी गई नि:सन्देह |
| तत्-क्षणम्- |
उसी क्षण से |
| अक्षत-स्तनित- |
अबाध गर्जना के |
| जृम्भित-कम्पित- |
फैलने से प्रकम्पित हो गईं |
| दिक्-तटा: |
दिशाएं अन्त तक |
| सुषमया |
कान्ति से |
| भवत्-अङ्ग-तुलां |
आपके श्री अङ्गों के समान |
| गता: |
धारण कर के |
| व्रजपद-उपरि |
व्रज स्थान के ऊपर |
| वारिधरा:-त्वया |
जल मेघ आपके द्वारा |
उसी क्षण आपने देखा कि अबाध गर्जना के फैलने से दिशाएं अन्त तक कम्पित हो उठीं। आपके श्री अङ्गों की कान्ति के तुल्य कान्ति धारण कर के जल मेघ व्रज के आकाश में छा गए।
विपुलकरकमिश्रैस्तोयधारानिपातै-
र्दिशिदिशि पशुपानां मण्डले दण्ड्यमाने ।
कुपितहरिकृतान्न: पाहि पाहीति तेषां
वचनमजित श्रृण्वन् मा बिभीतेत्यभाणी: ॥२॥
| विपुल-करक-मिश्रै:- |
बडे बडे ओलों के साथ |
| तोय-धारा-निपातै:- |
जल की धारा गिरने से |
| दिशि-दिशि |
हर दिशा में |
| पशुपानां मण्डले |
गोप मण्डलों में |
| दण्ड्य़माने |
दण्डित होते हुए |
| कुपित- |
क्रुद्ध |
| हरि-कृतात्- |
इन्द्र की करनी से |
| न: पाहि पाहि- |
हमें बचाइए बचाइए |
| इति तेषां वचनम्- |
ऐसे उनके वचन |
| अजित श्रृणवन् |
हे अजित! सुन कर |
| मा विभीत- |
'मत डरो' |
| इति-अभाणी: |
यह कहा (आपने) |
हर दिशा में बडे बडे ओलों के साथ मूसलाधार वर्षण से, गोप मण्डल क्रुद्ध इन्द्र की करनी से दण्डित होता हुआ पुकारने लगा, 'हमें बचाइए, बचाइए।' हे अजित! उनके ऐसे वचन सुन कर आपने कहा, 'डरो मत।'
कुल इह खलु गोत्रो दैवतं गोत्रशत्रो-
र्विहतिमिह स रुन्ध्यात् को नु व: संशयोऽस्मिन् ।
इति सहसितवादी देव गोवर्द्धनाद्रिं
त्वरितमुदमुमूलो मूलतो बालदोर्भ्याम् ॥३॥
| कुल इह |
कुल का यहां |
| खलु गोत्र: दैवतं |
निश्चय ही गिरिराज देवता है |
| गोत्र-शत्रो:- |
पर्वत के शत्रु (इन्द्र) के |
| विहितम्-इह् |
आक्रमण को यहां |
| स रुन्ध्यात् |
वही रोकेगा |
| क: नु व: संशय:- |
कहां है आप लोगों को संशय |
| अस्मिन् इति |
इसमें इस प्रकार |
| सहसित-वादी |
हंसते हुए कहा |
| देव |
हे देव! |
| गोवर्द्धन-अद्रिम् |
गोवर्द्धन गिरि को |
| त्वरितम्- |
झट से |
| उदमुमूल: मूलत: |
उखाड लिया मूल से |
| बाल-दोर्भ्याम् |
कोमल दो हाथों से |
'यहां इस कुल के देवता निश्चय ही गिरिराज हैं। पर्वत के शत्रु इन्द्र के आक्रमण को वे ही रोकेंगे। इस में आप लोगों को कहां संन्देह है?' आपने हंसते हुए इस प्रकार कहा और झट से अपने कोमल दो हाथों से, गोवर्द्धन गिरिराज को समूल उखाड लिया।
तदनु गिरिवरस्य प्रोद्धृतस्यास्य तावत्
सिकतिलमृदुदेशे दूरतो वारितापे ।
परिकरपरिमिश्रान् धेनुगोपानधस्ता-
दुपनिदधदधत्था हस्तपद्मेन शैलम् ॥४॥
| तदनु गिरिवरस्य |
तदनन्तर गिरिराज के |
| प्रोद्धृतस्य- |
(ऊपर) उठाए हुए |
| अस्य तावत् |
इसके तब |
| सिकतिल-मृदु-देशे |
बालू वाले कोमल सतह पर |
| दूरत: वारित-आपे |
दूर तक रोके गए जल वाले के |
| परिकर-परिमिश्रान् |
समस्त सामग्रियों के सहित |
| धेनु-गोपान्- |
गौ और गोपों को |
| अधस्तात्- |
नीचे |
| उपनिदधत्- |
करके |
| अधत्था: |
(आपने) ऊंचा उठा लिया |
| हस्त-पद्मेन |
एक हस्त पद्म से |
| शैलम् |
पर्वत को |
तत्पश्चात ऊपर उठाए हुए उस गिरिवर के नीचे बालुका प्रदेश में, जहां दूर तक जल का निवारण हो गया था, आपने समस्त सामग्रियों सहित गौ और गोपों को सुरक्षित स्थापित कर दिया। फिर आपने अपने एक करकमल से पर्वत को और ऊपर उठा लिया।
भवति विधृतशैले बालिकाभिर्वयस्यै-
रपि विहितविलासं केलिलापादिलोले ।
सविधमिलितधेनूरेकहस्तेन कण्डू-
यति सति पशुपालास्तोषमैषन्त सर्वे ॥५॥
| भवति |
आपके |
| विधृत-शैले |
उठाए जाने पर पर्वत के |
| बालिकाभि: |
बालिकाओं के द्वारा |
| वयस्यै:-अपि |
समवयस्कों के द्वारा भी |
| विहित-विलासं |
सन्लग्न क्रीडा में |
| केलि-लाप-आदि-लोले |
क्रीडापूर्ण मधुर वार्तालाप मे व्यस्त |
| सविध-मिलित-धेनू:- |
निकट मे सम्मिलित हुई गौओं को |
| एक-हस्तेन |
एक हाथ से |
| कण्डूयति सति |
सहलाते हुए |
| पशुपाला:- |
(देख कर) गोपालक गण |
| तोषम्-ऐषन्त |
सन्तुष्ट हो गए |
| सर्वे |
सभी |
पर्वत को उठाए रख कर भी आप समवयस्क बालिकाओं और गोपालों के साथ क्रीडा और क्रीडापूर्ण वार्तालाप मे संलग्न थे। उस समय आप अपने निकट सम्मिलित हुई गौओं को एक हाथ से सहला रहे थे। यह देख कर सभी गोपालकगण अत्यधिक सन्तुष्ट हो गए।
अतिमहान् गिरिरेष तु वामके
करसरोरुहि तं धरते चिरम् ।
किमिदमद्भुतमद्रिबलं न्विति
त्वदवलोकिभिराकथि गोपकै: ॥६॥
| अतिमहान् |
अत्यन्त विशाल |
| गिरि:-एष |
पर्वत यह |
| तु वामके |
को भी बांए |
| कर-सरोरुहि |
हाथ कमलनाल के समान (कोमल) में |
| तं धरते चिरम् |
उसको उठाए हुए है देर से |
| किम्-इदम्- |
कितना है यह |
| अद्भुतम्- |
आश्चर्यजनक |
| अद्रि-बलं |
(या) पर्वत का ही गुरुत्व |
| नु-इति |
अथवा है इस प्रकार |
| त्वत्-अवलोकिभि:- |
आपके देखने वालों ने |
| आकथि गोपकै: |
कहा गोपों ने |
'इस अत्यन्त विशाल पर्वत को भी इतनी देर से अपने कमलनाल के समान कोमल बाएं हाथ में उठाए हुए है। कितने आश्चर्य की बात है! अथवा क्या यह पर्वत का ही बल है।' आपको देखने वाले गोपों ने परस्पर ऐसा कहा।
अहह धार्ष्ट्यममुष्य वटोर्गिरिं
व्यथितबाहुरसाववरोपयेत् ।
इति हरिस्त्वयि बद्धविगर्हणो
दिवससप्तकमुग्रमवर्षयत् ॥७॥
| अहह धार्ष्ट्यम्- |
अहो! धृष्टता |
| अमुष्य वटो:- |
इस बटुक की |
| गिरिम् व्यथित-बाहु:- |
पर्वत को व्यथित बांह से |
| असौ-अवरोपयेत् |
यह रख देगा |
| इति हरि:-त्वयि |
इस प्रकार इन्द्र आपमें |
| बद्ध-विगर्हण: |
धारण कर के कटुता |
| दिवस-सप्तकम्- |
दिनों तक सात |
| उग्रम्-अवर्षयत् |
भीषण वर्षा करता रहा |
'अहो! इस बटुक की धृष्टता तो देखो। बांह व्यथित होने पर यह पर्वत को रख देगा।' इस प्रकार इन्द्र आपके प्रति कटुता भर कर सात दिनों तक भीषण वर्षा करता रहा।
अचलति त्वयि देव पदात् पदं
गलितसर्वजले च घनोत्करे ।
अपहृते मरुता मरुतां पति-
स्त्वदभिशङ्कितधी: समुपाद्रवत् ॥८॥
| अचलति त्वयि |
जब आप |
| देव |
हे देव! |
| पदात् पदं |
एक पग से दूसरे पग पर भी नही हिले |
| गलित-सर्व-जले |
समाप्त हो जाने पर समस्त जल के |
| च घनोत्करे |
और मेघों के |
| अपहृते मरुता |
उडा ले जाने पर हवाओं के |
| मरुतां पति: |
देवताओं के पति (इन्द्र) |
| त्वत्-अभिशङ्कित-धी: |
आपके प्रति शङ्कित मन वाले |
| समुपाद्रवत् |
भाग गए |
हे देव! आप एक पग से दूसरे पग पर भी विचलित नहीं हुए। मेघों का समस्त जल समाप्त हो गया और उन मेघों को वायु उडा कर ले गई। इस पर देवताओं के पति इन्द्र का चित्त आपके प्रति शंकित हो गया और वे वहां से भाग गए।
शममुपेयुषि वर्षभरे तदा
पशुपधेनुकुले च विनिर्गते ।
भुवि विभो समुपाहितभूधर:
प्रमुदितै: पशुपै: परिरेभिषे ॥९॥
| शमम्-उपेयुषि |
उपशमन हो जाने पर |
| वर्षभरे तदा |
भारी वर्षा का तब |
| पशुप-धेनु-कुले |
गोपों और गौओं के कुल |
| च विनिर्गते |
और निकल गए (पर्वत के नीचे से) |
| भुवि विभो |
भूमि पर हे प्रभो! |
| समुपाहित-भूधर: |
संस्थापित कर के पर्वत को |
| प्रमुदितै: पशुपै: |
प्रसन्न हुए गोपों के द्वारा |
| परिरेभिषे |
आप आलिङ्गित हुए |
उस भारी वर्षा का उपशमन हो जाने पर गोपों और गौओं के कुल पर्वत के नीचे से निकल आए। तब आपने पर्वत को भूमि पर प्रतिस्थापित कर दिया। अत्यधिक प्रसन्न हुए गोपों ने आपका आलिङ्गन किया।
धरणिमेव पुरा धृतवानसि
क्षितिधरोद्धरणे तव क: श्रम: ।
इति नुतस्त्रिदशै: कमलापते
गुरुपुरालय पालय मां गदात् ॥१०॥
| धरणिम्-एव पुरा |
पृथ्वी को ही पहले (कूर्मावतार के समय) |
| धृतवानसि |
ऊपर उठा लिया था (आपने) |
| क्षितिधर-उद्धरणे |
पर्वत के उठाने में |
| तव क: श्रम: |
आपको क्या श्रम हुआ |
| इति नुत:-त्रिदशै: |
इस प्रकार वन्दना की देवों ने |
| कमलापते |
हे कमलापते! |
| गुरुपुरालय |
हे गुरुपुरालय! |
| पालय मां गदात् |
पालन करे मेरा रोगों से |
हे कमलापते! पहले कूर्मावतार के समय आपने सम्पूर्ण पृथ्वी को ही ऊपर उठा लिया था। इस पर्वत को उठाने में आपको क्या श्रम हुआ होगा?' इस प्रकार देवताओं ने आपकी स्तुति की। हे गुरुपुरालय! रोगों से रक्षा करके मेरा पालन करें।
|