Shriman Narayaneeyam

दशक 60 | प्रारंभ | दशक 62

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दशक ६१

ततश्च वृन्दावनतोऽतिदूरतो
वनं गतस्त्वं खलु गोपगोकुलै: ।
हृदन्तरे भक्ततरद्विजाङ्गना-
कदम्बकानुग्रहणाग्रहं वहन् ॥१॥

तत:-च और फिर
वृन्दावनत:- वृन्दावन से
अतिदूरत: बहुत दूर पर
वनं गत:-त्वं वन को गये आप
खलु गोप-गोकुलै: नि:सन्देह गोप और गौओं के साथ
हृदन्तरे हृदय के अन्दर
भक्ततर- भक्तों में श्रेष्ठ
द्विजाङ्गना:- द्विजाङ्गना
कदम्बक- गण पर
अनुग्रहण- अनुग्रह करने की
आग्रहं वहन् कामना लिये हुए

और फिर एक बार आप गोप और गौओं सहित वृन्दावन से बहुत दूर गये। उस समय, निस्सन्देह, आप के हृदय मे द्विजाङ्गनाओं के समुदाय पर अनुग्रह करने की कामना थी।

ततो निरीक्ष्याशरणे वनान्तरे
किशोरलोकं क्षुधितं तृषाकुलम् ।
अदूरतो यज्ञपरान् द्विजान् प्रति
व्यसर्जयो दीदिवियाचनाय तान् ॥२॥

तत: निरीक्ष्य- तब देख कर
अशरणे वनान्तरे शरण रहित वन के अन्त में
किशोर-लोकं गोप बालकों को
क्षुधितं तृषा-आकुलं भूखे और प्यास से व्याकुल
अदूरत: पास ही
यज्ञपरान् यज्ञ करते हुए
द्विजान् प्रति द्विजों के पास
व्यसर्जय: भेजा
दीदिवि-याचनाय (पका हुआ) चावल मांगने के लिये
तान् उनको

आपने देखा, वन के अन्त मे गये हुएकिसी भी शरण स्थल से विहीन, गोप बालक भूख और प्यास से व्याकुल हो गए हैं। तब आपने उनको पास ही में यज्ञ करते हुए द्विजों के पास पकाए हुए चावल मांगने के लिए भेजा।

गतेष्वथो तेष्वभिधाय तेऽभिधां
कुमारकेष्वोदनयाचिषु प्रभो ।
श्रुतिस्थिरा अप्यभिनिन्युरश्रुतिं
न किञ्चिदूचुश्च महीसुरोत्तमा: ॥३॥

गतेषु-अथ: तेषु- जाने पर तब फिर उनके
अभिधाय बता कर
ते-अभिधां आपका नाम
कुमारकेषु- कुमारों ने
ओदन-याचिषु भात मांगने पर
प्रभो हे प्रभो!
श्रुति-स्थिरा अपि- श्रुति (शास्त्रों में) दृढ होते हुए भी
अभिनिन्यु:-अश्रुतिं अभिनय किया न सुनने का
न किञ्चित्- नहीं कुछ भी
ऊचु:-च और कहा
महीसुर-उत्तमा: ब्राह्मण श्रेष्ठों ने

हे प्रभो! आपके कहने से गोपकुमार चले गए और आपका नाम बता कर उन्होंने भात की याचना की। किन्तु श्रुतियों में पारङ्गत होते हुए भी, उन ब्राह्मण श्रेष्ठों ने न सुनने का अभिनय किया और कुछ कहा भी नहीं।

अनादरात् खिन्नधियो हि बालका: ।
समाययुर्युक्तमिदं हि यज्वसु ।
चिरादभक्ता: खलु ते महीसुरा:
कथं हि भक्तं त्वयि तै: समर्प्यते ॥४॥

अनादरात् अनादर से
खिन्नधिय: दु:खी मन से
हि बालका: ही बालक
समाययु:- आ गए
युक्तम्-इदं हि उचित यही था
यज्वसु यज्ञ कर्ता
चिरात्-अभक्ता: (जो) बहुत समय से भक्ति रहित थे
खलु ते महीसुरा: यथार्थ में वे ही ब्राह्मण
कथं हि कैसे भला
भक्तं त्वयि भोजन आपको
तै: समर्प्यते वे दे सकते थे

अनादर से दु:खी हुए वे बालक लौट आए। उन यज्ञ कर्ता ब्राह्मणों का यह व्यवहार उनकी भावना के अनुकूल ही था, क्योंकि दीर्घ काल से यज्ञादि रीतियों का पालन करके, वे भक्ति रहित ब्राह्मण, आपके लिये भात कैसे समर्पित करते।

निवेदयध्वं गृहिणीजनाय मां
दिशेयुरन्नं करुणाकुला इमा: ।
इति स्मितार्द्रं भवतेरिता गता-
स्ते दारका दारजनं ययाचिरे ॥५॥

निवेदयध्वं सूचना दो
गृहिणीजनाय गृहणियों को
माम् मेरी
दिशेयु:-अन्नं देंगी अन्न
करुणाकुला:-इमा: दयामयी ये लोग
इति स्मित-आर्द्रम् इस प्रकार मुस्कुरा कर मधुरता से
भवता-ईरिता: आपके कहे हुए
गता:-ते दारका: गए वे बालक
दारजनं ययाचिरे स्त्रियों से याचना की

ब्राह्मणों की गृहणियों को मेरी सूचना दो। करुणामयी वे लोग निश्चय ही अन्न देंगी।' मधुर मुस्कान के साथ आपके यह कहने पर वे बालक स्त्रियों के पास गए और याचना की।

गृहीतनाम्नि त्वयि सम्भ्रमाकुला-
श्चतुर्विधं भोज्यरसं प्रगृह्य ता: ।
चिरंधृतत्वत्प्रविलोकनाग्रहा:
स्वकैर्निरुद्धा अपि तूर्णमाययु: ॥६॥

गृहीत-नाम्नि त्वयि लेने पर नाम आपका
सम्भ्रम-आकुला:- उत्सुक हुई और (आपको देखने के लिये) व्याकुल
चतुर्विधं भोज्य-रसं चारों प्रकार के भोज्य रसों को
प्रगृह्य-ता: ले कर वे
चिरं-धृत-त्वत्- दीर्घ समय से लिये हुए आपके
प्रविलोकन-आग्रहा: दर्शन की लालसा
स्वकै:-निरुद्धा: अपि स्वजनों के द्वारा रोके जाने पर भी
तूर्णम्-आययु: चुपचाप आ गईं

वे द्विजाङ्गनाये आपका नाम सुन कर आपको देखने की उत्कन्ठा से व्याकुल हो उठीं। दीर्घ काल से आपको देखने की लालसा लिये हुए वे, चारों प्रकार के भोज्य पदार्थों को ले कर, स्वजनों द्वारा रोके जाने पर भी, चुपके से आ गईं।

विलोलपिञ्छं चिकुरे कपोलयो:
समुल्लसत्कुण्डलमार्द्रमीक्षिते ।
निधाय बाहुं सुहृदंससीमनि
स्थितं भवन्तं समलोकयन्त ता: ॥७॥

विलोल-पिञ्छं लहराते हुए मोर पंख (वाले)
चिकुरे कपोलयो: केशों में. गालों पर
समुल्लसत्- झिलमिलाते
कुण्डलम्- कुण्डल (वाले)
आर्द्रम्-ईक्षिते करुण दृष्टि (वाले)
निधाय बाहुं रखे हुए हाथ
सुहृत्-अंस-सीमनि बन्धु के कन्धे के ऊपर
स्थितं भवन्तं खडे हुए आपका
समलोकयन्त ता: अवलोकन किया उन्होंने

आपके केशों में मोर पंख लहरा रहे थे और गालों पर कुण्डल झिलमिला रहे थे। सकरुण दृष्टि वाले आप अपने बन्धु के कन्धे पर हाथ रख कर खडे हुए थे। उन द्विजाङ्गनाओं ने आपको इस रूप में भली भांति देखा।

तदा च काचित्त्वदुपागमोद्यता
गृहीतहस्ता दयितेन यज्वना ।
तदैव सञ्चिन्त्य भवन्तमञ्जसा
विवेश कैवल्यमहो कृतिन्यसौ ॥८॥

तदा च काचित्- और तब एक किसी (द्विजाङ्गना)
त्वत्-उपागम- (जो) आपके पास जाने के लिए
उद्यता गृहीत-हस्ता उद्यत थी, पकड ली गई हाथ से
दयितेन यज्वना पति के द्वारा यज्ञ करते हुए
तदा-एव उसी समय
सञ्चिन्त्य चिन्तन करते हुए
भवन्तम्-अञ्जसा आपका बिना कष्ट के
विवेश कैवल्यम्- समा गई कैवल्य (आपके सामीप्य) अवस्था में
अहो अहो! क्या आश्चर्य!
कृतिनी-असौ पुण्यवती थी यह

उस समय, जो आपके पास जाने को उद्यत थी एक द्विजाङ्गना को, उसके यज्ञ कर्मी पति ने हाथ पकड कर रोक लिया। तब वह आपका सञ्चिन्तन करते हुए बिना कष्ट के ही कैवल्य स्थिति को (आपके सानिध्य को) प्राप्त हो गई। अहो! आश्चर्य है! कितनी पुण्यवती थी वह!

आदाय भोज्यान्यनुगृह्य ता: पुन-
स्त्वदङ्गसङ्गस्पृहयोज्झतीर्गृहम् ।
विलोक्य यज्ञाय विसर्जयन्निमा-
श्चकर्थ भर्तृनपि तास्वगर्हणान् ॥९॥

आदाय भोज्यानि- ले कर भोज्य पदार्थों को
अनुगृह्य ता: कृपा करके उन पर
पुन: फिर से
त्वत्-अङ्ग- आपके अङ्गों के
सङ्ग-स्पृहया- सङ्ग की कामना से
उज्झती: गृहम् त्याग कर घर को
विलोक्य यज्ञाय देख कर, यज्ञ के लिये
विसर्जयन्- भेज कर
इमा:-चकर्थ इनको, कर दिया
भर्तृन-अपि पतियों को भी
तासु-अगर्हणान् उनके प्रति निन्दा रहित

दविजाङ्गनाओं के द्वारा लाए हुए भोजन को आपने स्वीकार किया। फिर जब आपने देखा कि वे लोग आपके अङ्ग साहचर्य की कामना से अपने घर भी त्याग आई हैं, तब आपने उन्हे यज्ञ की क्रियाएं करने के लिये वापस भेज दिया, और उनके पतियों के मनों को भी उनके प्रति निन्दा रहित कर दिया।

निरूप्य दोषं निजमङ्गनाजने
विलोक्य भक्तिं च पुनर्विचारिभि:
प्रबुद्धतत्त्वैस्त्वमभिष्टुतो द्विजै-
र्मरुत्पुराधीश निरुन्धि मे गदान् ॥१०॥

निरूप्य समझ कर
दोषं निजम्- गलती को अपनी
अङ्गनाजने (और) पत्नियों में
विलोक्य भक्तिं देख कर भक्ति
च पुन:- और फिर
विचारिभि: विचारों के द्वारा
प्रबुद्ध-तत्त्वै:- बोध हुए तत्त्वॊं से
त्वम्-अभिष्टुत: आप की स्तुति की गई
द्विजै:- ब्राह्मणों के द्वारा
मरुत्पुराधीश हे मरुत्पुराधीश!
निरुन्धि मे गदान् नष्ट करें मेरे रोगों को

अपनी गलती समझ कर, अपनी पत्नियों की भक्ति देख कर फिर से विचार कर के जब उन ब्राह्मणों को वास्तविक तत्त्व का बोध हुआ, तब उन लोगों ने आपकी स्तुति की। हे मरुत्पुराधीश! नष्ट कर दें मेरे रोगों को।

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