दशक ५९
त्वद्वपुर्नवकलायकोमलं प्रेमदोहनमशेषमोहनम् ।
ब्रह्म तत्त्वपरचिन्मुदात्मकं वीक्ष्य सम्मुमुहुरन्वहं स्त्रिय: ॥१॥
त्वत्-वपु:- |
आपके श्री अङ्ग |
नव-कलाय-कोमलं |
नव (पल्लवित) कलाय कुसुमों के समान कोमल |
प्रेम-दोहनम्- |
प्रेम का प्रस्फुरण करने वाला |
अशेष-मोहनम् |
अत्यन्त मनमोहक |
ब्रह्म तत्त्व- |
ब्रह्म तत्त्व स्वरूप |
परचित्-मुद्-आत्मकं |
परमचित आनन्द स्वरूप को |
वीक्ष्य सम्मुमुहु:- |
देख कर सम्मोहित हो जाती थी |
अन्वहं स्त्रिय: |
प्रतिदिन गोपियां |
नव पल्लवित कलाय कुसुमों के समान कोमल, प्रेम का स्फुरण करने वाले, ब्रह्म तत्त्व स्वरूप और परमचिदानन्द स्वरूप आपके श्रीअङ्गों की अत्यन्त मनमोहक शोभा को देख देख कर गोपियां प्रतिदिन सम्मोहित होती रहतीं।
मन्मथोन्मथितमानसा: क्रमात्त्वद्विलोकनरतास्ततस्तत: ।
गोपिकास्तव न सेहिरे हरे काननोपगतिमप्यहर्मुखे ॥२॥
मन्मथ-उन्मथित- |
प्रेमातिरेक से उन्मथित |
मानसा: क्रमात्- |
मन वाली, क्रमश: |
त्वत्-विलोकन-रता:- |
आपको देखने में ही दत्तचित्त |
तत:-तत: |
बारम्बार |
गोपिका:- |
गोपिका जन |
तव |
आपका |
न सेहिरे |
नहीं सहन करती थीं |
हरे |
हे हरे! |
कानन-उपगतिम्- |
वन को जाना |
अपि-अह:-मुखे |
भी दिन के आरम्भ में |
प्रेमातिरेक से उन्मथित मनों वाली वे गोपिकायें बारम्बार आपको ही देखने के लिए लालायित रहतीं। क्रमश: उन्हे आपका गोचारण के लिये प्रतिदिन प्रात:काल वन को जाना भी असहनीय लगने लगा।
निर्गते भवति दत्तदृष्टयस्त्वद्गतेन मनसा मृगेक्षणा: ।
वेणुनादमुपकर्ण्य दूरतस्त्वद्विलासकथयाऽभिरेमिरे ॥३॥
निर्गते भवति |
चले जाने पर आपके |
दत्त-दृष्टय:- |
(आप पर ही) बन्धी हुई दृष्टि वाली |
त्वत्-गतेन |
आपके जाने को |
मनसा |
मानसिक रूप से |
मृगेक्षणा: |
(वे) मृगनयनी |
वेणु-नादम्- |
मुरली के स्वर को |
उपकर्ण्य दूरत:- |
सुन कर दूर से |
त्वत्- |
आपकी |
विलास-कथया- |
क्रीडा कथाओं मे |
अभिरेमिरे |
रमण करती रहती थी |
आपके चले जाने पर उनकी दृष्टि आप ही के गमन की ओर बन्धी रहती। वे मृगनयनी आपकी मुरली का स्वर मानसिक रूप से दूर से ही सुनती रहती और आपकी क्रीडा पूर्ण कथाओं की परस्पर चर्चा करते हुए उन्हीं में रमी रहतीं।
काननान्तमितवान् भवानपि स्निग्धपादपतले मनोरमे ।
व्यत्ययाकलितपादमास्थित: प्रत्यपूरयत वेणुनालिकाम् ॥४॥
कानन-अन्तम्- |
विपिन के अन्त में |
इतवान् भवान्-अपि |
जा कर आप भी |
स्निग्ध-पादप-तले |
शीतल वृक्ष के नीचे |
मनोरमे |
सुन्दर |
व्यत्यय-आकलित- |
विपर्यय (एक दूसरे के आमने सामने) बनाये हुए |
पादम्-आस्थित: |
पैरों से खडे हो कर |
प्रत्यपूरयत |
भरते रहते थे |
वेणुनालिकाम् |
(स्वर) मुरली की नालिका में |
आप भी, विपिन के अन्त मे जा कर किसी सुन्दर शीतल वृक्ष के नीचे, एक दूसरे के आमने सामने रखे हुए पैरों पर खडे हो कर मुरली की नालिका में स्वर भरते रहते थे।
मारबाणधुतखेचरीकुलं निर्विकारपशुपक्षिमण्डलम् ।
द्रावणं च दृषदामपि प्रभो तावकं व्यजनि वेणुकूजितम् ॥५॥
मार-बाण-धुत- |
कामदेव के बाणॊं से त्रस्त (हो गईं) |
खेचरी-कुलं |
देवाङ्गनाएं |
निर्विकार- |
स्तब्ध (हो गये) |
पशु-पक्षि-मण्डलम् |
पशु पक्षि गण |
द्रावणं च |
और द्रवीभूत हो गये |
दृषदाम्-अपि |
पत्थर भी |
प्रभो तावकं |
प्रभो! आपके |
व्यजनि |
(द्वारा) निर्मित |
वेणु-कूजितम् |
मुरली की गूंज से |
हे प्रभो! जब आपकी बजाई हुई मुरली की तान गूंजती, तब आकाश में देवाङ्गनाएं मानो कामदेव के बाणों से आहत हो त्रस्त और कम्पित हो (सिहर) उठतीं, पशु पक्षिगण स्तब्ध हो जाते, और पत्थर भी द्रवीभूत हो जाते।
वेणुरन्ध्रतरलाङ्गुलीदलं तालसञ्चलितपादपल्लवम् ।
तत् स्थितं तव परोक्षमप्यहो संविचिन्त्य मुमुहुर्व्रजाङ्गना: ॥६॥
वेणु-रन्ध्र- |
मुरली के छिद्रों पर |
तरल-अङ्गुली-दलं |
चञ्चलता से घूमती हुई अङ्गुलियां |
ताल-सञ्चलित- |
ताल के साथ सञ्चालित |
पाद-पल्लवम् |
चरण कोमल |
तत् स्थितं तव |
वह खडा होना आपका |
परोक्षम्-अपि- |
परोक्ष होते हुए भी |
अहो |
अहो! |
संविचिन्त्य |
मन में कल्पना करके |
मुमुहु:- |
सम्मोहित हो जाती थी |
व्रजाङ्गना: |
व्रजाङ्गनाएं |
अहो! मुरली बजाते समय उसके छिद्रों पर चञ्चलता से घूमती हुई आपकी अङ्गुलियां, तान के साथ साथ सञ्चालित आपके कोमल चरण, और बांके पन से आपका खडा होना, यह सब परोक्ष में होते हुए भी, व्रजाङ्गनाएं निरन्तर इस स्वरूप की मन ही मन कल्पना करके सम्मोहित होती रहतीं।
निर्विशङ्कभवदङ्गदर्शिनी: खेचरी: खगमृगान् पशूनपि ।
त्वत्पदप्रणयि काननं च ता: धन्यधन्यमिति नन्वमानयन् ॥७॥
निर्विशङ्क- |
निर्बाध |
भवत्-अङ्ग- |
आपके श्री अङ्गों को |
दर्शिनी: खेचरी: |
देखने वाली देवाङ्गनाओं (को) |
खग-मृगान् |
पक्षियों (को) |
पशून्-अपि |
पशुओं (को) भी |
त्वत्-पद-प्रणयि |
आपके चरणों में अनुरक्त |
काननं च ता: |
और वन को, वे |
धन्य-धन्यम्-इति |
धन्य धन्य, ऐसा |
ननु-अमानयन् |
निश्चय मानती थीं |
वे देवाङ्गनाएं और पक्षि गण जो निर्बाध रूप से आपके श्रीअङ्गों को देखते रहते हैं, तथा वे पशु गण और वन प्रदेश जो सदा आपके चरणों में अनुरक्त हैं, व्रजाङ्गनाएं निश्चय ही उन सभी को धन्य धन्य मानती थी।
आपिबेयमधरामृतं कदा वेणुभुक्तरसशेषमेकदा ।
दूरतो बत कृतं दुराशयेत्याकुला मुहुरिमा: समामुहन् ॥८॥
आपिबेयम्- |
पान (करूंगी) |
अधर-अमृतं कदा |
अधर अमृत को कब |
वेणु-भुक्त- |
मुरली द्वारा उपभुक्त |
रस-शेषम्- |
(अमृत) रस का उच्छिष्ट |
एकदा |
एकबार |
दूरत: बत |
दुरूह है निश्चय ही (यह पाना) |
कृतं दुराशय- |
करना यह दुराग्रह |
इति-आकुला |
इस प्रकार व्याकुल होकर |
मुहु:-इमा: |
बारम्बार |
समामुहन् |
सम्मोहित हो जाती थी |
हाय! एक बार मुरली के द्वारा उपभुक्त और उच्छिष्ट उस अधरामृत का पान कब करूंगी? यह निश्चय ही मेरा दुराग्रह है क्योंकि यह दुष्प्राप्य है?' इस प्रकार व्याकुल हो कर व्रजाङ्गनाएं बारम्बार सम्मोहित हो उठतीं।
प्रत्यहं च पुनरित्थमङ्गनाश्चित्तयोनिजनितादनुग्रहात् ।
बद्धरागविवशास्त्वयि प्रभो नित्यमापुरिह कृत्यमूढताम् ॥९॥
प्रत्यहं च पुन:- |
प्रतिदिन और सदा ही |
इत्थम्-अङ्गना:- |
इस प्रकार युवतियां |
चित्तयोनि-जनितात्- |
कामदेव से उद्भूत |
अनुग्रहात् |
अनुग्रह से |
बद्ध-राग-विवशा:- |
(आपके प्रति) बन्धे हुए प्रेम से विवश हुई |
त्वयि प्रभो |
आपमें हे प्रभो! |
नित्यम्-आपु:- |
नित्य पाती थी |
इह कृत्य-मूढताम् |
इह लोक के कृत्यों में (के प्रति) विमुखता |
हे प्रभो! इस प्रकार, प्रतिदिन प्रतिपल, वे युवतियां आपके प्रति प्रेम के कारण आपसे बन्ध कर विवश हुई सी, स्वयं को इह लोक के कर्तव्यों के प्रति विमुख पाती थीं। यह एक प्रकार से उन सब पर कामदेव का अनुग्रह ही था।
रागस्तावज्जायते हि स्वभावा-
न्मोक्षोपायो यत्नत: स्यान्न वा स्यात् ।
तासां त्वेकं तद्द्वयं लब्धमासीत्
भाग्यं भाग्यं पाहि मां मारुतेश ॥१०॥
राग:-तावत्- |
राग (तो) तब |
जायते हि |
पैदा हो ही जाता है |
स्वभावात्- |
स्वाभाविक रूप से |
मोक्ष-उपाय: |
मोक्ष का उपाय |
यत्नत: स्यात्- |
यत्न से होजाए |
न वा स्यात् |
न भी हो |
तासां तु- |
उनके (गोपियों के) लिये तो |
एकं तत्-द्वयं |
एक ही में वह दोनों |
लब्धम्-आसीत् |
प्राप्त हो गये |
भाग्यम् भाग्यम् |
सौभाग्य! सौभाग्य! |
पाहि मां |
रक्षा करें मेरी |
मारुतेश |
हे मरुतेश! |
मानव मात्र को राग (प्रेम) तो स्वाभाविक रूप से स्वत: ही हो जाता है। किन्तु यत्न करने पर भी, मोक्ष प्राप्त हो भी जाय न भी हो। गोपियों को तो, आपमें राग होने से, राग और मोक्ष दोनों ही उपलब्ध हो गये। कितनी सौभाग्यशालिनी हैं वे! हे मरुतेश! मेरी रक्षा करें।
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