दशक ५३
अतीत्य बाल्यं जगतां पते त्वमुपेत्य पौगण्डवयो मनोज्ञं ।
उपेक्ष्य वत्सावनमुत्सवेन प्रावर्तथा गोगणपालनायाम् ॥१॥
अतीत्य बाल्यम् |
पार करके बाल्यकाल |
जगतां पते |
हे जगत्पति! |
त्वम्-उपेत्य |
आप प्राप्त करके |
पौगण्ड-वय: मनोज्ञम् |
लडकपन की अवस्था को मनोहर |
उपेक्ष्य वत्सावनम्- |
छोड कर बछडो को चराना |
उत्सवेन प्रावर्तथा |
उत्साह पूर्वक प्रवृत हुए |
गो-गण-पालनायाम् |
गो गणों के चारण में |
हे जगत्पति! बाल्यावस्था को पार करके आपने पौगण्ड (लडकपन) अवस्था में प्रवेश किया। तब बछडों को चराना छोड कर गो गण के चारण में सोत्साह प्रवृत हुए।
उपक्रमस्यानुगुणैव सेयं मरुत्पुराधीश तव प्रवृत्ति: ।
गोत्रापरित्राणकृतेऽवतीर्णस्तदेव देवाऽऽरभथास्तदा यत् ॥२॥
उपक्रमस्य- |
प्रारम्भ के लिये |
अनुगुण-एव |
अनुरूप ही |
सा-इयं |
वह यह |
मरुत्पुराधीश |
हे मरुत्पुराधीश! |
तव प्रवृत्ति: |
आपकी प्रवृत्ति है |
गोत्रा-परित्राण- |
पृथ्वी की रक्षा |
कृते-अवतीर्ण:- |
करने के लिये अवतरित |
तत्-एव |
वह ही |
देव-आरभथा:- |
हे देव! प्रारम्भ किया |
तदा यत् |
तब जिससे |
हे देव! हे मरुत्पुराधीश! क्योंकि आपका यह अवतार (गो) पृथ्वी की रक्षा के निमित्त ही है, और गो रक्षा का कार्य उस ओर बढने का प्रथम उपक्रम है, अतएव आपकी यह प्रवृति आपके भविष्य के कार्यक्रम के अनुरूप ही है।
कदापि रामेण समं वनान्ते वनश्रियं वीक्ष्य चरन् सुखेन ।
श्रीदामनाम्न: स्वसखस्य वाचा मोदादगा धेनुककाननं त्वम् ॥३॥
कदापि रामेण समं |
एकबार बलराम के साथ |
वनान्ते |
वन के अन्त में |
वनश्रियं वीक्ष्य |
वन के सौन्दर्य को देख कर |
चरन् सुखेन |
विचरण करते हुए सुख से |
श्रीदाम-नाम्न: |
श्रीदाम नाम के |
स्वसखस्य वाचा |
अपने सखा के कहने से |
मोदात्-अगा: |
प्रसन्नता से गये |
धेनुक-काननं |
धेनुक वन को |
त्वम् |
आप |
एकबार बलराम के साथ, वन की शोभा देखते हुए आप सुख से वन में विचरण कर रहे थे। तभी सुदामा नाम के अपने एक मित्र के कहने पर आप प्रसन्नता पूर्वक धेनुक वन में गये।
उत्तालतालीनिवहे त्वदुक्त्या बलेन धूतेऽथ बलेन दोर्भ्याम् ।
मृदु: खरश्चाभ्यपतत्पुरस्तात् फलोत्करो धेनुकदानवोऽपि ॥४॥
उत्ताल-ताली-निवहे |
ऊंचे ताल वृक्षों के झुण्ड में |
त्वत्-उक्त्या |
आपके कहने से |
बलेन धूते-अथ |
बलराम के द्वारा झकझोडेजाने से तब |
बलेन दोर्भ्याम् |
बलपूर्वक दोनों हाथों से |
मृदु: खर:-च- |
मीठे और कडे |
अभ्यपतत्-पुरस्तात् |
गिर पडे सामने |
फल-उत्कर: |
फलों के ढेर |
धेनुक-दानव:-अपि |
धेनुक दैत्य भी |
(खर:-च अभ्यपतत्) |
(गर्दभ के रूप में आ गिरा) |
आपके कहने से बलराम ने दोनों हाथों से ऊंचे ऊंचे ताल वृक्षों को बलपूर्वक झकझोड दिया। तब मीठे और कडे ताल फलों का ढेर सामने गिरा और गर्दभ रूपधारी धेनुकासुर भी उसी समय सामने उपस्थित हुआ।
समुद्यतो धैनुकपालनेऽहं कथं वधं धैनुकमद्य कुर्वे ।
इतीव मत्वा ध्रुवमग्रजेन सुरौघयोद्धारमजीघनस्त्वम् ॥५॥
समुद्यत: |
संलग्न हूं |
धैनुक-पालने-अहं |
धेनु समूह के पालन में मैं |
कथं |
कैसे |
वधं धैनुकम्-अद्य |
वध धेनुक का आज |
कुर्वे इति-इव |
करूं इस प्रकार से |
मत्वा |
मान कर |
ध्रुवम्-अग्रजेन |
अवश्यमेव बडे भाई के द्वारा |
सुरौघ-योद्धारम्- |
देवों के शत्रु को |
अजीघन:-त्वम् |
मरवाया आपने |
'मैं धेनू समूह के पालन में संलग्न हूं, अत: मैं धेनुक को कैसे मार सकता हूं?' अवश्यमेव इसी प्रकार सोच कर आपने अपने अग्रज के द्वारा उस देवद्रोही धेनुकासुर का वध करवाया।
तदीयभृत्यानपि जम्बुकत्वेनोपागतानग्रजसंयुतस्त्वम् ।
जम्बूफलानीव तदा निरास्थस्तालेषु खेलन् भगवन् निरास्थ: ॥६॥
तदीय-भृत्यान्-अपि |
उसके भृत्य गणों को भी |
जम्बुकत्वेन-उपागतान्- |
सियार रूप में आये हुओं को |
अग्रज-संयुत:-त्वम् |
अग्रज के साथ मिल कर आपने |
जम्बु-फलानि-इव |
जामुन के फलों की भांति |
तदा निरास्थ:- |
तब मसल डाला |
तालेषु खेलन् |
ताल वृक्षो के बीच खेलते हुए |
भगवन् |
हे भगवन! |
निरास्थ: |
बिना परिश्रम के |
सियार के रूप में आये हुए धेनुकासुर के भृत्यगणों को भी, ताल वृक्षों के वन में, अग्रज के साथ, खेल खेल में ही बिना किसी श्रम के जामुन के फलों के समान मसल डाला।
विनिघ्नति त्वय्यथ जम्बुकौघं सनामकत्वाद्वरुणस्तदानीम् ।
भयाकुलो जम्बुकनामधेयं श्रुतिप्रसिद्धं व्यधितेति मन्ये ॥७॥
विनिघ्नति |
मारते समय |
त्वयि अथ |
आपके तब |
जम्बुक-औघं |
(उस) जम्बुक झुण्ड के |
सनामकत्वात्- |
सनामधारी होने के कारण |
वरुण:-तदानीम् |
वरुण ने उस समय |
भयाकुल: |
भयभीत हो कर |
जम्बुक-नाम-धेयं |
जम्बुक नाम वाला (अपना नाम) |
श्रुति-प्रसिद्धं व्यधित- |
(जो) वेदों में प्रसिद्ध छुपा लिया (वेदों ही में) |
इति मन्ये |
ऐसा मानता हूं |
जिस समय आप जम्बुकों के झुण्ड को मार रहे थे, उस समय, सनामधारी वरुण ने भयभीत हो कर, वेदों में प्रसिद्ध अपने 'जम्बुक' नाम को वेदों ही में छुपा दिया। ऐसा मैं मानता हूं।
तवावतारस्य फलं मुरारे सञ्जातमद्येति सुरैर्नुतस्त्वम् ।
सत्यं फलं जातमिहेति हासी बालै: समं तालफलान्यभुङ्क्था: ॥८॥
तव-अवतारस्य फलं |
आपके अवतार का फल |
मुरारे |
हे मुरारि! |
सञ्जातम्-अद्य- |
प्राप्त हुआ आज |
इति सुरै:-नुत: त्वम् |
इस प्रकार कहते हुए देवों ने स्तुति की आपकी |
सत्यं फलं |
यथार्थ में फल |
जातम्-इह-इति |
प्राप्त हुआ यहां इस प्रकार |
हासी बालै: समं |
हंसते हुए बालकों के संग |
ताल फलानि- |
ताल फलों को |
अभुङ्क्था: |
खाया |
'हे मुरारे! आपके अवतार का फल आज प्राप्त हुआ है", इस प्रकार कहते हुए देवताओं ने आपकी स्तुति की। आपने भी हंसते हुए कहा कि 'यथार्थ में आज फलों की प्राप्ति हुई है", और ऐसा कहते हुए आपने गोपबालकों के संग ताल फल खाये।
मधुद्रवस्रुन्ति बृहन्ति तानि फलानि मेदोभरभृन्ति भुक्त्वा ।
तृप्तैश्च दृप्तैर्भवनं फलौघं वहद्भिरागा: खलु बालकैस्त्वम् ॥९॥
मधुद्रव-स्रुन्ति |
मधुर रसों से झरते हुए |
बृहन्ति तानि फलानि |
बडे बडे वे फल |
मेदोभर-भृन्ति |
गूदे से भरे हुए |
भुक्त्वा तृप्तै:-च |
खा कर और तृप्त हो कर |
दृप्तै:-भवनं |
गर्व के साथ घर को |
फलौघं वहद्भि:- |
फलों के गुच्छों को ले जाते हुए |
आगा: खलु |
आये निश्चय ही |
बालकै:-त्वम् |
बालकों के साथ आप |
उन बडे बडे फलों से रस झर रहा था और वे गूदे से भरे हुए थे। उन्हें खा कर तृप्त हुए आप गर्व सहित फलों के गुच्छों को ले कर बालकों के साथ घर लौटे।
हतो हतो धेनुक इत्युपेत्य फलान्यदद्भिर्मधुराणि लोकै: ।
जयेति जीवेति नुतो विभो त्वं मरुत्पुराधीश्वर पाहि रोगात् ॥१०॥
हत: हत: धेनुक: |
मारा गया मारा गया धेनुकासुर |
इति-उपेत्य |
ऐसा कहते हुए आ कर |
फलानि-अदद्भि:- |
फलों को खाते हुए |
मधुराणि |
मधुर |
लोकै: जय-इति |
लोगों ने (कहा) जय हो |
जीव-इति |
जीवित रहें इस प्रकार |
नुत: विभो त्वं |
स्तुत हुए हे विभो! आप |
मरुत्पुराधीश्वर |
हे मरुत्पुराधीश्वर! |
पाहि रोगात् |
रक्षा करें रोगों से |
'मारा गया, धेनुकासुर मारा गया', इस प्रकार कहते हुए और मधुर फल खाते हुए लोग आये, और 'जय हो, चिरंजीवी हों' ऐसा कहते हुए हे विभो! आपकी स्तुति की। हे मरुत्पुराधीश्वर! रोगों से रक्षा करें।
|