दशक ५०
तरलमधुकृत् वृन्दे वृन्दावनेऽथ मनोहरे
पशुपशिशुभि: साकं वत्सानुपालनलोलुप: ।
हलधरसखो देव श्रीमन् विचेरिथ धारयन्
गवलमुरलीवेत्रं नेत्राभिरामतनुद्युति: ॥१॥
तरल-मधुकृत्-वृन्दे |
मण्डराते हुए मधुमक्खी के झुण्ड वाले |
वृन्दावने-अथ |
वृन्दावन में तब |
मनोहरे |
सुन्दर |
पशुप-शिशुभि: साकं |
गोप वत्सों के साथ |
वत्स-अनुपालन-लोलुप: |
गो वत्सों को चराने में उत्सुक |
हलधर-सख: |
बलराम जी के साथ |
देव श्रीमन् |
हे देव श्रीमन! |
विचेरिथ धारयन् |
विचरते थे ले कर (हाथ में) |
गवल-मुरली-वेत्रं |
सीङ्ग, मुरली और बेंत |
नेत्र-अभिराम-तनु-द्युति: |
नेत्रों को मोहित करने वाली देह कान्ति वाले, (आप) |
हे देव श्रीमन! नेत्रों को मोहित करने वाली देह कान्ति वाले आप, हाथ में सीङ्ग मुरली और बेंत लिये हुए, मधुमक्खियों के झुण्डों के मण्डराने से और भी सुन्दर हुए वृन्दावन में, बलराम और गोप वत्सों के साथ, गो वत्सों को चराने के लिये समुत्सुक, विचरते रहते थे।
विहितजगतीरक्षं लक्ष्मीकराम्बुजलालितं
ददति चरणद्वन्द्वं वृन्दावने त्वयि पावने ।
किमिव न बभौ सम्पत्सम्पूरितं तरुवल्लरी-
सलिलधरणीगोत्रक्षेत्रादिकं कमलापते ॥२॥
विहित-जगती-रक्षं |
सन्निहित जगत की रक्षा वाले |
लक्ष्मी-कर-अम्बुज-लालितं |
लक्ष्मी के कर कमलों से सेवित |
ददति चरण-द्वन्द्वम् |
रखते हैं (जब) चरण दोनों |
वृन्दावने त्वयि पावने |
वृन्दावन में आपके द्वारा पवित्र |
किम्-इव न बभौ |
क्या कुछ नहीं हुआ |
सम्पत्-सम्पूरितं |
सम्पदाओं से सुपूरित |
तरु-वल्लरी-सलिल- |
पेड, लताएं, जल |
धरणी-गोत्र-क्षेत्र-आदिकं |
धरती, पर्वत, क्षेत्र, आदि |
कमलापते |
हे कमलापति! |
हे कमलापति! जगत की रक्षा से सन्निहित और लक्ष्मी के करकमलों से सेवित अपने चरण युगल जब आपने पावन वृन्दावन में रक्खे, तब वहां के पेड, लताएं, जल, धरती, पर्वत, क्षेत्र आदि क्या कुछ अपनी सम्पदाओं से परिपूरित नहीं हुआ!
विलसदुलपे कान्तारान्ते समीरणशीतले
विपुलयमुनातीरे गोवर्धनाचलमूर्धसु ।
ललितमुरलीनाद: सञ्चारयन् खलु वात्सकं
क्वचन दिवसे दैत्यं वत्साकृतिं त्वमुदैक्षथा: ॥३॥
विलसत्-उलपे |
घनी घास वाले मैदान में |
कान्तार-अन्ते |
वन के अन्त में |
समीरण-शीतले |
ठण्डी हवा में |
विपुल-यमुना-तीरे |
विस्तृत यमुना के किनारे |
गोवर्धन-अचल-मूर्धसु |
गोवर्धन पर्वत की चोटियों पर |
ललित-मुरली-नाद: |
सुन्दर मुरली की तान से |
सञ्चारयन् खलु वात्सकं |
चराते हुए जब गोवत्सों को |
क्वचन दिवसे |
(तब) एक दिन |
दैत्यं वत्स-आकृतिम् |
दैत्य बछडे की आकृति में |
त्वम्-उदैक्षथा: |
आपने देखा |
एक दिन, घनी घास वाले मैदान में, ठण्डी हवा वाले वन के अन्त में, विस्तृत यमुना के किनारे, गोवर्धन पर्वत की चोटियों पर, आप मुरली की सुन्दर तान बजाते हुए, गोवत्सों को चरा रहे थे। उस समय आपने बछडे की आकृति वाले एक दैत्य को देखा।
रभसविलसत्पुच्छं विच्छायतोऽस्य विलोकयन्
किमपि वलितस्कन्धं रन्ध्रप्रतीक्षमुदीक्षितम् ।
तमथ चरणे बिभ्रद्विभ्रामयन् मुहुरुच्चकै:
कुहचन महावृक्षे चिक्षेपिथ क्षतजीवितम् ॥४॥
रभस-विलसत्-पुच्छं |
वेग से हिलाते हुए पूंछ को |
विच्छायत:- |
चलते हुए |
अस्य विलोकयन् |
उसका देखना |
किम्-अपि वलित-स्कन्धं |
कुछ जरा टेढा करके कन्धे को |
रन्ध्र-प्रतीक्षम्-उदीक्षितम् |
अवसर की प्रतीक्षा को देखता हुआ |
तम्-अथ चरणे |
उसको पैरों से |
विभ्रत्-विभ्रामयन् |
पकड कर घुमाते हुए |
मुहु:-उच्चकै: |
बार बार जोर से |
कुहचन महावृक्षे |
किसी बडे पेड पर |
चिक्षेपिथ क्षत-जीवितम् |
फेंक दिया निष्प्राण को |
वह वत्सासुर वेग से पूंछ को हिलाता हुआ चल रहा था और कन्धों को घुमा कर देख रहा था मानों (घात के) अवसर की प्रतीक्षा कर रहा हो। उसको आपने पैरों से पकड कर बार बार जोर से घुमाते हुए किसी बडे पेड पर फेंक दिया और वह निष्प्राण हो गया।
निपतति महादैत्ये जात्या दुरात्मनि तत्क्षणं
निपतनजवक्षुण्णक्षोणीरुहक्षतकानने ।
दिवि परिमिलत् वृन्दा वृन्दारका: कुसुमोत्करै:
शिरसि भवतो हर्षाद्वर्षन्ति नाम तदा हरे ॥५॥
निपतति महा-दैत्ये |
गिरते हुए महा दैत्य के |
जात्या दुरात्मनि |
जन्म से दुरात्मा के |
तत्-क्षणम् |
उसी क्षण |
निपतन-जव- |
गिरने के वेग से |
क्षुण्ण-क्षोणी:- |
टूटने से ऊपर के |
उह-क्षत-कानने |
पेडों के (कारण) नष्ट हुए |
दिवि परिमिलत् वृन्दा |
आकाश में इकट्ठे हुए समूह |
वृन्दारका: |
देवों के |
कुसुम-उत्करै: |
फूलों के ढेरों से |
शिरसि भवत: |
सिर पर आपके |
हर्षात्-वर्षन्ति |
हर्ष से वर्षा करने लगे |
नाम तदा हरे |
ही तब हे हरि! |
जन्म से ही कुटिल उस महा दैत्य के गिरने से पेडों के ऊपर के हिस्से टूट गये और वह वन नष्ट हो गया। हे हरि! आकाश में सम्मिलित देव समूह अत्यन्त हर्ष से आपके सिर पर पुष्प पुञ्जों की वर्षा करने लगे।
सुरभिलतमा मूर्धन्यूर्ध्वं कुत: कुसुमावली
निपतति तवेत्युक्तो बालै: सहेलमुदैरय: ।
झटिति दनुजक्षेपेणोर्ध्वं गतस्तरुमण्डलात्
कुसुमनिकर: सोऽयं नूनं समेति शनैरिति ॥६॥
सुरभिलतमा |
अत्यन्त सुगन्धित |
मूर्धनि-ऊर्ध्वं |
सिर के ऊपर |
कुत: कुसुमावली |
कहां से पुष्पों के गुच्छे |
निपतति तव- |
गिर रहे हैं तुम्हारे |
इति-उक्त: बालै: |
इस प्रकार कहा बालकों ने |
सहेलम्-उदैरय: |
विनोद में कहा |
झटिति |
हटात |
दनुज-क्षेपेण- |
दानव को फेंकने से |
ऊर्ध्वं गत:- |
ऊपर को उठ गये |
तरु-मण्डलात् |
पेडों की सतह से |
कुसुम-निकर: |
पुष्पों के समूह |
स:-अयं नूनं |
वही यह निश्चय ही |
समेति शनै:-इति |
नीचे आ रहे हैं धीरे धीरे, इस प्रकार |
बालकों ने पूछा कि सुगन्धित पुष्पों के ये समूह आपके सिर पर कहां से गिर रहे थे। तब आपने विनोद में उनसे कहा कि दानव को हटात फेंकने से पेडों की सतह से ऊपर की ओर उठे हुए पुष्प ही अब धीरे धीरे नीचे की ओर गिर रहे हैं।
क्वचन दिवसे भूयो भूयस्तरे परुषातपे
तपनतनयापाथ: पातुं गता भवदादय: ।
चलितगरुतं प्रेक्षामासुर्बकं खलु विस्म्रृतं
क्षितिधरगरुच्छेदे कैलासशैलमिवापरम् ॥७॥
क्वचन दिवसे |
किसी एक दिन |
भूय: भूयस्तरे |
फिर अत्यधिक |
परुष-आतपे |
कडी धूप से |
तपन-तनया-पाथ: |
सूर्य पुत्री (यमुना) का जल |
पातुं गता |
पीने के लिये गये |
भवत्-आदय: |
आप और अन्य जन |
चलित-गरुतम् |
चलाते हुए वेग से पंखों को |
प्रेक्षामासु:-बकं |
देखा बगुले को |
खलु विस्मृतं |
कदाचित भूल गये थे |
क्षितिधर-गरुत्-छेदे |
पर्वतों के पंखों को काटते समय |
कैलास-शैलम्-इव-अपरम् |
कैलाश पर्वत के समान दूसरा |
फिर किसी एक दिन, अत्यधिक कडी धूप से त्रस्त आप अन्य गोपों के साथ, सूर्य पुत्री यमुना का जल पीने गये। वहां आपने एक बगुला देखा जो तीव्रता से पंख फडफडा रहा था, मानो वह दूसरा कैलाश पर्वत ही हो, पर्वतों के पंख काटते समय इन्द्र जिसके पंख काटना भूल गये थे।
पिबति सलिलं गोपव्राते भवन्तमभिद्रुत:
स किल निगिलन्नग्निप्रख्यं पुनर्द्रुतमुद्वमन् ।
दलयितुमगात्त्रोट्या: कोट्या तदाऽऽशु भवान् विभो
खलजनभिदाचुञ्चुश्चञ्चू प्रगृह्य ददार तम् ॥८॥
पिबति सलिलं |
पीते हुए जल को |
गोपव्राते |
गोपवत्सों के |
भवन्तम्-अभिद्रुत: |
आपकी ओर लपकते हुए |
स किल निगिलन्- |
वह तब निगल कर |
अग्नि-प्रख्यम् |
(आपको) अग्नि के समान |
पुन:-द्रुतम्-उद्वमन् |
फिर झट से उगलते हुए |
दलयितुम्-अगात्- |
चीर डालने के लिये आया |
त्रोट्या: कोट्या |
चोंच की नोंक से |
तदा-आशु |
तब शीघ्रता से |
भवान् विभो |
आपने हे विभो! |
खल-जन-भिदा-चुञ्चु:- |
कुटिल जनों को चीरने में पटु |
चञ्चू प्रगृह्य |
चोंच पकड कर |
ददार तम् |
चीर दिया उसको |
जब गोपवत्स गण जल पी ही रहे थे, वह लपक कर आपको निगल गया लेकिन तुरन्त ही अग्नि सम आपको उगल दिया। अपनी चोंच की नोंक से आपको विदारने के लिये आपके निकट आया। कुटिल जनों को विदारने में पटु, हे विभो! आपने शीघ्रता से उसकी चोंच के दोनो भागों को पकड कर उसे ही चीर दिया।
सपदि सहजां सन्द्रष्टुं वा मृतां खलु पूतना-
मनुजमघमप्यग्रे गत्वा प्रतीक्षितुमेव वा ।
शमननिलयं याते तस्मिन् बके सुमनोगणे
किरति सुमनोवृन्दं वृन्दावनात् गृहमैयथा: ॥९॥
सपदि सहजां |
तुरन्त ही बहन को |
सन्द्रष्टुं वा मृतां |
देखने के लिये या मरी हुई को |
खलु पूतनाम्- |
ही पूतना को |
अनुजम्-अघम्-अपि- |
छोटे भाई अघासुर को भी |
अग्रे गत्वा |
आगे जा कर |
प्रतीक्षितुम्-एव वा |
प्रतीक्षा करते हुए अथवा |
शमन-निलयं |
मृत्यु लोक को |
याते तस्मिन् बके |
जाने पर उस बगुले के |
सुमनोगणे |
(जब) देवगण |
किरति सुमन-वृन्दं |
बरसा रहे थे पुष्प समूह |
वृन्दावनात् |
वृन्दावन से |
गृहम्-ऐयथा: |
घर को आये (आप) |
अघासुर अपनी बहन पूतना से मिलने के लिये, अथवा पूतना अपने छोटे भाई (अघासुर) के आगमन की प्रतीक्षा में जहां पहले ही पहुंच गई थी, वहां उस मृत्युलोक में उस बगुले के चले जाने पर, जब देव गण आपके ऊपर पुष्प वृष्टि कर रहे थे, तब आप वृन्दावन से घर चले आये।
ललितमुरलीनादं दूरान्निशम्य वधूजनै-
स्त्वरितमुपगम्यारादारूढमोदमुदीक्षित: ।
जनितजननीनन्दानन्द: समीरणमन्दिर-
प्रथितवसते शौरे दूरीकुरुष्व ममामयान् ॥१०॥
ललित-मुरली-नादं |
सुमधुर मुरली की तान |
दूरात्-निशम्य |
दूर से ही सुन कर |
वधूजनै:- |
वधूजन (गोपियां) |
त्वरितम्-उपगम्य-आरात्- |
शीघ्रता से आकर पास में |
आरूढ-मोदम्-उदीक्षित: |
अत्यन्त हर्षित होते हुए देख कर |
जनित-जननी-नन्द-आनन्द: |
कारण स्वरूप माता और नन्द के आनन्द के |
समीरण-मन्दिर-प्रथित-वसते |
गुरुवायुर मन्दिर के सुप्रसिद्ध निवासी |
शौरे |
हे शौरी! |
दूरी कुरुष्व |
दूर कर दीजिये |
मम-आमयान् |
मेरे रोगों को |
दूर से ही मुरली की सुमधुर तान सुन कर गोपियां शीघ्रता से समीप आ कर आपको निकट से देख कर अत्यन्त हर्षित हो जाती हैं। माता यशोदा और नन्द के आनन्द के कारण स्वरूप, गुरुवायुर मन्दिर के सुप्रसिद्ध निवासी, हे शौरी! मेरे रोगों को दूर कर दीजिये।
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