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दशक ४८
मुदा सुरौघैस्त्वमुदारसम्मदै-
रुदीर्य दामोदर इत्यभिष्टुत: ।
मृदुदर: स्वैरमुलूखले लग-
न्नदूरतो द्वौ ककुभावुदैक्षथा: ॥१॥
| मुदा सुरौघै:- |
प्रसन्न देवताओं के द्वारा |
| त्वम्-उदार-सम्मदै:- |
आप अत्यन्त हर्ष के साथ |
| उदीर्य दामोदर |
कहे गये दामोदर |
| इति-अभिष्टुत: |
इस प्रकार स्तुति किये जा कर |
| मृदु-उदर: |
कोमल उदर वाले |
| स्वैरम्-उलूखले |
स्वयं को उलूखल में |
| लगन्-अदूरत: |
बन्धा, पास ही में |
| द्वौ ककुभौ-उदैक्षथा: |
दो अर्जुन वृक्षों को देखा |
प्रसन्न देवताओं ने अत्यन्त हर्ष के साथ आपको 'दामोदर' नाम दिया और आपकी स्तुति की। कोमल उदर वाले, स्वेच्छा से उलूखल में बन्धे हुए आपने पास ही दो अर्जुन वृक्षों को देखा।
कुबेरसूनुर्नलकूबराभिध:
परो मणिग्रीव इति प्रथां गत: ।
महेशसेवाधिगतश्रियोन्मदौ
चिरं किल त्वद्विमुखावखेलताम् ॥२॥
| कुबेर-सूनु:- |
कुबेर के पुत्र |
| नलकूबर-अभिध: |
नल कूबर नाम का |
| पर: मणिग्रीव इति |
दूसरा मणिग्रीव इस प्रकार |
| प्रथां गत: |
प्रसिद्धि प्राप्त (थे) |
| महेश-सेवा- |
शंकर की सेवा से |
| अधिगत-श्रिय- |
प्राप्त वैभव (से) |
| उन्मदौ चिरं किल |
उन्मत्त दोनों बहुत समय तक |
| त्वत्-विमुखौ- |
आपसे विमुख |
| अवखेलताम् |
उद्दण्ड हो गये |
कुबेर के पुत्र नलकूबर और मणिग्रीव नाम से प्रसिद्ध थे। दोनों ने शंकर की उपासना कर के वैभव प्राप्त किया, जिसके कारण, बहुत समय तक, आपसे विमुख हो कर वे दोनों उद्दण्ड हो गये थे।
सुरापगायां किल तौ मदोत्कटौ
सुरापगायद्बहुयौवतावृतौ ।
विवाससौ केलिपरौ स नारदो
भवत्पदैकप्रवणो निरैक्षत ॥३॥
| सुर-आपगायाम् |
दैवी नदी (गङ्गा) में |
| किल तौ मदोत्कटौ |
एक बार वे दोनों मदमस्त |
| सुरा-आप-गायत्- |
सुरा पान कर के, गाती हुई |
| बहु-यौवत-आवृतौ |
बहुत सी युवतियों से घिरे हुए |
| विवासिसौ केलिपरौ |
निर्वस्त्र क्रीडा करते हुए (को) |
| स नारद: |
उन नारद ने |
| भवत्-पद-एक-प्रवण: |
(जो) आपके चरणों में ही आसक्त (हैं) |
| निरैक्षत |
देखा |
एक बार मदमस्त वे दोनों सुरा पान करके गाती हुई बहुत सी युवतियों से घिरे हुए निर्वस्त्र हो कर, दैवी नदी गङ्गा में क्रीडा विहार कर रहे थे। आपके ही चरणों में आसक्त नारद ने उन्हे ऐसी अवस्था में देखा।
भिया प्रियालोकमुपात्तवाससं
पुरो निरीक्ष्यापि मदान्धचेतसौ ।
इमौ भवद्भक्त्युपशान्तिसिद्धये
मुनिर्जगौ शान्तिमृते कुत: सुखम् ॥४॥
| भिया प्रिया-लोकम्- |
भय से युवती गण ने |
| उपात्त-वाससं |
डाल लिये कपडे |
| पुर: निरीक्ष्य-अपि |
(किन्तु) सामने देख कर भी |
| मद-अन्ध-चेतसौ |
मद से अन्धे चित्त वाले |
| इमौ |
इन दोनों ने (नहीं किया) |
| भवत्-भक्ति- |
आपकी भक्ति (और) |
| उपशान्ति-सिद्धये |
परम शान्ति की सिद्धि के लिये |
| मुनि:-जगौ |
मुनि ने कहा |
| शान्तिम्-ऋते |
शान्ति के बिना |
| कुत: सुखम् |
कहां सुख है |
भयभीत युवतियों ने तो बदन पर कपडे डाल लिये किन्तु मदान्ध चित्त वाले उन दोनों ने ऐसा नहीं किया। आपकी भक्ति और परम शान्ति की सिद्धि के लिये मुनि ने कहा, (आगे के श्लोक में) शान्ति के बिना सुख कहां है?
युवामवाप्तौ ककुभात्मतां चिरं
हरिं निरीक्ष्याथ पदं स्वमाप्नुतम् ।
इतीरेतौ तौ भवदीक्षणस्पृहां
गतौ व्रजान्ते ककुभौ बभूवतु: ॥५॥
| युवाम्-अवाप्तौ |
तुम दोनों पाकर |
| ककुभ-आत्मतां चिरं |
अर्जुन स्वरूप को चिरकाल तक |
| हरिं निरीक्ष्य-अथ |
हरि को देख कर फिर |
| पदं स्वम्-आप्नुतम् |
स्थान को अपने प्राप्त होवोगे |
| इति-ईरितौ तौ |
इस प्रकार कहे गये वे दोनों |
| भवत्-ईक्षण-स्पृहां |
आपके दर्शन की इच्छा से |
| गतौ व्रज-अन्ते |
गये व्रज के किनारे |
| ककुभौ बभूवतु: |
(और) ककुभ (अर्जुन वृक्ष) बन गये |
'चिरकाल तक तुम दोनों अर्जुन वृक्ष का स्वरूप पाकर रहोगे। जब हरि का दर्शन करोगे, तब फिर अपने स्थान को प्राप्त करोगे।' नारद द्वारा इस प्रकार कहे जाने पर वे दोनों प्रभु के दर्शन की इच्छा से व्रज के किनारे चले गये और अर्जुन वृक्ष बन गये।
अतन्द्रमिन्द्रद्रुयुगं तथाविधं
समेयुषा मन्थरगामिना त्वया ।
तिरायितोलूखलरोधनिर्धुतौ
चिराय जीर्णौ परिपातितौ तरू ॥६॥
| अतन्द्रम्- |
बिना रुके हुए |
| इन्द्र-द्रु-युगम् |
अर्जुन द्रुम युगल |
| तथा-विधम् |
उस प्रकार के |
| समेयुषा |
पास पहुंच कर |
| मन्थर-गामिना त्वया |
धीरे धीरे चलते हुए आपके द्वारा |
| तिरायुत-उलूखल- |
टेढे हुए उलूखल से |
| रोध-निर्धुतौ |
अटक कर उखड गये |
| चिराय जीर्णौ |
अनेक समय से जीर्ण हुए |
| परिपातितौ तरू |
गिर पडे दोनों पेड |
इन्हीं अर्जुन द्रुम युगल के पास आप बिना रुके हुए पहुंच गये। फिर दोनों वृक्षों के बीच आपके धीरे धीरे चलने से टेढा हुआ उलूखल दोनों वृक्षों के बीच अटक गया। अनेक समय से जीर्ण हुए दोनों पेड, खींचे जाने से उखड कर गिर पडे।
अभाजि शाखिद्वितयं यदा त्वया
तदैव तद्गर्भतलान्निरेयुषा ।
महात्विषा यक्षयुगेन तत्क्षणा-
दभाजि गोविन्द भवानपि स्तवै: ॥७॥
| अभाजि शाखिद्वितयं |
(जब) उखाड दिये गये दोनों पेड |
| यदा त्वया तदा-एव |
जब आपके द्वारा तब ही |
| तत्-गर्भ-तलात्-निरेयुषा |
उसके भीतर से निकले |
| महात्विषा |
महान कान्तिमान |
| यक्षयुगेन |
यक्ष युगल जिनके द्वारा |
| तत्-क्षणात्-अभाजि |
उसी क्षण पूजित हुए |
| गोविन्द |
हे गोविन्द! |
| भवान्-अपि स्तवै: |
आप भी स्तुतियों से |
जब आपने दोनों पेडों को उखाड दिया तब उनके भीतर से दो कान्तिमान यक्ष निकले और हे गोविन्द! उसी क्षण उन्होंने स्तुतियों से आपका पूजन किया।
इहान्यभक्तोऽपि समेष्यति क्रमात्
भवन्तमेतौ खलु रुद्रसेवकौ ।
मुनिप्रसादाद्भव्दङ्घ्रिमागतौ
गतौ वृणानौ खलु भक्तिमुत्तमाम् ॥८॥
| इह-अन्य-भक्त:-अपि |
यहां (इस संसार में) अन्य देवों के भक्त भी |
| समेष्यति |
निश्चय ही आयेंगे |
| क्रमात् भवन्तम्- |
क्रम से आप तक |
| एतौ खलु रुद्र-सेवकौ |
ये दोनों जो शंकर के भक्त थे |
| मुनि-प्रसादात्- |
(नारद) मुनि की कृपा से |
| भवत्-अङ्घ्रिम्- |
आपके चरणों में |
| आगतौ गतौ |
आ गये (और) चले गये |
| वृणानौ खलु |
वरदान पा कर |
| भक्तिम्-उत्तमाम् |
उत्तम भक्ति का |
यहां, इस संसार में अन्य देवों के भक्त भी क्रम से आप तक ही आयेंगे। ये दोनों यक्ष जो शंकर के भक्त थे, मुनि नारद की कृपा से आपके चरणों की शरण में आ गये और उत्तम भक्ति का वरदान पा कर अपने स्थान को चले गये।
ततस्तरूद्दारणदारुणारव-
प्रकम्पिसम्पातिनि गोपमण्डले ।
विलज्जितत्वज्जननीमुखेक्षिणा
व्यमोक्षि नन्देन भवान् विमोक्षद: ॥९॥
| तत:-तरू-द्दारण- |
तब पेडों के गिरने से |
| दारुण-आरव- |
भयंकर आवाज (सुन कर) |
| प्रकम्पि-सम्पातिनि |
कांपते हुए दौड पडने पर |
| गोप-मण्डले |
गोप मण्डल के |
| विलज्जित-त्वत्-जननी- |
लज्जित आपकी माता |
| मुख-इक्षिणा |
(जिनका) मुख देख रहे थे |
| व्यमोक्षि नन्देन |
खोल दिया नन्द ने |
| भवान् विमोक्षद: |
आपको जो मोक्ष दाता हैं |
पेडों के गिरने से हुई भयंकर आवाज को सुन कर गोप मण्डल तब उधर ही दौड पडा। आपको बान्धने से लज्जित हुई आपकी माता का मुख देखते हुए नन्द ने मुक्तिदाता आपको बन्धन मुक्त कर दिया।
महीरुहोर्मध्यगतो बतार्भको
हरे: प्रभावादपरिक्षतोऽधुना ।
इति ब्रुवाणैर्गमितो गृहं भवान्
मरुत्पुराधीश्वर पाहि मां गदात् ॥१०॥
| महीरुहो:-मध्य-गत: |
पेडों के बीच से जाते हुए |
| बत-अर्भक: |
आश्चर्य है! बालक |
| हरे: प्रभावात्- |
हरि के प्रभाव से |
| अपरिक्षत:-अधुना |
बच गया आज |
| इति ब्रुवाणै:- |
ऐसा कहते हुए (गोपों के द्वारा) |
| गमित: गृहं |
(आप) ले जाये गये घर को |
| भवान् मरुत्पुराधीश्वर |
आप, हे मरुत्पुराधीश्वर! |
| पाहि मां गदात् |
रक्षा करे मेरी रोगों से |
'आश्चर्य है! पेडों के बीच से जाते हुए भी यह बालक आज प्रभु की कृपा से बच गया।' ऐसा कहते हुए गोप गण आपको घर ले गये। हे मरुत्पुराधीश्वर! रोगों से मेरी रक्षा करें।
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