दशक ४६
अयि देव पुरा किल त्वयि स्वयमुत्तानशये स्तनन्धये ।
परिजृम्भणतो व्यपावृते वदने विश्वमचष्ट वल्लवी ॥१॥
अयि देव |
अयि देव! |
पुरा किल |
पहले एक बार |
त्वयि स्वयम्- |
आप स्वयं |
उत्तानशये |
सीधे सोये हुए |
स्तनन्धये |
स्तन पान करते हुए |
परिजृम्भणत: |
जम्भाई लेते हुए |
व्यपावृते वदने |
खुले हुए मुख में |
विश्वम्-अचष्ट |
विश्व को देखा |
वल्लवी |
गोपी (यशोदा) ने |
हे देव! अपने बाल्य काल में आप एकबार सीधे सोये हुए स्तनपान कर रहे थे। उसी समय जम्भाई लेते हुए आपके खुले मुख में गोपी यशोदा ने पूरे विश्व को देखा।
पुनरप्यथ बालकै: समं त्वयि लीलानिरते जगत्पते ।
फलसञ्चयवञ्चनक्रुधा तव मृद्भोजनमूचुरर्भका: ॥२॥
पुन:-अपि-अथ |
फिर एकबार तब |
बालकै: समं |
बालकों के साथ |
त्वयि लीला-निरते |
(जब) आप लीला (क्रीडा) मे व्यस्त थे |
जगत्पते |
हे जगत्पति! |
फल-सञ्चय- |
फल संचय |
वञ्चन-क्रुधा |
से छलित और क्रुद्ध हुए (बालकों ने) |
तव मृद्-भोजनम्- |
आपके मिट्टी खाने को |
ऊचु:-अर्भका: |
बताया बालकों ने |
और एकबार जब आप बालकों के साथ लीला क्रीडा में व्यस्त थे तब फलों के संचय में छलित बालक आप से क्रुद्ध हो गये और उन्होंने यशोदा को आपकी मट्टी खाने की बात बता दी।
अयि ते प्रलयावधौ विभो क्षितितोयादिसमस्तभक्षिण: ।
मृदुपाशनतो रुजा भवेदिति भीता जननी चुकोप सा ॥३॥
अयि |
अयि |
ते प्रलय-अवधौ |
आपके प्रलय काल में |
विभो |
हे विभो! |
क्षिति-तोय-आदि- |
पृथ्वी जल आदि |
समस्त-भक्षिण: |
समस्त खाने वाले को |
मृद्-उपाशनत: |
मिट्टी खाने से |
रुजा भवेत्-इति |
रोग हो जाएगा इस प्रकार |
भीता जननी |
डरी हुई माता |
चुकोप सा |
वह कुपित हो गई |
अयि विभो! प्रलय काल में पृथ्वी जल आदि समस्त ब्रह्माण्ड का भक्षण करने वाले आप मिट्टी खाने से रोगी हो जायेंगे इस डर से माता कुपित हो गई।
अयि दुर्विनयात्मक त्वया किमु मृत्सा बत वत्स भक्षिता ।
इति मातृगिरं चिरं विभो वितथां त्वं प्रतिजज्ञिषे हसन् ॥४॥
अयि दुर्विनयात्मक |
अरे दुष्ट! |
त्वया किमु |
तुमने क्या |
मृत्सा बत |
मिट्टी ही |
वत्स भक्षिता |
पुत्र खाई थी |
इति मातृगिरं |
इस प्रकार माता के वचन को |
चिरं विभो |
कुछ समय तक, हे विभो! |
वितथां त्वं |
असत्य आपने |
प्रतिजज्ञिषे हसन् |
ठहराया हंसते हुए |
'अरे दुष्ट पुत्र! तुमने मिट्टी ही खाई थी या कुछ और?' हे विभो! माता के ऐसा पूछने पर कुछ समय तक आप हंसते हुए माता के वचन को असत्य बताते रहे।
अयि ते सकलैर्विनिश्चिते विमतिश्चेद्वदनं विदार्यताम् ।
इति मातृविभर्त्सितो मुखं विकसत्पद्मनिभं व्यदारय: ॥५॥
अयि ते |
अरे तुम्हारे |
सकलै:-विनिश्चिते |
ये सभी निश्चय बता रहे हैं |
विमति:-चेत्- |
अन्यथा है यदि |
वदनं विदार्यताम् |
मुंह खोलो' |
इति मातृ-विभर्त्सित: |
इस प्रकार माता के डांटने पर |
मुखं विकसत्-पद्म-निभम् |
मुख को खिलते हुए कमल के समान |
व्यदारय: |
खोल दिया (आपने) |
'अरे! तुम्हारे ये सभी साथी निश्चित रूप से बता रहे हैं कि तुमने मिट्टी खाई है। यदि ऐसा नहीं है तो अपना मुंह खोलो।' माता के इस प्रकार डांटने पर आपने खिलते हुए कमल के समान अपना मुंह खोल दिया।
अपि मृल्लवदर्शनोत्सुकां जननीं तां बहु तर्पयन्निव ।
पृथिवीं निखिलां न केवलं भुवनान्यप्यखिलान्यदीदृश: ॥६॥
अपि मृल्-लव |
मिट्टी का कण भी |
दर्शन-उत्सुकां |
देखने को उत्सुक |
जननीं तां |
उस माता को |
बहु तर्पयन्-इव |
बहुत सन्तुष्ट करते हुए मानो |
पृथिवीं निखिलां |
पृथ्वी को पूरी |
न केवलं |
नहीं केवल |
भुवनान्-अपि- |
भुवनों को भी |
अखिलान्-अदीदृश: |
समस्त दिखला दिया |
माता आपके मुख में मिट्टी का कण मात्र भी मिट्टी देखने को उत्सुक थीं। उनको बहुत सन्तुष्ट करते हुए ही मानों आपने न केवल पूरी पृथ्वी अपितु समस्त भुवनों को भी दिखला दिया।
कुहचिद्वनमम्बुधि: क्वचित् क्वचिदभ्रं कुहचिद्रसातलम् ।
मनुजा दनुजा: क्वचित् सुरा ददृशे किं न तदा त्वदानने ॥७॥
कुहचित्-वनम्- |
कहीं पर वन |
अम्बुधि: क्वचित् |
समुद्र कहीं पर |
क्वचित्-अभ्रं |
कहीं पर आकाश |
कुहचित्-रसातलम् |
कहीं पर रसातल |
मनुजा: दनुजा: |
मानव, असुर |
क्वचित् सुरा: |
कहीं पर देवगण |
ददृशे किं न |
दिखाया क्या नहीं |
तदा त्वत्-आनने |
तब आपके मुख में |
उस समय, कहीं पर वन और कहीं समुद्र, कहीं पर आकाश तो कहीं रसातल, कहीं मानव कहीं असुर तो कहीं देवता गण, इस प्रकार क्या क्या नहीं देखा माता यशोदा ने आपके मुख में?
कलशाम्बुधिशायिनं पुन: परवैकुण्ठपदाधिवासिनम् ।
स्वपुरश्च निजार्भकात्मकं कतिधा त्वां न ददर्श सा मुखे ॥८॥
कलश-अम्बुधि-शायिनं |
क्षीर सागर में लेटे हुए |
पुन: पर-वैकुण्ठपद- |
फिर परमात्मस्वरूप में वैकुण्ठ पद मे |
अधिवासिनम् |
निवास करने वाले |
स्व-पुर:-च |
स्वयं के सामने और |
निज-अर्भक-आत्मकं |
अपने पुत्र के रूप में |
कतिधा |
कितने स्वरूपों में |
त्वाम् न ददर्श |
आपको नहीं देखा |
सा मुखे |
उसने मुख में |
क्षीर सागर में शेष शैया पर शयन करते हुए, वैकुण्ठ पद के निवासी परमात्म स्वरूप में, स्वयं के सामने अपने पुत्र के रूप में, किस किस रूप में उसने नही देखा आपको आपके ही मुख में?
विकसद्भुवने मुखोदरे ननु भूयोऽपि तथाविधानन: ।
अनया स्फुटमीक्षितो भवाननवस्थां जगतां बतातनोत् ॥९॥
विकसत्-भुवने |
दिखाए देते हुए भुवन |
मुख-उदरे |
मुख गह्वर में |
ननु भूय:-अपि |
निश्चय ही फिर से भी |
तथा-विध-आनन: |
उसी प्रकार का मुख |
अनया स्फुटम्-ईक्षित: |
उसके द्वारा स्पष्ट देखा गया |
भवान्-अनवस्थां |
आप ने अनवस्था को |
जगतां |
जगत की |
बत्-आतनोत् |
ही प्रमाणित किया |
आपके मुख गह्वर में यशोदा ने स्पष्ट रूप से भुवनों को देखा और उसी प्रकार खुले हुए मुंह वाले आपको देखा, जिसमें फिर भुवन और मुख दिख रहे थे। इस प्रकार आपने जगत की अनवस्था को प्रतिपादित किया।
धृततत्त्वधियं तदा क्षणं जननीं तां प्रणयेन मोहयन् ।
स्तनमम्ब दिशेत्युपासजन् भगवन्नद्भुतबाल पाहि माम् ॥१०॥
धृत-तत्त्व-धियं |
पा जाने पर तत्व ज्ञान ध्यान में |
तदा क्षणं |
तब क्षण भर के लिये |
जननीं तां |
उस जननी को |
प्रणयेन मोहयन् |
स्नेह से मोहित कर के |
स्तनम्-अम्ब दिश- |
दूध मां दो' |
इति-उपासजन् |
इस प्रकार गोद में चढते हुए |
भगवन्- |
हे भगवन! |
अद्भुत-बाल |
हे अद्भुत बालक! |
पाहि माम् |
रक्षा करें मेरी |
तब क्षण भर के लिये यशोदा को मन में तत्त्व ज्ञान हो गया। फिर आप जननी को स्नेह से मोहित कर के, 'दूध दो मां' कहते हुए गोद में चढने का उपक्रम करने लगे। हे भगवन! हे अद्भुत बालक! मेरी रक्षा करें।
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