Shriman Narayaneeyam

दशक 42 | प्रारंभ | दशक 44

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दशक ४३

त्वामेकदा गुरुमरुत्पुरनाथ वोढुं
गाढाधिरूढगरिमाणमपारयन्ती ।
माता निधाय शयने किमिदं बतेति
ध्यायन्त्यचेष्टत गृहेषु निविष्टशङ्का ॥१॥

त्वाम्-एकदा आपको एक दिन
गुरुमरुत्पुरनाथ हे गुरुमरुत्पुरनाथ!
वोढुं उठाने में
गाढ-अधिरूढ-गरिमाणम्- अत्यधिक बढे हुए वजन वाले
अपारयन्ती माता असमर्थ हुई माता ने
निधाय शयने लिटा दिया पलङ्ग पर
किम्-इदं बत-इति क्या है यह आश्चर्य इस प्रकार
ध्यायन्ती सोचती हुई
अचेष्टत गृहेषु करने लगी घर के काम
निविष्ट-शङ्का घिरी हुई शंकाओं से

हे गुरुमरुत्पुरनाथ! एक दिन आपका वजन अत्यधिक बढ जाने से आपको गोद में उठाने में असमर्थ माता ने आपको पलङ्ग पर लिटा दिया। 'यह कैसा आश्चर्य है', इस प्रकार की शंका से घिरी हुई वह घर के कामों में व्यस्त हो गई।

तावद्विदूरमुपकर्णितघोरघोष-
व्याजृम्भिपांसुपटलीपरिपूरिताश: ।
वात्यावपुस्स किल दैत्यवरस्तृणाव-
र्ताख्यो जहार जनमानसहारिणं त्वाम् ॥२॥

तावत्-विदूरम्- तब दूर पर
उपकर्णित-घोर-घोष- सुनाई दी भयंकर आवाज
व्याजृम्भि-पांसुपटली- (और) ऊपर की ओर उठती हुई घनी धूल से
परिपूरित-आश: भर गई सब दिशाएं
वात्या-वपु:-स हवा के वेष में वह
किल दैत्यवर:- निश्चय ही नामी असुर
तृणावर्त-आख्य: तृणावर्त नाम का
जहार उठा ले गया
जनमानस-हारिणं जन मानस के मनों का हरण करने वाले
त्वाम् आपको

तब दूर से भयंकर आवाज सुनाई दी और उसके साथ ही घनी धूल ऊपर की ओर उठ कर गिरने लगी, जिससे सारी दिशाएं ढक गईं। निश्चय ही वह वायु देह में तृणावर्त नाम का नामी राक्षस था, जो जन मानस का हरण करने वाले आपको उठा कर ले गया।

उद्दामपांसुतिमिराहतदृष्टिपाते
द्रष्टुं किमप्यकुशले पशुपाललोके ।
हा बालकस्य किमिति त्वदुपान्तमाप्ता
माता भवन्तमविलोक्य भृशं रुरोद ॥३॥

उद्दाम-पांसु- अत्यन्त धूल से
तिमिर-आहत- अंधेरे से नष्ट हो जाने से
दृष्टि-पाते दृष्टि पथ के
द्रष्टुम् किम्-अपि- देखना कुछ भी
अकुशले असम्भव होने से
पशुपाल-लोके गोप जन लोक
हा बालकस्य किम्- हाय बालक को क्या (हुआ)
इति इस प्रकार
त्वत्-उपान्तम्-आप्ता आपके पास पहुंच कर
माता भवन्तम्- आपकी माता आपको
अविलोक्य न देखते हुए
भृशं रुरोद खूब रोने लगी

अत्यधिक धूल के कारण हुए अन्धेरे से कुछ भी दृष्टि गोचर होना असम्भव था। 'हायबालक को क्या हुआ' इस प्रकार चिन्ता करते हुए गोप जन आपके पास पहुंचे और वहां पर आपको न देखते हुए आपकी माता यशोदा खूब जोरों से रोने लगीं।

तावत् स दानववरोऽपि च दीनमूर्ति-
र्भावत्कभारपरिधारणलूनवेग: ।
सङ्कोचमाप तदनु क्षतपांसुघोषे
घोषे व्यतायत भवज्जननीनिनाद: ॥४॥

तावत् स दानववर:- तब वह दानव वीर
अपि च दीनमूर्ति:- भी और दीन हो गया
भावत्क-भार-परिधारण- आपके भार को उठाने से
लून-वेग: कम हो जाने से (उसका) वेग
सङ्कोचम्-आप क्षीणता को प्राप्त हो गया
तत्-अनु उसके बाद
क्षत-पांसु-घोषे मन्द हो जाने पर घोर आवाज के
घोषे व्यतायत गोकुल में व्याप्त हो गई
भवत्-जननी-निनाद् आपकी माता के रोने की आवाज

आपके भारी भार को वहन करने से वह वीर दानव भी कमजोर हो गया और उसकी गति क्षीण पड गई। तब तक वायु और धूल के झंझावात का तुमुल शोर भी मन्द पड गया और गोकुल में आपकी माता यशोदा के रुदन की ध्वनि व्याप्त हो गई।

रोदोपकर्णनवशादुपगम्य गेहं
क्रन्दत्सु नन्दमुखगोपकुलेषु दीन: ।
त्वां दानवस्त्वखिलमुक्तिकरं मुमुक्षु-
स्त्वय्यप्रमुञ्चति पपात वियत्प्रदेशात् ॥५॥

रोद-उपकर्णन-वशात्- रोना सुनने के कारण
उपगम्य गेहं पहुंच कर घर को
क्रन्दत्सु रोने लगे (जब)
नन्द-मुख-गोपकुलेषु नन्द आदि प्रमुख गोप जन
दीन: (तब) कमजोर हुआ (वह दानव)
त्वाम् दानव:-तु आपको (वह) दानव तो
अखिल-मुक्तिकरम् समस्त (प्राणियों के) मुक्तिदाता (आपको)
मुमुक्षु:- मुक्त करना चाहते हुए भी
त्वयि-अप्रमुञ्चति (जब) आपने उसको नहीं छोडा
पपात् गिर पडा
वियत्-प्रदेशात् आकाश की ऊंचाइयों से

यशोदा का रोना सुन कर नन्द आदि प्रमुख गोप जन घर पहुंच कर रोने लगे। बलहीन हुआ वह दानव, समस्त प्राणियों के मुक्ति दाता आपको छोडना चाहता था किन्तु तब आपने उसे नहीं छोडा और वह आकाश की ऊंचाइयों से गिर पडा।

रोदाकुलास्तदनु गोपगणा बहिष्ठ-
पाषाणपृष्ठभुवि देहमतिस्थविष्ठम् ।
प्रैक्षन्त हन्त निपतन्तममुष्य वक्ष-
स्यक्षीणमेव च भवन्तमलं हसन्तम् ॥६॥

रोदाकुला:-तत्-अनु रोते हुए और निर्बल तब
गोपगणा बहिष्ठ- गोप गण ने (घर के) बाहर
पाषाण-पृष्ठ-भुवि पत्थर के ऊपर की जगह पर
देहम्-अतिस्थविष्ठम् (उस दानव के) विशाल स्थूल शरीर को
प्रैक्षन्त हन्त देखा, विस्मय से
निपतन्तम्- गिरते हुए
अमुष्य वक्षसि- उसके वक्षस्थल पर
अक्षीणम्-एव अक्षुण्ण (स्थिति में) ही
च भवन्तम् और आपको (देखा)
अलं हसन्तम् कुछ हंसते हुए

अत्यन्त आश्चर्य की बात है कि रुदन से व्याकुल और विह्वल गोप गणों ने तब घर के बाहर शिलाखण्ड की पीठ पर उस दानव के विराट स्थूल शरीर को गिरते हुए देखा और उसके वक्षस्थल पर, अक्षुण्ण स्थिति में कुछ हंसते हुए, आपको देखा।

ग्रावप्रपातपरिपिष्टगरिष्ठदेह-
भ्रष्टासुदुष्टदनुजोपरि धृष्टहासम् ।
आघ्नानमम्बुजकरेण भवन्तमेत्य
गोपा दधुर्गिरिवरादिव नीलरत्नम् ॥७॥

ग्राव-प्रपात शिला पर गिरने से
परिपिष्ट-गरिष्ठ-देह- चूर्णित हुए स्थूल शरीर से
भ्रष्टासु-दुष्ट-दनुज- निष्प्राण हुए दुष्ट दानव के
उपरि धृष्ट-हासम् ऊपर धारण किये हुए हास को
आघ्नानम्- पीटते हुए
अम्बुजकरेण कमल समान हाथ से
भवन्तम्-एत्य आपके पास जा कर
गोपा: दधु:- गोपों ने ले लिया (आप को)
गिरिवरात्-इव गिरिवर से जैसे
नीलरत्नम् नील रत्न को

शिला खण्ड पर गिरने से चूर चूर हुए उस दैत्य का स्थूल शरीर निष्प्राण हो गया था। आप उसके वक्षस्थल पर अपने कमल के समान कोमल हाथों से हंसते हुए प्रहार कर रहे थे। गोप गणों ने तब आपके पास पहुंच कर आपको ऐसे उठा लिया जैसे गिरिवर से कोई नीलरत्न उठा ले।

एकैकमाशु परिगृह्य निकामनन्द-
न्नन्दादिगोपपरिरब्धविचुम्बिताङ्गम् ।
आदातुकामपरिशङ्कितगोपनारी-
हस्ताम्बुजप्रपतितं प्रणुमो भवन्तम् ॥८॥

एक-एकम्-आशु एक के बाद एक, शीघ्र ही
परिगृह्य पकड कर
निकाम-नन्दम परमानन्दमय (आपको)
नन्द-आदि-गोप- नन्द आदि गोपों द्वारा
परिरब्ध-विचुम्बित- आलिङ्गित और चुम्बित
अङ्गम् अङ्गों वाले (आपको)
आदातु-काम- (गोद में) लेने की इच्छुक
परिशङ्कित-गोपनारी- (किन्तु) लजायमान गोपियों के
हस्त-अम्बुज- हस्त कमलों में
प्रपतितम् (उछल कर जा) गिरने वाले (आपको)
प्रणुम: भवन्तम् प्रणाम करते हैं आपको

शीघ्र ही नन्द आदि गोपों ने परमानन्दमय आपको पकड कर आपके अङ्गों का आलिङ्गन और चुम्बन किया। अपनी गोद में लेने को इच्छुक कुछ कुछ लजाती हुई गोपियों के हस्त कमलों में उछल कर जा गिरने वाले आपको हम प्रणाम करते हैं।

भूयोऽपि किन्नु कृणुम: प्रणतार्तिहारी
गोविन्द एव परिपालयतात् सुतं न: ।
इत्यादि मातरपितृप्रमुखैस्तदानीं
सम्प्रार्थितस्त्वदवनाय विभो त्वमेव ॥९॥

भूय:-अपि बारम्बार
किम्-नु कृणुम: क्या हम करें
प्रणतार्तिहारी प्रपन्न जनों के क्लेशहारी
गोविन्द एव गोविन्द ही
परिपालयतात् रक्षा करें
सुतं न: पुत्र की हमारे
इति-आदि इस प्रकार और
मात:-पितृ- माता पिता
प्रमुखै:-तदानीम् और प्रमुख जनों के द्वारा
सम्प्रार्थित:- प्रार्थना किये गये
त्वत्-अवनाय आपके संरक्षण के लिये
विभो त्वम्-एव हे ईश्वर! आप ही

आपके माता पिता और प्रमुख जन बारम्बार यही कह रहे थे कि 'हम लोग और क्या कर सकते है? प्रपन्न जनों के क्लेशहारी गोविन्द ही हमारे पुत्र की रक्षा करने में समर्थ हैं।' हे ईश्वर! इस प्रकार आपके संरक्षण के लिये वे आप ही से प्रार्थना करने लगे।

वातात्मकं दनुजमेवमयि प्रधून्वन्
वातोद्भवान् मम गदान् किमु नो धुनोषि ।
किं वा करोमि पुनरप्यनिलालयेश
निश्शेषरोगशमनं मुहुरर्थये त्वाम् ॥१०॥

वातात्मकं दनुजम्- वायु वेष में उस असुर का
एवम्-अयि इस प्रकार हे!
प्रधून्वन् संहार कर के
वात-उद्भवान् वायु से उठती हुई
मम गदान् मेरे रोगों को
किमु नो धुनोषि क्यों नहीं नष्ट करते हैं
किं वा करोमि क्या अथवा करूं
पुन:-अपि- फिर भी
अनिलालयेश हे अनिलालयेश!
निश्शेष-रोग-शमनं समस्त रोगों के नाश के लिये
मुहु:-अर्थये त्वाम् बारम्बार प्रार्थना करता हूं

वायु वेष में उस असुर का आपने इस प्रकार संहार किया। वायु से उद्भूत मेरे रोगों का भी नाश कीजिये। हे अनिलालयेश! अपने बाह्याभ्यन्तर समस्त रोगों के नाश के लिये मैं बारम्बार आपसे प्रार्थना करता हूं, इसके अतिरिक्त और कर भी क्या सकता हूं?

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