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दशक २७
दर्वासास्सुरवनिताप्तदिव्यमाल्यं
शक्राय स्वयमुपदाय तत्र भूय: ।
नागेन्द्रप्रतिमृदिते शशाप शक्रं
का क्षान्तिस्त्वदितरदेवतांशजानाम् ॥१॥
| दुर्वासा:- |
दुर्वासा ने |
| सुर-वनिता-आप्त-दिव्य-माल्यं |
देवाङ्गनाऒं से प्राप्त दिव्य माला को |
| शुक्राय स्वयम्-उपदाय तत्र भूय: |
इन्द्र को स्वयं दे कर, वहां तब |
| नागेन्द्र-प्रतिमृदिते |
ऐरावत के द्वारा कुचल दी जाने पर |
| शशाप शक्रं |
शाप दे दिया इन्द्र को |
| का क्षान्ति:- |
कहां है क्षमा |
| त्वत्-इतर- |
आपसे अन्य |
| देवता-अंशजानाम् |
देवताओं के अंशजों में |
देवाङनाओं से प्राप्त दिव्य माला को दुर्वासा ऋषि ने एकबार स्वयं इन्द्र को प्रदान की। ऐरावत हाथी ने उसे कुचल दिया। अवहेलना से पीडित दुर्वासा ने इन्द्र को शाप दे दिया। आपसे इतर देवताओं के अंशजों में क्षमा भावना कहां है?
शापेन प्रथितजरेऽथ निर्जरेन्द्रे
देवेष्वप्यसुरजितेषु निष्प्रभेषु ।
शर्वाद्या: कमलजमेत्य सर्वदेवा
निर्वाणप्रभव समं भवन्तमापु: ॥२॥
| शापेन प्रथित-जरे-अथ |
शाप से प्रभावित जरा से तब |
| निर्जर-इन्द्रे |
जराहीन इन्द्र (के हो जाने पर) |
| देवेषु-अपि-असुर-जितेषु |
(और) देवों के भी दानवों के द्वारा जीत लिये जाने पर |
| निष्प्रभेषु |
निस्तेज हो गये |
| शर्व-आद्या: |
शंकर आदि |
| कमलजम्-एत्य |
ब्रह्मा के पास जा कर |
| सर्व-देवा: |
सभी देवता |
| निर्वाण-प्रभव |
हे निर्वाण दाता! |
| समं |
के संग |
| भवन्तम्-आपु: |
आपके पास पहुंचे |
हे निर्वाण दाता! शाप के प्रभाव से वृद्धावस्था रहित इन्द्र भी बुढापे से आक्रान्त हो गये, और देवगण भी दानवों के द्वारा पराजित हो कर निस्तेज हो गये। तब शंकर आदि सभी देवता ब्रह्माजी के पास गये और उनके साथ आपके पास पहुंचे।
ब्रह्माद्यै: स्तुतमहिमा चिरं तदानीं
प्रादुष्षन् वरद पुर: परेण धाम्ना ।
हे देवा दितिजकुलैर्विधाय सन्धिं
पीयूषं परिमथतेति पर्यशास्त्वम् ॥३॥
| ब्रह्मा-आद्यै: |
ब्रह्मा आदि के द्वारा |
| स्तुत-महिमा चिरं |
गाई गयी महिमा चिरकाल तक |
| तदानीं |
उस समय |
| प्रादुष्षन् |
प्रकट हो कर |
| वरद |
हे वरदायी! |
| पुर: |
सामने |
| परेण धाम्ना |
अपूर्व तेजस्वी |
| हे देवा |
हे देव! |
| दितिज-कुलै:- |
असुर कुल के साथ |
| विधाय सन्धिं |
रचा कर संधि |
| पीयूषं परिमथत- |
अमृत का मन्थन करो |
| इति पर्यशा:-त्वम् |
इस प्रकार परामर्श दिया आपने |
हे वरदायी! उस समय ब्रह्मा आदि ने बहुत समय तक आपकी महिमा का स्तवन किया। हे देव! आप अपने अपूर्व तेजस्वी स्वरूप से उनके सामने प्रकट हो गये और उन्हे असुरों के साथ संधि करके, अमृत प्राप्ति के लिए समुद्र मन्थन का परामर्श दिया।
सन्धानं कृतवति दानवै: सुरौघे
मन्थानं नयति मदेन मन्दराद्रिम् ।
भ्रष्टेऽस्मिन् बदरमिवोद्वहन् खगेन्द्रे
सद्यस्त्वं विनिहितवान् पय:पयोधौ ॥४॥
| सन्धानं कृतवति |
संधि कर लेने पर |
| दानवै: सुरौघे |
दानवों के साथ देवताओं के |
| मन्थानं नयति |
मथनी को ले जाते हुए |
| मदेन मन्दर-अद्रिम् |
अभिमान से, मन्दार पर्वत को |
| भ्रष्टे-अस्मिन् |
गिर जाने पर उसके |
| बदरम्-इव-उद्वहन् |
बेर के समान उठाते हुए |
| खगेन्द्रे सद्य:-त्वम् |
गरुड पर शीघ्र ही आपने |
| विनिहितवान् |
रख दिया |
| पय:पयोधौ |
समुद्र जल के अन्दर |
देवताओं ने असुरों के साथ संधि कर ली और मन्थन करने के लिये मथनी स्वरूप मन्दार पर्वत को अभिमान के साथ उठा कर ले चले। उसके गिर जाने पर आपने उसे बेर के समान उठा कर गरुड पर रख लिया और शीघ्र ही उसे समुद्र जल में डाल दिया।
आधाय द्रुतमथ वासुकिं वरत्रां
पाथोधौ विनिहितसर्वबीजजाले ।
प्रारब्धे मथनविधौ सुरासुरैस्तै-
र्व्याजात्त्वं भुजगमुखेऽकरोस्सुरारीन् ॥५॥
| आधाय द्रुतम्-अथ |
डाल कर जल्दी ही तब |
| वासुकिं वरत्रां |
वासुकि नेती को |
| पाथोधौ |
क्षीर सागर में |
| विनिहित-सर्व-बीज-जाले |
विद्यमान थे जिसमें सभी बीज समूह |
| प्रारब्धे मथन-विधौ |
आरम्भ कर के मन्थन की क्रिया |
| सुर्-असुरै:-तै:- |
उन सुर और असुरों के द्वारा |
| व्याजात्-त्वं |
व्याज से आपने |
| भुजग-मुखे-अकरो:- |
नाग के मुख की ओर कर दिया |
| सुरारीन् |
असुरों को |
वासुकि सर्प रूपी नेती को तब शीघ्र ही क्षीर सागर में डाल दिया गया जिसमें सभी बीज समूह विद्यमान थे। और उन देवताओं और दानवों ने मन्थन की क्रिया आरम्भ कर दी। आपने चतुरता से असुरों को नाग के मुख की ओर कर दिया।
क्षुब्धाद्रौ क्षुभितजलोदरे तदानीं
दुग्धाब्धौ गुरुतरभारतो निमग्ने ।
देवेषु व्यथिततमेषु तत्प्रियैषी
प्राणैषी: कमठतनुं कठोरपृष्ठाम् ॥६॥
| क्षुब्ध-आद्रौ |
घूमने पर पर्वत के |
| क्षुभित-जल-उदरे |
क्षुब्ध हो गये जल के भीतरी भाग |
| तदानीं |
तब |
| दुग्ध-अब्धौ |
क्षीर सागर में |
| गुरुतर-भारत: |
अत्यधिक भार के कारण |
| निमग्ने |
डूब जाने से |
| देवेषु व्यथिततमेषु |
देवगण के अतिशय चिन्तित हो जाने से |
| तत्-प्रियैषी |
उनके हितैषी (आप) |
| प्राणैषी: |
दधारण कर लिया |
| कमठ-तनुं |
कच्छप शरीर |
| कठोर-पृष्ठाम् |
कठोर पीठ वाला |
मथे जाते हुए पर्वत से जल के भीतरी भाग क्षुब्ध हो उठे, और तब अत्यधिक भार के कारण वह क्षीर सागर में डूब गया। इससे देवगण अतिशय चिन्ता में पड गये। उनके हितैषी आपने तब अत्यन्त कठोर पीठ वाले कच्छप का शरीर धारण किया।
वज्रातिस्थिरतरकर्परेण विष्णो
विस्तारात्परिगतलक्षयोजनेन ।
अम्भोधे: कुहरगतेन वर्ष्मणा त्वं
निर्मग्नं क्षितिधरनाथमुन्निनेथ ॥७॥
| वज्र-अति-स्थिर-कर्परेण |
वज्र से भी अधिक कठोर पीठ से |
| विष्णो |
हे विष्णो! |
| विस्तारात्- |
विस्तार में |
| परिगत-लक्ष-योजनेन |
उल्लङ्घन करती हुई लाख योजनों को |
| अम्भोधे: कुहर-गतेन |
समुद्र के अन्तस्थल में गये हुए |
| वर्ष्मणा त्वं |
(इस प्रकार के) शरीर से आपने |
| निर्म्ग्नं क्षितिधरनाथम्- |
डूबे हुए पर्वतराज को |
| उन्निनेथ |
ऊपर उठा लिया |
हे विष्णो! वज्र से भी कठोर पीठ वाले और विस्तार में लाख योजन की सीमाओं का उल्लङ्घन करने वाले उस शरीर से आपने समुद्र के अन्तस्थल में जा कर डूबे हुए पर्वतराज को ऊपर उठा लिया।
उन्मग्ने झटिति तदा धराधरेन्द्रे
निर्मेथुर्दृढमिह सम्मदेन सर्वे ।
आविश्य द्वितयगणेऽपि सर्पराजे
वैवश्यं परिशमयन्नवीवृधस्तान् ॥८॥
| उन्मग्ने |
(मन्दराचल के) ऊपर आ जाने पर |
| झटिति तदा |
शीघ्र ही तब |
| धराधरेन्द्रे |
पर्वत के |
| निर्मेथु:-दृढम्-इह |
मन्थन किया जोर से यहां |
| सम्मदेन सर्वे |
उत्साह सहित सब ने |
| आविश्य |
पैठ कर |
| द्वितयगणे- |
दोनो पक्षों में |
| अपि सर्पराजे |
और सर्प राज में भी |
| वैवश्यं |
क्लान्ति को |
| परिशमयन् |
दूर हटाते हुए |
| अवीवृध: तान् |
उत्साहित किया उन लोगों को |
मन्दराचल के ऊपर आ जाने पर सब ने अति उत्साह पूर्वक जोर से मन्थन किया। आपने दोनों पक्षों और सर्पराज वासुकि में भी प्रवेश कर के सब की क्लान्ति को मिटाते हुए उनके बल को पुष्ट किया।
उद्दामभ्रमणजवोन्नमद्गिरीन्द्र-
न्यस्तैकस्थिरतरहस्तपङ्कजं त्वाम् ।
अभ्रान्ते विधिगिरिशादय: प्रमोदा-
दुद्भ्रान्ता नुनुवुरुपात्तपुष्पवर्षा: ॥९॥
| उद्दाम-भ्रमण-जव- |
अत्यन्त वेग पूर्वक घूमते हुए |
| उन्नमत्-गिरीन्द्र- |
ऊपर उठ आये गिरीन्द्र को |
| न्यस्त-एक-स्थिरतर-हस्त-पङ्कजम् |
डाल रखा था एक स्थिर हस्त कमल |
| त्वाम् |
उन आपको |
| अभ्रान्ते |
मेघमार्ग में |
| विधि-गिरिश-आदय: |
ब्रह्मा शंकर आदि |
| प्रमोदात्-उद्भ्रान्ता |
हर्ष से विमूढ हो कर |
| नुनुवु:- |
नमन किया |
| उपात्त-पुष्प-वर्षा: |
(और) डाल रहे थे पुष्प वृष्टि |
अत्यन्त वेग पूर्वक घूमते हुए ऊपर उठ आये गिरीन्द्र पर आपने एक स्थिर हस्त-कमल स्थित कर रखा था। मेघमार्ग में ब्रह्मा शंकर आदि हर्ष से अभिभूत हो गये और आपको नमन करके आपका स्तवन करते हुए पुष्पों की वर्षा करने लगे।
दैत्यौघे भुजगमुखानिलेन तप्ते
तेनैव त्रिदशकुलेऽपि किञ्चिदार्ते ।
कारुण्यात्तव किल देव वारिवाहा:
प्रावर्षन्नमरगणान्न दैत्यसङ्घान् ॥१०॥
| दैत्यौघे |
दैत्य समूहों के |
| भुजग-मुख-अनिलेन |
सर्पराज के मुख से निकले हुए अग्नि से |
| तप्ते |
संतप्त |
| तेन-एव |
उसी से |
| त्रिदशकुले-अपि |
देवों के भी |
| किञ्चित्-आर्ते |
कुछ पीडित हो जाने पर |
| कारुण्यात्-तव |
करुणा से आपकी |
| किल देव |
निश्चय ही हे देव! |
| वारिवाह: प्रावर्षन्- |
बादलों ने वर्षा की |
| अमरगणान्- |
देवों पर |
| न दैत्य-सङ्घान् |
न की दैत्य समुदाय पर |
वासुकि सर्प के मुख से निकलती हुई अग्नि से दैत्यगण संतप्त हो उठे। उसी अग्नि से देवों को भी कुछ पीडा हुई। तब आपकी करुणा से प्रेरित हो कर मेघों ने देवों पर वर्षा की, दैत्यों पर नहीं।
उद्भ्राम्यद्बहुतिमिनक्रचक्रवाले
तत्राब्धौ चिरमथितेऽपि निर्विकारे ।
एकस्त्वं करयुगकृष्टसर्पराज:
संराजन् पवनपुरेश पाहि रोगात् ॥११॥
| उद्भ्राम्यत् |
उद्वेलित होते हुए |
| बहु-तिमि-नक्र-चक्रवाले |
बहुत से तिमि नामक ग्राह समूहों के |
| तत्र-अब्धौ |
वहां उस सागर में |
| चिर-मथिते-अपि |
बहुत समय तक मथे जाने पर भी |
| निर्विकारे |
विकार रहित |
| एक:-त्वं |
एकमात्र आप |
| कर-युग-कृष्ट-सर्पराज: |
हस्त द्वय से खींचते हुए सर्पराज को |
| संराजन् |
देदीप्यमान हुए |
| पवनपुरेश |
हे पवनपुरेश! |
| पाहि रोगात् |
रक्षा करें रोगों से |
वह सागर बहुत समय तक मथित होने पर उसमें स्थित बहुत से तिमि नामक ग्राह समूह और चक्रवाल आदि तो उद्वेलित हुए किन्तु सागर में कोई विकार नहीं आया। तब एकमात्र आप अपने दोनों हस्त-कमलों से सर्पराज को खींचते हुए देदीप्यमान हुए। हे पवनपुरेश! रोगों से मेरी रक्षा करें।
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