दशक २५
स्तंभे घट्टयतो हिरण्यकशिपो: कर्णौ समाचूर्णय-
न्नाघूर्णज्जगदण्डकुण्डकुहरो घोरस्तवाभूद्रव: ।
श्रुत्वा यं किल दैत्यराजहृदये पूर्वं कदाप्यश्रुतं
कम्प: कश्चन संपपात चलितोऽप्यम्भोजभूर्विष्टरात् ॥१॥
स्तम्भे घट्टयत: |
स्तंभ पर प्रहार करते हुए |
हिरण्यकशिपो: |
हिरण्यकशिपु के |
कर्णौ समाचूर्णयन्- |
कान फट गये |
आघूर्णत्-जगत्-अण्ड-कुण्ड-कुहर: |
(और) चक्कर खाने लगे ब्रह्माण्ड के भीतर समस्त चराचर |
घोर:-तव-अभूत्-रव: |
(इस प्रकार का) अत्यन्त घोर शब्द हुआ आपका |
श्रुत्वा यं किल |
सुन कर जिसको निश्चय ही |
दैत्यराज हृदये |
दैत्यराज के हृदय में |
पूर्वं कदापि-अश्रुतं |
पहले कभी भी न सुना था |
कम्प: कश्चन संपपात |
(ऐसा) अवर्णनीय प्रकम्प उठ गया |
चलित:-अपि-अम्भोजभू:- |
विचलित हो गये ब्रह्मा जी भी |
विष्टरात् |
अपने आसन से |
हिरण्यकशिपु के स्तम्भ पर प्रहार करते ही उसमें से आपका घोर गर्जन भरा ऐसा शब्द हुआ कि उसके कान फट गये और ब्रह्माण्ड के भीतर के समस्त चराचर चक्कर खाने लगे। दैत्यराज ने ऐसा भीषण गर्जन पहले कभी नही सुना था। इसे सुन कर उसके हृदय में अवर्णनीय प्रकम्प जाग उठा। सत्यलोक में कमल जन्मा ब्रह्मा भी अपने आसन से विचलित हो गये।
दैत्ये दिक्षु विसृष्टचक्षुषि महासंरम्भिणि स्तम्भत:
सम्भूतं न मृगात्मकं न मनुजाकारं वपुस्ते विभो ।
किं किं भीषणमेतदद्भुतमिति व्युद्भ्रान्तचित्तेऽसुरे
विस्फूर्ज्जद्धवलोग्ररोमविकसद्वर्ष्मा समाजृम्भथा: ॥२॥
दैत्ये दिक्षु विसृष्ट-चक्षुषि |
दैत्य के चारों ओर दृष्टि डालते हुए |
महासंरम्भिणि |
विशेष कोलाहल के बीच |
स्तम्भत: सम्भूतं |
स्तम्भ से प्रकट हुए |
न मृगात्मकं |
न तो पशु रूप को |
न मनुजाकारं |
न ही मनुष्य रूप को |
वपु:-ते विभो |
शरीर आपका हे विभो! (देख कर) |
किं किं भीषणम्-एतत्- |
क्या! क्या! भयंकर (है) यह! |
अद्भुतम्-इति |
अद्भुत है यह, इस प्रकार |
व्युद्भ्रान्त-चित्ते-असुरे |
अति विचलित बुद्धि हो जाने पर असुर के |
विस्फूर्जत्- |
विस्फुरित होते हुए |
धवल-उग्र-रोम- |
श्वेत उग्र रोम वाले |
विकसत्-वर्ष्मा |
उज्जवल प्रकाश वाले |
समाजृम्भथा: |
(विशाल आकृति में) बढने लगे (आप नृसिंह रूप में) |
महान कोलाहल के बीच, जब चकित और विम्भ्रान्त हो कर दैत्य चारों ओर दृष्टि डालने लगा तब, स्तम्भ में से आपका स्वरूप न तो पशु रूप में, न ही मनुष्य रूप में, प्रकट हो गया। अत्यन्त विचलित बुद्धि वाला असुर 'यह भयंकर और अद्भुत क्या है, क्या है', इस प्रकार चीत्कार कर उठा। विस्फुरित होते हुए श्वेत उग्र रोम वाले तथा उज्ज्वल प्रकाश वाले आप नृसिंह रूप में प्रकट हो कर, विशाल आकृति में विकसित होने लगे।
तप्तस्वर्णसवर्णघूर्णदतिरूक्षाक्षं सटाकेसर-
प्रोत्कम्पप्रनिकुम्बितांबरमहो जीयात्तवेदं वपु: ।
व्यात्तव्याप्तमहादरीसखमुखं खड्गोग्रवल्गन्महा-
जिह्वानिर्गमदृश्यमानसुमहादंष्ट्रायुगोड्डामरम् ॥३॥
तप्त-स्वर्ण-सवर्ण- |
तप्त स्वर्ण के समान वर्ण वाले |
घूर्णत्- |
घूमते हुए |
अति-रुक्ष-आक्षं |
अत्यन्त भयंकर नेत्र वाले |
सटाकेसर प्रोत्कम्प- |
गर्दन के बाल कांपते हुए ऊपर को उठते हुए |
प्रनिकुम्बित्-अम्बरम्- |
आच्छादित करते हुए आकाश मण्डल को |
अहो जीयत्- |
अहो! जय हो! |
तव-इदं वपु: |
आपका यह स्वरूप |
व्यात्त-व्याप्त-महादरी-सख-मुखं |
चौडी बडी गहरी गुफा के समा्न मुख |
खड्ग-उग्र-वल्गन्-महा-जिह्वा-निर्गम |
खड्ग के समान उग्र लपलपाती हुई विशाल जिह्वा लटकती हुई |
दृश्यमान-सुमहा-दंष्ट्रायुग-उड्डामरम् |
दृश्यमान अत्यन्त बडे दो दन्तों से अतीव भयंकर |
अहो! जय हो! आपके उस स्वरूप की जो तप्त स्वर्ण के समान पीला है, और घूमते हुए भयंकर नेत्रों वाला है। गर्दन के बाल कांपते हुए ऊपर की ओर उठते हुए आकाश मण्डल को आच्छादित कर रहे हैं, बडी चौडी और गहरी गुफा के समान मुख है। खड्ग के समान लपलपाती हुई बडी जिह्वा दृष्यमान दो विशाल दांतों के बीच से लटकती हुई अत्यधिक भयंकर लग रही है।
उत्सर्पद्वलिभङ्गभीषणहनु ह्रस्वस्थवीयस्तर-
ग्रीवं पीवरदोश्शतोद्गतनखक्रूरांशुदूरोल्बणम् ।
व्योमोल्लङ्घि घनाघनोपमघनप्रध्वाननिर्धावित-
स्पर्धालुप्रकरं नमामि भवतस्तन्नारसिंहं वपु: ॥४॥
उत्सर्पत्-वलिभङ्ग- |
ऊपर की ओर उठे हुए त्वचा के सल |
भीषण-हनु |
भयंकर ठोडी |
ह्रस्व-स्थवीय:-तर-ग्रीवं |
छोटी और बहुत पुष्ट गर्दन |
पीवर-दोश्शत-उद्गत-नख- |
मोटे सैकडों हाथों के नखों से उठ्ती हुई |
क्रूरांशु-दूरोल्बणं |
क्रूर किरणों से अत्यन्त भयावने लग रहे थे |
व्योम-उल्लङ्घि |
आकाश का उल्लङ्घन करता हुआ |
घनाघन-उपम-घन-प्रध्वान- |
घने बादलों के समान घोर गर्जन जो |
निर्धावित-स्पर्धालु-प्रकरं |
प्रताडित कर देने वाला था शत्रु समूहों को |
नमामि |
नमन करता हूं |
भवत:-तत्-नारसिंहं वपु: |
आपके उस नृसिंह स्वरूप को |
आपके उस अद्वीतीय नृसिंह स्वरूप को मैं नमन करता हूं, जिसकी उपर उठी हुई त्वचा के सलोंहटो से ठुड्डी और भी भयंकर लग रही थी, जिसकी गर्दन मोटी और पुष्ट थी, जिसके सैंकडों मोटे हाथों के नखों से निकलती हुई किरणों से हाथ और भी भयानक लग रहे थे, और जिसका आकाश का उल्लङ्घन करते हुए घने बादलों के गर्जन के समान घोर गर्जन जो शत्रु समूहों को प्रताडित करने में सक्षम था।
नूनं विष्णुरयं निहन्म्यमुमिति भ्राम्यद्गदाभीषणं
दैत्येन्द्रं समुपाद्रवन्तमधृथा दोर्भ्यां पृथुभ्याममुम् ।
वीरो निर्गलितोऽथ खड्गफलकौ गृह्णन्विचित्रश्रमान्
व्यावृण्वन् पुनरापपात भुवनग्रासोद्यतं त्वामहो ॥५॥
नूनं विष्णु:-अयं |
निश्चय ही विष्णु है यह |
निहन्मि-अमुम्-इति |
मारूंगा इसको इस प्रकार |
भ्राम्यत्-गदा-भीषणं |
घूमाते हुए गदा को भयंकर |
दैत्येन्द्रं समुपाद्रवन्तम्- |
दैत्यराज (हिरण्यकशिपु) को (आपकी ओर) भागते हुए को |
अधृथा दोर्भ्यां पृथुभ्यां-अमुम् |
(आपने) पकड लिया दो बलशाली भुजाओं से उसको |
वीर: निर्गलित:-अथ |
वह वीर निकल कर (आपकी पकड से) तब |
खड्ग-फलकौ गृह्णन्- |
तलवार और ढाल ले कर |
विचित्र-श्रमान् व्यावृण्वन् |
विचित्र करतब करता हुआ |
पुन:-आपपात |
फिर से आ पडा |
भुवन-ग्रास-उद्यतं त्वाम्- |
विश्व को ग्रसित करने को उद्यत, आप पर |
अहो |
अहो |
”यह निश्चय ही विष्णु है, इसे मारूंगा’ इस प्रकार निश्चय कर के आपकी ओर भागते हुए उस दैत्यराज हिरण्यकशिपु को आपने दो बलिष्ठ भुजाओं से पकड लिया। अहो! फिर वह वीर आपकी पकड से निकल कर तलवार और ढाल ले कर विचित्र करतब करता हुआ, विश्व को ग्रसित करने को उद्यत आप के ऊपर टूट पडा।
भ्राम्यन्तं दितिजाधमं पुनरपि प्रोद्गृह्य दोर्भ्यां जवात्
द्वारेऽथोरुयुगे निपात्य नखरान् व्युत्खाय वक्षोभुवि ।
निर्भिन्दन्नधिगर्भनिर्भरगलद्रक्ताम्बु बद्धोत्सवं
पायं पायमुदैरयो बहु जगत्संहारिसिंहारवान् ॥६॥
भ्राम्यन्तम् दितिज-अधमम् |
घूमते हुए दैत्य अधम को |
पुन:-अपि |
फिर से |
प्रोद्गृह्य दोर्भ्यां जवात् |
दोनों हाथों से पकडते हुए शीघ्र ही |
द्वारे-अथ-उरुयुगे निपात्य |
द्वार (के बीच) में और दोनों जङ्घाओं पर डाल कर |
नखरान् व्युत्खाय वक्षोभुवि |
नखों को गडाते हुए वक्षस्थल में |
निर्भिन्दन्- |
चीरते हुए |
अधि-गर्भ-निर्भर-गलत्-रक्त-अम्बु |
भीतर से निकलते हुए रक्त जल को |
बद्धोत्सवं पायं पायम्- |
उल्लास पूर्वक पी पी कर |
उदैरय: बहु |
उच्चारित किया अनेक बार |
जगत्-संहारि-सिंह-आरवान् |
जगत का संहारकारी सिंह नाद को |
घूमते हुए उस दैत्य अधम को आपने दोनों हाथों से स्फूर्ति से पकड लिया और शीघ्र ही उसे द्वार के बीच में ले जा कर अपनी दोनों जङ्घाओं के ऊपर डाल लिया। उसके वक्षस्थल में अपने नखों को गडा कर आपने उसे चीर डाला और उसके भीतर से निकलते हुए रक्त रूपी जल को उल्लास पूर्वक पी पी कर, अनेक बार जगत संहारकारी सिंहनाद किया।
त्यक्त्वा तं हतमाशु रक्तलहरीसिक्तोन्नमद्वर्ष्मणि
प्रत्युत्पत्य समस्तदैत्यपटलीं चाखाद्यमाने त्वयि ।
भ्राम्यद्भूमि विकम्पिताम्बुधिकुलं व्यालोलशैलोत्करं
प्रोत्सर्पत्खचरं चराचरमहो दु:स्थामवस्थां दधौ ॥७॥
त्यक्त्वा तं हतम्- |
छोड कर उसको जो मारा गया था |
आशु |
शीघ्रता से |
रक्त-लहरी-सिक्त-उन्नमत्-वर्ष्मणि |
रक्त के फुहांरों से सींचे गये विशाल शरीर वाले |
प्रत्युत्पत्य |
(आप) उछ्ल कर |
समस्त-दैत्य-पटलीम् |
समस्त दैत्यों के समूह को |
च-आखाद्यमाने त्वयि |
और खाये जाने पर आपके (द्वारा) |
भ्राम्यद्-भूमि |
घूमने लगी भूमि |
विकम्पित-अम्बुधिकुलम् |
कंपित हो उठे सागर समूह |
व्यालोल-शैल-उत्करम् |
डोलने लगी पर्वत मालायें |
प्रोत्स्रर्पत्-खचरम् |
अस्थिर हो गये ग्रह नक्षत्र |
चराचरम्- |
और चल और अचल समुदाय में |
अहो |
अहो |
दु:स्थाम्-अवस्थां दधौ |
दुरवस्था फैल गई |
हिरण्यकशिपु, जो आपके द्वारा मारा गया था, उसको छोड कर, रक्त की फुहारों से सींचे गये विशाल शरीर वाले आप वेग से समस्त दैत्य समूह को खाने लगे। पृथ्वी घूमने लगी, सागर समूह विकम्पित हो गया, पर्वत मण्डल डोलने लगे, आकाश गामी ग्रह नक्षत्र और चराचर विचलित हो उठे। अहो! कैसी दुर्व्यवस्थित दशा छा गई!
तावन्मांसवपाकरालवपुषं घोरान्त्रमालाधरं
त्वां मध्येसभमिद्धकोपमुषितं दुर्वारगुर्वारवम् ।
अभ्येतुं न शशाक कोपि भुवने दूरे स्थिता भीरव:
सर्वे शर्वविरिञ्चवासवमुखा: प्रत्येकमस्तोषत ॥८॥
तावत्- |
तब तक |
मांस-वपा-कराल-वपुषम् |
मांस मज्जा से (सने) वीभत्स शरीर वाले (आपको) |
घोर-अन्त्र-माला-धरम् |
भयानक आंतों की माला को धारण किये हुए |
त्वां मध्ये-सभम्- |
आपको मध्य में सभा के |
इद्ध-कोपम्-उषितम् |
महान क्रोध में बैठे हुए |
दुर्वार-गुर्वा-रवम् |
लगातार सिंहनाद करते हुए |
अभ्येतुम् न शशाक |
के निकट जा न सके |
क:-अपि भुवने |
कोई भी संसार में |
दूरे स्थिता भीरव: सर्वे |
दूर खडे हुए डरे हुए सभी |
शर्व-विरिञ्च-वसवमुखा: |
शंकर, ब्रह्मा इन्द्र आदि प्रमुख |
प्रत्येकम्-अस्तोषत |
प्रत्येक ने आपकी स्तुति की |
तत्पश्चात, मांस मज्जा से सने हुए वीभत्स शरीर वाले, भयानक आंतों को गल-हार की तरह धारण किये हुए, महान क्रोध में भरे हुए तथा मध्य सभा में बैठे हुए निरन्तर सिंहनाद-सम गर्जन करते हुए आपके निकट संसार में कोई भी नहीं जा सका। दूर खडे हुए और डरे हुए शंकर, ब्रह्मा, इन्द्र आदि प्रत्येक प्रमुख ने आपको शान्त करने के लिए आपकी स्तुति की।
भूयोऽप्यक्षतरोषधाम्नि भवति ब्रह्माज्ञया बालके
प्रह्लादे पदयोर्नमत्यपभये कारुण्यभाराकुल: ।
शान्तस्त्वं करमस्य मूर्ध्नि समधा: स्तोत्रैरथोद्गायत-
स्तस्याकामधियोऽपि तेनिथ वरं लोकाय चानुग्रहम् ॥९॥
भूय:-अपि- |
और फिर भी |
अक्षत-रोष-धाम्नि |
अटूट रोष में स्थित |
भवति |
आपके |
ब्रह्मा-आज्ञया |
ब्रह्मा की आज्ञा से |
बालके प्रह्लादे पदयो:-नमति |
(जब) बालक प्रह्लाद ने(आपके) चरणों में नमन किया |
अपभये |
भयरहित हो कर |
कारुण्य-भार-आकुल: |
(तब) करुणा से अत्यन्त विचलित हो कर |
शान्त:-त्वं |
शान्त हुए आपने |
करम-अस्य मूर्ध्नि समधा: |
हाथ को उसके सर पर रख दिया |
स्तोत्रै:-अथ-उद्गायत:-तस्य |
स्तोत्रों का गान करते हुए उसके |
अकामम्-धिय:-अपि |
निष्काम हृदय होने पर भी |
तेनिथ वरं |
प्रदान किया वर |
लोकाय च-अनुग्रहम् |
लोको के अनुग्रह के लिये |
इस पर भी, जब आपका क्रोध लेशमात्र भी कम नहीं हुआ, तब ब्रह्मा की आज्ञा से निर्भय बालक प्रह्लाद ने आपके चरणों में नमन किया। करुणा के वेग से अत्यन्त विचलित हुए शान्त हो कर आपने उसके सर पर अपना हाथ रख दिया। स्तोत्रों का गान करते हुए निष्काम हृदय प्रह्लाद को आपने लोक कल्याण के लिए वर प्रदान किया।
एवं नाटितरौद्रचेष्टित विभो श्रीतापनीयाभिध-
श्रुत्यन्तस्फ़ुटगीतसर्वमहिमन्नत्यन्तशुद्धाकृते ।
तत्तादृङ्निखिलोत्तरं पुनरहो कस्त्वां परो लङ्घयेत्
प्रह्लादप्रिय हे मरुत्पुरपते सर्वामयात्पाहि माम् ॥१०॥
एवं |
इस प्रकार |
नाटित-रौद्र-चेष्टित |
नाट्य स्वरूप रौद्र अभिनय (करने वाले) |
विभो |
प्रभु! |
श्रीतापनीय-अभिध-श्रुति-अन्तस्फ़ुट- |
श्री तापनीय नामक उपनिषद के अन्तर्गत |
गीत-सर्व-महिमन्- |
गान है (आपकी) सब महिमा का |
अत्यन्त-शुद्ध-आकृते |
अत्यन्त शुद्ध आकृति वाले |
तत्-तादृक्-निखिल-उत्तरम् |
आप जैसे सर्वोत्कृष्ट |
पुन:-अहो |
फिर अहो! |
क:-त्वां पर: लङ्घयेत् |
कौन आपसे श्रेष्ठ हो सकता है |
प्रह्लादप्रिये |
हे प्रह्लादप्रिय! |
हे मरुत्पुरपते |
हे मरुत्पुरपते! |
सर्व-आमयात्-पाहि माम् |
सभी तापों से मुक्त कीजिये मुझे |
इस प्रकार नाट्यस्वरूप आपने रौद्र रस का अभिनय किया। श्री तापनीय नामक उपनिषद में वर्णित स्तुतियों में आपकी सभी महिमाओं का गान किया गया है।आप अत्यन्त शुद्ध आकृति वाले हैं आपकी महिमा का उल्लङ्घन कौन कर सकता है? हे प्रह्लादप्रिय! हे मरुत्पुरपते! मुझे सभी तापों से मुक्त कीजिये।
|